तीर्थ स्थानों का मूल स्थम्ब है जल

पंचमहाभूतों के संतुलन से ही है जीवनचक्र
पंचमहाभूतों के संतुलन से ही है जीवनचक्र

तीर्थ विज्ञान

'तीर्थ' तीन कारणों से पवित्र माने जाते हैं, जैसे- स्थल की कुछ आश्चर्यजनक प्राकृतिक विशेषताओं के कारण, या किसी जलीय स्थल की अनोखी रमणीयता के कारण, या किसी तपः पूत ऋषि या मुनि के वहां स्नान करने, तप साधना करने आदि के लिए वास के कारण।

अतः शास्त्रीय मान्यता के अनुसार तीर्थ का सरल अर्थ ऐसा स्थल या जलयुक्त स्थान, नदी, कुंड, प्रपात, जलाशय आदि है, जो अपने विलक्षण स्वरूप के कारण आत्म चिंतन एवं स्वनिर्मलीकरण की भावना को जागृत करे। इसके लिए ऐसे स्थान पर शालिग्राम आदि का होना अनिवार्य नहीं है।

अनेक वैदिक-पौराणिक विवरणों से यह स्पष्ट है कि तीर्थ जल का पर्याय है। सामान्य अर्थ में जल का किनारा या तीर ही शास्त्रीय तीर्थ और लोक परंपरा का तीरथ है। शास्त्रीय परंपरा के अनुसार 'तीर्थ' अत्यंत व्यापक अवधारणा है, जो गुरु और संत महात्माओं की क्षमताओं को भी प्रभावित करती है। संक्षेप में तीर्थ पंचतत्त्व की लयात्मक पारंपरिकता (यज्ञ-व्यवस्था) या प्राकृतिक यज्ञ का सहज सौंदर्य है।

वैदिक मान्यताओं के अनुसार 'पंचतत्त्व-यज्ञ' की कलात्मक, सुंदर, मनोहर अभिव्यक्ति ही तीर्थ है। वैदिक सिद्धांत में तीर्थ ऐसे स्थल के रूप में भी परिभाषित किये गये हैं, जहां पंच तत्त्व सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु एवं आकाश किसी विलक्षणता के साथ प्रस्फुटित हों। यानी तीर्थ पंचतत्त्व की पारस्परिकता (जिजमानी) या प्राकृतिक यज्ञ से उत्पन्न विलक्षण सृष्टि का सुपरिणाम है।

भक्तिकाल में विकसित लोक परंपराओं में तीर्थ ईश्वर दर्शन यानी परम पुरुष या प्रकृति की कृपा, अनुकम्पा से तादात्म्य और पिता रूप परमेश्वर या मां-स्वरूपा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का सरल और सहज मार्ग है इसीलिए हिन्दुस्तानी गांव में जहां कुआं है या अन्य कोई जल स्रोत है, वहीं मंदिर और शिवालय हैं। जहां घट और घाट, वहीं तीरथ। इसी वैदिक एवं लोक विज्ञान की परिभाषा महात्मा कबीर दास ने भी की थी 'तीरथ में भई पानी ।'

इस प्रकार तीर्थ विज्ञान के अनुसार लौकिक जीवन या मायावती संसार में जल समस्त जीवन का आधार है। पंचतत्त्व के पारस्परिक यज्ञ / बलिदान/आहुति का मूल माध्यम जल ही है। इस प्राकृतिक यज्ञ प्रक्रिया के लिए जल का पवित्र और निर्मल होना अनिवार्य है। जल की पवित्रता, निर्मलता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए शौच, अशौच, शुद्ध-अशुद्ध की विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की गई थी। पंचतत्त्व यज्ञ में मूल उत्प्रेरक तत्त्व के रूप में जल की अनिवार्य निर्मलता के कारण ही जल को पवित्रता और पुण्य का कारक माना गया।

अनिवार्य निर्मलता के कारण ही जल में स्वनिर्मलीकरण की प्रकृति निहित है। यह आम जानकारी की बात है कि पानी बहते-बहते स्वच्छ होता रहता है। ठहरा जल भी वायु के वेग से हिलोरें लेकर निर्मलीकरण का प्रयास करता है। यूं भी सालाना चक्र में पानी स्वयमेव भाप बनकर, भाप से बादल बनकर और फिर बरस कर स्व-निर्मलीकरण की प्रक्रिया को निरंतर कायम रखता है। इस स्व-निर्माल्य प्रकृति के कारण भी जल को पवित्रता और पुण्य का कारक माना गया। इसलिए जलयुक्त तीर्थ को पाप नाशक, पुण्यकारक और पुण्य हेतु प्रेरणादायी माना गया। तीर्थ में स्नान का यही महत्त्व है कि मनुष्य जल का स्वनिर्मलीकरण गुण ग्रहण करें।

जल स्मृतिकार भी है। जैसे अग्नि की साक्षी दी जाती है, वैसे ही संकल्प करते समय इस भाव के साथ हाथ में जल ले कर संकल्प या प्रतिज्ञा की जाती है कि अवसर आने पर जल मुझे संकल्प या प्रतिज्ञा का स्मरण  दिलायेगा। इसका दूसरा अंदरूनी पक्ष यह भी है कि साधना या अनुष्ठान के समय समस्त जल राशि का स्मरण करते ही मनुष्य होश में आ जाता है और साक्षी रूपी जल पूर्व संकल्प को स्मरण कराने वाला स्मृतिकार हो जाता है।

तीर्थ दर्शन के लौकिक सिद्धांत के संदर्भ में यह समझना आवश्यक है कि तीर्थ यात्री या दर्शनार्थी की भावना में समानता होते हुए भी यह न तो ईसाइयत का 'पिलग्रिमेज' है, और न ही इस्लामी अरब का 'हज'। तीर्थ विज्ञान समस्त गोचर जीवन के विलक्षण एवं अनिवार्य आधार, जल के माध्यम से जीवन और जगत की निरंतरता का मूर्त सिद्धांत है। इसीलिए हिन्दू लोक परंपरा में जहां जल है, वहीं तीर्थ है। गांव के कुएं, जोहड़ से लेकर झील, सरोवर, जल प्रपात, नदी, समुद्र तक पानी का हर स्थान लोक परंपरा और शास्त्रीय धारणा का तीर्थ है। राजस्थान की पुरानी हवेलियों में ठाकुर जी का आला और घड़ौंची (पानी रखने का स्थान) अगल-बगल बनायी जाती थीं, दक्षिण भारत में जल के लिए प्रचलित शब्दों में एक आम शब्द तीर्थ ही है। प्रत्येक धार्मिक कृत्य और संस्कार के लिए उपयुक्त स्थल तीर्थ ही है। संस्कार विवाह का हो या नित्य श्राद्धकर्म का वरुणदेव के साक्षी के रूप में प्रत्यक्ष तीर्थ का स्थापित किया जाना अनिवार्य संस्कार विधि है। घट, कलश या लोटे में स्थापित किया गया जल वरुणदेव के रूप में समस्त तीर्थों का प्रतिनिधित्व करता है।

अधिकांश भारतीय तीर्थ (सनातनी, जैन, बौद्ध, हिन्दू, सूफी आदि) रमणीक पहाड़ पहाड़ियों, नदी-नालों, झील-तालाब या समुद्र के किनारों पर स्थापित किये गये। इस परंपरा में प्राकृतिक संपदा को सुरक्षित और पूर्णतया सार्वजनिक बनाये रखने का विधान था। तीर्थों में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग तो खुल कर किया जा सकता था लेकिन निजीकरण के माध्यम से शोषण या दुरुपयोग नहीं। गंगा-यमुना के तटों पर अस्पृश्यता लागू नहीं हो सकती थी। नदियों के घाट बिना किसी भेद-भाव के सभी के लिए समान रूप से खुले थे। गंगा, यमुना अन्य पवित्र नदियों के तटों पर निजी संपत्ति का विकास 100-125 वर्ष से अधिक पुराना नहीं। तीर्थ स्थलों पर 'आधुनिक हिन्दू' ही निजी संपत्ति का विकास कर सकता है, पारंपरिक हिन्दू तीर्थ स्थलों पर सार्वजनिक घाट और धर्मशाला का निर्माण करता था।

यह सहज स्वाभाविक है कि जल को ईश्वर मानने वाले देश में समस्त नदियां गंगा का प्रतिरूप हैं और महानदी गंगा की तरह आराध्य मातृ-देव रूप में प्रतिष्ठित है। गंगा माता अपनी अनेक विलक्षणताओं के कारण पृथ्वी पर समस्त जल और जलधाराओं का पूंजीभूत रूप है, वही नर्मदा है, वही कावेरी, वही ब्रह्मपुत्र है, वही गोदावरी। भारतीय धर्म संस्कृति में भौतिक जीवन और अध्यात्म में अभेद है, गंगा इसी अभेद का मूर्तिमान रूप है। गंगा नदी की अवधारणा में अध्यात्म और भौतिकता / ऐहिकता शिव-पार्वती की तरह, राम और सीता की तरह, राधा और कृष्ण की तरह अभिन्न हैं। गंगा एवं समस्त नदियों की भौतिक पवित्रता उनकी तथा समाज की आध्यात्मिक चेतना और पुण्य भावना को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है, ठीक उसी तरह जैसे कि गंगा और समस्त जल धाराओं की आध्यात्मिक शक्ति समाज एवं जल की भौतिक निर्मलता के लिए आवश्यक है। भौतिक और अध्यात्म की यह अभिन्नता उस त्रिवेणी सभ्यता (गंगा यमुना सरस्वती) की प्रतीक है, जिसकी अनुपालना के फलस्वरूप भारत भूमि को आज से 300 बरस पूर्व तक सोने की चिड़िया कहा जाता था। हमारी विस्मृति ही हमारे दारिद्रय भाव का कारण और लक्षण है।

भूमितीर्थ और मानस तीर्थ के संयुक्त कर्म में ऐसी सामर्थ्य है, जिससे समुचित, समग्र नवनिर्माण की योजना क्रियान्वित की जा सकती है। तीर्थ मात्र पृथ्वी की यात्रा का ही नहीं अपितु अंतरमन की यात्रा का पर्याय भी है। पौराणिक मान्यता है कि भौम तीर्थों के अतिरिक्त ऐसे सदाचार, शील-आचार भी हैं, जिन्हें आलंकारिक रूप में मानस तीर्थ कहा जाता है, जैसे- सत्य, क्षमा, इन्द्रिय संयम, सभी जीवात्माओं के प्रति बंधुत्व भाव, दान, आत्म निग्रह, संतोष, मृदुवाणी, ज्ञान आदि। पुराणों में यह स्पष्ट चेतावनी है कि जो लोभी, दुष्ट, क्रूर, प्रवंचक, कपटाचारी, विषयासक्त हैं, वे सभी तीर्थों में स्नान कर लेने पर भी अपवित्र रहते हैं, जैसे मगरमच्छ जल में जन्म लेते हैं, वही मर जाते हैं परंतु स्वर्ग नहीं जाते क्योंकि उनके मन पवित्र नहीं होते। यदि मन शुद्ध नहीं है तो उस व्यक्ति के दान, तप, यज्ञ, स्वच्छता, यात्रा एवं विद्या को भी तीर्थ का पद नहीं प्राप्त हो सकता।

आज विश्व को मानवीयता की ओर लौटने के लिए जिस सदाशयता और पारस्परिक मंगलकामना की आवश्यकता है, उसके लिए तीर्थ विज्ञान और विश्वास की पुनस्मृति और पुनर्निर्माण के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। धरती को संपूर्ण विध्वंस से बचाने के लिए जितना अपरिग्रह की भावना को जागृत करना होगा वह भी तीर्थ विश्वास और जिजमानी की परंपरा के बिना संभव नहीं।

'तीरथ में भई पानी' और उसके विस्तृत सिद्धांत 'घट-घट तीरथ, क्षण-क्षण अवतार' के आधार पर भारतीय समाज की पूरी जीवन शैली विकसित हुई। उसके आधार पर लोक परंपरा के मौखिक शास्त्र रचे गये, जिसमें सूक्ष्म तथा स्थूल सभी प्रकार के विषय संजोए गये। नई-नई समस्याओं के समाधान भी खोजे गए। ये सभी मिल कर तीर्थ विज्ञान हैं। जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि यह साईंस या साईंस पर आधारित नहीं है अतः तीर्थ विज्ञान को भारतीय दिलोदिमाग से ही समझा और महसूस किया जा सकता है।इन बातों को आगे के अध्यायों में स्पष्ट करने का प्रयास किया जायेगा। साथ ही इस समझ में हुई त्रुटि तथा उसे पुनः वर्तमान परिवेश में पुनः प्रतिष्ठित करने के प्रयासों की भी चर्चा होगी।

स्रोत

लेखक-डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक पेशे से कालेज में पढ़ाते हैं।

दक्षिण एशियाई हरित स्वराज संवाद 2015 
(साउथ एशियन डॉयलॉग्स ऑन इकोलोजिकल डेमोक्रेसी) सीमेनपू फाउंडेशन,

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