तृष्णा-त्याग, उन्नत जीवन की चाभी

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भूमि मातृ देवता है और मैं हूँ इस पृथ्वी का पुत्र! फिर मात्र मैं ही कैसे इसका पुत्र रहूँगा? इस धरती पर जीवन जीने वाले सभी प्राणी, पशु-पक्षी, कीट-पतंग-चीटियाँ, एकदम सूक्ष्म बैक्टीरिया का विश्व और यह आकाश स्पर्शी वन-सम्पदा, उसके चरणों को गुदगुदी करने वाली हरियाली, मस्तक पर विराजमान नील आकाश यह पवन, वर्षा सभी एक परिवार में समाविष्ट हुए हैं न? कुटुम्ब की कल्पना तो मानवी है। ईश्वर की दृष्टि से देखेंगे तो सारे ब्रह्माण्ड में समायी हुई विविधता उसके व्यक्तित्व में या अस्तित्व में, गुँथी हुई ही है न?

स्वयं-निर्मित मानवीय संकट परम्परा पर सोचने वाले महान व्यक्ति औद्योगिक क्रान्ति के प्रारम्भ से अपनी आवाज और लेखनी उठाते रहे। निश्चित रूप से कहाँ और कितना गलत हो रहा है इस पर उन लोगों ने उंगली रखी और उपाय करने के लिये पथ-प्रदर्शन भी किया। पर विकास का जबरदस्त प्रवाह समदर्शी थोरो-रस्किन, भाव गम्भीर टॉलस्टॉय और इनके जैसे महात्माओं को किनारे करके दुनिया भर में फैलता गया। पौर्वात्य देशों में सम्पत्ति का, बाह्य वैभव का और भोगों का गुणगान कभी हुआ ही नहीं।

आधुनिक काल के इतिहासज्ञ आर्नोल्ड टॉयन्बी ने कहा है- ‘भौतिक सम्पद का तिरस्कार पूर्वीय देशों के जितना ही पश्चिम के देशों में भी हुआ है।’ और बेंजामिन फ्रेंकलिन के उद्गार थे : पैसे ने अब तक किसी को भी सुख दिया नहीं है। मनुष्य के पास जितनी अधिक चीजें होती हैं, उनसे अधिक की इच्छा वह करता जाता है। मन के खालीपन को भोग से भर देने का तय कर लिया तो वह और अधिक गहरा हो जाता है। (इन्स्टेड ऑफ फिलिंग दि वैक्यूम, इट मेक्स वन)!

अपने यहाँ पुराणों में अतिभोग की व्यर्थता राजा ययाति के मुख से उद्घोषित हुई है। वह तो भारतीय संस्कृति का ही उद्गार है : यह चाहिए, वह भी चाहिए, यह तृष्णा, यह कामना उपभोग करने पर शमित नहीं हो तो, कभी तृप्त नहीं होती। अग्नि में आहूति देने पर अग्नि ज्वाला बुझकर शीतल नहीं होती, उल्टे, अधिक ही भड़क उठती है।

न जातु कामः कामनां उपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेय भूयेव अभिवर्धते।।


अधिक प्राप्ति की कामना, दूसरे की सम्पदा अपनी हो जाए, केवल अपनी ही होकर रहे, यह वासना मानव-मन को चिपका हुआ रोग है। यही दुःख का कारण है। भगवान बुद्ध की परिभाषा में यही तृष्णा है-जो सभी मानवी दुःखों की जड़ है। सुख की, निरामय आनन्द की कांक्षा होगी तो इस तृष्णा को बढ़ाना नहीं चाहिए। उसे क्षीण करने के लिये जीवन-भर साधना करनी आवश्यक है। उपनिषदों, वेदों और सभी धर्मों की सिखावन ने वासना-विकारों का शमन करने का मार्ग प्रशस्त किया है।

परन्तु भोग के मार्ग की ओर जो मुड़े ही नहीं, नित्य प्रकृति के निरोग वातावरण में पले आदिवासियों की सभ्यता सहजता उपनिषदों के ऋषियों के जीवन-दर्शन प्रकट करेगी यह सहज-स्वाभाविक है। 1854 में वॉशिंग्टन के गोरे प्रमुख ने सिएटल के आदिवासी रेड इण्डियंस के प्रमुख के पास उनकी जमीन खरीदने की इच्छा व्यक्त की उसे रेड इण्डियन प्रमुख जो जवाब भेजता है उसकी भाषा में केवल आदिवासियों की नहीं, प्राचीन काल से सृष्टि के साथ एकरूप होकर जीने की कला जहाँ-जहाँ विकसित हुई उसी का शब्दांकन हुआ है।

उन शब्दों में सभी महान विभूतियों ने ऋषि, मुनि, साधकों द्वारा विकसित की हुई, शान्ति का, आनन्द का समाधान का साम्राज्य निर्माण करने वाली दृष्टि ही व्यक्त हो गई है। वह रेड-इण्डियनों का नेता कहता है : आप आकाश, जमीन व सूर्य इनको बेच या खरीद कैसे सकेंगे? यह खरीद बिक्री की कल्पना ही हमें विचित्र लगती है। निर्मल वातावरण और पवित्र जल इन पर अपना कुछ भी अधिकार नहीं होता है। तो आप उनको खरीदेंगे कैसे? हम तो धरती का एक हिस्सा, एक अंग ही होते हैं और यह वसुधा भी हमारी अंगभूत हिस्सा है। सुगन्धित पुष्प हमारी बहनें हैं। हिरण, अश्व, गरुड़ ये सभी हमारी बिरादरी के हैं। पहाड़ियों के पथरीले मस्तक, पशुओं की गोचर भूमि में से बहने वाला मधुर रस, अश्वों के शरीर की ऊष्मा और मानव ये सभी एक ही परिवार के सदस्य हैं। पैसे से खरीदे गए इन्द्रिय सुख से यह चारों ओर की जीवन्त सृष्टि से एकरूप होने का आनन्द अनेक गुना उन्नत और शान्तिदायी है, यह आत्मौपम्य दर्शन इन शब्दों में व्यक्त हुआ है और वह भी अनायास, अबूझ रहकर।

सहस्रों वर्ष पहले इस देश में शब्दांकित हुए वैदिक पृथ्वी-सूक्त में ऋषि ने इस उन्नत जीवन की चाबी कैसी प्रकट की है?

माता भूमिः पुत्रोSहं पृथिव्याः।

यह भूमि मातृ देवता है और मैं हूँ इस पृथ्वी का पुत्र! फिर मात्र मैं ही कैसे इसका पुत्र रहूँगा? इस धरती पर जीवन जीने वाले सभी प्राणी, पशु-पक्षी, कीट-पतंग-चीटियाँ, एकदम सूक्ष्म बैक्टीरिया का विश्व और यह आकाश स्पर्शी वन-सम्पदा, उसके चरणों को गुदगुदी करने वाली हरियाली, मस्तक पर विराजमान नील आकाश यह पवन, वर्षा सभी एक परिवार में समाविष्ट हुए हैं न? कुटुम्ब की कल्पना तो मानवी है। ईश्वर की दृष्टि से देखेंगे तो सारे ब्रह्माण्ड में समायी हुई विविधता उसके व्यक्तित्व में या अस्तित्व में, गुँथी हुई ही है न? वेद का पुरुष सूक्त यही बात भिन्न तरीके से कहता है:

सहस्रशीर्षः पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपाद्।
सभूमि विश्वतोयत्वात् अत्यतिष्ठत् दशांगुलम्।।


सहस्र यानी अनन्त-मस्तकों का, अनन्त नेत्रों से युक्त और अनन्त चरणों का ईश्वर भूमि से लेकर अखिल विश्व को व्याप्त करने तक इतना ही नहीं, उससे भी परे फैलकर विराजमान है। इस अनन्त विस्तार में अखिल ब्रह्माण्ड समाया है।

लेकिन इस तरह कहाँ तक एकात्म जीवन-सत्य के विषय में शब्दों से कहते रहेंगे? ईशावास्य उपनिषद के दृष्टा ऋषि ने एक ही श्लोक में यह समझा दिया है और इसे समझाने के बहाने समग्र जीवन-दर्शन अभिव्यक्त हुआ है।

ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद् धनम्।।


जगत का जो जग-पन है, उसके आन्तर्बाह्य स्पन्दित होने वाला सुई के नोक जितना स्थान भी, ईश्वर के बिना रिक्त नहीं है। इसलिये वह देगा तो ही और जितना देगा उतना ही हमें लेना है। अपने साथियों की चीजों की ओर, उनकी सम्पत्ति की तरफ गीध की, लूटने वाले की नजर से नहीं देखना, यह गृध-वृत्ति मनुष्य को मर्यादा में डालती है, वासना प्रज्वलित करती है। जो है वह सारा प्रभु का है यह अहसास, यह भान मनुष्य को संयम सिखाता है, स्वार्थ शून्य बनाता है।

मानव-जीवन का शास्त्र सिखाता है कि धरातल पर रहने वाला मनुष्य मृत्यु लोक में रहता है। उसका अधिक-से-अधिक जीवन कितने वर्षों का होगा? सौ-सवा-सौ वर्षों का होगा। इसके पश्चात इस शरीर के साथ सब कुछ जो भी कुछ अपना माना जाता है। वह सारा ही यहाँ धरती को अर्पण करके मृत्यु की शरण में जाना होता है। कोई रोग से मरता है, तो कोई योग मार्ग से शरीर त्याग करके जाता है। ‘जातस्य हि धृवो मृत्युः।’ जन्म लेकर आए हुए सभी को निश्चित रूप से मृत्यु पकड़ लेती है। यह सत्य भागवत गीता ने घोषित किया। मृत्यु में परिणत हो जाना यानी जीवन की शोकान्तिकोही मान्य करने की बात हो गई। इसलिये मृत्यु को जीत लेने की वृत्ति भोगी और योगी दोनों में ही पायी जाती है। आधुनिक आरोग्य शास्त्र ने मनुष्य को मृत्यु के पंजे से छुड़ाने के लिये कितना प्रयास चलाया है।

अपना व्यक्तित्व, मालकियत का हक, नौकर-चाकर, सुख-सुविधाओं, रिश्ते-नाते के लोग-यह सारे कभी तो छीना जाने वाला ऐश्वर्य है इसकी कल्पना भोगासक्त मनुष्य के मन को-जो नित्य ‘मेरा-मेरा’ करता रहता है कैसे प्रिय हो सकती है? इसलिये कुछ भी करके अपना ‘मैं पन’ बच जाए ऐसा प्रयास मनुष्य करता आया है। परन्तु ये सारे प्रयास आखिर अन्धगली की बन्द दीवार पर टकराकर विफल होते रहे हैं।
 

 

सन्तुलित पर्यावरण और जागृत अध्यात्म

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम संख्या

अध्याय

1.

वायु, जल और भूमि प्रदूषण

2.

विकास की विकृत अवधारणा

3.

तृष्णा-त्याग, उन्नत जीवन की चाभी

4.

अमरत्व की आकांक्षा

5.

एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त

6.

निष्ठापूर्वक निष्काम सेवा से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति

7.

एकात्मता की अनुभूति के लिये शिष्यत्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका

8.

सर्व-समावेश की निरहंकारी वृत्ति

9.

प्रकृति प्रेम से आत्मौपम्य का जीवन-दर्शन

10.

नई प्रकृति-प्रेमी तकनीक का विकास हो

11.

उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम

12.

अपना बलिदान देकर वृक्षों को बचाने वाले बिश्नोई

13.

प्रकृति विनाश के दुष्परिणाम और उसके उपाय

14.

मानव व प्रकृति का सामंजस्य यानी चिपको

15.

टिहरी - बड़े बाँध से विनाश (Title Change)

16.

विकास की दिशा डेथ-टेक्नोलॉजी से लाइफ टेक्नोलॉजी की तरफ हो

 

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