कश्मीर में कोल्हाई ग्लेशियर पिछले साल 20 मीटर से अधिक पिघल गया है जबकि दूसरा छोटा ग्लेशियर पूरी तरह से लुप्त हो गया है। यही हाल गोमुख ग्लेशियर का भी है जो साल-दर-साल पीछे खिसक रहा है। यानि पिघलने की रफ्तार जारी है। वैज्ञानिकों ने आगाह किया कि इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि पूरे विश्व में बढ़ते तापमान की समस्या कम हो रही है। तापमान में हो रहे बदलाव का असर लोगों के जीविकोपार्जन पर भी पड़ रहा है।हिमालय पर्वत शृंखला को विश्व का तीसरा ध्रुवीय प्रदेश भी कहा जाता है। यह ताज्जुब करने की बात नहीं है क्योंकि इस पर्वत शृंखला में साउथ पोल और नार्थ पोल के बाद दुनिया के सबसे ज्यादा ग्लेशियर मौजूद हैं। आप इस जानकारी से तो बखूबी परिचित होंगे कि दुनिया के तमाम ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में हैं यानी उनका विनाश हो रहा है लेकिन हिमालय के काराकोरम रेंज के ग्लेशियर इसके अपवाद हैं। लगभग 20000 वर्ग किलोमीटर में फैला यह रेंज दुनिया के सबसे बड़े हिमनदों (ग्लेशियर) का घर है। नेचर क्लाइमेट चेंज जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार काराकोरम रेंज के ग्लेशियर बढ़ रहे हैं। ग्लेशियर के बढ़ने का यह एक मात्र उदहारण है।
यह एक सुखद खबर है। लेकिन इस पर विश्वास करना थोड़ा कठिन है। वह इसलिये है कि बढ़ते तापमान के कारण हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड राज्य की बहुत सारे नदी-नाले और प्राकृतिक जलस्रोत सूखने के कगार पर हैं। चूँकि नदी-नालों के अनवरत जलमय रहने का सीधा सम्बन्ध उनके जलस्रोतों ग्लेशियर पर निर्भर करता है। आपको बताते चलें कि काराकोरम के ग्लेशियर के बढ़ने की बात को वैज्ञानिक सत्य मान रहे हैं।
इस विषय पर कई शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं जो ग्लेशियर के आकार में गुणात्मक बदलाव की बात कहते हैं। काराकोरम के ग्लेशियर के आकार में परिवर्तन की बात सबसे पहले 2005 में नोटिस की गई थी। इसके बाद यह दुनिया के तमाम हइड्रोलॉजिस्ट्स के लिये कौतूहल का विषय बन गया। हाल के दिनों में प्रकाशित एक शोध में ब्रिटेन के न्यूकैसल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हेले फावलर ने बताया कि काराकोरम रेंज में ग्लेशियर के आकार के बढ़ने का सीधा सम्बन्ध हिमालय के अपर लेयर में हो रहे जलवायु परिवर्तन से है। उन्होंने बताया कि इस पर्वत शृंखला के ऊपर एक अलग किस्म का सर्कुलेशन सिस्टम विकसित होता है।
इस सर्कुलेशन सिस्टम की विशेषता यह है कि यह जाड़ों के मौसम की अपेक्षा गर्मी में ज्यादा ठंडा रहता है। यानि इस पर्वत शृंखला के ऊपर हवा का दबाव ठंड की अपेक्षा गर्मी के मौसम में ज्यादा होता है। हवा के दबाव में हो रहे इस परिवर्तन का कारण वैज्ञानिक भारतीय मानसून को मानते हैं। उनका कहना है कि मानसून के दिनों में काराकोरम रेंज के ऊपर से चलने वाली हवाएँ और ठंडी हो जाती हैं जो अन्ततः ग्लेशियर के बढ़ने का कारण है।
इस रेंज में गर्मी और जाड़े के मौसम में तापमान में बदलाव सामान्यतः कम होता है जिससे ग्लेशियर को जमने के लिये साल भर का समय मिलता है। उल्लेखनीय है कि फ्रांस की एक टीम ने उपग्रह से प्राप्त चित्रों की मदद से ये पता लगाया है कि हिमालय के ग्लेशियर पर ग्लोबल वार्मिंग का कोई खास असर नहीं पड़ा है। बढ़ते तापमान की वजह से दुनिया के दूसरे इलाकों में पहाड़ों पर बर्फ पिघली है लेकिन काराकोरम क्षेत्र इसका अपवाद है।
फ्रांस के वैज्ञानिक 3-डी उपग्रह तस्वीरों के जरिए 2000 और 2008 के नक्शों की तुलना करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस दौरान ग्लेशियर की बर्फ में कोई कमी नहीं आई है बल्कि वहाँ 0.11 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की दर से बर्फ बढ़ी ही है। इसके अलावा नासा के सेटेलाइट से कुछ दिन पहले यह पता चला था कि ग्लेशियर की स्थिति उतनी भयावह नहीं है जितना हम सोच रहे हैं। इसलिये अब साफ हो गया है कि स्थिति बेहतर ही हुई है। हालांकि पहले के अध्ययनों में यह कहा गया था कि काराकोरम रेंज के ग्लेशियर भी बाकी हिमनदों की तरह ही पिघल रहा है जो अन्ततः समुद्र में पानी के स्तर को बढ़ाएगा। यह भी बताया गया था कि बढ़ते तापमान का भारतीय हिमनदों पर बुरा असर पड़ रहा है और अगर इनके पिघलने की यही रफ्तार रही तो ये 2035 तक गायब हो जाएँगे।
शोधकर्ताओं का कहना था कि कश्मीर में कोल्हाई ग्लेशियर पिछले साल 20 मीटर से अधिक पिघल गया है जबकि दूसरा छोटा ग्लेशियर पूरी तरह से लुप्त हो गया है। यही हाल गोमुख ग्लेशियर का भी है जो साल-दर-साल पीछे खिसक रहा है। यानि पिघलने की रफ्तार जारी है। वैज्ञानिकों ने आगाह किया कि इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि पूरे विश्व में बढ़ते तापमान की समस्या कम हो रही है। तापमान में हो रहे बदलाव का असर लोगों के जीविकोपार्जन पर भी पड़ रहा है।
उत्तराखण्ड के पहाड़ों में तापमान बढ़ने के कारण ऊँचे बसाव वाले इलाकों में खेती प्रभावित हो रही है। वरिष्ठ विज्ञान पत्रकार दिनेश सी. शर्मा बताते हैं कि समुद्र तल से 1500 से लेकर 2500 मीटर की ऊँचाई पर हिमालयी शृंखला में सेव का फसल प्रभावित हुआ है।
बेहतर गुणवत्ता वाले सेव की पैदावार के लिये वर्ष में 1000 से 1600 घंटों की ठंडक होनी चाहिए। लेकिन इन क्षेत्रों में बढ़ते तापमान और मौसम के अनियमित मिजाज के कारण सेव उत्पादन अब और अधिक ऊँचाई वाले इलाकों की ओर खिसक रहा है। वे बताते हैं कि हिमाचल के कुल्लू क्षेत्र में ठंड के घंटों में 6.385 यूनिट प्रतिवर्ष की दर से गिरावट पाई जा रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार वातावरण में मौजूद ग्रीनहाउस गैसें लौटने वाली अतिरिक्त उष्मा को सोख लेती हैं, जिससे धरती का तापमान बढ़ रहा है। आशंका व्यक्त की जा रही है कि 21वीं सदी के बीतते-बीतते पृथ्वी के औसत तापमान में 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोत्तरी हो जाएगी।
हिन्द महासागर के आसपास यह वृद्धि 2 डिग्री तक होगी, जबकि हिमालयी क्षेत्रों में पारा 4 डिग्री तक चढ़ जाएगा। ऐसे में ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे। सूखा, अतिवृष्टि, चक्रवात और समुद्री हलचलों को वैज्ञानिक तापमान वृद्धि का नतीजा बता रहे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार एशिया महाद्वीप इसलिये सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है कि इस महाद्वीप में तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है।
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Post By: RuralWater