थोड़ा है, काफी कुछ करने की जरूरत है

कोंकण के डहाणू में प्राथमिक स्कूल के एक शिक्षक ने होली के त्योहार को स्वच्छता से जोड़ते हुए पूरे स्कूल के बच्चों को गांव में होली के त्योहार के एक दिन पहले साफ सफाई करने को प्रोत्साहित किया। पूरे गांव में बच्चों ने झाड़ू लगाकर नालियां साफ कर होली की तैयारी की। बच्चों को साफ-सफाई करते देख गांव के युवक भी इस अभियान में शामिल हो गए। सफाई के लिए जाने जाने वाले संत गाडगे बाबा का नाम लेकर 'देवकी नंदन गोपाला' का नारा लगाते हुए पूरे गांव की सफाई की गई। अब वहां होली के पहले सफाई का काम एक त्योहार बन गया है।

अकोला जिले के संगलूड़ गांव में रीना और अमोल इंगले नाम के भाई-बहन ने पिछले तीन महीनों से स्कूल जाना छोड़ दिया। इसके पहले भी शिक्षकों ने इंगले के घर जा कर बच्चों को स्कूल भेजने की उनके पिता बंडू इंगले से गुजारिश की थी, लेकिन आश्वासन देने के बाद भी बंडू ने बच्चों को स्कूल नहीं भेजा। बंडू के इस रवैए से परेशान शिक्षकों ने एक जुगत लगाई। एक दिन रीना की पूरी कक्षा को लेकर शिक्षक उसके घर पहुंचे और रीना को साथ बिठाकर पढ़ाना शुरू कर दिया। बंडू ने इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी, लेकिन जब दूसरे और तीसरे दिन भी कक्षा उनके आंगन में लगी तो चौथे दिन बंडू अपने दोनों बच्चों को तैयार कर स्कूल जा पहुंचा। शिक्षकों के इस प्रयोग से अब स्कूल में गैरहाजिर बच्चों की संख्या नहीं के बराबर है। महाराष्ट्र में ऐसे कई प्रयोग शिक्षक अपने स्तर पर बच्चों की स्कूल में उपस्थिति बनाए रखने के लिए कर रहे हैं। लेकिन सवाल उठता है कि बच्चे स्कूल में क्यों नहीं आते? क्या वजह है कि महाराष्ट्र जैसे प्रगतिशील राज्य में अभिभावक शिक्षा के प्रति उदास हैं?

केंद्र सरकार ने शिक्षा के अधिकार के साथ ही 14 साल के बच्चों के लिए कानूनन मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया है। लेकिन क्या राज्य सरकार ने उसे उतनी ही गंभीरता से लिया है, इस बारे में संदेह है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा था कि 31 दिसंबर के पहले सभी राज्यों के स्कूलों में स्वच्छता गृह का निर्माण होना चाहिए। आदेश में कहा गया था कि जब तक पक्के स्वच्छता गृह का निर्माण नहीं होता, तब तक कम से कम नवंबर 30 तक अस्थायी स्वच्छता गृह बनाया जाए। आगे चलकर न्यायालय ने निर्माण कार्य पूरा होने की अवधि को 31 मार्च तक बढ़ा दिया। महाराष्ट्र में 12746 स्कूलों में लड़कियों के लिए स्वच्छता गृह नहीं है। 7500 स्कूलों में तो लड़कों के लिए भी स्वच्छता गृह नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी राज्य सरकार इस बारे में मौन है। न स्कूलों में स्वच्छता गृह निर्माण को लेकर कोई प्रस्ताव बने हैं और न ही कोई काम होता नजर आता है। यही हाल पीने के पानी, खेल के मैदान, स्कूल की इमारत आदि मूलभूत सुविधाओं का है।

ऐसी स्थिति में अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजें भी तो कैसे? इस सवाल का जवाब न तो शिक्षकों के पास है न ही अधिकारियों के पास। इतनी असुविधाओं के बावजूद यदि अकोला जिले के संगलूड़ गांव के शिक्षकों से प्रेरणा लेकर बच्चों को स्कूलों तक लाया भी जाए तो क्या वे शिक्षित हो पाएंगे? हाल ही में एक सामाजिक संगठन ने राज्य में स्कूलों का सर्वे कर जो रिपोर्ट प्रकाशित की, वह काफी शर्मनाक है। समाजसेवी संगठन 'प्रथम' ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि पिछले साल की तुलना में महाराष्ट्र में शिक्षा स्तर और गिरा है। पिछले साल पांचवीं कक्षा के बच्चे जिन्हें गणित में भाग करना नहीं आता, उनका प्रतिशत 49 था, जो इस साल बढ़ कर 58.6 हो गया है। कक्षा तीन के विद्यार्थी जिन्हें जोड़-घटाव करना भी नहीं आता, उनका प्रतिशत भी 44.5 से बढ़कर 53.3 प्रतिशत हो गया है। यही हाल किताब पढऩे में भी है। कक्षा तीन के बच्चे कक्षा एक की किताबें और कक्षा पांच के बच्चे कक्षा दो की किताबें नहीं पढ़ पाते। इनका प्रतिशत भी पिछले साल से बढ़ा है।

महाराष्ट्र का इतिहास रहा है कि शिक्षा के क्षेत्र में सरकार से ज्यादा समाजसेवियों ने और आम जनता ने ज्यादा काम किया है। शिक्षा के गिरते स्तर को देख राज्य के कुछ स्कूलों में शिक्षकों ने नए प्रयोग करना शुरू किए हैं। विदर्भ के वाशिम जिले के रानी लक्ष्मीबाई कन्या विद्यालय के शिक्षकों ने ग्रामीण इलाके की लड़कियों में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए शिक्षा का नया मॉडल बनाया। शिक्षकों ने देखा कि ग्रामीण इलाके की लड़कियां कक्षा में गुमसुम सी बैठी रहती हैं और बेहद कम बोलती हैं। उन्हें बुलवाने के लिए शिक्षकों ने एक कार्यक्रम बनाया 'मोकले मन, खुले आंगन' यानी खुले आंगन में करो मन को खुला। कक्षा की लड़कियों को सात लड़कियों के समूह में बांटा जाता है और उन्हें एक विषय दिया जाता है। उस समूह को उस विषय पर एक कार्यक्रम बनाना होता है और समूह की हर लड़की के लिए उस कार्यक्रम में भाग लेना अनिवार्य होता है। कार्यक्रम में गाने, चुटकुले, कविताएं, नाटक आदि के जरिए उस विषय को पेश किया जाता है। यह सप्ताह में एक दिन किया जाता है। कार्यक्रम की तैयारी करने के लिए समूह को एक सप्ताह का समय मिलता है। जो कार्यक्रम वे पेश करती हैं वह मनोरंजक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी होता है। इस प्रयोग के चलते लड़कियों का आत्मविश्वास बढ़ा है। जटिल विषय सामान्य रूप से समझने मे मदद मिली और शिक्षा का स्तर भी बढ़ा है।

कोंकण के डहाणू में प्राथमिक स्कूल के एक शिक्षक ने होली के त्योहार को स्वच्छता से जोड़ते हुए पूरे स्कूल के बच्चों को गांव में होली के त्योहार के एक दिन पहले साफ सफाई करने को प्रोत्साहित किया। पूरे गांव में बच्चों ने झाड़ू लगाकर नालियां साफ कर होली की तैयारी की। बच्चों को साफ-सफाई करते देख गांव के युवक भी इस अभियान में शामिल हो गए। सफाई के लिए जाने जाने वाले संत गाडगे बाबा का नाम लेकर 'देवकी नंदन गोपाला' का नारा लगाते हुए पूरे गांव की सफाई की गई। अब वहां होली के पहले सफाई का काम एक त्योहार बन गया है। एक ओर तो ऐसे तमाम कार्यक्रमों के जरिए शिक्षक, विद्यार्थी, समाजसेवी अपना योगदान देकर शिक्षा को नए आयाम देने का प्रयास करते रहे हैं, जबकि दूसरी ओर राज्य सरकार शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के प्रति उदासीनता भरा उदास रवैया अपनाए हुए है। नेताओं के स्मारकों के लिए, मराठी अस्मिता के लिए, क्रिकेट से लेकर फिल्मों पर लड़ने वाली राजनीतिक पार्टियां और राज्य के नेता महाराष्ट्र में शिक्षा के गिरते स्तर पर मौन हैं यह चिंता का विषय है।

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