लोगों ने इन सब चीजों का विकास अपने अनुभव के आधार पर अलग-अलग समय में किया। उसमें से जो टिकने लायक चीजें थी उनको ज्यों-का-त्यों टिकाया, जिसमें परिवर्तन करना था उनमें परिवर्तन किया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कोई एक अंग्रेज यहाँ की खेती पर रिपोर्ट बनाने के लिये आये थे। उन्होंने बड़े आश्चर्य के साथ लिखा कि पिछले पाँच सौ सालों में इनके हल का डिजाइन जरा भी बदला नहीं है।मेरा जो परिचय आपने सुना उसमें कोई तकनीकी शिक्षा का आपको आभास नहीं मिलेगा। फिर भी मुझे तकनीकी महत्व पर कुछ बोलना है। जो कुछ भी मैंने समाज से सीखा, मोटे तौर पर वो आपके सामने रखने की कोशिश करुँगा। अगर बातचीत रुचिकर लगने लगेगी तो आप लोग बाद में प्रश्न भी पूछ सकते हैं। मानवीय समाज में तकनीक का महत्त्व अलग से कुछ हो ऐसा मुझे नहीं लगता। मानवीय समाज में क्यों दानवी समाज में भी तकनीक का महत्त्व अलग से नहीं हो सकता है। किसी भी समाज में, वनस्पति समाज में भी तकनीक का महत्त्व है। लाखों-करोड़ों साल में चीजें तय की हैं प्रकृति ने। लेकिन मैं इसको एक विषय की तरह नहीं देखता। इसमें समाज का पूरा जीवन, सब तरह के विषय आने चाहिए। जब हम तकनीक को एक अलग विषय मानते हैं जो शायद उन्नीसवीं शताब्दी से माना जाने लगा उसके बाद से ये दो टुकड़ों में टूटा। इसलिये कुछ छोटी-मोटी बातचीत करके आपके सामने हिन्दुस्तान में आज जिसको तकनीक माना जाता है उसका बहुत संक्षिप्त इतिहास रखना चाहूँगा।
समाज से भिन्न तकनीक कोई अलग से अंग नहीं है। और उसमें जो पुराना उपनिषद का श्लोक है कि यह पूर्ण है, यह पूर्ण रहेगा यदि इसमें से पूर्ण निकाल लें इसमें पूर्ण जोड़ दें- कोई अन्तर नहीं पड़ता। मैं ऐसा मानता हूँ कि समाज और तकनीक का ऐसा सम्बन्ध रहा था ज्यादातर समाजों में। उसको एक कौशल की हद तक अगर परिभाषा ही देनी हो तो कहा जा सकता है कि यह एक ऐसा कोई विषय है, जो हमारे कष्ट को या दुख को थोड़ा कम करे और सुख को थोड़ा बढ़ा सके। लेकिन पूरे कष्ट हट जाएँ और पूरा सुख आ जाये ऐसी भी जिम्मेदारी कभी लोगों ने तकनीक को सौंपी नहीं थी। आपको दूर जाना है तो कोई ऐसा वाहन बन जाये कि थोड़ा आपका समय बचे, आपकी मेहनत बचे। फसल पैदा करनी है, आपको जमीन पर रेखाएँ खींचनी है उसमें कौन-सा हल लगे, कितना गहरा उसका फल होना चाहिए, यह सब वहाँ की जमीन पर निर्भर करेगा। वहाँ की वर्षा पर निर्भर करेगा।
लोगों ने इन सब चीजों का विकास अपने अनुभव के आधार पर अलग-अलग समय में किया। उसमें से जो टिकने लायक चीजें थी उनको ज्यों-का-त्यों टिकाया, जिसमें परिवर्तन करना था उनमें परिवर्तन किया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कोई एक अंग्रेज यहाँ की खेती पर रिपोर्ट बनाने के लिये आये थे। उन्होंने बड़े आश्चर्य के साथ लिखा कि पिछले पाँच सौ सालों में इनके हल का डिजाइन जरा भी बदला नहीं है। आप इसको एक कमजोर वाक्य की तरह ले सकते हैं। कमजोर दोनों अर्थों में कि हमारे किसान इतने नासमझ थे कि उन्होंने अपने हल तक में परिवर्तन नहीं किया। वे इतने पिछड़े थे कि पाँच सौ साल से एक सा हल चला रहे हैं। दूसरा इसका एक पक्ष यह हो सकता है कि अगर उस इलाके की मिट्टी नहीं बदली, वर्षा का आँकड़ा नहीं बदला, फसल नहीं बदली तो हल बार-बार क्यों बदलना। हल कोई फैशन नहीं है जो किसी और जगह से संचालित होगा और आपको उसमें परिवर्तन करना है। इन सब चीजों को अगर आप देखेंगे तो इसको समाज ने एक सांस्कृतिक रूप दिया। इसमें जो कला और सम्पदा और इस पर प्रकाशित जो पत्रिका ‘क’ जिसके कारण हम सब इकट्ठे हुए हैं तकनीक को कला से जोड़ा। हर एक चीज से जोड़ा और उसको एक अलग स्वतंत्र विषय की तरह नहीं देखा गया और तभी उसका महत्त्व समाज में एक-सा बड़ा बना रहा।
मैं आपके सामने एक किस्सा शुरू में रख देना चाहता हूँ कि जब हम लोग थोड़े से भटक जाते हैं तो फिर हमें बहुत सारे बाहर के विचार भी कभी-कभी ऐसे लगते हैं कि जब हम डूबेंगे तो ये तिनके का सहारा होगा। जब तकनीक के आज के स्वरूप से कुछ समाज, कुछ लोग, कुछ मित्र, कुछ हिस्से दुनिया में परेशान होने लगे तब आप सब को याद होगा, चूँकि हम लोग एक सर्वोदय से सम्बन्धित संस्था में भी बैठे हैं कि इंग्लैंड के एक विचारक का एक प्रसिद्ध वाक्य बहुत चला पूरी दुनिया में। उनकी किताब का शीर्षक था- ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ हम सबने भी उसको अच्छी तरह से अपना लिया। शूमाखर साहब बहुत सहृदय व्यक्ति थे। सिर्फ विद्वान ही नहीं। चीजों को बहुत बारीकी से देखते थे और उन्होंने दुनिया में चलने वाले अर्थशास्त्र की भी ठीक-ठाक आलोचना की। लेकिन मेरा आप से विनम्र निवेदन है कि तकनीक के बारे में ऐसा कोई नारा आप बिना सोचे-समझे नहीं अपना सकते। यह जरूरी नहीं कि तकनीक के स्केल से उसका स्वभाव तय होगा। बड़े का कुछ नुकसान देखा गया होगा लेकिन तकनीक हमेशा छोटी-से-छोटी होगी उसी से सब चीजें सुधर जाएँगी, ये बहुत भोली अवधारणा होगी हमारी। समाज अपनी आस-पास की प्रकृति से सीखता है। प्रकृति ने हमारे यहाँ नागपुर में बहने वाली नाग नदी भी होगी, कितने किलोमीटर होगी नाग नदी? जहाँ से निकलती है और जहाँ जाकर दूसरी नदी में मिलती है। नाग नदी की क्या लम्बाई है? आप में से कोई बताए। 40 किलोमीटर और नर्मदा 1,312 किलोमीटर है। प्रकृति ने अगर शूमाखर साहब का वाक्य पढ़ा होता तो शायद वो 40 किलोमीटर से बड़ी नदियाँ बनाते हुए डरती। ब्रम्हपुत्र दो-तीन देशों से गुजरती हुई, रौंदती हुई, हल्ला मचाते हुए आखिर में बंगाल की खाड़ी में गिरती है तब उसका सीना समुद्र जैसा दिखने लगता है। मुझे लगता है बड़े या छोटे का उतना डर मन में नहीं रखें। जो हमारे काम का है और जिस पर समाज का नियंत्रण समता मूलक ढंग से रह सकता हो, उतनी हद तक वह चाहे जिस आकार में रहे, मुझे लगता है कि ये सारी बहस थोड़ी ठीक हो सकती है।
आज हम लोग जिन परिवारों से हैं, हम सबकी इच्छा अपने परिवार में अपने बेटे-बेटी को, अपने छोटे भाई को कुछ-न-कुछ पैसा बचाकर इंजीनियर बनाने की होती है। न बन पाये तो थोड़ी हमें तकलीफ भी होती है। कोशिश यह है कि डॉक्टर बन जाये, इंजीनियर बन जाये। तो मैं आपके सामने ये इंजीनियर बनने वाली प्रवृत्ति रखूँगा किये सब कैसे शुरू हुई। हमारे एक वक्ता नागपुर इंस्टीट्यूट से हैं। ये कब खुली होगी नागपुर में, 1942 में। कभी इस इंस्टीट्यूट में पढ़ने और पढ़ाने वालों के मन में ये प्रश्न आया कि नागपुर में एक इंजीनियरिंग कॉलेज खुला तो इससे पहले हिन्दुस्तान में सबसे पहले ऐसा कॉलेज कहाँ खुला होगा। नागपुर के कॉलेज से लगभग सौ साल पहले आपको पीछे जाना पड़ेगा। नागपुर तब भी एक अच्छा शहर था विदर्भ का, या सी.पी.बरार का। लेकिन 1847, तब हमारे यहाँ अंग्रेजी सरकार नहीं बनी थी। उससे पहले का जो संस्करण या अवतार था ईस्ट इण्डिया कम्पनी, उसके हाथ में कारोबार था। आप सब लोग जानते हैं, सामाजिक चीजों में इतने गम्भीर रूप से जुड़े हुए हैं कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी यहाँ व्यापार के लिये आई थी। उच्च शिक्षा की झलक आपको देने के लिये उसकी कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं थी। वो यहाँ के बच्चों को पढ़ा लिखा कर कुछ सभ्य नहीं बनाना चाहती थी। वो सब बाद का एजेंडा है उसकी जब सरकार बनी और जो नाम हम लोग अकसर सुनते हैं मैकाले साहब का।
आप सब के मन में यह प्रश्न आना चाहिए कि रुड़की जैसे छोटे-से गाँव में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को काहे को जाकर एक कॉलेज खोलने की जरूरत पड़ी। यह हिन्दुस्तान का पहला कॉलेज है इंजीनियरिंग का। इसका नाम रुड़की कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग रखा गया। हममें से चूँकि ज्यादातर लोग विजय शंकरजी के निमित्त यहाँ इकट्ठे हुए हैं तो सब लोग सामाजिक चीजों से कोई-न-कोई सम्बन्ध रखते हैं। पिछले कुछ सौ-दो-सौ वर्षों से हमने भाषा के मामले में असावधानी का रुख अपनाया है।तब तक मैकाले भी नहीं है। 1847 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने दिल्ली, बम्बई, चेन्नई, नागपुर ये सब शहर देख लिये थे। लेकिन इनमें से किसी भी जगह उसने कॉलेज नहीं खोला। क्योंकि उसको कॉलेज खोलने की कोई गरज नहीं थी। पहला इंजीनियरिंग कॉलेज 1847 में एक बहुत छोटे से गाँव में खुला। उस गाँव की तब की आबादी किसी भी हालत में पाँच हजार, सात हजार से अधिक नहीं थी। उस गाँव का नाम है रुड़की। हरिद्वार-दिल्ली के बीच में।
आप सब के मन में यह प्रश्न आना चाहिए कि रुड़की जैसे छोटे-से गाँव में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को काहे को जाकर एक कॉलेज खोलने की जरूरत पड़ी। यह हिन्दुस्तान का पहला कॉलेज है इंजीनियरिंग का। इसका नाम रुड़की कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग रखा गया। हममें से चूँकि ज्यादातर लोग विजय शंकरजी के निमित्त यहाँ इकट्ठे हुए हैं तो सब लोग सामाजिक चीजों से कोई-न-कोई सम्बन्ध रखते हैं। पिछले कुछ सौ-दो-सौ वर्षों से हमने भाषा के मामले में असावधानी का रुख अपनाया है। कोई नया शब्द हमारे जीवन में आता है तो हम उसको उलट-पुलट कर देखते नहीं हैं। ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लेते हैं। सिविल इंजीनियरिंग ऐसा ही शब्द है। अगर यह सुनकर हमारे ध्यान में कोई-न-कोई खटका आता तो, हमें इसका इतिहास ढूँढना फिर कठिन नहीं होता। पर खटका कभी आया नहीं, इसलिये हम इसके इतिहास में पड़े नहीं। और सब विद्याओं के आगे सिविल नहीं लगता। इंजीनियरिंग के आगे सिविल क्यों लगाना पड़ा? क्योंकि हिन्दुस्तान में सिविल इंजीनियरिंग नाम की कोई चीज थी ही नहीं। जो कुछ भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ आया था वो मिलिट्री इंजीनियरिंग के लिये आया था। कैसे इस देश पर कब्जा करें, कैसे इस देश को गुलाम बनाएँ? अगर आजादी के दीवाने कोई पुल तोड़ दें तो हम उस पुल को कैसे रातों-रात दुरुस्त करें इसके लिये उनके विभाग में चार-पाँच नौकर-चाकर रखे जाते थे। वो सब इंग्लैंड से ही आते थे। उनको सिविल कहलाने वाले कामों में पड़ने की कोई दिलचस्पी नहीं थी।
इससे पहले हिन्दुस्तान में सिविल का कोई काम नहीं होता हो, ऐसी बात नहीं है। काम बहुत होता था लेकिन उसको सिविल इंजीनियरिंग कहा ही नहीं जाता था। अलग-अलग राज्यों में उस काम को करने वाले अलग-अलग लोग थे। जिसको अंग्रेजी में ‘वाटर बॉडी’ कहने से हम लोगों को अच्छा लगता है तो मैं वाटर बॉडी भी कह सकता हूँ। तालाब नाम थोड़ा पिछड़ा लगता होगा। यहाँ नहीं लगेगा, लेकिन ज्यादातर जगहों पर पुल थे, सड़कें थीं, ये सब कौन बनाता था। कभी हमने इसके बारे में सोचा नहीं। जो लोग बनाते थे वे लोग इंजीनियर नहीं कहलाते थे क्योंकि इंजीनियर शब्द ही नहीं था। इतनी बड़ी संस्था का कौन अध्यक्ष था, कौन मंत्री था, कहाँ उसका मुख्यालय रहा होगा। कितने लोगों की वह फौज इकट्ठी करता था जो कन्याकुमारी से कश्मीर तक पानी का काम, सिविल इंजीनियरिंग का काम करते थे, उसका नाम जानने की हम आज इच्छा तक रखते। क्योंकि हम उस समाज से धीरे-धीरे कटते चले गए। इतना बड़ा स भरा-पूरा ढाँचा था, आकार में इतना बड़ा कि मैं अक्सर कहता हूँ हिन्दी में भी और मराठी में भी दो शब्द हैं आकार और निराकार। इतना बड़ा आकार था उस ढाँचे का कि वह निराकार हो गया था। कहीं वह दिखाई नहीं था कि उसकी लाल बत्ती की गाड़ी में उसका अध्यक्ष जा रहा है तो कन्याकुमारी से कश्मीर तक लाखों पानी का, तालाबों का काम करने वाले ढाँचे के लोगों को हम जानते नहीं थे। ऐसा निराकार संगठन का रूप था।
इसमें तीन तरह से, तीन स्तर का काम करता था समाज। तकनीक के महत्त्व को जानते हुए, बिना उसका नया और अलग विभाग बनाए, पृथक विभाग बनाए या उसको अपने समाज का एक हिस्सा मानकर कोई स्पेशल प्राइस टैग न लगाकर उस काम को करते-करते उसने तीन स्तर बनाए थे। जहाँ जरूरत है लोगों के कष्ट को कम करने, सुख को थोड़ा-सा बढ़ाने में सिविल इंजीनियरिंग की, वहाँ उसकी प्लानिंग हो सके। प्लानिंग के बाद उसको अमल में लाया जा सके। उसके लिये साधन इकट्ठे किये जा सकें। किसी काम में एक लाख लगेगा किसी में चार लाख लगेगा उसका पैसा कहाँ से आएगा? सोलहवीं शताब्दी में उन दिनों में कोई विश्व बैंक नहीं था जो उधार देने के लिये उदार बैठा हो। ये सारी चीजें आपके सामने, मन में आनी चाहिए। तीसरा बन जाने के बाद उसकी देख-रेख कौन करेगा, उसकी दुरुस्ती? रखरखाव का काम कौन करेगा? आज जो नागपुर के भी तालाब हैं अगर आप इनकी दुर्दशा का इतिहास देखेंगे तो शायद पचास साल पुराना इतिहास होगा, पिटने का या मिटने का। उससे पहले तीन सौ साल तक उनको कौन-सा ढाँचा बनाकर रखता था, ऐसे कौन-से तीज और त्यौहार समाज ने तैयार किये थे, जिनमें उसके इर्द-गिर्द समाज की देख-रेख होती रहती थी काम चलता था पूरा-का-पूरा।
इस ढाँचे के पीछे बहुत कुछ समाज का जो अपने मन, तन और धन ये तीनों चीजें लगती थीं। इसका उसने एक बड़ा व्यवस्थित ढाँचा बना लिया था। कब कितने लोगों की, कितने हाथ की जरूरत है, कितने पैसे की है तो वो सारा काम उसमें से बखूबी करते थे। लेकिन आप अंग्रेजी राज के विस्तार का इतिहास देखें तो जैसे-जैसे उनके जहाँ-जहाँ पैर पड़े वहाँ-वहाँ उन्होंने इस ढाँचे को नष्ट हो जाने दिया। और उसी के साथ हम पाते हैं कि अकाल पहले भी आते थे लेकिन उस दौर में हमारे देश में सबसे भयानक अकाल आये हैं, अठारहवीं शताब्दी के दौर में। कहीं-कहीं तो इसमें एक तिहाई लोग मारे गए कुछ राज्यों में। यह सब देखकर कुछ सहृदय अंग्रेज अधिकारियों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सामने एक प्रस्ताव रखा कि पश्चिम उत्तर प्रदेश का जो आज हिस्सा है हरिद्वार से दिल्ली के बीच का, इसमें अकाल से पिछले पाँच-छः साल में इतने-इतने लोग मरे हैं, अगर गंगा से एक नहर निकाली जाये तो उसमें आपका इतने पौंड का खर्च होगा और उसमें इतने सारे लाखों लोगों का जीवन बच सकेगा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी को लोगों का जीवन बचने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। एक डिस्पैच है शायद मैंने कहीं लिखकर रखा होगा नहीं तो मैं मौखिक बताऊँगा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एक अधिकारी ने ऐसी सब बातचीत को समेटने की कोशिश में जवाब दिया था कि कहीं कुछ करो मत, कहीं किसी को कुछ करने मत दो और होता है तो रोको। ये तीन वाक्य उन्होंने हाथ से लिखकर भेजे थे। लोग मरते हैं तो मर जाने दो। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कोई दिलचस्पी नहीं उनको बचाने में। लेकिन अगर उनके मन में बचाने की कोई योजना आई तो उसके पीछे भी उनका स्वार्थ था।
इंग्लैंड में उपनिवेश स्थापित हो जाने के बाद औद्योगिक क्रान्तियों का दौर भी चल निकला था। लोग मर जाएँ, यहाँ पर भारत में कष्ट हो। इसमें उनकी दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन अपने उद्योगों को चलाने के लिये कच्चा माल चाहिए था। कच्चे माल के लिये उत्पादन चाहिए उनको। और अकाल, पानी के पुराने ढाँचे के टूटने के कारण उत्पादन पर असर पड़ने लगा था। इसलिये उनका फिर से उत्पादन ठीक कर के ज्यादा-से-ज्यादा राजस्व कमाना एक लक्ष्य दिखा। ऐसे में जो जेम्स थॉमसन नाम के एक अंग्रेज सज्जन थे जो इस इलाके में काम करते थे, बाद में वो लेफ्टिनेंट गवर्नर बनाए गए। नॉर्थ-वेस्ट प्रॉविंस कहलाता था दिल्ली के आसपास का ये इलाका। उन्होंने एक और अपने डिस्पैच में, पत्र में लिखा है कि लोग मरते हैं इसमें आपकी दिलचस्पी नहीं है। लेकिन अगर ये नहर बनेगी तो आपको पानी का कर इतने-इतने पौंड मिल सकेगा। इसलिये इसको बनवाइए। तो फिर इस पर काम शुरू करने की इजाजत दी गई। उस समय हिन्दुस्तान में, एक बार फिर मैं याद दिला दूँ कि आज की तरह कभी नागपुर की इंस्टीटयूट या रुड़की की इंस्टीटयूट नहीं थी। कोई इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं था। लेकिन गंगा का काम शुरू हुआ और रुड़की के किनारे उसको एक विशेष करतब दिखाना था। वो नहर हरिद्वार से चलकर मेरठ तक आने वाली थी। लेकिन रुड़की गाँव के किनारे एक नदी पड़ती है, उसका नाम है सोनाली। उसके ऊपर से नहर को निकालना था, जिसको आज हम इंजीनियरिंग की परिभाषा में अक्वाडक कहते हैं, वह बनानी थी। एक ऐसा पुल बनाना था जो पानी लेकर आगे जाएगा, उसके अलावा उसका कोई रूट बनता नहीं था, मेरठ तक आने के लिये।
एक बार फिर आपको याद दिला दूँ कि 1830-35 के आस-पास देश में कहीं भी बिजली नहीं है। किसी भी जगह बिजली आई नहीं है और इसलिये सीमेंट भी नहीं है। क्योंकि सीमेंट अन्ततः बिजली से चक्की चलाकर पत्थर पीसने से बनती है और कोई नई चीज नहीं है। सारा काम चूने-पत्थर से होता था। आपको नागपुर की पुरानी इमारतों से लेकर यूरोप की सब इमारतें भी उसी से बनी मिलेंगी, उसी तकनीक से, तो अक्वाडक को डिजाइन करना था। इसी पत्थर और चूने से। तब अंग्रेजों को लगा, ईस्ट इण्डिया कम्पनी को लगा कि ये काम तो सम्भव नहीं होगा और ये नहर यहीं पर आकर रुक जाएगी। जो लोग हैं बनाने वाले उनमें से किसी के पास कोई डिग्री नहीं है।
लेकिन लोगों ने कहा कि ये काम हम करना जानते हैं इसकी आप चिन्ता नहीं कीजिए। और बहुत बड़ी नहर उन्होंने उसके ऊपर से निकाली जो सोनाली अक्वाडक कहलाई। नहर बन जाने के बाद छोटा-सा एक और प्रसंग आता है जिसका सम्बन्ध कला और संस्कृति से है। और मैं तो मानता हूँ कि तकनीक से भी है। लोगों ने उनसे कहा कि जब इस नदी पर नहर प्रवेश करेगी, नदी के ऊपर से निकलने पर वहाँ दो शेर इसका स्वागत करेंगे। और जब ये नदी नहर को पार कर लेगी तो दो शेर इस तरफ बिठाएँगे और दो शेर उस तरफ उसको विदा देंगे। अंग्रेजों ने पूछा कि ये स्वागत और विदा हमको समझ में नहीं आता। कितनी बड़ी मूर्तियाँ बनानी है तो उन्होंने कहा सोलह-सत्रह फुट की ऊँची मूर्तियाँ बनेंगी पत्थर की। कितना खर्च आएगा तो उन्होंने बताया। उन्होंने कहा ये तो फिजूलखर्ची है तो लोगों ने कहा, नहीं। पानी के काम की रखवाली हमारे समाज का हिस्सा है और उसको जब तक ऐसी कोई सुन्दर चीज से बाँधेंगे नहीं, उसकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं करेंगे तो हमारा काम पूरा नहीं हुआ, अधूरा माना जाएगा। कट्ले नाम के कोई एक सज्जन थे अंग्रेज अधिकारी जो इसके सुपरिटेंडेंट इंजीनियर थे। उनको शक हुआ कि ये काम तो करने लायक नहीं है तो भी उन्होंने, क्योंकि काम इतना अच्छा हुआ था इंजीनियर के नाते तो उन्होंने कहा चलो एकाध मूर्ति-वूर्ति भी बनाने दो इनको। जो हमारे कलाकार मित्र बैठे हैं उनको यह सुनकर अच्छा लगेगा कि इंजीनियरिंग के काम में मूर्ति के शिल्प को जोड़ा गया इनके आग्रह से। लेकिन इतना आसान नहीं था, उन्होंने कहा कि एक नमूना बनाकर बताओ कि तुम कैसी मूर्ति बनाओगे? तो एक शेर बनाया उसी साइज का, पत्थर का, वो कट्ले साहब को इतना पसन्द आया कि उन्होंने कहा कि ये तो आप हमारी कोठी के आगे रख दीजिए और चार और बनाइए। तो जो चार की योजना थी वो पाँच शेरों में पूरी हुई। ये लोग बिल्कुल शेर की तरह लड़ते रहे कि ये शेर की मूर्तियाँ स्थापित किये बिना नहर का उद्घाटन नहीं होने वाला। तो ये बनीं। आप में से बहुत सारे लोगों को कभी यूरोप जाने का मौका मिला हो तो लंदन में एक प्रसिद्ध चौराहा है- ट्रेफ्ल्गर स्क्वायर। उसमें काले शेर की मूर्तियाँ रखी गई हैं। ये रुड़की की प्रेरणा से उसके सत्रह साल बाद बनाई गई। एक विज्ञापन आता है मयूर सूटिंग्स का, उसमें ये मूर्तियाँ दिखाई जाती हैं, छोटी-सी झलक है तीन-चार सेकेंड की। शायद सहवाग नाम के क्रिकेटर उसके सामने एक चक्कर लगाते हैं। वो शेर तो बहुत साफ-सुथरे रखे हैं। हमारे यहाँ दुर्भाग्य से वो सब चीजें पिट गईं और वो मूर्तियाँ थोड़ी खण्डित भी हुई हैं।
आज तो हमको गली-गली में इंग्लिश मीडियम स्कूल दिखते हैं। उसमें सेंट थॉमस से लेकर सेंट हनुमान पब्लिक स्कूल भी मिल जाएँगे। लेकिन 1847 में तो हिन्दी माध्यम के स्कूल भी नहीं थे। अंग्रेजी का तो कोई सवाल ही नहीं था। तो इस इंस्टीटयूट में जो देश का पहली इंजीयनियरिंग कॉलेज माना गया कौन भर्ती होगा, उसकी योग्यता क्या होगी, एंट्रेंस एग्जाम क्या होगा, उसके लिये कोचिंग क्लासेस लगेंगी या नहीं लगेंगी इसके बारे में भी आपको सोचना चाहिए। पुराने दस्तावेज ये बताते हैं कि एडमीशन की योग्यता भी लिखी थी।कोठी पर एक शेर बिठाया गया और चार नहर पर बिठाए गए। इस काम को पूरा होते देखकर थॉमसन ने फिर से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मालिकों को लिखा कि ये बच्चे इतना अच्छा काम करना जानते हैं इंजीयनियरिंग का। आज हमारे यहाँ आरक्षण की बहस होती है कि किसको इंजीयनियरिंग पढ़ाई जाये किसको नहीं। ये तो बिना पढ़े इंजीनियर थे हमारे समाज में। क्योंकि वे पैतृक गुरू-शिष्य परम्परा से सीखते थे और घर का छोटा-मोटा कुआँ बनाने की बात नहीं सबसे बड़ी नहर अंग्रेजों के लिये बनाकर उन्होंने दिखाई थी। और सबसे कम लागत में और एक्वाडक से क्रॉस कराया था। तो इन लोगों को कुछ थोड़ा-सा गुणा भाग सिखा दिया जाये इसलिये आपको एक कॉलेज खोलना चाहिए। ये उन्होंने प्रस्ताव रखा। कुछ दिनों उसके पीछे लगे रहे वे। थॉमसन साहब की एक विशिष्ट इज्जत भी बन गई थी। उस पूरे ढाँचे में। तो ये पहली बार 25 नवम्बर 1847 को यह कॉलेज खोला गया रुड़की में, जहाँ की आबादी मैंने बताया पाँच-सात हजार थी।
इस नहर के बारे में एक और छोटी-सी चीज बताऊँ जिससे यह समझ में आएगा कि कैसे समाज में एक ऐसी कठिन मानी गई तकनीक कण-कण में फैल जाती थी। जब गारे-चूने और पत्थर से बनी इस अक्वाडक इंस्पेक्शन करने के लिये जब पहली बार ईस्ट इण्डिया कम्पनी की टीम गई, अफसरों की तो उसमें से कुछ-कुछ पानी टपक रहा था। इन्होंने घबराकर कहा ये अभी तो शुरू भी नहीं हुआ और इसमें पानी गिरने लगा है। तो एक गजधर ने जवाब दिया, वहाँ उनको उस समय लाला कहते थे। जो इंजीनियर्स अपने समाज के इस काम को कर रहे थे, लाला यानि विशिष्ट व्यक्ति। लाला ने उनको उत्तर दिया कि ये लीक नहीं कर रहा। ये अक्वाडक साँस ले रही है। इसमें जान है। उसको उन्होंने निर्जीव वस्तु नहीं माना। उन्होंने कहा हमने जो ढाँचा बनाया है वह साँस वे रहा है और जिस दिन इसमें से ये एक-एक बूँद पानी गिरना बन्द हो जाये उस दिन आप समझना कि ये खतरे की घंटी है और ये नहर गिरने वाली है।
मैं आपको बताता हूँ कि मैं तीन साल पहले अक्वाडक का दर्शन करने दुबारा गया था और मैंने नीचे जाकर देखा उसमें से अभी भी पानी भी गिरता है। एक-एक दो-दो बूँद थोड़ी-थोड़ी देर में। उसके किनारे पर एक मुस्लिम सज्जन, अच्छी दाढ़ी उनकी, तहमत पहने खीरा बेच रहे थे। मैं नहर का चित्र लेना चाहता था थोड़ा संकोच हो रहा था, कोई अधिकारी से अनुमति नहीं लेकिन वहाँ के समाज की तो अनुमति होनी चाहिए। तो मैंने खीरे वाले से कहा ये बहुत सुन्दर काम किया पुराने लोगों ने, क्या मैं इसका चित्र ले लूँ। तो उन्होंने कहा- हाँ-हाँ लीजिए। ये तो हमारे पुराने लोगों का बहुत सुन्दर काम था और आज भी इसको लोग देखते हैं लेकिन इसका महत्त्व नहीं समझते। फिर उसने वह वाक्य कहा जो आज से डेढ़-सौ साल पहले हमारे इंजीनियर ने कहा था। उसने कहा आप नीचे जाएँ तो देखना ये साँस लेती हैं हर वक्त, इसमें से एक-एक बूँद पानी गिरता है। नए लोग सोचेंगे यह तो कहाँ खीरा बेचने वाला और कहाँ डेढ़-सौ साल पहले उसको डिजाइन करने वाला इंजीनियर, दोनों के मन का तार कितना जुड़ा है अपनी तकनीक के मामले में इससे आपको अन्दाज लगेगा।
खैर ये कॉलेज खुला। आज तो हमको गली-गली में इंग्लिश मीडियम स्कूल दिखते हैं। उसमें सेंट थॉमस से लेकर सेंट हनुमान पब्लिक स्कूल भी मिल जाएँगे। लेकिन 1847 में तो हिन्दी माध्यम के स्कूल भी नहीं थे। अंग्रेजी का तो कोई सवाल ही नहीं था। तो इस इंस्टीटयूट में जो देश का पहली इंजीयनियरिंग कॉलेज माना गया कौन भर्ती होगा, उसकी योग्यता क्या होगी, एंट्रेंस एग्जाम क्या होगा, उसके लिये कोचिंग क्लासेस लगेंगी या नहीं लगेंगी इसके बारे में भी आपको सोचना चाहिए। पुराने दस्तावेज ये बताते हैं कि एडमीशन की योग्यता भी लिखी थी। इस कॉलेज के स्थापकों ने जो कागज बनाया, उसमें था कि बच्चों को हिन्दी और उर्दू का सामान्य ज्ञान होना चाहिए। थोड़ा गणित आता हो और पानी के काम में रुचि हो बस। प्रिंसिपल बातचीत करके उनको भर्ती करेगा। इस आधार पर पहला बैच तो शायद बीस लोगों का वहाँ पर भर्ती हुआ। इस तरह 1847 में भारत का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज एक गाँव में खुला, तब तक एशिया में कहीं भी इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं था। एशिया से और आगे चलें तो खुद इंग्लैंड के पास ऐसा इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं था। क्यों? क्योंकि तब तक इंग्लैंड का समाज ऐसे काम को घटिया कारीगर का काम मानता था। उसकी नोबिलिटी के लोग, उसके सम्पन्न परिवारों के लोग, आज जैसे हम अपने बच्चों को चाबुक मार कर इंजीनियर, डॉक्टर बनाना चाहते हैं उस समय उसमें कोई रुचि नहीं थी। उस समय के समाज में वहाँ का सम्पन्न वर्ग अपने बच्चों को शायद अच्छा संगीत सिखाना चाहता था, शेक्सपियर पढ़ाना चाहता था, राजा बनाना चाहता था, दरबार में लाना चाहता था। उसको इंजीनियर बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी उसकी। इसलिये इंजीनियरिंग इंस्टीटयूट इंग्लैंड में भी नहीं था। बीच में युद्ध के समय में पंजाब में कुछ गड़बड़ी हुई है तो कुछ समय के लिये ये बन्द रहा इंजीनियरिंग कॉलेज, रुड़की और जब दुबारा खुला तो इसमें ओवरसीज यानी इंग्लैंड से भी पाँच या सात बच्चों को लाने का कोई रिजर्वेशन रखा गया था कि वहाँ के भी कुछ बच्चों को औपचारिक इंजीनियरिंग की शिक्षा देनी हो तो यहाँ आ सकें। हमारे यहाँ आकर रुड़की में पढ़ सकें।
एक दौर तो ऐसा था कि एशिया में आपको कोई भी इंजीनियर मिलेगा सन साठ-सत्तर में तो वो कहेगा कि रुड़की से पढ़कर निकला है और बाद में मुख्यत: तो जैसा मैंने कहा कि सिविल शब्द से हम लोगों को चौकन्ना होना चाहिए। मिलिट्री इंजीनियरिंग के लिये ही ये सब कवायद होती थी और उसमें सिविल शब्द डाला गया और इस तरह से नहर और पानी का काम अंग्रेजों ने शुरू किया बड़े पैमाने पर और बाद में थामसन ने भी ये कहा था कि ये आपके एम्पायर के एक्सपेंशन (विस्तार) के अच्छे साधन साबित होंगे। साबित भी हुए वे लोग और उसके बाद आप जानते हैं कि एक विभाग बना हम सब परिचित हैं, जिससे, उसने कई बार अक्षमता से भी, कई बार उसके भ्रष्टाचार से भी, कुछ अच्छे काम भी किये होंगे। उसका नाम है सीपीडब्ल्यूडी या पीडब्ल्यूडी ये पब्लिक वर्क्स का काम इंजीनियरिंग की पहली इंस्टीट्यूट खुलने के बाद, इनके लोगों ने धीरे-धीरे जगह-जगह शुरू किया। तो हमारे समाज में तकनीक का महत्त्व इतना था कि उसके लिये एक कॉलेज खोलने की जरूरत ही नहीं समझी कभी किसी ने, लोगों ने उसके कॉलेज घर-घर खोले होंगे, गाँव-गाँव खोले होंगे और बाद में अंग्रेजों ने उसमें से कुछ सीखकर एक जगह एक कॉलेज खोला। फिर तो कुछ धीरे-धीरे और खुलते गए। पूना में एक मिलिट्री का कॉलेज खुला, उस सब में अभी नहीं जाएँगे। लेकिन तकनीक के मामले में हमें कभी भी अपने आत्मविश्वास को कम नहीं करना चाहिए। जो कुछ हम जानते थे वो हमारे इलाके के लिये बहुत उपयोगी था और समाज ने उसको एक विषय की तरह अलग डिब्बे में बन्द न करके पूरे समाज में उसके तिलिस्म का ढक्कन खोलकर रखा था और उसमें कला संस्कृति और साहित्य उससे कोई चीज अलग नहीं की।
गौना ताल : प्रलय का शिलालेख (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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Post By: RuralWater