1958 की फरवरी में बनारस में दिया गया भाषण
हमारे देश की कुल चालीस करोड़ की आबादी में से तकरीबन एक या दो करोड़ लोग प्रतिदिन नदियों में डुबकी लगाते हैं और पचास से साठ लाख लोग नदी का पानी पीते हैं। उनके दिल और दिमाग नदियों से जुड़े हुए हैं। लेकिन नदियां शहरों से गिरने वाले मल और अवजल से प्रदूषित हो गई हैं। गंदा पानी ज्यादातर फैक्ट्रियों का होता है और कानपुर में ज्यादातर फ़ैक्टरियां चमड़े की हैं जो पानी को और भी नुकसानदेह बना रही हैं। फिर भी हजारों लोग यही पानी पीते हैं, इसी से नहाते हैं। साल भर पहले इस दिक्कत पर कानपुर में मैं बोला भी था।...अब मैं ऐसे मुद्दे पर बोलना चाहता हूं जिसका संबंध आमतौर पर धर्माचारियों से है लेकिन जब से वे अनावश्यक और बेकार बातों में लिप्त हो गए हैं, इससे विरत हैं। जहां तक मेरा सवाल है, यह साफ कर दूं कि मैं एक नास्तिक हूं। किसी को यह भ्रम न हो कि मैं ईश्वर पर विश्वास करने लगा हूं। आज के और अतीत के भी भारत की जीवन-पद्धति, दुनिया के दूसरे देशों की ही तरह, लेकिन और बड़े पैमाने पर, किसी न किसी नदी से जुड़ी रही हैं।
राजनीति की बजाए अगर मैं अध्यापन के पेशे में होता तो इस जुड़ाव की गहन जांच करता। राम की अयोध्या सरयू के किनारे बसी थी। कुरू, मौर्य और गुप्त साम्राज्य गंगा के किनारे पर फले-फुले, मुगल और शौरसेनी रियासतें और राजधानियां यमुना के किनारे पर स्थित थीं। साल भर पानी की जरूरत हो सकती है, लेकिन कुछ सांस्कृतिक वजहें भी हो सकती हैं।
एक बार मैं महेश्वर नाम की जगह में था जहां कुछ समय के लिए अहिल्या ने एक शक्तिशाली शासन स्थापित किया था।वहां ड्यूटी कर रहे संतरी ने यह पूछकर मुझे दंग कर दिया कि मैं किस नदी का हूं। यह दिलचस्प सवाल था क्योंकि मेरी भाषा, मेरे शहर या मेरे कस्बे के बारे में पूछताछ करने के बजाए उसने मुझसे मेरी नदी के बारे में पूछा। सभी बड़े साम्राज्य नदी-तटों पर बसते आए हैं, -चोल, पांड्य और पल्लव साम्राज्य क्रमशः कावेरी, व्यगीर और पालर नदियों के किनारों पर थे।
हमारे देश की कुल चालीस करोड़ की आबादी में से तकरीबन एक या दो करोड़ लोग प्रतिदिन नदियों में डुबकी लगाते हैं और पचास से साठ लाख लोग नदी का पानी पीते हैं। उनके दिल और दिमाग नदियों से जुड़े हुए हैं। लेकिन नदियां शहरों से गिरने वाले मल और अवजल से प्रदूषित हो गई हैं। गंदा पानी ज्यादातर फैक्ट्रियों का होता है और कानपुर में ज्यादातर फ़ैक्टरियां चमड़े की हैं जो पानी को और भी नुकसानदेह बना रही हैं। फिर भी हजारों लोग यही पानी पीते हैं, इसी से नहाते हैं। साल भर पहले इस दिक्कत पर कानपुर में मैं बोला भी था।
क्या हमें नदियों के खिलाफ एक आंदोलन शुरू करना चाहिए? अगर ऐसा आंदोलन सफल हो जाए तो अकूत धन की बचत भी हो पाएगी। अवजल को शोधित करके गंगा या कावेरी में ही डाल देने की बजाए ड्रेन पाइपों के जरिए उन्हें नदी से दस-बीस मील दूर ले जाया जाए और मैदानों में छोड़ा जाए। इस जगह पर खाद बनाने की फ़ैक्टरी खोली जा सकती है।
देखने में यह खर्चीला लगता है। लेकिन समूची दृष्टि को क्रांतिकारी तरीके से बदलना होगा। खर्च करोड़ों में होगा, लेकिन सरकार पंचवर्षीय योजनाओं में 2200 करोड़ रुपए सालाना क्या नहीं खर्च कर दे रही है? मुमकिन है, कुछ अन्य परियोजानाओं के अमल को टालना पड़े। लेकिन ऐसी योजना को लागू करने के रास्ते में आने वाले अवरोधों को भी मैं जानता हूं।
हमारे वर्तमान शासक और भविष्य में शासन बनने के आकांक्षी जन नकली और सतही तौर-तरीकों से देश का यूरोपीयकरण कर डालने के बारे में सोचते हैं और आज के शासक हैं कौन? वे एक लाख होंगे, या इससे भी कम, जो जरा-सी अंग्रेजी जानते हैं। वे जानते हैं कि छुरी-कांटे का इस्तेमाल कैसे किया जाता है तथा टाई और कोट कैसे पहनना चाहिए। उन्होंने एक ताकतवर संसार बना लिया है और उनके नेता हैं पंडित नेहरू। श्री संपूर्णानंद भी उसी संसार का प्रतीक हैं, हालांकि अपने कपड़े-लत्ते से वह यूरोपियन नहीं लगते लेकिन अगर श्रीयुत नेहरू को अमेरिका जाना हो तो वहां वह भी ऐसी ही शख्सियतों में गिने जाएंगे।
शहर बनारस में भगवान विश्वनाथ को लेकर आंदोलन चला है। अब उनका एक नया मंदिर भी बनाया जा रहा है। दरअसल यह आंदोलन भगवान विश्वनाथ के लिए था ही नहीं। संघर्ष तो ब्राह्मणों के देवता और चमारों के देवता के बीच था। हिंदू मानस बेकार ही फालतू मामलों में उलझा रहता है। अगर सिर्फ करपात्री जी ने उस अंदाज में काम कर दिखाया होता जिसका संकेत मैंने किया है, तो समस्या सुलझ गई होती। लेकिन करपात्री जी कौन सी दुनिया की नुमाइंदगी करते हैं। वे राजस्थान के धनकुबेरों और घनघोर सामन्तों के प्रतिनिधी हैं। एक की बजाए दो विश्वनाथ मंदिर बनवा देने से कोई समाधान नहीं होगा। आवश्यकता पूरे देश की पुनर्रचना और गरीबी के उन्मूलन की है।
आज हमारी सेना के जवान कौन हैं? ये गरीब के बेटे हैं और वे लोग हैं जो जान देते हैं। ये वे हैं जो देहरादून और सैंडहर्स्ट के नकली माहौल में प्रशिक्षित अधिकारियों के हुक्म की तामील करते हैं। अफसर समृद्ध वर्गों के हैं। वे आधुनिक विश्व के नुमाइंदे हैं। वे क्या देश के लाखों लोगों के लिए दिक हों? उनके पास भारतीय दिमाग है भी नहीं। अगर ऐसा होता तो नदियों की सफाई की योजनाएं आज बिल्कुल तैयार होतीं।
मैं चाहता हूं कि पार्टी से बाहर के लोग बैठकें करने, जुलस निकालने और संगोष्ठियां आयोजित करके सरकार को नदी-प्रदूषण-निवारण परियोजनाओं को उठाने के लिए बाध्य करने की खातिर सोशलिस्ट पार्टी से हाथ मिला लें। हमें खुद भी इस संकल्प के साथ तैयार रहना होगा कि यदि तीन से छह महीने के भीतर अवजल के प्रवाह को मैदानों की ओर नहीं मोड़ा गया तो हम वर्तमान ड्रेनेज सिस्टम को तोड़ देंगे और इस तोड़फोड़ में किसी किस्म की हिंसा नहीं होगी।
कबीर ने कहा है :
माया महाठगनि मैं जानी
केशव की कमला बन बैठी,
शिव के भवन भवानी
पंडा की मूरत बन बैठी?
तीरथ में भई पानी
तीर्थ में क्या है? सिर्फ पानी तो लोगों को सरकार को डांटना चाहिए, ‘तुम बेशर्म लोग, बंद करो यह मलिनता।’ मैं तो फिर भी नास्तिक हूं। मेरे लिए सवाल तीर्थ का नहीं है, यह है कि हमारा देश तीस लाख लोगों का है या चालीस करोड़ का।
राममनोहर लोहिया की मशहूर किताब ‘इंटरवल ड्यूरिंग पॉलिटिक्स’, नवहिंद प्रकाशन, हैदराबाद, प्रथम संस्करण 1965 में शामिल निबंध से साभार। लोहिया जी की दूसरी पुस्तकों की तरह इस पुस्तक का आवरण भी महान चित्राकार एम.एफ. हुसैन ने तैयार किया था।
अंग्रेजी से अनुवाद- व्योमेश शुक्ल
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