उच्छल जलधि तरंग


प्रतिदिन घर के बाहर-भीतर सीढ़ियाँ आदि सबमर्सिबल चला कर धोना आम बात है। जो काम एक-दो बाल्टी से हो सकता है, उसमें इतना पानी व्यर्थ बहाना क्या बुद्धिमानी है? क्या सबमर्सिबल चलाकर हम ऊर्जा का दुरुपयोग नहीं करते? क्योंकि इन इलाकों में पानी की कमी नहीं होती अतः पानी व्यर्थ करना इनका जन्म सिद्ध अधिकार है।

जल पुराने जमाने में कुओं, तालाबों, जोहड़ों से मनुष्य की जल सम्बन्धी जरूरतों की आपूर्ति होती थी, इसीलिये मनुष्य इन सब चीजों का संरक्षण सामुदायिक रूप से करता था। उदाहरण के लिये कुओं को ढँककर रखना ताकि उसमें बारिश का पानी सीधा न गिरे और धूल गन्दगी न गिरे, तालाबों की वर्षा से पहले सफाई करना और उससे निकली मिट्टी से अपने मिट्टी के मकानों को और मज़बूत बनाना ताकि मकान वर्षा ऋतु को झेल सकें आदि। नदियों की स्वच्छता का ध्यान रखा जाता था। प्यास लगने पर कुओं से ठंडा पानी निकाल कर पीना जैसी बातों की तो आज का मानव सिर्फ कल्पना ही कर सकता है।

धीरे-धीरे विकास का पहिया चलता रहा, सीमेंट के मकान बने, सरकारी टंकियों से पानी आने लगा। बिना मेहनत करे ढेर सारा पानी मिलने लगा। कुएँ, तालाब, जोहड़ की परवाह अब कौन करे? धीरे-धीरे यह सूखने लगे। कच्ची सड़कें पक्की सड़कों में बदली, रासायनिक उर्वरक आये, मशीनें आईं और खेती आधुनिक हो गई फिर हरित क्रान्ति की धूम मच गई। फैक्टरियाँ लगती गई और अपना गन्दा पानी नदियों में फेंकती गई। खेतों की सिंचाई के लिये भूजल का दोहन आरम्भ हुआ तो कुकरमुत्तों की तरह ट्यूबवेल लगे। जमीन के नीचे और अधिक सस्ता पानी मिलता तो अब जितना चाहे खर्च करें, कोई पूछने वाला नहीं। वर्ष-दर-वर्ष बीतते गए। तालाब, जोहड़, कुएँ सूखते गए, लोगों को उसकी ज़रूरत ही नहीं थी। धीरे-धीरे ट्यबवेल फेल होने लगते तो जमीन में और गहरा बोरिंग करके पानी निकाला जाने लगा, पर मुनष्य ने यह नहीं सोचा कि आगे पानी का भविष्य क्या होगा? धीरे-धीरे भूजलस्तर गिरने लगा। भूजल ‘जल’ का शुद्ध रूप होता है, लेकिन गहराई बढ़ते जाने से इसमें घुलनशील पदार्थों की मात्रा बढ़ने लगी। यह पानी पीने में नुकसान पहुँचाने लगा, नलों से आने वाले पानी में अशुद्धियाँ बढ़ने लगी तब चलन हुआ वाटर फिल्टर, एक्वागार्ड, आर.ओ., लगवाने का। फिर बोतलों में बन्द होकर पानी 15 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से मिलने लगा। लगभग मुफ्त प्रचुर मात्रा में उपलब्ध वस्तु का यह हाल हम सबने किया।

क्षतिग्रस्त टोंटियों से बर्बाद होते जल पर रोक लगाएं गंगा किनारे रह कर गंगाजल से स्वास्थ्य लाभ करने वालों के लिये यह देखना बहुत कष्टकर था कि गंगाजल आचमन करने लायक भी नहीं रहा। यमुना आदि सभी नदियों की हालत ऐसी ही थी। कागज के लिफाफों के चलन के खत्म होने से प्लास्टिक के पैकेटों की बाढ़ आई और नदी-नालों सभी को प्रदूषण की सौगात दे गई। जब हालात बद-से-बदतर हुए तब हमने जागना शुरू किया, नदियों की सफाई के लिये प्रयास शुरू हुए और जूट के थैलों का चलन शुरू हुआ। विश्व पर्यावरण दिवस, विश्व जल दिवस मनाकर जागरुकता अभियान चलाए जाने लगे। लेकिन आज भी तथाकथित पाॅश काॅलोनियों की हकीकत देखकर आँखों में आँसू आ जाते हैं।

जहाँ पानी के तीसरे विश्व युद्ध की सम्भावना व्यक्त की जाती है, बहुत से क्षेत्रों में लोग बूँद-बूँद पानी से बाल्टियाँ भरते हुए या पानी के टैंकरों का इन्तजार करते दिखते हैं, वहीं पाॅश कालोनियों में रहने वालों के सड़क किनारे से गेट तक के सीमेंट के बने फर्श वर्षा का पानी ज़मीन में जाने से तो रोकते ही हैं साथ ही उन पर कारें खड़ी कर सबमर्सिबल चलाकर गैलनों पानी बहाकर कारों की प्रतिदिन धुलाई होती है। पानी सड़क पर बहता रहता है या खड़ा रहता है। सड़कें डामर की बनी होती है, रुका हुआ पानी उन्हें बहुत जल्दी खराब करता है अतः बनने के कुछ माह में ही उखड़ जाती है। प्रतिदिन घर के बाहर-भीतर सीढ़ियाँ आदि सबमर्सिबल चलाकर धोना आम बात है।

पानी को व्यर्थ में न बहाएंजो काम एक दो बाल्टी से हो सकता है, उसमें इतना पानी व्यर्थ बहाना क्या बुद्धिमानी है? क्या सबमर्सिबल चलाकर हम ऊर्जा का दुरुपयोग नहीं करते? क्योंकि इन इलाकों में पानी की कमी नहीं होती अतः पानी व्यर्थ करना इनका जन्म सिद्ध अधिकार है। क्या इस प्रकार कार धोने वालों पर जुर्माना नहीं होना चाहिए? जो पानी पीने के काम आता है उसको घर-बाहर व्यर्थ करना क्या उचित है? क्या धुलाई व पीने के पानी के लिये अलग-अलग पानी की सप्लाई के नियम नहीं होना चाहिए? पानी कीमती वस्तु है यह हमें मानना होगा और व्यवहार में भी दिखाना होगा। अपने घर, अपने बाग-बगीचों और अपने खेतो में ऐसी तकनीक का इस्तेमाल करना होगा जिससे पानी की बचत हो। वर्षाजल का संरक्षण करना होगा और पानी का दुरुपयोग रोकने के लिये कड़े कानून बनाने होंगे। खुली टोंटियों व फटी पाइप लाइन से बहते पानी को रोकने के लिये तत्काल कदम उठाने होंगे। दूषित जल को भूगर्भ में पहुँचाने वालों को सजा मिलनी चाहिए क्योंकि अनेक उद्योग अपने दूषित जल को साफ-स्वच्छ बनाने में आने वाले खर्च से बचने के लिये गन्दा पानी पृथ्वी के अन्दर पहुँचा रहे हैं।

जब मानव अन्तरिक्ष के बाहर जीवन के लक्षणों की तलाश करता है तो सबसे पहले जल की उपस्थिति का पता लगाता है। पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत जल में हुई थी। अब यदि हम अपने जलस्रोतों को बर्बाद करते हैं तो जीवन के बचे रहने की क्या गारंटी होगी?

फटे पाइप लाइनों की मरम्मत जरूरी है

जल व जल प्रदूषण से जुड़े हाइकू


1. बहती नदी सिखाए जीवन को ठहरो नहीं।
2. जमी बर्फ में मछली पकड़ना अनोखा काम।
3. कीचड़ मिला जब नदी से जल दूषित।
4. दौड़ती रेल गन्दगी भरे नाले कैसा नजारा?
5. लाई नदियाँ कचरे की सौगात सागर के पास।

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डाॅ. अर्पिता अग्रवाल, ‘काकली भवन’ 120-बी/2, साकेत, मेरठ - 250 003 (उत्तर प्रदेश)

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