कैसा लगता है अपने ही हाथों बनाए घर को एक दिन अपने ही हाथों से तोड़ना? यह बात सिर्फ हरसूद का निवासी बता सकता है। लोग अपने ही घर को तोड़ रहे हैं। कभी इस घर को बांधने के लिए उन्होंने न जाने क्या-क्या दांव पर लगाया होगा। कितनी रात जागे होंगे, कितने ही दिन ईंट-गारा-मिट्टी के हुए होंगे। वे स्मृतियां बार-बार आंखों में पानी की परत बना देती हैं और सारा दृश्य धुंधला हो जाता है। मन मसोसकर भी पुराने घर को छोड़ने से पहले कुछ जरूरी चीजें निकालना जरूरी है। यह छोटा-सा कस्बा एक दिन डूब जाएगा। इसे खाली करने की आज आखिरी तारीख है। यानी 30 जून 2004। चारों ओर गहमागहमी है। जगह-जगह स्त्रियों, पुरूषों और बच्चों के झुंड नजर आ रहे हैं। एक संकरी-सी सड़क पर, जिसके दोनों ओर बस्ती है, भीड़ है। लोग हैं, साइकिलें हैं, मोटरसाइकिलें हैं, ठेले वाले हैं और ट्रक हैं। आसपास की गलियों में भी भीड़ है। कुछ छोटे ट्रकों में सामान लदा है। मकानों को तोड़ने का काम लगातार चल रहा है। कुदालें, बल्लम और घन चलने की आवाजें, अचानक किसी दीवार के भरभरा कर ढहने की आवाज और धूल के बवंडरों के बीच स्त्रियों के लगातार बोलने और रोने की आवाजें पूरे कस्बे में फैली हैं। घर स्त्रियों के ही होते हैं। इस दृश्य को देखकर यही अहसास होता है। चारों ओर मलबा बिखरा हुआ है। इस मलबे का जगह-जगह हमारी राजनीति के कुकुरमुत्ते भी उगे हुए हैं।
लोक-प्रचलित है कि इस नगर को कभी हर्षवर्धन ने बनाया था। इतिहास के ऐसे कोई अवशेष वहां नहीं हैं, जो इसे प्रमाणित करें। इतिहास न सही, इतिहास का गल्प ही सही। एक समय था जब नदियों के किनारे नयी सभ्यताएं पनपती थीं। नदियों के किनारे नये नगर बसाये जाते थे। हमारे समय का सच लेकिन यह है कि नदियों के किनारे बसे गांव और कस्बे तोड़े जा रहे हैं। एक नगर तोड़ा जा रहा है और तोड़े जाने का यह दुख सारे फर्क मिटाकर लोगों को आपस में जोड़ भी रहा है।
कैसा लगता है अपने ही हाथों बनाए घर को एक दिन अपने ही हाथों से तोड़ना? यह बात सिर्फ हरसूद का निवासी बता सकता है। लोग अपने ही घर को तोड़ रहे हैं। कभी इस घर को बांधने के लिए उन्होंने न जाने क्या-क्या दांव पर लगाया होगा। कितनी रात जागे होंगे, कितने ही दिन ईंट-गारा-मिट्टी के हुए होंगे। वे स्मृतियां बार-बार आंखों में पानी की परत बना देती हैं और सारा दृश्य धुंधला हो जाता है। मन मसोसकर भी पुराने घर को छोड़ने से पहले कुछ जरूरी चीजें निकालना जरूरी है। छत की चद्दरें हैं। म्याले हैं, बल्लियां हैं, खिड़कियां हैं, दरवाजे हैं। इन्हीं दरवाजों, खिड़कियों और चद्दरों से बनेगा नया घर। कुछ समर्थ लोग हैं जो सामने या सड़क के दूसरी तरफ खड़े हैं और अपने घर को तोड़ा जाना देख रहे हैं।
इसी दृश्य के बीच अचानक मुझे वह घर दिखा। उसकी छत नहीं थी। दीवारें भी लगभग आधी टूटी-गिरायी जा चुकी थीं। दो या तीन दरवाजे एक आधी टूटी दीवार से टिके रखे थे। एक आदमी ने अभी-अभी सामने की दीवार से एक छोटी-सी लगभग दो गुना दो फुट की खिड़की को निकाला था। खिड़की को दोनों हाथों के बीच वह इस तरह पकड़े था, जैसे वह दीवार में लगी हो। खिड़की में आड़े सरिए लगे थे। उसके छोटे-छोटे-से पल्ले इस समय खुले हुए थे। हो सकता है कि पिछली दीवाली पर ही उसने इस खिड़की पर रंग-रोगन किया हो। दीवार में जिस जगह से वह खिड़की निकाली गयी थी, अब वहां एक खोखल बन चुका था। इस दृश्य को देखते हुए मुझे अचानक ही विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास का नाम याद आया - दीवार में एक खिड़की रहती थी। यह खिड़की जो इस समय उस आदमी के हाथ में थी, वह भी कुछ समय पहले तक दीवार में रहती थी। उसमें एक दृश्य भी रहता था। सुबह-सुबह जब वह आदमी इसे खोलता होगा तो बाहर का एक अपना परिचित दृश्य उसे नजर आता होगा। सुबह की हवा उसके चेहरे को छूती होगी। इस समय उस खिड़की के बाहर एक दृश्य है, जिसमें उस मकान की टूटी हुई दीवार है। इन्हीं दीवारों में एक दीवार वह भी है, जिसमें वह खिड़की भी रहती थी।
खिड़की के दूसरी तरफ से आज सिर्फ चीखें-चिल्लाहटें और रोना सुनाई दे रहा है। स्त्रियों और बच्चों के वे झुंड नजर आ रहे हैं, जो लड़ते-लड़ते रोने लगते हैं और रोते-रोते फिर अपने अधिकारों और अपने मुआवजों के लिए लड़ने लगते हैं। कुछ बड़े नेता आते हैं, पूरे लाव-लश्कर के साथ। सुरक्षा गार्ड, गाड़ियां, छुटभैये नेताओं के झुंड। लोग देखते ही उनकी तरफ लपकते हैं। आश्वासन दिये जाते हैं और जगह बनाते हुए नेता अपनी गाड़ियों में बैठकर निकल जाते हैं। एक वाक्य हवा में तैरता है - हम कुछ करेंगे। राजधानी जाकर आपकी बात रखेंगे। आपकी समस्याएं बतायेंगे। इसमें वर्तमान सरकार के नेता भी हैं और पिछली सरकार के भी। पत्रकार हों, इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के लोग हों, कैमरा देखते ही लोग उनके आसपास इकट्ठे हो जाते हैं। एक स्त्री अपनी गोद में एक छोटे से बच्चे को उठाये हैं। दो-तीन छोटे-छोटे बच्चे और भी उसके आसपास बने हुए हैं। वह अपने दूसरे हाथ में पकड़े कागजों को खोलकर बताती है। देखिए... देखिए कोई हमारी बात नहीं सुन रहा है। आफिस वाले इस पर सील लगाने को तैयार नहीं। हम कहां जाएं। हमें अभी तक मुआवजा ही नहीं मिला। हमारे बच्चों के नाम भी सूची में शामिल नहीं किये गये हैं। अपंगों के लिये बनी साइकिल पर एक व्यक्ति को लाया जाता है। उसका चेहरा बच्चों जैसा है। एक दूसरी स्त्री अचानक बोलने लगती है। इसे देखिए ... इसकी उमर तेईस साल है, पर इसका नाम सूची में नहीं है। नैसर्गिक रूप से अपंग वह बच्चा या युवा मुझे उतना अपंग नहीं लगता जितनी विकलांग संकट की इस घड़ी में हमारी सरकार नजर आती है। एक आदमी अपने घर के सामने बैठा है। उसने अपना सामान भी नहीं बांधा है। कोई उससे पूछता है कि आप नहीं जायेंगे? बहुत छोटा-सा उत्तर मिलता है - नहीं। पूछने वाला फिर पूछता है - पानी आयेगा तो क्या करेंगे? आदमी दुख और खीझ से भरकर कहता है - डूब जायेंगे। वहां भी मरना है, यहां भी मरना है।
आदमी अब भी उस नीली खिड़की को हाथ में पकड़े खड़ा था। जैसे वह कोई बायस्कोप की खिड़की हो, जिसमें एक गांव के उजड़ने का दृश्य चल रहा था। एक ही दृश्य लगातार चलता हुआ। छनेरा में, जहां यहां के निर्वासितों को बसाया जायेगा, जब वह आदमी अपना डेरा बांधेगा और अपने पुराने घर की इस खिड़की को नये घर में लगायेगा और सुबह-सुबह इस खिड़की को खोलेगा तो क्या होगा? पहला दृश्य कौन-सा होगा जो उसकी आंखों के सामने आयेगा? क्या वह दृश्य होगा जो आज से पहले तक इस खिड़की से देख पायेगा? अधटूटी दीवार से टिके इन दरवाजों से बाहर निकलते हुए क्या वह किसी नयी सड़क पर निकल सकेगा?
एक ऐसी दीवार के सहारे, जो अभी तोड़ी नहीं गयी थी, टीन की छत लगाकर चाय का एक अस्थायी ढाबा बना लिया गया था। मैं, मेरी बेटी मीठू, चंद्रकांत देवताले और आषा काटिया चाय के उस ढाबे में घुसकर बेंचों पर बैठ गये। चाय की तलब लगी थी। उजाड़ के इस दृश्य में भी चूड़ीवाला चूड़ी की दुकान लगाए बैठा था। चायवाला चाय बना रहा था। फल वाले भी थे और एक दुकान पर गरम कचौरियां बन रही थीं। ढाबे के सामने एक दोमंजिला पक्का मकान था। मजबूत और सुंदर। नाम था ‘शांति भवन’। दो-तीन मजदूर उसकी छत की किनारी पर घन चला रहे थे। मेरी बगल में चाय पी रहे आदमी ने कहा, ‘यह इस कस्बे के सबसे बड़े सेठ का मकान है। वह अनाज और कपास के व्यापारी हैं। इनके पिता शांतिलाल सांड पहले चुनाव में स्वतंत्र पार्टी से विधायक चुनकर गये थे। थोड़ा ही आगे स्टेट बैंक था, उसमें ताला लगा हुआ था। शायद उसे खाली किया जा चुका था। बाहर सिर्फ बोर्ड लटक रहा था।
नर्मदा पर बनाये जा रहे बांधों के तहत कई गांव पहले ही डूब चुके हैं। हरसूद एक अच्छा-खासा कस्बा है, मंडी है। ‘है’ की जगह अब कहना चाहिए - था। यह भी एक दिन डूब में आयेगा, प्रदेश की सरकारें इस बात को जानती रही हैं। इसलिए इस पर राजनीति भी होती रही। सरकार द्वारा निर्धारित इस अंतिम तिथि पर भी राजनीति चल रही है। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि मुश्किल से एक-डेढ़ हजार परिवारों वाले इस कस्बे के पुनर्वास का इंतजाम इतने साल में इस प्रदेश की दो-दो सरकारें भी क्यों नहीं कर पायीं। करोड़ों-अरबों की लागत से बनने वाले बांधों को बनाने की योजनाएं बन सकती हैं तो इन छोटे-छोटे गांवों के लोगों का पुनर्वास क्यों संभव नहीं हो पाता? गरीबों को एक छोटा-सा पक्का घर बनाकर देने में ही हमारे सारे साधन क्यों हमेशा कम पड़ जाते हैं। ज्यादा मुआवजे भी उन्हीं को मिलते हैं जो ज्यादा समर्थ हैं। हमारी राजनीति इतनी असंवेदनशील हो चुकी है कि किसी भी त्रासदी, किसी भी दुख, किसी भी आपदा में उसकी आंख नहीं भीगती। क्यों हम पुनर्वास के काम को एक निश्चित समय में पूरी मानवीय गरिमा क साथ अंजाम नहीं दे पाते?
मॉनसून आते-आते कहीं ठहर गया है। अगर समय पर मॉनसून आ गया होता तो हरसूद का डूबना शुरू हो गया होता। या शायद डूब चुका होता। यह आखिरी दिन है जब सबको अपना घरबार छोड़कर चले जाना है। सब लोग लेकिन अभी गये नहीं हैं। अपने मुआवजे के लिए लड़ रहे हैं। इस बांध से एक दिन रौशनी पैदा होगी, ऐसा कहा जाता है। लेकिन इस समय तो इस कस्बे के लोगों के लिए यह सिर्फ अंधेरा पैदा कर रहा है। हम लोग एक गली में घुसे तो देखा कि एक लगभग टूट चुके घर से रोने की जोर-जोर की आवाजें आ रही थीं। घर का कुछ सामान अस्त-व्यस्त सा था और कुछ कोनों में इकट्ठा किया हुआ था। एक तरफ छत से निकाली गयी टीनें टिकी थीं। सामान की आड़ से रोने की तेज-तेज आवाजें आ रही थीं। आशा काटिया ने किसी से पूछा, ‘क्या हुआ है?’ किसी ने कहा, ‘घर उजड़ गया है। रोयें नही ंतो क्या करें।’ लेकिन रोने की यह आवाज कुछ अलग थी। आशा काटिया आवाज की दिशा में गयी तो पता चला कि इस घर में रहने वाले एक बुजुर्ग की कुछ देर पहले मृत्यु हो गयी है। यह मृत्यु का विलाप था। घरों की मृत्यु के बीच मनुष्य की मृत्यु का वह विलाप एक कस्बे की मृत्यु के विलाप से एकमेक हो गया था।
अगस्त: 2004
लोक-प्रचलित है कि इस नगर को कभी हर्षवर्धन ने बनाया था। इतिहास के ऐसे कोई अवशेष वहां नहीं हैं, जो इसे प्रमाणित करें। इतिहास न सही, इतिहास का गल्प ही सही। एक समय था जब नदियों के किनारे नयी सभ्यताएं पनपती थीं। नदियों के किनारे नये नगर बसाये जाते थे। हमारे समय का सच लेकिन यह है कि नदियों के किनारे बसे गांव और कस्बे तोड़े जा रहे हैं। एक नगर तोड़ा जा रहा है और तोड़े जाने का यह दुख सारे फर्क मिटाकर लोगों को आपस में जोड़ भी रहा है।
कैसा लगता है अपने ही हाथों बनाए घर को एक दिन अपने ही हाथों से तोड़ना? यह बात सिर्फ हरसूद का निवासी बता सकता है। लोग अपने ही घर को तोड़ रहे हैं। कभी इस घर को बांधने के लिए उन्होंने न जाने क्या-क्या दांव पर लगाया होगा। कितनी रात जागे होंगे, कितने ही दिन ईंट-गारा-मिट्टी के हुए होंगे। वे स्मृतियां बार-बार आंखों में पानी की परत बना देती हैं और सारा दृश्य धुंधला हो जाता है। मन मसोसकर भी पुराने घर को छोड़ने से पहले कुछ जरूरी चीजें निकालना जरूरी है। छत की चद्दरें हैं। म्याले हैं, बल्लियां हैं, खिड़कियां हैं, दरवाजे हैं। इन्हीं दरवाजों, खिड़कियों और चद्दरों से बनेगा नया घर। कुछ समर्थ लोग हैं जो सामने या सड़क के दूसरी तरफ खड़े हैं और अपने घर को तोड़ा जाना देख रहे हैं।
इसी दृश्य के बीच अचानक मुझे वह घर दिखा। उसकी छत नहीं थी। दीवारें भी लगभग आधी टूटी-गिरायी जा चुकी थीं। दो या तीन दरवाजे एक आधी टूटी दीवार से टिके रखे थे। एक आदमी ने अभी-अभी सामने की दीवार से एक छोटी-सी लगभग दो गुना दो फुट की खिड़की को निकाला था। खिड़की को दोनों हाथों के बीच वह इस तरह पकड़े था, जैसे वह दीवार में लगी हो। खिड़की में आड़े सरिए लगे थे। उसके छोटे-छोटे-से पल्ले इस समय खुले हुए थे। हो सकता है कि पिछली दीवाली पर ही उसने इस खिड़की पर रंग-रोगन किया हो। दीवार में जिस जगह से वह खिड़की निकाली गयी थी, अब वहां एक खोखल बन चुका था। इस दृश्य को देखते हुए मुझे अचानक ही विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास का नाम याद आया - दीवार में एक खिड़की रहती थी। यह खिड़की जो इस समय उस आदमी के हाथ में थी, वह भी कुछ समय पहले तक दीवार में रहती थी। उसमें एक दृश्य भी रहता था। सुबह-सुबह जब वह आदमी इसे खोलता होगा तो बाहर का एक अपना परिचित दृश्य उसे नजर आता होगा। सुबह की हवा उसके चेहरे को छूती होगी। इस समय उस खिड़की के बाहर एक दृश्य है, जिसमें उस मकान की टूटी हुई दीवार है। इन्हीं दीवारों में एक दीवार वह भी है, जिसमें वह खिड़की भी रहती थी।
खिड़की के दूसरी तरफ से आज सिर्फ चीखें-चिल्लाहटें और रोना सुनाई दे रहा है। स्त्रियों और बच्चों के वे झुंड नजर आ रहे हैं, जो लड़ते-लड़ते रोने लगते हैं और रोते-रोते फिर अपने अधिकारों और अपने मुआवजों के लिए लड़ने लगते हैं। कुछ बड़े नेता आते हैं, पूरे लाव-लश्कर के साथ। सुरक्षा गार्ड, गाड़ियां, छुटभैये नेताओं के झुंड। लोग देखते ही उनकी तरफ लपकते हैं। आश्वासन दिये जाते हैं और जगह बनाते हुए नेता अपनी गाड़ियों में बैठकर निकल जाते हैं। एक वाक्य हवा में तैरता है - हम कुछ करेंगे। राजधानी जाकर आपकी बात रखेंगे। आपकी समस्याएं बतायेंगे। इसमें वर्तमान सरकार के नेता भी हैं और पिछली सरकार के भी। पत्रकार हों, इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के लोग हों, कैमरा देखते ही लोग उनके आसपास इकट्ठे हो जाते हैं। एक स्त्री अपनी गोद में एक छोटे से बच्चे को उठाये हैं। दो-तीन छोटे-छोटे बच्चे और भी उसके आसपास बने हुए हैं। वह अपने दूसरे हाथ में पकड़े कागजों को खोलकर बताती है। देखिए... देखिए कोई हमारी बात नहीं सुन रहा है। आफिस वाले इस पर सील लगाने को तैयार नहीं। हम कहां जाएं। हमें अभी तक मुआवजा ही नहीं मिला। हमारे बच्चों के नाम भी सूची में शामिल नहीं किये गये हैं। अपंगों के लिये बनी साइकिल पर एक व्यक्ति को लाया जाता है। उसका चेहरा बच्चों जैसा है। एक दूसरी स्त्री अचानक बोलने लगती है। इसे देखिए ... इसकी उमर तेईस साल है, पर इसका नाम सूची में नहीं है। नैसर्गिक रूप से अपंग वह बच्चा या युवा मुझे उतना अपंग नहीं लगता जितनी विकलांग संकट की इस घड़ी में हमारी सरकार नजर आती है। एक आदमी अपने घर के सामने बैठा है। उसने अपना सामान भी नहीं बांधा है। कोई उससे पूछता है कि आप नहीं जायेंगे? बहुत छोटा-सा उत्तर मिलता है - नहीं। पूछने वाला फिर पूछता है - पानी आयेगा तो क्या करेंगे? आदमी दुख और खीझ से भरकर कहता है - डूब जायेंगे। वहां भी मरना है, यहां भी मरना है।
आदमी अब भी उस नीली खिड़की को हाथ में पकड़े खड़ा था। जैसे वह कोई बायस्कोप की खिड़की हो, जिसमें एक गांव के उजड़ने का दृश्य चल रहा था। एक ही दृश्य लगातार चलता हुआ। छनेरा में, जहां यहां के निर्वासितों को बसाया जायेगा, जब वह आदमी अपना डेरा बांधेगा और अपने पुराने घर की इस खिड़की को नये घर में लगायेगा और सुबह-सुबह इस खिड़की को खोलेगा तो क्या होगा? पहला दृश्य कौन-सा होगा जो उसकी आंखों के सामने आयेगा? क्या वह दृश्य होगा जो आज से पहले तक इस खिड़की से देख पायेगा? अधटूटी दीवार से टिके इन दरवाजों से बाहर निकलते हुए क्या वह किसी नयी सड़क पर निकल सकेगा?
एक ऐसी दीवार के सहारे, जो अभी तोड़ी नहीं गयी थी, टीन की छत लगाकर चाय का एक अस्थायी ढाबा बना लिया गया था। मैं, मेरी बेटी मीठू, चंद्रकांत देवताले और आषा काटिया चाय के उस ढाबे में घुसकर बेंचों पर बैठ गये। चाय की तलब लगी थी। उजाड़ के इस दृश्य में भी चूड़ीवाला चूड़ी की दुकान लगाए बैठा था। चायवाला चाय बना रहा था। फल वाले भी थे और एक दुकान पर गरम कचौरियां बन रही थीं। ढाबे के सामने एक दोमंजिला पक्का मकान था। मजबूत और सुंदर। नाम था ‘शांति भवन’। दो-तीन मजदूर उसकी छत की किनारी पर घन चला रहे थे। मेरी बगल में चाय पी रहे आदमी ने कहा, ‘यह इस कस्बे के सबसे बड़े सेठ का मकान है। वह अनाज और कपास के व्यापारी हैं। इनके पिता शांतिलाल सांड पहले चुनाव में स्वतंत्र पार्टी से विधायक चुनकर गये थे। थोड़ा ही आगे स्टेट बैंक था, उसमें ताला लगा हुआ था। शायद उसे खाली किया जा चुका था। बाहर सिर्फ बोर्ड लटक रहा था।
नर्मदा पर बनाये जा रहे बांधों के तहत कई गांव पहले ही डूब चुके हैं। हरसूद एक अच्छा-खासा कस्बा है, मंडी है। ‘है’ की जगह अब कहना चाहिए - था। यह भी एक दिन डूब में आयेगा, प्रदेश की सरकारें इस बात को जानती रही हैं। इसलिए इस पर राजनीति भी होती रही। सरकार द्वारा निर्धारित इस अंतिम तिथि पर भी राजनीति चल रही है। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि मुश्किल से एक-डेढ़ हजार परिवारों वाले इस कस्बे के पुनर्वास का इंतजाम इतने साल में इस प्रदेश की दो-दो सरकारें भी क्यों नहीं कर पायीं। करोड़ों-अरबों की लागत से बनने वाले बांधों को बनाने की योजनाएं बन सकती हैं तो इन छोटे-छोटे गांवों के लोगों का पुनर्वास क्यों संभव नहीं हो पाता? गरीबों को एक छोटा-सा पक्का घर बनाकर देने में ही हमारे सारे साधन क्यों हमेशा कम पड़ जाते हैं। ज्यादा मुआवजे भी उन्हीं को मिलते हैं जो ज्यादा समर्थ हैं। हमारी राजनीति इतनी असंवेदनशील हो चुकी है कि किसी भी त्रासदी, किसी भी दुख, किसी भी आपदा में उसकी आंख नहीं भीगती। क्यों हम पुनर्वास के काम को एक निश्चित समय में पूरी मानवीय गरिमा क साथ अंजाम नहीं दे पाते?
मॉनसून आते-आते कहीं ठहर गया है। अगर समय पर मॉनसून आ गया होता तो हरसूद का डूबना शुरू हो गया होता। या शायद डूब चुका होता। यह आखिरी दिन है जब सबको अपना घरबार छोड़कर चले जाना है। सब लोग लेकिन अभी गये नहीं हैं। अपने मुआवजे के लिए लड़ रहे हैं। इस बांध से एक दिन रौशनी पैदा होगी, ऐसा कहा जाता है। लेकिन इस समय तो इस कस्बे के लोगों के लिए यह सिर्फ अंधेरा पैदा कर रहा है। हम लोग एक गली में घुसे तो देखा कि एक लगभग टूट चुके घर से रोने की जोर-जोर की आवाजें आ रही थीं। घर का कुछ सामान अस्त-व्यस्त सा था और कुछ कोनों में इकट्ठा किया हुआ था। एक तरफ छत से निकाली गयी टीनें टिकी थीं। सामान की आड़ से रोने की तेज-तेज आवाजें आ रही थीं। आशा काटिया ने किसी से पूछा, ‘क्या हुआ है?’ किसी ने कहा, ‘घर उजड़ गया है। रोयें नही ंतो क्या करें।’ लेकिन रोने की यह आवाज कुछ अलग थी। आशा काटिया आवाज की दिशा में गयी तो पता चला कि इस घर में रहने वाले एक बुजुर्ग की कुछ देर पहले मृत्यु हो गयी है। यह मृत्यु का विलाप था। घरों की मृत्यु के बीच मनुष्य की मृत्यु का वह विलाप एक कस्बे की मृत्यु के विलाप से एकमेक हो गया था।
अगस्त: 2004
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Post By: Shivendra