उत्तराखंड की त्रासदी देश को दशकों तक याद रहेगी। ऐसा विनाश पहाड़ी क्षेत्र में पहले कभी नहीं हुआ। इसका प्रमाण यह अकेला तथ्य है कि केदारनाथ मंदिर वहां 1200 वर्ष से स्थित है और पहली बार उसके चारों तरफ तबाही हुई है। आरोप-प्रत्यारोपों से लेकर विेश्लेषणों तक का दौर जारी है और इसके बीच विकास और विनाश की मौजूदा नीतियों पर बहस भी।
जब तक जनसंख्या वृद्धि पर कोई रोक नहीं लगती तब तक विनाश के ऐसे मंजर बार-बार सामने आते रहेंगे। क्या गंगा, यमुना या बाकी नदियों का विनाश इसका संकेत नहीं है? दिल्ली के कॉलेजों में सौ सीटों की बजाय चार गुने विद्यार्थियों को लेना या दिल्ली के स्कूलों में एक-एक कक्षा में सौ से अधिक विद्यार्थियों को दाखिल करना इसी जनसंख्या विस्फोट और विकेन्द्रीकृत मॉडल के परिणाम हैं।विकास के बेहतर मॉडल के सुन्दर सपने से अस्तित्व में आए उत्तराखंड के विकास की पोल दस सालों में ही खुल गई है। बताते हैं कि पहाड़ी समाज इतनी तेजी से भ्रष्ट कभी नहीं हुआ। आज भी उनकी छवि मेहनती, सीधे-सादे लोगों की है। लेकिन जिस रफ्तार से अलग राज्य के गठन के बाद, आय के साधनों को बढ़ाने के लिए पर्यटन उद्योग पर ध्यान दिया गया, उसी रफ्तार से यहां का पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है।
देश भर के नगरों, महानगरों की भीड़ गर्मी, उमस से बचने के लिए पहाड़ों की तरफ रुख कर रही है। इस बीच यदि चारधाम तीर्थयात्रा के लिए भी जनता उमड़े तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह हमारी ही नीतियों का परिणाम है। इससे हम सबक सीख सकते हैं कि जिस रफ्तार से वहां पर्यटक बढ़े हैं, हमें भी व्यवस्था को बेहतर बनाने की जरूरत है।
त्रासदी से कुछ दिन पहले वहां जाने वाले पर्यटकों की शिकायत थी कि न पर्याप्त होटल थे, न अच्छी सड़कों की व्यवस्था और न खाने-पीने और दुकानों का कोई इंतजाम। इन कमियों की वजह से चीजें कई-कई गुना अधिक दामों पर वहां उपलब्ध हो रही हैं।
पर्यटन को बढ़ावा तो हिमाचल और वैष्णो देवी जैसे तीर्थस्थानों ने भी दिया है, लेकिन वहां व्यवस्थागत परिवर्तन भी सकारात्मक हुए हैं। यह सबक भी सीखना पड़ेगा कि इन सभी क्षेत्रों में पर्यटकों की संख्या को सख्ती से नियमित किया जाए।
दूसरा सबक आपदा प्रबंधन का है। इस मोर्चे पर पूरे देश में हम हर बार असफल होते हैं। सुनामी हो, कोसी की बाढ़ हो या मुम्बई पर हमला। आपदा प्रबंधन इस देश में अभी कागजों से जमीन पर उतरा ही नहीं है। आपको याद होगा, अमेरिका के टावर पर हमले के आठ मिनट के अन्दर ही वहां का आपदा प्रबंधन सक्रिय हो गया था। इतनी भयंकर तबाही के बीच भी जिस तेजी से अमेरिकी एजेंसियों ने काम किया, उससे हम सभी सबक सीख सकते हैं।
यदि उत्तराखंड की तबाही में करिश्मा किसी ने दिखाया तो वह सेना के जवान थे। हमें यह भी सीखने की जरूरत है कि आखिर ब्रिटिश सत्ता और शैली की सबसे मजबूत विरासत आज भी इतनी सफल क्यों है? वे क्यों जान की बाजी लगाकर जनहित के कामों में खुद आगे बढ़ते हैं। क्योंकि सेना अभी भी जाति और धर्म के विभाजनों से बची हुई है।
एक और सबक जो पूरे देश को समझने की जरूरत है वह है जनसंख्या नियंत्रण का। बुद्धिजीवियों की बहस विकास की इकहरी गली में ही उलझ कर रह जाती है जिसका अर्थ कुछ-कुछ यह होता है कि विकास किया ही न जाए। बराबरी के अधिकार के नाते इस देश के हर नागरिक को बेहतर सुविधाएं पाने का हक है। उसे कार चाहिए, अच्छा स्कूल, अच्छी सड़कें, टी.वी. या जो भी जरूरत है, बल्कि इस देश के नागरिक को तो जरूरत से ज्यादा चाहिए। इन्हीं सुख-सुविधाओं की तलाश में अब कोई तीर्थ के बहाने या पहाड़ों पर मस्ती करने के लिए उत्तराखंड जाता है तो कोई अपराध तो नहीं।
जब तक जनसंख्या वृद्धि पर कोई रोक नहीं लगती तब तक विनाश के ऐसे मंजर बार-बार सामने आते रहेंगे। क्या गंगा, यमुना या बाकी नदियों का विनाश इसका संकेत नहीं है? दिल्ली के कॉलेजों में सौ सीटों की बजाय चार गुने विद्यार्थियों को लेना या दिल्ली के स्कूलों में एक-एक कक्षा में सौ से अधिक विद्यार्थियों को दाखिल करना इसी जनसंख्या विस्फोट और विकेन्द्रीकृत मॉडल के परिणाम हैं।
बताते हैं कि 2025 तक भारत की आबादी चीन को भी पीछे छोड़ देगी। आखिर पहाड़ों पर विकास का अतिरिक्त बोझ है तो जनसंख्या का दबाव भी है। जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ रही है इस पूरे विमर्श में क्यों राजनीतिक दल चुप हैं । पिछले दो दशक से तो वोट बैंक की राजनीति के चलते जनसंख्या के मुद्दे से बुद्धिजीवियों की भी लगभग बचने की कोशिश रही है। इतने जान-माल की तबाही के बाद हमें अपने संसाधनों और जनसंख्या के बीच भी किसी संतुलित विकल्प की तलाश करनी होगी। इतना अतिरिक्त बोझ न पहाड़ सह सकते हैं, न दिल्ली, न रेलगाड़ी।
जब तक जनसंख्या वृद्धि पर कोई रोक नहीं लगती तब तक विनाश के ऐसे मंजर बार-बार सामने आते रहेंगे। क्या गंगा, यमुना या बाकी नदियों का विनाश इसका संकेत नहीं है? दिल्ली के कॉलेजों में सौ सीटों की बजाय चार गुने विद्यार्थियों को लेना या दिल्ली के स्कूलों में एक-एक कक्षा में सौ से अधिक विद्यार्थियों को दाखिल करना इसी जनसंख्या विस्फोट और विकेन्द्रीकृत मॉडल के परिणाम हैं।विकास के बेहतर मॉडल के सुन्दर सपने से अस्तित्व में आए उत्तराखंड के विकास की पोल दस सालों में ही खुल गई है। बताते हैं कि पहाड़ी समाज इतनी तेजी से भ्रष्ट कभी नहीं हुआ। आज भी उनकी छवि मेहनती, सीधे-सादे लोगों की है। लेकिन जिस रफ्तार से अलग राज्य के गठन के बाद, आय के साधनों को बढ़ाने के लिए पर्यटन उद्योग पर ध्यान दिया गया, उसी रफ्तार से यहां का पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है।
देश भर के नगरों, महानगरों की भीड़ गर्मी, उमस से बचने के लिए पहाड़ों की तरफ रुख कर रही है। इस बीच यदि चारधाम तीर्थयात्रा के लिए भी जनता उमड़े तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह हमारी ही नीतियों का परिणाम है। इससे हम सबक सीख सकते हैं कि जिस रफ्तार से वहां पर्यटक बढ़े हैं, हमें भी व्यवस्था को बेहतर बनाने की जरूरत है।
त्रासदी से कुछ दिन पहले वहां जाने वाले पर्यटकों की शिकायत थी कि न पर्याप्त होटल थे, न अच्छी सड़कों की व्यवस्था और न खाने-पीने और दुकानों का कोई इंतजाम। इन कमियों की वजह से चीजें कई-कई गुना अधिक दामों पर वहां उपलब्ध हो रही हैं।
पर्यटन को बढ़ावा तो हिमाचल और वैष्णो देवी जैसे तीर्थस्थानों ने भी दिया है, लेकिन वहां व्यवस्थागत परिवर्तन भी सकारात्मक हुए हैं। यह सबक भी सीखना पड़ेगा कि इन सभी क्षेत्रों में पर्यटकों की संख्या को सख्ती से नियमित किया जाए।
दूसरा सबक आपदा प्रबंधन का है। इस मोर्चे पर पूरे देश में हम हर बार असफल होते हैं। सुनामी हो, कोसी की बाढ़ हो या मुम्बई पर हमला। आपदा प्रबंधन इस देश में अभी कागजों से जमीन पर उतरा ही नहीं है। आपको याद होगा, अमेरिका के टावर पर हमले के आठ मिनट के अन्दर ही वहां का आपदा प्रबंधन सक्रिय हो गया था। इतनी भयंकर तबाही के बीच भी जिस तेजी से अमेरिकी एजेंसियों ने काम किया, उससे हम सभी सबक सीख सकते हैं।
यदि उत्तराखंड की तबाही में करिश्मा किसी ने दिखाया तो वह सेना के जवान थे। हमें यह भी सीखने की जरूरत है कि आखिर ब्रिटिश सत्ता और शैली की सबसे मजबूत विरासत आज भी इतनी सफल क्यों है? वे क्यों जान की बाजी लगाकर जनहित के कामों में खुद आगे बढ़ते हैं। क्योंकि सेना अभी भी जाति और धर्म के विभाजनों से बची हुई है।
एक और सबक जो पूरे देश को समझने की जरूरत है वह है जनसंख्या नियंत्रण का। बुद्धिजीवियों की बहस विकास की इकहरी गली में ही उलझ कर रह जाती है जिसका अर्थ कुछ-कुछ यह होता है कि विकास किया ही न जाए। बराबरी के अधिकार के नाते इस देश के हर नागरिक को बेहतर सुविधाएं पाने का हक है। उसे कार चाहिए, अच्छा स्कूल, अच्छी सड़कें, टी.वी. या जो भी जरूरत है, बल्कि इस देश के नागरिक को तो जरूरत से ज्यादा चाहिए। इन्हीं सुख-सुविधाओं की तलाश में अब कोई तीर्थ के बहाने या पहाड़ों पर मस्ती करने के लिए उत्तराखंड जाता है तो कोई अपराध तो नहीं।
जब तक जनसंख्या वृद्धि पर कोई रोक नहीं लगती तब तक विनाश के ऐसे मंजर बार-बार सामने आते रहेंगे। क्या गंगा, यमुना या बाकी नदियों का विनाश इसका संकेत नहीं है? दिल्ली के कॉलेजों में सौ सीटों की बजाय चार गुने विद्यार्थियों को लेना या दिल्ली के स्कूलों में एक-एक कक्षा में सौ से अधिक विद्यार्थियों को दाखिल करना इसी जनसंख्या विस्फोट और विकेन्द्रीकृत मॉडल के परिणाम हैं।
बताते हैं कि 2025 तक भारत की आबादी चीन को भी पीछे छोड़ देगी। आखिर पहाड़ों पर विकास का अतिरिक्त बोझ है तो जनसंख्या का दबाव भी है। जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ रही है इस पूरे विमर्श में क्यों राजनीतिक दल चुप हैं । पिछले दो दशक से तो वोट बैंक की राजनीति के चलते जनसंख्या के मुद्दे से बुद्धिजीवियों की भी लगभग बचने की कोशिश रही है। इतने जान-माल की तबाही के बाद हमें अपने संसाधनों और जनसंख्या के बीच भी किसी संतुलित विकल्प की तलाश करनी होगी। इतना अतिरिक्त बोझ न पहाड़ सह सकते हैं, न दिल्ली, न रेलगाड़ी।
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Post By: pankajbagwan