कम बरसात के बावजूद चतर सिंह जाम ने परम्परागत जल व्यवस्थाओं को पुनर्जीवित कर जैसलमेर के कई गाँवों को आत्मनिर्भर बनाया है
“क्या तुम्हें भी आसमान में सफेद और काली पट्टियाँ दिख रही हैं,” चतर सिंह ने मुझसे पूछा। मेरे हाँ कहने पर वह बोले, “यह मोघ है। अभी जहाँ सूरज छिप रहा है वहाँ बादल है। अगर इस तरफ की हवा चले तो यह रात तक यहाँ पहुँच कर बरस सकते हैं। रेगिस्तान में लोग इन्हीं प्राकृतिक चिन्हों पर निर्भर रहते हैं।”
हम रामगढ़ में थे, जैसलमेर से 60 किमी दूर भारत-पाक सीमा की तरफ। इस क्षेत्र की सालाना औसतन बारिश 100 मिमी है और वह भी हर साल नहीं। दस साल में तीन बार सूखे का सामना करना पड़ता है। पर थार रेगिस्तान के इन गाँवों में पानी है, पलायन नहीं। इस उपलब्धि का बहुत बड़ा श्रेय 55 साल के चतर सिंह जी को जाता है। उन्हें लोग उनकी पारिवारिक पदवी ‘जाम साहब’ से भी बुलाते हैं।
मेरा नहीं समाज का काम
जाम साहब समभाव नाम की एक संस्था से जुड़े हैं जो लोगों के साथ मिलकर जल व्यवस्थाओं को मजबूत करने का काम करती है। पिछले 10 सालों में इन्होंने काफी लोगों को उन परम्परागत जल संरचनाओं को पुनर्जीवित करने के लिये प्रेरित किया जो कठिन परिवेश के बावजूद खेती और पशुधन को पालती हैं। यहाँ दो सतही व्यवस्था काम करती है: ऊपर अच्छी बरसात में तालाब और जोहड़ भर जाते हैं और 15-20 फीट नीचे खड़िया मिट्टी या जिप्सम की एक पट्टी जमीन में रिसकर आने वाले पानी को संजो कर रखती है, मुश्किल दिनों के लिये। यह पानी उस भूजल से बिलकुल अलग है जो जमीन में काफी गहरा और खारा है। जब तालाब सूख जाते हैं तब यही मीठा पानी कुईं या बेरियों द्वारा निकाला जाता है।
यहाँ खेत अपना मूल नाम छोड़कर खड़ीन बन जाता है। एक धनुष या कोहनी की शक्ल का बाँध लम्बे चौड़े आगोर से आते बरसाती पानी में ठहराव लाता है और जिप्सम की पट्टी इसे नीचे जाने से रोकती है। इस तरह जमीन को उतनी नमी मिल जाती है जिससे रबी की फसल फल-फूल सके। सदियों से कितने ही सामूहिक खड़ीन इस क्षेत्र में साम्यिक तौर पर अन्न उपलब्ध करवा रहे हैं।
परन्तु सरकारी योजनाओं पर बढ़ती निर्भरता के कारण यह संरचनाएँ और सामाजिक जुड़ाव टूट सा गया था। जब सरकारी सहायता देर तक न टिक सकी तो गाँव वालों के पास पलायन के सिवाय कोई चारा न बचा। उस समय चतर सिंह जी ने सामूहिक कार्य की रीत को फिर से सजीव किया और लोगों ने मिलकर न सिर्फ अपने पुरखों के खड़ीन, बेरियाँ और तालाबों को सुधारा बल्कि नई संरचनाएँ भी रची।
हालांकि जाम साहब ने काफी संस्थाओं के साथ काम किया है पर वह मानते हैं कि समभाव से जुड़ने के बाद ही उनमें समाज की ज्यादा समझ बनी: “पहले मैं सामान्य कर्मचारी की तरह प्रोजेक्ट के हिसाब से काम करता था। लोगों से जुड़ाव कम था। समभाव के साथ मैंने जाना कि समाज का काम समाज के साथ मिलकर कैसे किया जाये।”
यह बात मुझे तब ज्यादा स्पष्ट हुई जब 2014 में मेरा जाम साहब के साथ मीरवाला जाना हुआ। मीरवाला रामगढ़ से दक्षिण में रेत के टीलों के बीच एक छोटा सा गाँव जो अपने ढह चुके कुएँ को फिर से सजीव करना चाहता था। यथास्थिति जानने के बाद चतर सिंह मुझसे मुखातिब हुए: “यह कुआँ 252 फीट तक जाता है। यहाँ पर कुआँ खोदना सबसे मुश्किल काम है क्योंकि रेत कभी भी खिसक सकती है। पर इनके पास पानी जरूर होना चाहिए।” जब तक हम वहाँ से रवाना हुए बाड़मेर जिले के कुएँ के कारीगरों से बातकर उनका मीरवाला आने का प्रबन्ध हो चुका था। समभाव ने सिर्फ इस प्रक्रिया को सुगम बनाया जबकि काम का सारा खर्चा गाँव वालों ने दिया। ऐसे काम ज्यादा समय तक टिके रहते हैं क्योंकि उनमें लोगों का स्वामित्व का भाव ज्यादा रहता है।
चतर सिंह जी ने इसी सोच को आगे बढ़ाने के लिये तीन साल पहले 50 हेक्टेयर के एक सामूहिक खड़ीन पर व्यक्तिगत तौर से काम शुरू किया है। आठ गाँव की साँझी सम्पति होने के बावजूद यह खड़ीन उपेक्षाकृत और जंगली बबूल से अटा पड़ा था। अभी तक यह एक मिला जुला अनुभव रहा है। पहले साल बरसात नहीं हुई, दूसरा साल भरपूर रहा पर अब फिर सूखा है। जाम साहब कहते हैं: “लोगों की नजर में यह काम आ चुका है। अगली बरसात तक मुझे उम्मीद है वह सम्मलित हो जाएँगे।”
चतर सिंह कई बार अच्छे कार्य का साथ देने के लिये प्रभावशाली लोगों से भी भिड चुके हैं। रामगढ़ में भू माफिया के खिलाफ उनकी अर्जी के बाद उन पर हमला भी हुआ पर फिर भी वह डटे रहे और आरटीआई एक्टिविस्ट बाबू राम चौहान का साथ भी दिया।
एक कहानीकार भी
जाम साहब के व्यक्तित्व का एक और गुण है उनका अन्दाजे बयान। वह राजस्थान की मौखिक कथा वाचन की प्रथा को आगे बढ़ाते हैं। चाहे वह पालीवाल ब्राह्मणों के रातोंरात पलायन का दुःख हो या फिर लहास के जरिए पूरे समाज का तालाब बनाने की खुशी, उनकी आवाज की तान हमेशा दिल पर कायम हो जाती है।
रेगिस्तान की वनस्पतियों की जानकारी से लेकर तारों के जरिए दिशा अनुमान, जाम साहब का ज्ञान भण्डार विलक्षण है। यही वजह है कि कई ग्रामीण और शहरी लोग इन्हें अपना गुरू मानते हैं। गम्भीर हास्य के जरिए किसी बात को समझाना भी यह बखूबी जानते हैं। यह सुनिए: “मैंने कभी मच्छर नहीं देखा था। जब एक स्कूल की परीक्षा के लिये जयपुर जाना था तो बुजुर्गों ने पूछा जब मच्छर काटने आएगा तो क्या करेगा? मैंने कहा: “आने दो। मेरे पास मेरा लट्ठ होगा न।” तब रेगिस्तान में मच्छर नहीं थे, आज इन्दिरा गाँधी नहर की बदौलत हर दूसरे साल मलेरिया फैलता है।”
आजकल वह फेसबुक जैसे माध्यमों से जुड़कर अपने शहरी शागिर्दों के और समीप आ गए है। पिछले साल के ‘कम पानी से नहीं कम अकली से पड़ता है अकाल’ में उन्होंने लातूर के अकाल की तुलना रामगढ़ की जल दक्षता से कर एक महत्त्वपूर्ण सन्देश जिस सरल ढंग से दिया उसकी हर जगह तारीफ हुई। इन सब बड़े कामों के बावजूद जाम साहब का सरल व्यक्तित्व यह आश्वासन देता है कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं।
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Post By: RuralWater