समाज में कई परंपराएँ जन्म लेती हैं और कई टूट जाती हैं। परंपराओं का प्रारंभ होना और टूटना विकासशील समाज का आवश्यक तत्त्व है। कुछ परंपराएँ टूटने के लिए ही होती हैं पर कुछ परंपराएँ ऐसी होती हैं, जिनका टूटना मन को दु:खी कर जाता है और परंपराएँ हमारे देखते ही देखते समाप्त हो जाती हैं, उसे परंपरा की मौत कहा जा सकता है।
कुछ ऐसा ही अनुभव तब हुआ, जब पाऊच और बोतल संस्कृति के बीच प्याऊ की परंपरा को दम तोड़ते देख रहा हूँ। पहले गाँव, कस्बों और शहरों में कई प्याऊ देखने को मिल जाते थे। जहाँ टाट से घिरे एक कमरे में रेत के ऊपर रखे पानी से भरे लाल रंग के घड़े होते थे। बाहर एक टीन की चादर को मोड़कर पाइपनुमा बना लिया जाता था। पानी कहते ही भीतर कुछ हलचल होती और उस पाइपनुमा यंत्र से ठंडा पानी आना शुरू हो जाता था। प्यास खत्म होने पर केवल अपना सर हिलाने की जरूरत पड़ती और पानी आना बंद।
ज़रा अपने बचपन को टटोलें, इस तरह के अनुभवों का पिटारा ही खुल जाएगा। अब यदि आपको उस पानी पिलाने वाली बाई का चेहरा याद आ रहा हो, तो यह भी याद कर लें कि कितना सुकून हुआ करता था, उसके चेहरे पर। एक अंजीब सी शांति होती थी, उसके चेहरे। इसी शांति और सुकून को कई बार मैंने उन माँओं के चेहरे पर देखा हैं, जब वे अपने मासूम को दूध पिलाती होती हैं।
कई बार रेल्वे स्टेशनों पर गर्मियों में पानी पिलाने का पुण्य कार्य किया जाता। पानी पिलाने वालों की केवल यही प्रार्थना होती, जितना चाहे पानी पीयें, चाहे तो सुराही में भर लें, पर पानी बरबाद न करें। उनकी यह प्रार्थना उस समय लोगों को भले ही प्रभावित न करती हों, पर आज जब उन्हीं रेल्वे स्टेशनों में एक रुपए में पानी का छोटा-सा पाऊच खरीदना पड़ता है, तब समझ में आता है कि सचमुच उनकी प्रार्थना का कोई अर्थ था।
मुहावरों में 'पानी पिलाना' का अर्थ भले ही मजा चखाना होता हो, पर यह सनातन सच है कि पानी पिलाना एक पुण्य कार्य है। अच्छी भावना के साथ किसी प्यासे को पानी पिलाना तो और भी पुण्य का काम है। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। कार्यालयों में उस चपरासी या पानी वाली बाई को ही देख लें, जो बहुत ही इत्मीनान से लोगों को पानी पिलाने का पुण्य कार्य करते हैं। हालाँकि वे इस कार्य को अपनी डयूटी समझते हैं। पर यह सच है कि जब वे हमें गिलास में पानी देते हैं, तब उनके चेहरे पर एक सुकून होता है। वह सुकूनभरा चेहरा अब आपको और कहीं नहीं मिलेगा।
समय के साथ सब कुछ बदल जाता है, पर अच्छी परंपराएँ जब देखते ही देखते दम तोड़ने लगती है, तब दु:ख का होना स्वाभाविक है। पुरानी सभी परंपराएँ अच्छी थीं, यह कहना मुश्किल है, पर कई परंपराएँ जिसके पीछे किसी तरह का कोई स्वार्थ न हो, जिसमें केवल परोपकार की भावना हो, उसे तो अनुचित नहीं कहा जा सकता। उस प्याऊ परंपरा में यह भावना कभी हावी नहीं रही कि पानी पिलाना एक पुण्य कार्य है। मात्र कुछ लोग चंदा करते और एक प्याऊ शुरू हो जाता। अब तो कहीं-कहीं प्याऊ के उद्धाटन की खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं, पर कुछ दिनों बाद वह या तो पानी बेचने का व्यावसायिक केंद्र बनकर रहा जाता है या मवेशियों का आश्रय स्थल बन जाता है.
कल्पना करें, कोई राहगीर दूर से चलता हुआ किसी गाँव या शहर में प्रवेश करता है, उसे प्यास लग रही है। वह पानी की तलाश में है, तब उसे कहीं प्याऊ दिखाई देता है। जहाँ वह छककर ठंडा पानी पीता है, उसकी आत्मा ही तृप्त हो जाती है। वह आगे बढ़ता है, बहुत सारी दुआएँ देकर। यही दुआएँ जो उसके दिल से निकली, कभी बेकार नहीं गई। आज एक गिलास पानी भी बड़ी जद्दोजहद के बाद मिलता है। ऐसे में कहाँ की दुआ और कहाँ की प्रार्थना?
देखते ही देखते पानी बेचना एक व्यवसाय बन गया। यह हमारे द्वारा किए गए पानी की बरबादी का ही परिणाम है। आज भले ही हम पानी बरबाद करना अपनी शान समझते हों, पर सच तो यह है कि यही पानी एक दिन हम सबको पानी-पानी कर देगा, तब भी हम शायद समझ नहीं पाएँगे, एक-एक बूँद पानी का महत्व। पानी पिलाने की संस्कृति के साथ ही संवेदना की एक काव्यात्मक अनुभूति भी शायद सदा के लिए मिट जाएगी, तृप्ति की वह अनुभूति जिसके लिए कह गया है-
प्रकृति जागर
भरे गागर,
दूर तक फैला हुआ है
रेत सागर
ढूँढती है दृष्टि खाली
तृप्ति वो ही प्याऊ वाली
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