इस साल जब पटना में गंगा की बाढ़ के प्रवेश करने की हालत बन गई तो अचानक बिहार सरकार ने फरक्का बैराज को जिम्मेवार ठहराया और उसे हटाने के लिये अभियान छेड़ दिया। जबकि अब स्थिति बदल गई है और फरक्का बैराज को हटा देना कोई समाधान नहीं है। उपाय उसकी वजह से गंगा के पेट में जमा गाद को हटाने की करनी है और गंगा में लगातार पानी कम होने की समस्या से निपटने के उपाय करना होगा। गंगा की अविरलता और निर्मलता को बहाल करना होगा। ‘‘ताड़ से गिरे खजूर पर अटके,’’ गंगा के मछुआरों की यही हालत है। गंगा मुक्ति आन्दोलन की पैंतीसवीं वर्षगाँठ पर आयोजित समारोह में इसका खुलासा हुआ। गंगा पर जलकर जमींदारी के खिलाफ 1982 में आरम्भ इस आन्दोलन को 1991 में उस समय बड़ी सफलता मिली थी, जब बिहार सरकार ने सरकारी अधिसूचना के जरिए सैकड़ों साल से जारी जल-जमींदारी को समाप्त करने और गंगा में मछली पकड़ने को करमुक्त करने की घोषणा की। लेकिन इस सफलता का लाभ वास्तव में मछली पकड़ने वाले आखिरी मछुआरे के पास टिक नहीं सका।
आन्दोलन के मुख्यालय कागजी टोला, कहलगाँव, भागलपुर में 22 फरवरी को आयोजित समारोह में कई बातें सामने आईं। उनको सिलसिलेवार ढंग से रखने पर पूरी तस्वीर बनती है। जल-जमींदारी समाप्त होने के बाद वे अपराधी जो पहले जमींदार की ओर से मछुआरों से वसूली करते थे, अधिक बेखौफ होकर मछुआरों को सताने और वसूली करने लगे। दूसरी ओर मछुआरा सहकारी समिति के नाम पर मछली का करोबार करने वाले ठेकेदार तत्वों की नजर भी गंगा को लग गई। सबसे बढ़कर गंगा में मछलियों की तदाद घटने लगी। आज उसमें 90 प्रतिशत कमी आ गई है।
फरक्का बैराज बनने के समय से गंगा में मछलियों की लगातार कमी आती गई। सबसे पहले हिल्सा मछलियों का मिलना रुक गया। बैराज में लगे फिश लैडर का गाद जमा होने से बेकार हो गए थे। गंगा मुक्ति आन्दोलन ने इस मामले को उठाया। धीरे-धीरे बैराज से होने वाले कई दूसरे तरह के नुकसान भी प्रकट हुए। मगर सरकार बैराज की समस्याओं पर गौर करने के लिये तैयार नहीं हुई।
इस साल जब पटना में गंगा की बाढ़ के प्रवेश करने की हालत बन गई तो अचानक बिहार सरकार ने फरक्का बैराज को जिम्मेवार ठहराया और उसे हटाने के लिये अभियान छेड़ दिया। जबकि अब स्थिति बदल गई है और फरक्का बैराज को हटा देना कोई समाधान नहीं है। उपाय उसकी वजह से गंगा के पेट में जमा गाद को हटाने की करनी है और गंगा में लगातार पानी कम होने की समस्या से निपटने के उपाय करना होगा। गंगा की अविरलता और निर्मलता को बहाल करना होगा।
आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक अनिल प्रकाश ने कहा कि केन्द्रीय मंत्री उमा भरती ने तीन वर्षों के भीतर गंगा की अविरलता और निर्मलता को बहाल करने का वादा किया था। लेकिन जमीन पर स्थिति में कोई सुधार नजर नहीं आता। दरअसल गंगा की अविरलता को बहाल करने के लिये फरक्का से पहले टिहरी बाँध को हटाना जरूरी है जिसकी वजह से गंगा की मूल धारा में रहने वाले बैक्टीरियोफेज का आना रुक गया है जो गन्दगी को नष्ट करने वाला बैक्टीरिया है। उन्होंने फरक्का बैराज और दूसरे बाँधों को हटाने के तौर-तरीके निर्धारित करने के लिये एक विशेषज्ञ समिति बनाने की माँग की। उन्होंने कहा कि गंगा केवल एक नदी नहीं है, उसे तटवर्ती जनजीवन से अलग करके नहीं देखा जा सकता।
गंगा मुक्ति आन्दोलन के स्थानीय नेता रामपूजन बताते हैं कि सरकारी अधिसूचना में गंगा नदी और उससे जुड़ी कोल, ढाब, नदी, नाला सबको करमुक्त कर दिया गया था। लेकिन तीन-चार साल गुजरे होंगे कि अफसरों और मछुआरा सहकारी समिति के ठेकेदारों की मिलीभगत से गंगा की मुख्य धारा को छोड़कर उससे संलग्न जलकरों की बन्दोबस्ती होने लगी। हर बरसात के बाद नदी की रूपरेखा बदल जाती है।
कोल (धारा का वह क्षेत्र जिसमें गति नहीं होती), ढाब (गड्डेनुमा जलाशय), नाला (धारा से निकलकर फिर उसमें समाहित होने वाले पतले नाले) की संख्या में घट बढ़ होती है और वे गंगा की धारा के अविभाज्य अंग होते हैं। मछलियाँ धारा के उन्हीं हिस्सों में रहती हैं, जहाँ उन्हें विश्राम करने की सुविधा मिलती है। कोल, ढाब की बन्दोबस्ती होने लगने पर मछुआरे ठगे से रह गए। इस बात को कई बार ज्ञापनों के जरिए प्रशासन के नजर में लाया गया, पर अब तक कोई सुनवाई नहीं हुई।
बटेश्वर के भूटटो सहनी ने कहा कि मछुआरों की अनेक समस्याएँ हैं जिनका समाधान नहीं हो रहा। जलकर जमींदारी से तो मुक्ति मिल गई, लेकिन आज डेग-डेग पर जमींदार खड़े हैं। गंगा में मछली बहुत कम हो गई है और जहाँ मछली है वहाँ बन्दूक लेकर अपराधी खड़ा है। मछली पकड़ने के पहले उन्हें रंगदारी टैक्स देना होता है। मछुआरों में खौफ पैदा करने के लिये कई बार मारपीट हुई। सन 2009 में कहलगाँव के दस मछुआरों की गला रेतकर हत्या कर दी गई। कुछ महीनों बाद बटेश्वर के दो मछुआरे भी मारे गए। मछुआरों ने इस परिस्थिति से समझौता कर लिया है। यह एकदम साफ है कि जैसे-जैसे आन्दोलन शिथिल पड़ता गया, अपराधी हावी होते गए।
कागजी टोला के मनोज साहनी ने कहा कि आज आन्दोलन की 35वीं वर्षगाँठ पर अगर 35 गाँवों में समारोह होता तो तस्वीर अलग होती। अपराधी तत्व मछुआरों की ओर देखने की हिम्मत नहीं करते। हमें गंगा में अपना रोजगार चाहिए जिसमें कई अड़चनें उत्पन्न हो गई हैं। चंदर जी ने कहा कि कपड़ा जाल की वजह से हम मछुआरों को मछली नहीं मिलती, गंगा में मछली है भी नहीं। नब्बे प्रतिशत मछलियाँ विलुप्त हो गई है।
छोटी-छोटी मछलियों को कपड़ा जाल से छान लेने से इस स्थिति में सुधार की कोई सम्भावना नजर नहीं आती। सुनील साहनी ने कहा कि मछुआरों की समस्याओं को लेकर हमारा संगठन लड़ता तो है, लेकिन बीचबीच में शिथिलता आ जाती है। जब तक हम मजबूती से संगठित नहीं होंगे, हमारा समाधान नहीं होगा, इतना साफ है। फेकिया देवी का कहना था कि कपड़ा जाल और घानी जाल में छोटी मछलियाँ भी पकड़ ली जाती हैं, जिससे मछलियाँ धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही हैं। अब सन्देह होता है कि अगली पीढ़ी के बच्चों को गंगा में मछली मिलेगी भी या नहीं।
समारोह में हिस्सा लेने बंगाल से आये विजय सरकार ने कहा कि गंगा मुक्ति आन्दोलन की 35वीं वर्षगाँठ बहुत ही ऐतिहासिक है। इस दौरान एक पूरी पीढ़ी जवान हो गई है। हालांकि समारोह में नौजवानों और महिलाओं की हिस्सेदारी कम है। पहले महिलाएँ अधिक संख्या में होती थीं। इससे लगता है कि आन्दोलन में कींचित शिथिलता आ गई है, इसका विस्तार नहीं हो रहा।
कोलकाता से ही आये तापस दास ने कहा कि गंगा के प्रदूषण का 80 प्रतिशत तटवर्ती शहरों का मलजल है, बाकी तटवर्ती उद्योगों से आता है। लेकिन इसका सर्वाधिक प्रभाव इसके किनारे बसे और गंगा पर निर्भर गाँवों पर पड़ता है। गंगा की वर्तमान दुर्दशा का प्रत्यक्ष कारण फरक्का बैराज दिखता है लेकिन सिर्फ बैराज को तोड़ देने से इस दशा में सुधार नहीं होगा। हमें उस विकास नीति से छुटकारा पाना होगा जिसकी वजह से फरक्का बैराज और टिहरी बाँध जैसी परिकल्पनाएँ सामने आती हैं।
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Post By: Editorial Team