जापान का फुकुशिमा शहर परमाणु दुर्घटना की जिंदा मिसाल बन चुका है। तमाम मुल्कों में अणु ऊर्जा को लेकर पुनर्विचार का दौर शुरू हुआ है और आंदोलन भी हो रहे हैं। फुकुशिमा की त्रासदी का एक साल पूरा होने पर इसके विभिन्न आयामों के बारे में कुमार सुंदरम् बता रहे हैं।
आज के दिन पिछले साल जापान के सेंदाई प्रांत में भूकंप और सुनामी का भीषण दोहरा कहर बरपा था। इस भयावह तबाही से निपटने की कोशिश शुरू भी नहीं हुई थी कि फुकुशिमा दाई-इचि अणुबिजलीघर में एक-एक करके रिएक्टरों में विस्फोट होने की खबर आनी शुरू हो गई। जैसा कि एक साल बाद इस हफ्ते खुद जापान के प्रधानमंत्री योशिहिको नोदा ने स्वीकार किया अणु-ऊर्जा अपने आप में खतरनाक होती है और परमाणु सुरक्षा एक मिथक है। दरअसल, इसके साथ मूल दिक्कत यह है कि जहां दूसरे सभी प्रकार के कारखाने और बिजलीघर ईंधन की आपूर्ति बंद करने से बंद हो जाते हैं, परमाणु ऊर्जा यूरेनियम के नाभिक के स्वतः विखंडित होने से पैदा होने वाले ताप से बनती है और यह प्रक्रिया किसी दुर्घटना की अवस्था में तुरंत रोकी नहीं जा सकती। नियंत्रक-छड़ों द्वारा नाभिकीय विखंडन धीमा कर देने के बावजूद रिएक्टर में पड़ा ईंधन अत्यधिक गर्मी पैदा करता रहता है और इससे हिफाजत के लिए परमाणु- ईंधन टैंक के इर्द-गिर्द वर्षों तक लगातार पानी का प्रवाह रखा जाना जरूरी होता है। इस सब के लिए किसी भी अणु बिजलीघर को लगातार बाहरी बिजली की जरूरत होती है।
पिछले साल 11 मार्च को फुकुशिमा तीन रिएक्टरों में उपयोग किए जाने वाले आपातकालीन शीतक-यंत्र शुरू में ही सुनामी द्वारा नाकाम कर दिए गए और बैटरी-चालित शीतन ने जल्दी ही साथ छोड़ दिया। फिर रिएक्टर की चिमनी से रेडियोधर्मीता-मिश्रित भाप बाहर निकाली गई, लेकिन अणु, भट्ठी का ताप इससे कम नहीं हुआ। ऐसी स्थिति की कभी कल्पना नहीं की गई थी और तब टोक्यो बिजली उत्पादन कंपनी (टेपको) ने इन अणु-भट्ठियों में समुद्र का पानी भरने की बात सोची। समुद्र का पानी भारी मात्रा में और तेज गति से रिएक्टर के केंद्रक में डाला जाना था, जो अफरातफरी के माहौल में ठीक से नहीं हो पाया। अपेक्षाकृत कम मात्रा में रिएक्टर के अंदर गए पानी ने भाप बनकर अणु-भट्ठी के बाहरी कंक्रीट-आवरण को उड़ा दिया। इस विस्फोट में न सिर्फ अणु-भट्ठी के अंदर ईंधन पिघल गया और दूर तक रेडियोधर्मीता फैली, बल्कि इन रिएक्टरों में शेष ईंधन की टंकी भी खुले वातावरण के संपर्क में आई। ठीक इसी तरह का अमेरिकी डिजाइन का रिएक्टर भारत के तारापुर में भी है, जिसमें शेष ईंधन रिएक्टर भवन के ही ऊपरी हिस्से में रखा जाता है और अत्यधिक रेडियोधर्मी होता है।
फुकुशिमा दाइ-इचि यूनिट-दो की अणु-भट्ठी प्लूटोनियम-मिश्रित ईंधन पर चलती है और वहां हुए विस्फोट से रेडियोधर्मी जहर और भी दूर तक पाया गया है। फुकुशिमा के रिएक्टर अभी तक पूरी तरह काबू में नहीं आए हैं। हालांकि टोक्यो बिजली उत्पादन कंपनी टेपको ने रिएक्टरों के ‘कोल्ड शटडाउन’ की घोषणा कर दी है, लेकिन उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जब ईंधन को डुबोकर रखने वाली टंकी और इसमें जलप्रवाह जारी रखने वाला लूप ही नष्ट हो गया है, तो रेडियोधर्मी ईंधन के किस कदर सुरक्षित होने की उम्मीद की जा सकती है।
फुकुशिमा दुर्घटना से रिसे कुल विकिरण और इससे होने वाले स्वास्थ्य के नुकसान का आकलन करने में दशकों लगेंगे, जैसे 2006 में ‘यूएस एकेडमी ऐंड साइंसेज’ ने जब 1986 में रूस में हुए चेर्नोबिल परमाणु हादसे से हुई कुल मौतों का दीर्घकालीन आकलन किया तो पाया कि लगभग दस लाख लोग इस त्रासदी के शिकार हुए। परमाणु-दुर्घटना में आमतौर पर तात्कालिक क्षति कम ही होती है, लेकिन विकिरण से निकले आयोडिन-231, सीजियम-137, प्लूटोनियम, स्ट्रांशियम-90 वगैरह तत्व लंबे समय तक हवा, पानी और आहार-तंत्र में बने रहते हैं और इससे कैंसर, ल्यूकीमिया और थायरायड जैसे घातक रोग बड़े पैमाने पर होते हैं और जन्मजात अपंगता, बांझपन आदि पीढ़ियों तक दिखने वाले दुष्प्रभाव होते हैं। रेडिएशन का असर प्रभावित इलाकों में सैकड़ों-हजारों साल तक रहता है। जापान में तो सुनामी से पैदा हुई बाढ़ ने स्थिति और बिगाड़ दी और विकिरण को दूर-दूर तक पहुंचा दिया। फुकुशिमा से 240 किलोमीटर दूर टोक्यों में भारी विकिरण पाया गया है। कई स्वतंत्र आकलनों के मुताबिक फुकुशिमा, चेर्नोबिल से बड़ी त्रासदी है। दुर्घटना के एक महीने बाद ही जापान में माताओं के दूध में विकिरण पाया जाने लगा था। पूरा एक साल हो चुका है और इस बीच विकिरण न सिर्फ बारिश और हवा के कारण हर तरफ फैला है बल्कि फसलों और खाद्य-जीवों के अंदर भी पाया गया है। लोग जापान में पैदा हुए अनाज के बजाय विदेशी और पैकेटबंद खाना पसंद कर रहे हैं।
फुकुशिमा के बीस किलोमीटर के दायरे से निर्वासित आबादी अब भी शिविरों में रह रही है और इस हकीकत को स्वीकार करने की कोशिश में लगी है कि अब कभी घर वापस जाना संभव नहीं होगा। इस बीच विकिरण सुरक्षा के साजोसामान से लैस पत्रकारों ने रिएक्टर के आसपास की जो तस्वीरें खीचीं हैं, वे दहलाने वाली हैं। बिल्कुल चेर्नोबिल की तरह, फुकुशिमा के शहर और गांव भूत-बस्ती में बदल चुके हैं। लोग अपना घर और सामान जैसा छोड़ कर गए थे सब कुछ वैसे ही पड़ा है और इस एक साल में हर जगह लंबी घास उग आई है। स्कूलों, दफ्तरों और घरों में सब कुछ निर्जीव ऐसे पड़ा है जैसे लोग बस अभी-अभी वापस आने वाले हों। फुकुशिमा दुर्घटना से निपटने में अपनी जान जोखिम में डाल रहे ‘फुकुशिमा फिफ्टी’ नाम से प्रचारित किए गए जांबाज दरअसल अधिकतर वहां ठेके पर काम करने वाले मजदूर हैं, जिनकी जान वैसे भी पूरी दुनिया में सस्ती समझी जाती है। इस एक साल में कई मौकों पर स्वतंत्र विशेषज्ञों और जागरूक नागरिकों ने टेपको और जापानी सरकार द्वारा विकिरण के ब्योरे छुपाने और दुर्घटना से हुई क्षति के कम आकलन की कोशिशों का खुलासा किया है।
लोगों के लिए फुकुशिमा के इस दायरे के बाहर भी जिंदगी आसान नहीं है। एक तरफ लोग अपना मुआवजा पाने के लिए सरकार और कंपनी से लड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ नई जिंदगी शुरू करने के रास्ते में उन्हें सामाजिक भेदभाव तक का सामना करना पड़ रहा है, जो हिरोशिमा के भुक्तभोगियों को भी झेलना पड़ा था। टेपको कंपनी इस दुर्घटना की जवाबदेही से अपना पल्ला झाड़ने में लगी है, उसके पिट्ठू विशेषज्ञ विकिरण की मात्रा कम बताने की हरसंभव कोशिश में लगे हैं। कॉरपोरेट मीडिया अगर अचानक टेपको के राष्ट्रीयकरण पर जोर देने लगा है तो उसके पीछे यही मंशा है कि इस दुर्घटना का आर्थिक बोझ सरकार पर पड़े, जो आखिरकार जनता के पैसे से ही चलती है। कुछ कंपनियों के लिए कुल आठ हजार वर्ग मील जमीन से रेडियोधर्मी जहर की सफाई करना अपने आप में एक अच्छा धंधा बन गया है और इसके लिए भी उन्होंने परमाणु कचरे को अलग-अलग मात्रा में पूरे जापान में बांट देने जैसा खतरनाक रास्ता चुना है जिसका हर कोने से विरोध हो रहा है। इस साल जनवरी में योकोहामा में पूरे जापान और दुनिया भर के सामाजिक और पर्यावरणीय कार्यकर्ता इकट्ठा हुए और उन्होंने एकजुट होकर अपने घोषणापत्र में दुनिया से परमाणु बिजली के खात्मे की मांग की।
लोगों के लिए फुकुशिमा के इस दायरे के बाहर भी जिंदगी आसान नहीं है। एक तरफ लोग अपना मुआवजा पाने के लिए सरकार और कंपनी से लड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ नई जिंदगी शुरू करने के रास्ते में उन्हें सामाजिक भेदभाव तक का सामना करना पड़ रहा है, जो हिरोशिमा के भुक्तभोगियों को भी झेलना पड़ा था। टेपको कंपनी इस दुर्घटना की जवाबदेही से अपना पल्ला झाड़ने में लगी है, उसके पिट्ठू विशेषज्ञ विकिरण की मात्रा कम बताने की हरसंभव कोशिश में लगे हैं। कॉरपोरेट मीडिया अगर अचानक टेपको के राष्ट्रीयकरण पर जोर देने लगा है तो उसके पीछे यही मंशा है कि इस दुर्घटना का आर्थिक बोझ सरकार पर पड़े, जो आखिरकार जनता के पैसे से ही चलती है।
फुकुशिमा अब हमारे अखबारों और खबरों से लगभग बाहर हो चुका है। इसका एक कारण तो हमारा तेज-रफ्तार मीडिया है जिसे हर पल कुछ नया चाहिए। लेकिन हमारी सरकार को भी फुकुशिमा और इसके मायने भुलाने की जल्दी है क्योंकि न सिर्फ वह तमिलनाडु के कुडनकुलम, महाराष्ट्र के जैतापुर, हरियाणा के गोरखपुर, गुजरात के मीठीविर्दी, कर्नाटक के कैगा और आंध्र के कोवाडा में भारी-भरकम नए रिएक्टर लगाने पर आमादा है बल्कि उसने अमेरिका और दूसरे देशों के दबाव में किसी परमाणु-दुर्घटना की हालत में उनकी कंपनियों को मुआवजा चुकाने से खुली छूट भी दे रखी है। लेकिन हकीकत यह है कि आज फुकुशिमा की बरसी नहीं बल्कि उस भयावह दुर्घना का एक साल है जो अब भी जारी है, जहां हर पल जानलेवा विकिरण रिस रहा है। यह अदृश्य विकिरण अनेक तरीकों से लोगों के शरीर में अपनी जगह बना रहा है और आने वाली कई पीढ़ियां इसका शिकार बनेंगी।आज के दिन पिछले साल जापान के सेंदाई प्रांत में भूकंप और सुनामी का भीषण दोहरा कहर बरपा था। इस भयावह तबाही से निपटने की कोशिश शुरू भी नहीं हुई थी कि फुकुशिमा दाई-इचि अणुबिजलीघर में एक-एक करके रिएक्टरों में विस्फोट होने की खबर आनी शुरू हो गई। जैसा कि एक साल बाद इस हफ्ते खुद जापान के प्रधानमंत्री योशिहिको नोदा ने स्वीकार किया अणु-ऊर्जा अपने आप में खतरनाक होती है और परमाणु सुरक्षा एक मिथक है। दरअसल, इसके साथ मूल दिक्कत यह है कि जहां दूसरे सभी प्रकार के कारखाने और बिजलीघर ईंधन की आपूर्ति बंद करने से बंद हो जाते हैं, परमाणु ऊर्जा यूरेनियम के नाभिक के स्वतः विखंडित होने से पैदा होने वाले ताप से बनती है और यह प्रक्रिया किसी दुर्घटना की अवस्था में तुरंत रोकी नहीं जा सकती। नियंत्रक-छड़ों द्वारा नाभिकीय विखंडन धीमा कर देने के बावजूद रिएक्टर में पड़ा ईंधन अत्यधिक गर्मी पैदा करता रहता है और इससे हिफाजत के लिए परमाणु- ईंधन टैंक के इर्द-गिर्द वर्षों तक लगातार पानी का प्रवाह रखा जाना जरूरी होता है। इस सब के लिए किसी भी अणु बिजलीघर को लगातार बाहरी बिजली की जरूरत होती है।
पिछले साल 11 मार्च को फुकुशिमा तीन रिएक्टरों में उपयोग किए जाने वाले आपातकालीन शीतक-यंत्र शुरू में ही सुनामी द्वारा नाकाम कर दिए गए और बैटरी-चालित शीतन ने जल्दी ही साथ छोड़ दिया। फिर रिएक्टर की चिमनी से रेडियोधर्मीता-मिश्रित भाप बाहर निकाली गई, लेकिन अणु, भट्ठी का ताप इससे कम नहीं हुआ। ऐसी स्थिति की कभी कल्पना नहीं की गई थी और तब टोक्यो बिजली उत्पादन कंपनी (टेपको) ने इन अणु-भट्ठियों में समुद्र का पानी भरने की बात सोची। समुद्र का पानी भारी मात्रा में और तेज गति से रिएक्टर के केंद्रक में डाला जाना था, जो अफरातफरी के माहौल में ठीक से नहीं हो पाया। अपेक्षाकृत कम मात्रा में रिएक्टर के अंदर गए पानी ने भाप बनकर अणु-भट्ठी के बाहरी कंक्रीट-आवरण को उड़ा दिया। इस विस्फोट में न सिर्फ अणु-भट्ठी के अंदर ईंधन पिघल गया और दूर तक रेडियोधर्मीता फैली, बल्कि इन रिएक्टरों में शेष ईंधन की टंकी भी खुले वातावरण के संपर्क में आई। ठीक इसी तरह का अमेरिकी डिजाइन का रिएक्टर भारत के तारापुर में भी है, जिसमें शेष ईंधन रिएक्टर भवन के ही ऊपरी हिस्से में रखा जाता है और अत्यधिक रेडियोधर्मी होता है।
फुकुशिमा दाइ-इचि यूनिट-दो की अणु-भट्ठी प्लूटोनियम-मिश्रित ईंधन पर चलती है और वहां हुए विस्फोट से रेडियोधर्मी जहर और भी दूर तक पाया गया है। फुकुशिमा के रिएक्टर अभी तक पूरी तरह काबू में नहीं आए हैं। हालांकि टोक्यो बिजली उत्पादन कंपनी टेपको ने रिएक्टरों के ‘कोल्ड शटडाउन’ की घोषणा कर दी है, लेकिन उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जब ईंधन को डुबोकर रखने वाली टंकी और इसमें जलप्रवाह जारी रखने वाला लूप ही नष्ट हो गया है, तो रेडियोधर्मी ईंधन के किस कदर सुरक्षित होने की उम्मीद की जा सकती है।
फुकुशिमा दुर्घटना से रिसे कुल विकिरण और इससे होने वाले स्वास्थ्य के नुकसान का आकलन करने में दशकों लगेंगे, जैसे 2006 में ‘यूएस एकेडमी ऐंड साइंसेज’ ने जब 1986 में रूस में हुए चेर्नोबिल परमाणु हादसे से हुई कुल मौतों का दीर्घकालीन आकलन किया तो पाया कि लगभग दस लाख लोग इस त्रासदी के शिकार हुए। परमाणु-दुर्घटना में आमतौर पर तात्कालिक क्षति कम ही होती है, लेकिन विकिरण से निकले आयोडिन-231, सीजियम-137, प्लूटोनियम, स्ट्रांशियम-90 वगैरह तत्व लंबे समय तक हवा, पानी और आहार-तंत्र में बने रहते हैं और इससे कैंसर, ल्यूकीमिया और थायरायड जैसे घातक रोग बड़े पैमाने पर होते हैं और जन्मजात अपंगता, बांझपन आदि पीढ़ियों तक दिखने वाले दुष्प्रभाव होते हैं। रेडिएशन का असर प्रभावित इलाकों में सैकड़ों-हजारों साल तक रहता है। जापान में तो सुनामी से पैदा हुई बाढ़ ने स्थिति और बिगाड़ दी और विकिरण को दूर-दूर तक पहुंचा दिया। फुकुशिमा से 240 किलोमीटर दूर टोक्यों में भारी विकिरण पाया गया है। कई स्वतंत्र आकलनों के मुताबिक फुकुशिमा, चेर्नोबिल से बड़ी त्रासदी है। दुर्घटना के एक महीने बाद ही जापान में माताओं के दूध में विकिरण पाया जाने लगा था। पूरा एक साल हो चुका है और इस बीच विकिरण न सिर्फ बारिश और हवा के कारण हर तरफ फैला है बल्कि फसलों और खाद्य-जीवों के अंदर भी पाया गया है। लोग जापान में पैदा हुए अनाज के बजाय विदेशी और पैकेटबंद खाना पसंद कर रहे हैं।
फुकुशिमा के बीस किलोमीटर के दायरे से निर्वासित आबादी अब भी शिविरों में रह रही है और इस हकीकत को स्वीकार करने की कोशिश में लगी है कि अब कभी घर वापस जाना संभव नहीं होगा। इस बीच विकिरण सुरक्षा के साजोसामान से लैस पत्रकारों ने रिएक्टर के आसपास की जो तस्वीरें खीचीं हैं, वे दहलाने वाली हैं। बिल्कुल चेर्नोबिल की तरह, फुकुशिमा के शहर और गांव भूत-बस्ती में बदल चुके हैं। लोग अपना घर और सामान जैसा छोड़ कर गए थे सब कुछ वैसे ही पड़ा है और इस एक साल में हर जगह लंबी घास उग आई है। स्कूलों, दफ्तरों और घरों में सब कुछ निर्जीव ऐसे पड़ा है जैसे लोग बस अभी-अभी वापस आने वाले हों। फुकुशिमा दुर्घटना से निपटने में अपनी जान जोखिम में डाल रहे ‘फुकुशिमा फिफ्टी’ नाम से प्रचारित किए गए जांबाज दरअसल अधिकतर वहां ठेके पर काम करने वाले मजदूर हैं, जिनकी जान वैसे भी पूरी दुनिया में सस्ती समझी जाती है। इस एक साल में कई मौकों पर स्वतंत्र विशेषज्ञों और जागरूक नागरिकों ने टेपको और जापानी सरकार द्वारा विकिरण के ब्योरे छुपाने और दुर्घटना से हुई क्षति के कम आकलन की कोशिशों का खुलासा किया है।
लोगों के लिए फुकुशिमा के इस दायरे के बाहर भी जिंदगी आसान नहीं है। एक तरफ लोग अपना मुआवजा पाने के लिए सरकार और कंपनी से लड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ नई जिंदगी शुरू करने के रास्ते में उन्हें सामाजिक भेदभाव तक का सामना करना पड़ रहा है, जो हिरोशिमा के भुक्तभोगियों को भी झेलना पड़ा था। टेपको कंपनी इस दुर्घटना की जवाबदेही से अपना पल्ला झाड़ने में लगी है, उसके पिट्ठू विशेषज्ञ विकिरण की मात्रा कम बताने की हरसंभव कोशिश में लगे हैं। कॉरपोरेट मीडिया अगर अचानक टेपको के राष्ट्रीयकरण पर जोर देने लगा है तो उसके पीछे यही मंशा है कि इस दुर्घटना का आर्थिक बोझ सरकार पर पड़े, जो आखिरकार जनता के पैसे से ही चलती है। कुछ कंपनियों के लिए कुल आठ हजार वर्ग मील जमीन से रेडियोधर्मी जहर की सफाई करना अपने आप में एक अच्छा धंधा बन गया है और इसके लिए भी उन्होंने परमाणु कचरे को अलग-अलग मात्रा में पूरे जापान में बांट देने जैसा खतरनाक रास्ता चुना है जिसका हर कोने से विरोध हो रहा है। इस साल जनवरी में योकोहामा में पूरे जापान और दुनिया भर के सामाजिक और पर्यावरणीय कार्यकर्ता इकट्ठा हुए और उन्होंने एकजुट होकर अपने घोषणापत्र में दुनिया से परमाणु बिजली के खात्मे की मांग की।
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