बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ प्राकृतिक स्रोतों, संसाधनों और उससे जुड़े आम अवाम के रोजगार को हवाले करने का खेल देश में शुरू हो चुका है। इस खेल में पहले समाज की सहमति के बगैर कुछ सुविधा सम्पन्न लोग अच्छा-बुरा सब कुछ अपनी शर्तों पर तय कर लेते हैं। बाद में जब नकारात्मक परिणाम सामने आने लगते हैं, तब इसका खामियाजा भी गरीब तबके के खाते में डाल दिया जाता है।
उड़ीसा सरकार ने पिछले दिनों दक्षिण कोरिया की एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ‘पोहांग स्टील कम्पनी’ (पोस्को) को लौह अयस्क के उत्पादन के लिये मंजूरी दे दी। बड़ी परियोजनाओं की प्रस्तावना में योजनाकार हमेशा बड़े सपने दिखाने की चेष्टा करते हैं, जबकि वे लम्बे दौर में बेरोजगारी, विस्थापन, प्रदूषण, सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं को जन्म देने वाले साबित हुए हैं। इस परियोजना की प्रस्तावना में भी पटनायक सरकार ने उड़ीसा के चौमुखी विकास एवं रोजगार के अवसर बढ़ाने के बहुत लम्बे-चौड़े वायदे कर दिये हैं। यहाँ से ‘पोस्को’, लौह अयस्क निकालकर कोरिया के इस्पात संयंत्रों के लिये निर्यात करेगी। सरकार उड़ीसा के लोगों से कह रही है कि इस परियोजना से कम-से-कम 12,000 लोगों को काम के अवसर उपलब्ध कराए जाएँगे, लेकिन स्थानीय लोगों को राज्य सरकार की असंवेदनशीलता का अहसास है। वे इसका अपने स्तर से विरोध भी कर रहे हैं। पहले के हीराकुण्ड, नाल्को और राउरकेला परियोजना के कड़वे अनुभवों के बाद वे फिर कोई धोखा नहीं खाना चाहते हैं। इन परियोजनाओं से विस्थापित हुए लोगों का आज तक पुनर्वास नहीं हो पाया है।सच तो यह है कि ‘पोस्को’ में भी मात्र दो-तीन हजार लोगों से ज्यादा को नौकरी नहीं मिलने वाली। एक लाख से भी ज्यादा लोगों की तबाही के बिना पर कुछ लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने का क्या औचित्य है? इस परियोजना से लगभग 50 हजार लोग प्रत्यक्ष तौर पर और एक लाख से भी ज्यादा लोग अप्रत्यक्ष तौर पर किसी-न-किसी रूप में पीड़ित और प्रभावित होंगे। इसके बावजूद सरकार इसलिये इस परियोजना को लागू चाहती है, क्योंकि इससे असमानता की खाई बढ़े और ऐसे समाज में सत्ता द्वारा तानाशाही का कारोबार चला पाना आसान हो जाता है। ‘पोस्को’ कम्पनी के साथ हुए उड़ीसा सरकार के समझौतों के अनुसार भुवनेश्वर में मुख्य कार्यालय के लिये 20-25 एकड़ जमीन उपलब्ध कराई गई है। समझौतों के आधार पर उसे 4,000 एकड़ जमीन अपना बन्दरगाह बनाने के लिये और 2,000 एकड़ जमीन कॉलोनी बनाने के लिये मिलना तय हुआ है। इसको लेकर आम जनमानस और बुद्धिजीवी वर्ग के मन में सरकार के प्रति बहुत नाराजगी है। सरकार के इस जनविरोधी रवैए और जनता के प्रति झूठे प्रेम की पड़ताल निहायत जरूरी है।
संयंत्र के लिये ऐरसामा और जगतसिंहपुर जिलों की तीन पंचायतों को तबाह किया जा रहा है। सुखद बात यह है कि वहाँ का समाज यूँ ही घुटने टेकने को तैयार नहीं है। वह इस अन्याय का प्रतिकार भी कर रहा है। वहाँ की जनता संविधान में दिये गए जीने के अधिकारों को छोड़ना नहीं चाहती है और अपनी धरती पर किसी का हस्तक्षेप भी नहीं चाहती। ऐरसामा प्रखण्ड के नौजवान कालिया के शब्दों में, ‘‘हमारा मुखिया ‘पोस्को’ के हाथों बिक गया है। पहले वह भी अपनी धरती पर ‘पोस्को’ को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हो रहा था, पर अब वह उलटे बोल बोलने लगा है, लेकिन हमारा हौसला इन बातों से कम नहीं हुआ है, इसलिये हम जरूर लड़ेंगे।’’
अफसोस तो यह है कि समाज के गरीब और मजदूर अपनी लड़ाई के लिये जिस बौद्धिक तबके से उम्मीद लगाए बैठे हैं, वह खुद अपनी तकलीफों में घिरा है। वस्तुतः वह इसी भ्रम में जी रहा है कि चरमराती व्यवस्था से भी कुछ हासिल किया जा सकता है। यह तबका सड़क, सिंचाई और स्वास्थ्य आदि के नाम पर अरबों-खरबों की परियोजना मानकर खुश होता रहता है। सच तो यह है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा अपने को असुरक्षित महसूस करने लगा है। दूसरा तथ्य यह भी है कि इस मध्यवर्गीय समाज के बुद्धिजीवियों ने दुनिया के लगभग सारे परिवर्तनों में अपनी भागीदारी की है। उड़ीसा में लगभग 48,330 लाख टन लौह अयस्क का भण्डार मौजूद है, जो समस्त भारत के कुल भण्डार का लगभग 32.09 प्रतिशत है। लौह अयस्क के इस अक्षुण्ण भण्डार की बिक्री पटनायक सरकार ने अन्तरराष्ट्रीय बाजार की तत्कालीन दर से बहुत कम पर कर दी है। इसमें अनुमानतः एक लाख 32 हजार करोड़ का घाटा होना है, जबकि नवनिर्माण शोध इकाई की मानें तो यह घाटा 2,94,135 करोड़ रुपए का होगा। हमारा लौह अयस्क गुणवत्ता में श्रेष्ठ होने के बावजूद घाटे में क्यों बेचा जा रहा है? यहाँ पाये जाने वाले लौह अयस्क में 62 फीसदी लोहा पाया जाता है, जो गुणवत्ता के पैमाने पर भूगोलविदों द्वारा खरा बताया गया है। इस सबके बावजूद राज्य सरकार ने ‘पोस्को’ को लौह अयस्क के इस संचित भण्डार के दोहन के लिये 30 साल का पट्टा मात्र 52 हजार करोड़ रुपए में दे दिया है। इस्पात संघ के सचिव बीनू सेन के अनुसार कई राज्य ऐसे भी हैं, जहाँ लौह अयस्क का कोई भण्डार नहीं है। अतः उड़ीसा सरकार को पूरे राष्ट्र की सहमति लेनी चाहिए थी। हालांकि वे यह भी मानती हैं कि खनन और उत्पादन का मामला राज्य के अन्तर्गत आता है। इस दलील को अगर मान भी लें और थोड़ी देर के लिये केवल उड़ीसा के हित में ही सोचें तो भी किसी जनतांत्रिक सरकार के लिये घाटे का सौदा करना सम्भव नहीं है।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ प्राकृतिक स्रोतों, संसाधनों और उससे जुड़े आम अवाम के रोजगार को हवाले करने का खेल देश में शुरू हो चुका है। इस खेल में पहले समाज की सहमति के बगैर कुछ सुविधा सम्पन्न लोग अच्छा-बुरा सब कुछ अपनी शर्तों पर तय कर लेते हैं। बाद में जब नकारात्मक परिणाम सामने आने लगते हैं, तब इसका खामियाजा भी गरीब तबके के खाते में डाल दिया जाता है। दरअसल उड़ीसा में ‘पास्को’ का पदार्पण भी इसी खेल का हिस्सा है और उसे समाज का बहुत ही छोटा-सा सुविधाविहीन तबका समझ पा रहा है। ‘पास्को’ परियोजना से स्थानीय लोगों का पारम्परिक धान, अंगूर, काजू, चावल व मछली का धन्धा बुरी तरह से प्रभावित हो जाएगा और उन्हें प्रतिवर्ष लगभग पाँच करोड़ रुपए का नुकसान होगा। पर्यावरण के अनुसार इस परियोजना से पारादीप, कुजांग और ऐरसामा (आदिवासी बहुल इलाके) का पारिस्थितिकीय सन्तुलन बिगड़ेगा। वहाँ के तापमान में वृद्धि होने से चक्रवात की सम्भावनाओं में बढ़ोत्तरी की भी आशंका व्यक्त की जा रही है। सन 1999 में आये समुद्री चक्रवात से ऐरसामा में 10 हजार से भी ज्यादा लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। उसकी याद आते ही आज भी लोगों की आँखों में वह भयावह मंजर तैरने लगता है।
अकारण नहीं है कि वहाँ पदयात्रा और प्रदर्शन हो रहे हैं। ‘युवा भारत’ संगठन के नेतृत्व में जुटे कई जनसंगठनों ने वहाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ मुहिम खड़ी की है। ‘पास्को’ कम्पनी ने जनसंगठनों के युवा नेताओं से समझौते की पेशकश शुरू कर दी है, परन्तु वे किसी समझौते को तैयार नहीं दिखते। इसे संघर्ष की जीत के रूप में देखना थोड़ी जल्दबाजी होगी, लेकिन इसे जीत के एक आगाज के रूप में तो देखा ही जा सकता है।
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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