प्राचीन काल में चन्देलों एवं बुन्देलों के राजत्वकाल के पहले समूचा बुन्देलखण्ड क्षेत्र, विन्ध्यपर्वत की श्रेणियों, पहाड़ियों एवं टौरियों वाला पथरीला, कंकरीला वनाच्छादित भूभाग था। टौरियों, पहाड़ियों के होने से दक्षिणी बुन्देलखण्ड विशेषकर ढालू, ऊँचा-नीचा पथरीला, मुरमीला राँकड़ भूभाग रहा है।
टौरियों, पहाड़ियों एवं पठारों के बीच की पटारों, वादियों, घाटियों और खन्दकों में से बरसाती धरातलीय जल प्रवाह से निर्मित नाले-नालियाँ थीं। जो पथरीली पठारी भूमि होने से गहरी कम, चौड़ी छिछली-सी मात्र चौमासे (वर्षाकाल) में ही जलमय रहती थीं। पठारी नालियाँ-नाले होने से प्रवाह भी तेज रहता था लेकिन उनमें लगभग छह माह, जनवरी से जून तक पानी नहीं रहता था। जहाँ जिन नदियों की पटारों पहाड़ों की तलहटी में गहरी काटकर भरका निर्मित कर सकीं, उन्हीं भरकों में ग्रीष्म ऋतु में जल रहता रहा है। शेष अगणित नालियाँ-नाले सूखे, पथरीले, सघन कटीले वन युक्त थे कि जिनके बीच से आना-जाना भी कठिन था।
यह समूचा क्षेत्र जलहीन और निर्जन मात्र चौमासी चरागाही क्षेत्र था। नदियों-नालों के गहरे भरकों पटारों में ही जहाँ कहीं पानी रहता था। ढालू भमि होने से बरसाती धरातलीय जल नालियों-नालों एवं नदियों में से बहता हुआ क्षेत्र से बाहर-बड़ी नदी यमुना के द्वारा बंगाल की खाड़ी में चला जाता रहा।
बुन्देलखण्ड में प्रकृति प्रदत्त सुषमा सौन्दर्य था। सघन कटीले वन थे, वनाच्छादित पहाड़ियाँ, पहाड़ एवं टौरियाँ हैं। सुन्दर नीची-ऊँची घाटियाँ, वादियाँ, खन्दकें एवं पटारे थीं परन्तु पानी नहीं था। वर्षा के चौमासे के बाद शेष आठ माह जाड़ों और गर्मियों के ऋतुओं में यहाँ पानी का भयंकर संकट रहा करता था क्योंकि नालियाँ-नाले पथरीले ढालू रहे हैं जो कार्तिक-अगहन (नवम्बर-दिसम्बर) महीनों में ही सूख जाया करते थे। पानी का स्थायी पुख्ता प्रबन्ध न होने से क्षेत्र में जन बसाहट भी स्थायी नहीं थी। केवल चार-छह माह के लिये ग्वाले, अहीर एवं अन्य जातियों के लोग अपने-अपने पशुओं को लेकर आ जाते थे और नीची पटारों में अथवा डबरीले नालों-नदियों के किनारे बगर-मड़ैया डालकर इधर-से-उधर पशुओं को चराते घुमन्तु जीवन बिताया करते थे। जहाँ जिस नदी-नाले के डबरा-भरका में पानी मिला उसी के पास अस्थायी डेरे जमाए और पशुओं को चराते फिरते रहे। जब पानी सूखा तो नीचाई तरफ चले गए अथवा दूसरे नाले-नदियों के डबरा के पास डेरा बगर बना लिया। वह घुमन्तु चरवाहे अधिकतर नालों-नदियों के घाटों से और आवागमन के मार्गों से परिचित रहते थे तथा उन्हीं के आसपास विचरण करते रहते थे। तात्पर्य यह कि दीर्घकाल तक बुन्देलखण्ड के लोगों का चरागाही-चल जीवन रहा। न स्थायी जल संसाधन थे न स्थायी ग्राम-बस्ती व्यवस्थापन ही था।
भला हो चन्देले-बुन्देले राजाओं का, जिन्होंने इस चरागाही जल एवं जनविहीन अविकसित बंजर विन्ध्य भूमि को विकसित करने हेतु पहाड़-पहाड़ियों एवं टौरियों के मध्य की खन्दियों के मध्य से निर्मित नालों-नदियों में से व्यर्थ में बहते जाते बरसाती धरातलीय जल को रोकने हेतु तालाब-तलैयों एवं पुष्करों के निर्माण के महान लोकोपकारी पुण्य कार्य सम्पन्न कराए थे। उन्होंने नालों-नदियों से धरातलीय बहते पानी को थमा दिया तो बुन्देलखण्ड के लोगों का चरवाही घुमन्तू जीवन भी थम गया। तालाब बने, उनके बाँधों पर बस्तियाँ बसीं। बाँधों के पीछे की नीची तराई की बहारू एवं स्यार भू क्षेत्रों की समतल भूमि पर कृषि प्रारम्भ हुई। तालाबों के आसपास की वनाच्छादित समतल भूमि पर बावड़ियों का निर्माण कराया गया और तालाबों के पूँछों और बावड़ियों के समीप भी बस्तियाँ बसाई गईं कि लोगों को पीने एवं निस्तार के पानी की सुविधा प्राप्त रहे। तात्पर्य यह कि दक्षिणी बुन्देलखण्ड के जलविहीन एवं जनविहीन क्षेत्र में महोबा के चन्देल राजाओं एवं ओरछा राजवंशज बुन्देला नरेशों ने मनोहारी सुन्दर विशाल सरोवरों का निर्माण कराकर यहाँ के निर्जन, चरागाही घुमन्तु जीवन को स्थिरता दी थी। वनांचलीय जीवन को सामाजिक-आर्थिक जीवन में परिवर्तित कर दिया था।
चन्देलों ने जो तालाब बनवाए थे, वे जननिस्तारी जलापूर्ति के साधन थे। उनके पालों (बाँधों) में सुलूस (कुठिया-औनों) जैसे जल निकासी के साधन नहीं बनाए गए थे। पानी की आवक, जल-भराव भण्डारण के अनुसार बाँध की ऊँचाई एवं चौड़ाई रखी जाती थी। सामान्यतः दो पहाड़ों की खन्दक में अथवा दो टौरियों के मध्य की समतल पटार में पत्थर की पैरी (शिलाखण्ड) एवं मिट्टी से सुदृढ़ बाँध बनाकर, बाँध (पाल) के दोनों अन्तिम पूँछों (किनारों) पर टौरियों, पठारी चरचरी में से तालाब के पूर्ण जल भण्डारण के अतिरिक्त जल निकल जाने हेतु पाँखियाँ-पाँखी बना दी जाती थीं। पाँखी से पानी प्रवाहित हुआ कि समझ लिया तालाब पूरा भर गया। चन्देली तालाबों का ऐसा सोचा-समझा व्यावहारिक गणित बैठाया जाता था कि कितना भी पानी बरसे बाँधों के ऊपर से पानी नहीं निकल सकता था। बाँध की ऊँचाई एवं तालाब के अतिरिक्त पानी के निकास की पाँखियाँ-पाँखी में 10:7 का अनुपात देखने में मिलता है। ताकि तालाब का भराव जल बाँध (पाल) के ऊपर आने से पहले ही पाँखियों से बाहर तालाब के पृष्ठभागीय निचले बहारू क्षेत्र में से दूसरे शृंखला सरोवरों में अथवा किसानों के समतल कृषि क्षेत्रों टरेंटों और खेतों में चला जाये। इस अनुपातीय गणित निर्माण व्यवस्था के कारण कोई भी चन्देली तालाब मध्य बाँध से नहीं फूटा देखा गया है। यदि पाँखियों के पास से फोड़कर कुछ को खेती में तब्दील कर लिया गया है तो यह समाज विरोधी एक पृथक बात है। जो धनबलियों, बाहुबलियों एवं राजनैतिक रसूकदारों के चलते और प्रशासनिक कमजोरी के परिणामस्वरूप होता रहा है।
चन्देली एवं बुन्देली तालाबों के निर्माण का वास्तु स्थापत्य ही अलग किस्म का था। चन्देली बाँधों के आगे-पीछे विशाल आयताकार और वर्गाकार चौड़े सपाट पालदार शिलाखण्ड (पैरियाँ) बाँध की नींव के भराव के ऊपर एक को दबाते हुए दूसरी रखी जाती थी। मध्य भाग में मिट्टी भरी जाती थी। उसे पानी से भिगोकर कुटाई की जाती थी। दोनों ओर की पैरियाँ मानों मिट्टी के बाँध की सुरक्षा में पीठ दिये बैठा दी गई हैं कि तालाब के जल की उत्तुंग तरंगे, लहरें एवं बड़े-बड़े हेड़ा (तेज बड़ी लहरों के प्रहार) बाँध की मिट्टी तक न पहुँच सकें और न मिट्टी का क्षरण कर सकें। बाँध की बन्धाई सदैव बाहरी किये जाने का विधान है। यदि तल में बाँध की बुनियाद 60 फुट डाली गई है तो बाँध का ऊपरी शिखर (भाग दोनों ओर (आगे-पीछे) से कटता-पैरी-दर-पैरी पिछलता हुआ 40 फुट रखा जाता रहा है। तालाब में जल भरने वाले नाले-नालियाँ अथवा नदी का दबाव, बाँध के जिस स्थान पर अधिक बनने की सम्भावना होती थी तो वहाँ बाँध के भीतरी भराव क्षेत्र की ओर गुर्जनुमा गोलाई लिये हुए चाँदे, ओड़े, कोहनी, मोड़ें बना दिये जाते थे। वेग से आती जलधारा सर्वप्रथम इन कोहनियों अथवा चाँदौं या मोड़ों-ओड़ों से टकराकर दाएँ-बाएँ बिखर जाती। यह चाँदे अथवा मोड़ें पानी के दबाव-भार को झेलती सहती रहतीं और बाँध को कोई नुकसान नहीं पहुँचने देतीं।
बाँध के ऊपर विशेषकर मध्य बाँध पर देवालय, विष्णुजी अथवा शिव मठ अथवा देवी मन्दिर के निर्माण की परम्परा थी। यह देवालय चाँदौं, कुहनियों पर बनाए जाते थे। संलग्न स्नान घाट निश्चित किया जाता था कि लोग तालाब के घाट पर स्नान करें और देवालय में भक्ति भाव सामर्थ्यानुसार देव उपासना, आराधना, पूजा-पाठ करते रहें।
देवालय के पास स्नान घाट की सीढ़ियों पर तालाब में जल-भराव भण्डारण क्षमता का ‘संकेत चिन्ह’ स्थापित कर दिया जाता था। जो पाँखी-पँखिया अथवा बेशी पानी के निकास की नाली के स्तर (लेबिल) पर रोपा जाता था, जिसे हथनी, कुड़ी, चरई अथवा चौका जैसे नाम से जाना जाता था। तात्पर्य यह कि हथनी, कुड़ी, चरई में पानी आया कि पाँखी से निकलना प्रारम्भ हुआ। किन्हीं-किन्हीं तालाबों के मध्य एक चौपाला मजबूत पत्थर का खम्भा, जिसका शीर्ष तालाब की पाँखी नाली के लेबिल पर मिला दिया जाता था। इस परखी खम्भा का आशय था कि परखी के सिर पर पानी आया और नाली से तालाब का अतिरिक्त जल बाहर निकलने लगता।
तालाबों के बाँधों पर बस्तियाँ बसाई गई थीं, देवालय स्थापित किये गए थे कि लोग आते-जाते, नहाते-धोते, एवं पूजा-पाठ करते हुए सजगतापूर्वक अपने तालाब को अनवरत देखते रहें कि बाँध को कहीं कोई क्षति तो नहीं हो रही है, तालाब का पानी अपनी सीमा से ऊपर तो नहीं बढ़ रहा है। यदि बढ़ रहा तो नाली पाँखी में पड़े अवरोधों को दूर करें। नहाने के समय देखें कि पानी प्रदूषित क्यों हो रहा है? पानी प्रदूषित करने वाले पौधों, झाड़ियों एवं कारणों को दूर करें, क्योंकि तालाब गाँव की सामूहिक अमूल्य जीवनदायिनी सम्पत्ति हैं। सामूहिक विरासत हैं। अमृत कुण्ड हैं। चन्देला शासनकाल में तालाबों के अगोर क्षेत्र में कृषि जोत के खेत नहीं बनाए जाते थे। इस भावना के कारण कि यदि अगोर की भूमि जोती जाएगी तो खेतों की मिट्टी पानी में साथ बहकर, तालाब के भराव क्षेत्र में जमा होगी जिससे भविष्य में जल भण्डारण क्षमता कम हो जाएगी। तालाबों के अगोर में मैदान विशेषकर चरागाही वन क्षेत्र ही सुरक्षित रखा जाता था। कृषि तो तालाब के आजू-बाजू एवं पृष्ठभागीय पिछवाड़े के क्षेत्रों (पाँखियों की तरफ एवं बहारू भागों) में की जाती थी। तात्पर्य यह कि पानी प्राप्त होने वाले भाग में ही जोत होती थी। तालाब के अगोर एवं भराव क्षेत्र में शौच जाना सामाजिक तौर पर प्रतिबन्धित रहता था ताकि तालाब का पानी स्वच्छ एवं साफ बना रहे। क्योंकि उससे देवताओं का पूजन किया जाता। भगवान के जल विहार तालाबों में ही होते रहे हैं, जिस कारण तालाबों को स्वच्छ, पवित्र और साफ बनाए रखने की प्रथा थी। तालाबों का निर्माण हुआ तो वर्षा का धरातलीय जल सिमट-सिमटकर उनमें भर गया। ‘सिमट-सिमट जल भरहि तलावा’। बुन्देलखण्ड में पहाड़ों का, वन सम्पदा का प्राकृतिक सौन्दर्य तो था ही, चन्देल राजाओं ने इस जल, जनहीन क्षेत्र के बरसाती धरातलीय जल को ठहराकर जन-जीवन को ठहरा दिया था। बुन्देलखण्ड के प्राकृतिक सौन्दर्य को सरोवरों ने और अधिक आकर्षक एवं मनोहारी बना दिया था।
चन्देल राजाओं ने अपने राजत्वकाल में बुन्देलखण्ड में जल संग्रहण व्यवस्था हेतु तालाबों, बावड़ियों एवं कूपों के निर्माण पर इतनी अकूत अपार धनराशि व्यय की थी जो कल्पना के बाहर है। पत्थर की पैरी से तालाब, पत्थर से किले-महल, मठ-मन्दिर, पत्थर की बावड़ी बनाई गई थी। विशालकाय प्रस्तर शिलाएँ कैसे तालाबों, महलों, किलों एवं मन्दिरों पर सन्तुलित रूप से चढ़ाई-बैठाई गई होंगी जो वर्तमान तक अडिग जमी हुई हैं। उनकी प्रस्तर मूर्तिकला, भावभंगिमा तो आज के सृष्टि जगत के लिये एक चमत्कार एवं आश्चर्य ही है। तत्कालीन समय में उनकी आय भी शायद बहुत अधिक नहीं थी। महोबा, बांदा, कालिंजर, बारीगढ़, लौड़ी, चन्दला, चन्देरी, मदनपुर परिक्षेत्रों में अतिरिक्त शेष अधिकांश भूक्षेत्र रांकड़ पहाड़ी जल एवं जनहीन ही था। क्या व्यवसाय इतना विकसित था कि उसके करों से इतने कार्य सम्पादित हो गए? सोना-चाँदी की खदानें भी नहीं रहीं और न आज भी हैं। इतिहास में चन्देले राजपूत युग का राजवंश है। भारत के इतिहास में एक पराक्रमी लड़ाका राजवंश था। कलचुरियों, चालुक्यों से उनका सदैव संघर्ष होता रहा। मालवा पर भी अनेक आक्रमण हुए। ‘आल्हा’ लोक काव्य ग्रन्थ में आल्हा-ऊदल शूरमाओं द्वारा बावन युद्ध लड़े बतलाए, गाए जाते हैं। शायद पड़ोसी राज्यों पर चढ़ाई कर, उन राज्यों को लूटकर, लूट के धन को अपनी चन्देली प्रजा के जनहितकारी कार्यों तालाबों के निर्माण में व्यय किया हो और अपना राजकोष भरा हो।
चन्देलों ने तालाबों के निर्माण पर अपार धन व्यय किया जो धन का सही, लौकिक जनहित में व्यय था। बुन्देलखण्ड, जो जल एवं जनहीन क्षेत्र था, उसे जीवन प्राप्त हो गया था। इससे चन्देलों की यश-कीर्ति में अभिवृद्धि हुई और लोग गा-गाकर कहने लगे थे-
पारस पथरी है महुबे में, लोहो छुवत सोन हुई जाय।चन्देलों ने अनेक तालाबों के बाँधों पर मन्दिर बनवाए थे। उनमें शिलालेख भी लगवाए थे जिनमें गड़े हुए धन का संकेत मिलता है। वर्तमान में शिलालेख तो गायब हैं, परन्तु उनकी लोकोक्तियाँ आज भी कही जाती हैं-
इक लख हसिया दस लख फार। गढ़े हैं तला के पार।
तीर भर नाय-कै तीर भर माय। नगर नारायणपुर-चौका टोर।।
बुन्देलखण्ड गजेटियर-कर्नल लुआर्ड 1907 ई. पृ. 78 पर उल्लेख है कि जतारा के मदन सागर के तालाब पर सतमढ़िया एवं खण्डहर देवालय में एक चन्देलयुगीन अभिलेख था, जो सन 1895 ई. तक देखा गया था। उसमें लिखा था।
सतमढ़ियन के छायरे, और तला की पार।
जो होवे चन्देल कौ, सो लेव उखार।।
आचार्य पं. कृष्ण किशोर द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ में ‘मदन वर्मा और महोबा’ लेख में विवरण दिया गया है कि मदन वर्मा के समय महोबा राजकोष हीरों, मोतियों एवं स्वर्णमुद्राओं से भरा रहता था। तात्पर्य कि चन्देल राजाओं ने सरोवरों, किलों, महलों, मन्दिरों एवं बावड़ियों के निर्माण पर अकूत धन खर्च किया था। कहाँ से इतना धन आया होगा? यह प्रश्न अनुत्तरित ही है। उस वीरगाथा काल के लोक काव्यकारों (जगनक कवि) ने भले ही सच्चाई से ध्यान हटाने हेतु प्रचारित कर दिया कि ‘पारस पथरी है महुबे में, लोहो छुवत सोन हुई जाय’। तात्पर्य यह कि चन्देलों के पास पारस पत्थर था, जिसे लोहा से छुआने (स्पर्श) पर लोहा सोना में बदल जाता था। यह भी लोकमत है कि चन्देल राजा किसानों से लगान के रूप में हल का लोहे का फार एवं हँसिया लिया करते थे और उन्हें सोने में बदल लिया करते थे। ऐसे परिवर्तित सोने के फार एवं हँसिया तालाबों के बाँधों पर बने मन्दिरों के आसपास बाँध में दबा (गाड़) दिया करते थे। परन्तु पत्थर को लोहा से स्पर्श कराने पर लोहा का सोना बन जाना मात्र एक चमत्कारी परन्तु अविश्वसनीय एवं अवैज्ञानिक बात है। पत्थर में बालू में सोना तो निकलता है। सोना खनिज सम्पदा है। परन्तु बुन्देलखण्ड में सोने की खदानें न थीं और न हैं। भविष्य में वैज्ञानिक खोज हो और सोने की खदानें प्राप्त हो जाएँ, यह पृथक बात है।
बाँध का ग्वाल सागर सरोवर इस क्षेत्र का सबसे बड़ा तालाब है, जिसका भराव क्षेत्र दस-बारह किलोमीटर की परिधि में है। जिसके किनारे-किनारे जल सुविधा के कारण जनबस्तियाँ बस गई थीं। इनमें बाँध, सेबार, रमपुरा, बनैरा, कैलपुरा, बम्हौरी एवं कछयांत चन्दूली तथा डुम्बार ग्राम प्रमुख रहे हैं। अपने निर्माण के समय ग्वाल सागर एक झील थी, जिसका जल निकलता ही नहीं था। केवल एक पाँखी पूर्वोत्तर भाग के पठार से थी जिसे पट्टी कहा जाता था। जहाँ से जब कभी अतिरिक्त बरसाती पानी ही बाहर बहकर निकल पाता था।
कुछ भी हो, चन्देलों की नीति कृषि विकास, विस्तार एवं उसके लिये सिंचाई जल संग्रहण व्यवस्था की थी। कृषि सिंचाई जल व्यवस्था विषयक एक शिलालेख का उल्लेख डॉ. एस.के मित्रा ने अपने शोधग्रन्थ ‘अर्ली रूलर्स ऑफ खजुराहो’ के पृष्ठ 180 पर लिखा है, “Attention paid in Irrigation work for the facility of cultivation. The khajuraho Inscription of V.S. 1011 for examp, refer to the construction of embankment to divert the course of rivers (V. 26) evidently for benefit of the peasentry concern expression like NALA (canal) PUSKARNI (Tanks) and BHITI (Embankment) are met within different Chandela records. These were usually located near the cultivable plotes of land apparently to supply water to the fields.”इस अभिलेख में चन्देल राजाओं की भावना का पता चलता है कि वे कृषकों एवं कृषि विकास के लिये समर्पित थे। कृषि राजस्व आय ही चन्देलों का मुख्य आय स्रोत था। अधिसंख्य तालाबों का निर्माण हुआ तो कृषि क्षेत्र बढ़ा। सभी लोग रोजगारों में लग गए थे। व्यापारी व्यवसाय में, कृषक कृषि में और मजदूर, बेलदार, दक्ष कारीगर तालाबों के निर्माण, नहरों की खुदाई एवं मरम्मत कार्यों में लग गए थे। जब सभी लोगों के हाथ काम में लग गए तो समाज में सम्पन्नता आई और शासन स्वर्ण युग नाम से विख्यात हो गया था।
बुन्देलखण्ड की पथरीली-ककरीली भूमि को पानी मिला। लोहे के फार लगे हलों ने पथरीली जमीन फाड़ दी, किसानों ने बीज बोया तो धरती ने अन्न रूपी सोना उगल दिया। किसानों के घर भरे, लगान के बदले मिले अन्न से चन्देलों के जखीरे भरे। प्रजा सम्पन्न हुई, राजा की शक्ति बढ़ी, राजकोष भरा। अन्न धन से सभी धन प्राप्त हो सकते हैं। इस पथरीली ककरीली बुन्देल भूमि से लोहे के फार ने पानी के सहयोग से सोना उगलवाना प्रारम्भ कर दिया था। सबसे शिरोमणि है पानीधन, जिससे अन्न धन पैदा होता है। कहावत है अन्न धन है सो अनेक धन हैं।
टीकमगढ़ मंडल में मदन वर्मा (1030-1165 ई.) ने बरसाती धरातलीय जल संग्रहण पर अकूत धन व्यय किया था। उसने पहाड़-पहाड़ियों एवं टौरियों के बीच की खन्दकों, पटारों में बाँध बनवाकर क्षेत्र के बहते जाते पानी को रोककर विशाल झीलों-सरोवरों का निर्माण करा दिया था। उसके अधिसंख्य तालाबों में विशाल सरोवर हैं-ग्वाल सागर बल्देवगढ़, मदन सागर अहार, मदन सागर जतारा, मदन सागर महोबा, मदन सागर मदनपुर। उसके द्वारा बनवाए गए लगभग 1100 तालाबों में से ग्वालसागर, मदनसागर जतारा एवं मदन सागर अहार तो विशाल झीलें हैं। मानो मदन वर्मा ने इस पहाड़ी पठारी वनाच्छादित जलविहीन शुष्क भू क्षेत्र पर छोटे-छोटे लघुसागरों की रचना कर इस बीहड़ भूमि का रूप-स्वरूप निखारकर इसे आकर्षक एवं मनोहारी बना दिया था।
पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘विन्ध्यभूमि’ के पृ. 18 पर लिखा है कि, “विन्ध्य की प्रकृति का वर्णन अधूरा ही रहेगा यदि यहाँ के सरोवरों का जिक्र न किया जाये। वस्तुतः यहाँ के सरोवर प्राकृतिक सौन्दर्य के मुख्य अंग हैं।”
श्री केशवचन्द मिश्र ने अपने ग्रन्थ ‘चन्देल एवं उनका राजत्वकाल’ में पृष्ठ 230 पर चन्देली तालाबों के निर्माण स्थल चयन पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि दो पर्वतों के बीच की दूरी अथवा नीचा मैदान है, अथवा नदी-नालों के छोड़न हैं, उन्हीं स्थलों को जलाशयों की रचना के लिये चुना गया है। कहीं-कहीं तो ऐसी दो टगरों के बीच प्रशस्त बाँध, बाँधकर रचना कर दी गई हैं, जहाँ वर्षाजल एकत्र कर लिया जाता था। दो पहाड़ियों के मध्यवर्ती नालों को बन्द कर भी चित्ताकर्षक तालाबों की रचना कर ली गई है। इन जलाशयों की रचना की विशेषता यह है कि वे जैसे ही विशाल हैं, वैसी ही मजबूत भी हैं। उनके तटों पर चतुर्दिक स्नानार्थ मनोहर घाट बने हैं और पूजन के निमित्त देवालयों की रचना की गई है।
चन्देलों ने तालाबों का निर्माण कराकर पानी ठहरा दिया तो बुन्देलखण्ड के लोगों का चरवाही, चरागाही घुमन्तु जीवन ठहर गया था। तालाबों के पानी के आश्रय से लोग इकट्ठे बस्तियाँ बसाकर निवास करने लगे थे और उन्हें कृषि युग में प्रविष्ट होने का अवसर प्राप्त हो गया था। इस प्रकार महोबा के चन्देल राजाओं ने धरातलीय बरसाती जल संग्रहण के लिये तालाबों के निर्माण पर अपार अकूत धन व्यय कर यहाँ के लोगों को जल उपलब्ध कराकर जीवनदान दिया था तो सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधियों के विकासवादी द्वार खुल गए थे।
1. ग्वाल सागर बाँध (बल्देवगढ़)
टीकमगढ़ जिला का विशाल झीलनुमा ग्वाल सागर तालाब का निर्माण चन्देल राजा मदनवर्मा (1030-1165 ई.) ने कराया था। उस समय इस क्षेत्र में जल का अभाव था। जलाभाव के कारण क्षेत्र में जन-जीवन अस्थिर चरवाही घुमन्तु प्रकार का था। स्थायी जनबसाहट की बस्तियाँ भी नहीं थीं। कुछ पशुपालक एवं अहीर-ग्वाले पशुओं को टपरे, बगर बनाकर और अपने लिये मड़ैयाँ-मचान बनाकर खानाबदोसी जीवन बिताते, पशुओं को चराते विचरते रहते थे। वे अषाढ़ मास से माघ मास तक आठ-नौ महीना अपने पशु टौरियों, पहाड़-पहाड़ियों पर एवं उनकी पटारों, खन्दियों में से प्रवाहित नदियों-नालों के आसपास डेरे लगाते हुए कभी इधर कभी उधर घुमन्तु खानाबदोसी जीवन बिताते विचरते रहते थे।
बल्देवगढ़ (पूर्वकालिक बाँध बस्ती) टीकमगढ़ जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर की दूरी पर, पूर्वी अंचल के डगई भूभाग में 24.46 उत्तरी अक्षांश एवं 79.7 पूर्वी देशान्तर पर ऊँची-नीची घाटियों, पटारों-खंदकों एवं पहाड़ों के मध्य सघन वन क्षेत्र के मध्य स्थित रहा है। दसवीं सदी तक यह क्षेत्र जल एवं जलविहीन वनाच्छादित मात्र एक चरागाही भूभाग ही था।
यहाँ बड़े-बड़े पहाड़ रहे हैं तो छोटी-छोटी टौरियाँ भी हैं। पहाड़ों एवं टौरियों के मध्य लम्बी संकरी-संकरी पटारें, खन्दियाँ हैं, जिनमें से सर्पाकार नालियाँ नाले और झिन्नें (झरने) कलकल निनादित प्रवाहित रहते थे। आने-जाने के मार्ग ऊँचे-नीचे थे। ऊपर से नीचे खन्दियों में उतरो, फिर घाटियाँ (घाटी) चढ़ो। पूर्वी पश्चिमी भाग में टौरियाँ पहाड़ियाँ रही हैं तो उत्तर दिशा से सफेद चट्टानों वाला आता ऊँचा पेटका पहाड़ रहा है और दक्षिण दिशा की ओर से आता बड़ा पहाड़, विपरीत दिशाओं से समानान्तर से आते यह सफेद कोह एवं काला कोह मानों एक-दूसरे को देख ठिठक कर खड़े रह गए कि जिनके मध्य एक पटार थी जो लगभग सौ मीटर थी। इसी पटार में से पूर्वी अंचल का बरसाती धरातलीय जल समेट कर लातीं बहतीं गौर एवं गुरिया दो छोटी नदियाँ उत्तर दिशा को चली जाती थीं। पहाड़ों खन्दियों एवं सघन वन से निर्मित यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत रोमांचकारी है।
मदन वर्मा ने पेटका पहाड़ एवं बड़ा पहाड़ के मध्य की पटार को बन्द कर गुरिया-गौर नदियों के प्रवाहित जल को थमा दिया था। लगभग सौ मीटर लम्बा, साठ मीटर चौड़ा एवं बीस-बाईस मीटर ऊँचा बाँध दोनों पहाड़ों के पूँछों को मिलाकर बनवा दिया था। छोटे से बाँध से विशाल झीलनुमा सरोवर बन गया था। बाँध पत्थर की पैरियों एवं मिट्टी से ग्वालों के जनसहयोग से बनवाया था। जिसे गायों एवं ग्वालों को समर्पित करते हुए इसका नाम ग्वाल सागर रख दिया था। मदनवर्मा ने अपने नाम पर बाँध के पीछे संलग्न सुन्दर बावड़ी बनवाई थी, जिसे मदनबेर ही कहा जाता रहा है। मदनबेर से सटकर बाँध को पीठ दिये महाबली श्री हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। ग्वाल सागर बाँध के भराव की ओर पेटका पहाड़ के अन्त में पूँछा के पास शिवलिंग स्थापित कर शिव मन्दिर बनवाया था। उस स्थान का नाम शिवघाट रखा था।
ग्वाल सागर बाँध तैयार होने के पश्चात मदन वर्मा के बाँध के उत्तरी पार्श्व में पेटका पहाड़ी पर बस्ती बसाई थी। बस्ती का नाम भी बाँध के नाम पर ही रखा था तथा बाँध ग्राम को क्षेत्र का परगना मुख्यालय भी स्थापित कर दिया था जिससे 149 ग्राम नियन्त्रित होते थे (देखो बुन्देलखण्ड गजेटियर-कर्नल सी.ई. लुआर्ड 1907 पृ. 68)। ग्वाल सागर तालाब बना तो क्षेत्र के लोगों, पशुओं एवं वन्य प्राणियों को जल मिला तो जीवनदान मिला। बहता पानी ठहरा तो लोगों का विचरण रुक गया। घुमन्तू जीवन बस्तियों के रूप में ठहर गया था।
बाँध बस्ती धीरे-धीरे व्यापारिक नगर बन गया था। क्षेत्र की वनोपज महुआ, गुली, अचार चिरोंजी एवं गुड़, चावल, घी का निर्यात चन्देरी को होने लगा था। चन्देरी के प्रसिद्ध व्यापारी सेठ पाड़ाशाह अपने लद्दू बैलों-भैंसो (टाड़ौं) पर दिशावरी सामान लादकर बाँध क्षेत्र में लाकर दे जाते थे और यहाँ की सामग्री टाड़ौं पर लादकर चन्देरी ले जाते थे। अधिसंख्य जैन मतावलम्बी उसी समय चन्देरी-ललितपुर परिक्षेत्र से यहाँ आए और व्यापार व्यवसाय की सुविधा से ग्रामों में फैल गये थे तथा यहाँ निवास करने लगे थे।
बाँध का ग्वाल सागर सरोवर इस क्षेत्र का सबसे बड़ा तालाब है, जिसका भराव क्षेत्र दस-बारह किलोमीटर की परिधि में है। जिसके किनारे-किनारे जल सुविधा के कारण जनबस्तियाँ बस गई थीं। इनमें बाँध, सेबार, रमपुरा, बनैरा, कैलपुरा, बम्हौरी एवं कछयांत चन्दूली तथा डुम्बार ग्राम प्रमुख रहे हैं। अपने निर्माण के समय ग्वाल सागर एक झील थी, जिसका जल निकलता ही नहीं था। केवल एक पाँखी पूर्वोत्तर भाग के पठार से थी जिसे पट्टी कहा जाता था। जहाँ से जब कभी अतिरिक्त बरसाती पानी ही बाहर बहकर निकल पाता था।
मदन वर्मा ने ग्वाल सागर तालाब एवं बाँध ग्राम स्थापित करने के बाद बाँध ग्राम के पश्चिम की टौरियों के मध्य एक छोटी सी तलैया भी बनवाई थी। ग्वाल सागर विशाल झील बनाई तो उसके समीप ही तलैया बनवाई तो लोगों ने उसका नाम ‘सौतेली’ रख लिया था। सौतेली तलैया के पश्चिम में बहेरिया नाले (वर्तमान विन्धयवासनी नाला) के वाम पार्श्व की विन्ध्य श्रेणी पर कौशिकी देवी (विन्ध्य पर्वत श्रेणी पर वास करने से विन्ध्यवासिनी देवी) की बलुआ प्रस्तर प्रतिमा स्थापित की थी। विन्ध्यवासिनी देवी मन्दिर से क्षेत्र का प्राकृतिक सौन्दर्य निहारते ही बनता है जो मनोहारी एवं आकर्षक है।
ग्वाल सागर झील पहाड़ों, टौरियों, घाटियों एवं वादियों के मध्य हरित अटवी वृक्षावलियों से घिरी सटी बड़ी आकर्षक एवं मनोहारी है। समय बीतता गया। काल-चक्र के झोंकों में सन 1181-82 ई. बैरागढ़ (उरई) के मैदान में बुन्देलखण्ड का महाभारत पृथ्वीराज चौहान एवं मदन वर्मा के नाती परमाल देव के मध्य हुआ था, जिसमें चन्देली राजसत्ता का पराभाव हो गया था और बुन्देला राजसत्ता का आविर्भाव हुआ था।
ओरछा के महाराजा विक्रमाजीत सिंह (1776-1817 ई.) ने झाँसी के मराठा मामलतदारों की लूट एवं आतंकवाद से त्रस्त होकर सन् 1783 में ओरछा के बजाय टेहरी (टीकमगढ़) को राजधानी बना लिया था। उन्होंने अपनी सैन्य व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिये सुदृढ़, सुरक्षित दुर्ग निर्माण के निमित्त, पहाड़ों, घाटियों, खन्दियों खन्दकों एवं वनाच्छादित वाले बाँध ग्राम का चयन कर, बड़ा पहाड़ के पूँछा (नोंका) से पेटका पहाड़ के उत्तुंग शिखर के पूर्वी पार्श्व में ग्वाल सागर तालाब के किनारे-किनारे लगभग 20 हेक्टेयर विस्तार में गिरि दुर्ग, वन दुर्ग एवं जल दुर्ग जैसा मिश्रित सुन्दर, सुदृढ़ एवं सुरक्षित सैन्य दुर्ग का निर्माण सन 1812 ई. में कराया था, जिसमें ओरछा राज्य की सेना, तोपें एवं युद्ध सामग्री का भण्डार रहता था। इस किले का मुख्य कीला दरवाजा एक गहरी खन्दक की घाटी पर बड़ा पहाड़ के पूँछ पर निर्मित किया गया है, जिस तक किसी भी शत्रु का पहुँच पाना असम्भव रहा है। कीला दरवाजा ग्वाल सागर बाँध प्रांगण पर खुलता है। इस बाँध प्रांगण पर खुलता है। इस बाँध प्रांगण में बाबा कपूरशाह की मजार है तो तालाब के शिवघाट से संलग्न श्री कृष्ण के बड़े भाई श्री बल्दाऊ जी का मन्दिर महाराजा विक्रमाजीत सिंह ने बनवाकर, किला उन्हीं को समर्पित करते हुए बल्देवगढ़ नाम रखा था। किला का नामकरण बल्देवगढ़ हुआ तो बाँध बस्ती को भी बल्देवगढ़ बोला-कहा जाने लगा था।महाराजा विक्रमाजीत सिंह ने किला बल्देवगढ़ को जल के मध्य करने के उद्देश्य से उत्तरी पूर्वी किनारे पेटका पहाड़ की गहरी खन्दक, जिसमें से ग्वाल सागर का अतिरिक्त जल प्रवाहित होता जाता था, पर चूना पत्थर का लगभग 45 फुट ऊँचा एवं 35 फुट चौड़ा सुन्दर सीढ़ियों-घाटोंदार बाँध बनवाकर जन निस्तारी तालाब का निर्माण कराया था जो ग्वाल सागर से बाहर निकलने वाले जल से भरता है। इस तालाब का नाम जुगल सागर रखा था तथा उसके बाँध पर जुगल किशोर जी (श्री कृष्ण) का मन्दिर बनवा दिया था। इसके अतिरिक्त एक दूसरा तालाब धरम सागर, बल्देवगढ़ के पश्चिमोत्तर भाग में बनवाया था, जिसका बाँध चूना पत्थर का पक्का बना हुआ है। इसमें जुगल सागर का अतिरिक्त जल एवं बड़े पहाड़ के पश्चिमी भाग की पटारों का पानी आता है। इसका जल भराव क्षेत्र जुगल सागर के पीछे बने बाँध से लेकर ग्वाल सागर बाँध के पृष्ठ भाग में बनी मदनबेर तक था। इस प्रकार किला एवं बल्देवगढ़ नगर चारों ओर जल से घेर दिया गया था। मानो किला एवं बस्ती को जल की रजत करधनी पहना दी गई हो। लासपुर की सलक्षण वर्मा के युग की त्रिदेवी की प्रतिमा नायक बस्ती में स्थापित की गई थी।
बुन्देला राज्य शासन काल में बल्देवगढ़ (बाँध) एक विकसित व्यावसायिक केन्द्र बन गया था। बड़े-बड़े धनी व्यापारी, सेठ-साहूकार यहाँ निवास करते थे, जिनमें तिवारी जू, मिसर जू, चौधरी जी (वैश्य), नायक जी आदि प्रमुख राजमान्य घराने थे। यहाँ के लोगों के भवन मकान पक्के चूना ईंट के दुमंजिला पालकी शैली के दरवाजों वाले थे। अधिसंख्य बस्ती ब्राम्हण विद्वानों एवं साहूकारों की थी। ओरछा नरेश प्रताप सिहं तो इसे ‘काशी’ कहा करते थे। राजा ने पश्चिमी पार्श्व की पठार में सुन्दर बगीचों की स्थापना कराई थी। केतकी का बगीचा खन्दियाँ की पटार में था। बगीचों के चारों ओर कटीले मोटे बाँसों की बागड़ें थीं। बड़े पहाड़ को चुल के पास से काटकर ग्वाल सागर झील से जल निकासी हेतु कुठिया सुलूस बनाया गया था, जहाँ से नहर द्वारा पानी लाकर भदभदा से नहरों द्वारा चन्दूली विन्ध्यवासिनी हार, कछयाँत बल्देवगढ़ ग्रामों के कृषकों तथा तीन राजकीय उद्यानों, बगीचों को दिया जाता था। एक समय था राजशाही का, जब बल्देवगढ़ ग्रीष्म ऋतु में भी वर्षा काल का ही बना रहता था। यहाँ गर्मी के मौसम में भी पानी बहता रहता था। गर्मी की ऋतु में शिमला की शीतलता यहाँ निवास करती थी। अब लू-लपट, धूल और जलाभाव का डेरा पड़ा हुआ है।
इस ग्वाल सागर तालाब से वर्तमान में दो नहरें निकाली गई हैं। पुरानी का जीर्णोद्धार कर इसे 6 किलोमीटर तक बढ़ाया गया है, जो बायीं नहर है। दायीं नहर लगभग 26 किलोमीटर लम्बी है। इन नहरों से लगभग 1500 हेक्टेयर कृषि भूमि सींची जाती है। सिंचित रकबा तो बढ़ा लिया गया, जबकि पानी की आवक के साधन विकसित नहीं किए गए हैं। ग्वाल सागर तालाब से बल्देवगढ़, कछयाँत, बनैरा, कैलपुरा, बम्हौरी, रमपुरा, सेवार, चन्दूली, जिनागढ़ खास, जिनागढ़ जंगल, बलवन्त नगर, देवी नगर, राजनगर, जटेरा, सुजानपुरा खास, सुजान ऊगढ़ एवं श्यामपुरा आदि ग्रामों को कृषि सिंचाई एवं पशुधन को पानी की सुविधा है।
ग्वाल सागर तालाब में मत्स्य पालन होता है। यहाँ की रोहू मछली का बाजार कोलकाता है, जहाँ यहाँ के रोहुआ की भारी माँग रहती है। इस तालाब के अगोर में बसे ग्रामों में कृषि जोत भूमि बढ़ गई है। समतल भूमि के अलावा लोग टौरियों के ढाल भी जोत देते हैं, जिस कारण बरसात में भूमि क्षरण होकर मिट्टी तालाब में आती रहती है। नहरों से किसान खेतों की सिंचाई को पानी लेते हैं, परन्तु जब सिंचाई हो जाती है तो नहर का ‘औंका’ बन्द करने के बजाय, खदानों, नालियों की ओर पानी छोड़ देते हैं, जो दिन-रात बहता एवं बर्बाद होता रहता है। तालाब के बाँध एवं पूरी नहरों की छिलाई-सफाई दुरुस्ती भी आवश्यक है। नियमित मरम्मत, साफ-सफाई से तालाब की देखभाल एवं सुरक्षा रहेगी।
ग्वाल सागर झील के अन्दर मध्य में एक टापू (द्वीप) है, शिव मन्दिर है। यदि टापू पर पर्यटक कॉटेज निर्मित करा दी जाए और नौका विहार (बोटिंग सैर सपाटा) व्यवस्था कर दी जाए तो सिंचाई विभाग के साथ-साथ स्थानीय लोगों की आय में इजाफा होगा। बल्देवगढ़ कस्बा से बनैरा, रमपुरा, सेवार को आने-जाने के लिये भी नालें चलवाई जा सकती हैं। इससे आने-जाने वाले लोगों का समय बचेगा और प्रकृति का आनन्द भी मिलेगा।
बल्देवगढ़ परिक्षेत्र सिंचाई जल के अभाव से सदियों से पिछड़ा रहा है। तालाब हैं, परन्तु वर्षा कम होने एवं कृषि रकबा बढ़ जाने से तालाब सूख ही जाते हैं। यदि सुजारा के पास सेधसान नदी पर एक ऐनीकट बन जाए और ऐनीकट शाखा को लुहर्रा से अहार के मदन सागर एवं बल्देवगढ़ के ग्वाल सागर सरोवरों की ओर विभक्त कर दिया जाए तो क्षेत्र में पानी ही पानी होगा। क्षेत्र सर सब्ज हो जाएगा।
2. मदन सागर अहार (मदनेशपुरम)
अहार ग्राम टीकमगढ़ के पूर्वी अंचल में ही बल्देवगढ़ परिक्षेत्र में स्थित है जो 24.44 उत्तरी अक्षांश एवं 79.5 पूर्वी देशान्तर पर टीकमगढ़ से 27 किलोमीटर पूर्व में तथा बल्देवगढ़ से 10 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम को है। यहाँ आने-जाने के लिये टीकमगढ़-छतरपुर बस सुविधा नियमित प्राप्त रहती है। टीकमगढ़ से वाया नारायणपुर अहार बल्देवगढ़ बस यातायात सुविधा भी है, जिससे आप सीधे अहार पहुँचते हैं। टीकमगढ़-बल्देवगढ़ बस मार्ग पर अहार पुलिया बस-स्टॉप से अहार तक को टैक्सी सुविधा भी मिलती है।
बाँध (बल्देवगढ़) क्षेत्र में पहाड़-पहाड़ियाँ एवं टौरियाँ सर्वाधिक रही हैं जिनके मध्य की खन्दियों में होकर क्षेत्र का बरसाती धरातलीय प्रवाहित जल बहता चला जाता था। अहार (मदनेशपुरम) की पहाड़ी की खाँद से एक बड़ा नाला दक्षिण-पूर्व का धरातलीय जल समेटता हुआ पहाड़ी श्रृंखला की पटार से निकलता हुआ, पश्चिमोत्तर दिशा में प्रवाहित सौनदा (सौरदी) नाले से मिलकर उर नदी में विलय होकर उत्तर की ओर चला जाता था।
मदन वर्मा ने यहाँ की पहाड़ी श्रृंखलाओं को मध्य बाँध में मिलाते हुए लगभग 350 मीटर लम्बा, 20 मीटर चौड़ा एवं 8 मीटर ऊँचा विशाल बाँध (पाल) बनवाकर अपने नाम पर सरोवर तैयार करा दिया था जिसे मदन सागर ताल कहा जाता रहा है। बाँध के मध्योतर मदनेशपुरी बस्ती बसा दी थी, तथा मदनेशपुरी बस्ती के दक्षिणी पार्श्व की टौरिया पर मदनेश्वर शिव मठ बनवाया था। मदनेश्वर मठ के पश्चिमी पार्श्व में टौरिया की तलहटी में सुन्दर बावड़ी का निर्माण कराया था। इस सरोवर के बाँध में दो कौनियाँ उत्तरी भाग में एवं दक्षिण भाग में हैं तथा दोनों कौनियों को मिलाते हुए बाँध के मध्य भाग में चौड़ा अर्द्ध चन्द्राकार, भराव की ओर उभरे पेट की भाँति बड़ा चांदौ है। इस सागर के जल के निकास को कोई कुठिया, औनों या सलूस नहीं था। अतिरिक्त जल उत्तर की ओर की पहाड़ी की खाँद से निकलता था। बाँध के दक्षिणी पूँछा की टौरिया पर घुमन्तु ग्वालों-अहीरों को बसा दिया था, जिसे ढड़कना ग्राम कहा जाता रहा है।
मदन वर्मा के मृत्योपरान्त उसका पौत्र परमालदेव (1165-1202 ई.) महोबा राजगद्दी पर आसीन हुआ था। अहार जैन सिद्ध क्षेत्र के साहित्य संग्रह में लेख प्राप्त है कि चन्देल काल में चन्देरी के धनाढ्य व्यापारी जैन पाणाशाह सलक्षणपुर (सरकनपुर) विलासपुर (लासपुर) से अपने टाँड़ौं पर गुड़, घी, चावल चिरौंजी एवं राँगा लादे हुए मदनेशपुरम चन्देरी वापिस जा रहे थेे। जब उनका टाँड़ौं तालाब के पूँछा से आगे बढ़ रहा था तो एक बैल जिस पर राँगा लदा हुआ था, उसका खुर वहाँ पड़ी हुई एक विशाल चट्टान से टकरा गया। जैसी ही बैल का खुर चट्टान से छुआ तो उस पर लदा हुआ राँगा चाँदी हो गया था। चाहे पाणाशह क्षेत्र के दुकानदारों आसामियों से उदारी के चुकावरे में चाँदी भरकर ले जा रहे हों और लुटेरों के भय से राँगा कहते रहे हों और जब चट्टान से टकराने पर बैल की खोजी (खास) जमीन पर गिरी हो तो चाँदी जमीन पर बिखर गई हो तो पाणाशह ने बहाना बनाते हुए कह दिया हो कि मेरे बैल की खोजी में रांगा था, लेकिन इस चट्टान के स्पर्श से राँगा चाँदी हो गया है। यह स्थान एवं चट्टान सिद्ध है। बस इस चमत्कार से पाणाशह सेठ ने उस विशाल चट्टान से श्री शान्तिनाथ जी की प्रतिमा गढ़ने के लिये प्रसिद्ध मूर्तिकार वास्तुकार वाल्हन के पुत्र महामतिशाली पापट को बुलवाकर संवत् 1237 के अगहन शुदी 3 शुक्रवार (सन् 1180 ई.) को बनवाकर, परमालदेव के समय ही इस 21 फुट ऊँची प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा सन 1182 ई. में की गई थी। श्री शान्तिनाथ जी को पहले के लोग मूड़ा देव कहा करते थे। यह स्थल मदन सागर तालाब के दक्षिणी पूँछा के पश्चिमी पार्श्व में है। मैं यह भी कहना चाहूँगा कि सरकनपुर बल्देवगढ़ (बाँध) क्षेत्र में कहीं भी राँगा की खदानें नहीं रही हैं। हाँ बाँध के पेटका पहाड़ के पेटकाहार (भाटा) में चाँदी का पत्थर प्राप्त रहा है।
मदन सागर तालाब में बरसाती धरातलीय जल लाते दो बड़े नाले पटैरिया नाला एवं कुसैरिया नाले आते हैं। जो ताल लिधौरा, बगौरा, शा, बाजीतपुरा एवं बैरवार ग्रामों के मौजों का बरसाती जल लाते हुए, इसे भरते हैं। परन्तु अब इसमें पानी की आवक कम हो गई है क्योंकि इसके जल स्रोतों (नालों) पर नए-नए बाँध बन गए हैं। फिर भी तालाब एक छोटा समुद्र-सा है। बाँध की पैरियाँ खिसक रही हैं। तालाब के बाँध पर सिंचाई विभाग का कार्यालय है, जिसकी नाक के नीचे बाँध दुर्दशा का शिकार है। तालाबों की मरम्मत-दुरुस्ती का धन अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों की जेबों में चला जाता है। भ्रष्टाचार कर लेने को अधिकारी-कर्मचारी एवं जनप्रतिनिधि चौकस-चौकन्ने रहते हैं और ग्राम क्षेत्र के तालाबों की देखरेख, सुरक्षा एवं मरम्मत-दुरुस्ती जैसे रचनात्मक कार्यों में उदासीन रहते हैं क्योंकि सार्वजनिक हित के कार्यों के बजाय वे व्यक्तिगत हित अधिक साधते हैं।
उसी समय पारस पत्थर समूचे बाँध परिक्षेत्र में चला, जिसके चमत्कार से क्षेत्र के प्रत्येक नालियाँ नाले पर बाँध (पाल) बनाकर तालाब तैयार किए गए थे। मदनेशपुरम से दक्षिण की ओर 6 किलोमीटर की दूरी पर दो पहाड़ियों के मध्य की पटार में बाँध बनवाकर सुन्दर सरोवर तैयार किया गया था। इस बाँध का मध्य भाग मदन सागर तालाब मदनेशपुरम की भाँति चौड़ा है। जिसके भराव क्षेत्र की ओर गोलाई लिये हुए चाँदी है ताकि तालाब में भरने वाला जल चाँदे से टकराकर दाएँ-बाएँ कटता जाय और बाँध (पाल) पर पानी का दबाव न बन सके। तालाब के बाँध पर दो शिव मठ हैं। पृष्ठभागीय शिव मठ कलात्मक है, जिसमें एक शिला लेख संस्कृत में 2 फीट दस इंच लम्बा, दो फीट दो इंच चौड़ा लगा होने का जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है। जिसमें 28 पंक्तियाँ चन्देल राजाओं के लोकहितकारी कार्यों की प्रशस्ति विषयक थीं। वर्तमान में मठ भी ध्वस्तावस्था में है और शिला लेख भी गायब है। बाँध के उत्तरी पार्श्व में एक विशाल सूर्यनारायण मन्दिर बनवाया गया था और भगवान सूर्यनारायण के नाम पर इस बस्ती का नामकरण ‘नारायणपुर’ किया गया था। कालान्तर में नारायणपुर एक सम्पन्न नगर हो गया था। ऐसी जनश्रुति है कि नारायणपुर के पहाड़ों के पत्थर से चाँदी बनाई जाती थी। नारायणपुर के तालाब के बाँध के पीछे की बहारुओं में गन्ने की खेती बहुतायत से होती थी जिससे गुड़ बनाकर बाहर भेजा जाता था। यहाँ चन्देलकालीन पत्थर के कोल्हू से गन्ना की पिराई कर रस निकालकर गुड़ बनाया जाता था। इसी नारायणपुर नगर के अग्रहार (आगे के भाटे) में मूड़ादेव (श्री शान्तिनाथ का मन्दिर) होने से उसे अहार कहा जाने लगा था। उत्तर चन्देलकाल में मदनेशपुरी ध्वस्त हो गई। मदनेश्वर शिव मठ गिर गया। क्षेत्र पर कोई जमाल मुसलमान का बोलबाला हो गया तो अहार को मौजा अहार जमालपुर कहा जाने लगा था।बुन्देलखण्ड में एक कहावत रही है कि ‘घर में साला, खेत में नाला और मुहल्ले में लाला’ का बोलबाला चलता हो जाय तो तीनों विकसित नहीं हो पाते न वहाँ सरसता रहती है। उरई के माहिल देव पड़िहार की बहिन मलना देवी को परमालदेव राजा महोबा ने बलपूर्वक अपनी रानी बना लिया था, जिस कारण माहिल परमालदेव से आन्तरिक विद्वेष रखता था। यद्यपि परमाल देव ने माहिल को अपने यहाँ रखकर सामन्ती पद देकर उसे प्रसन्न करने की चेष्टा की थी। परन्तु पुराना शत्रु एवं नया मित्र जैसे कभी वफादार नहीं माने जाते। वही स्थिति परमालदेव और माहिलदेव की हुई थी। माहिलदेव महोबा के राजमहल में रहते हुए भी चन्देल राज्य के विनाश के लिये कूटनीतिक दावपेंच लगाता रहता था। दूसरे पड़ोसी सशक्त राजाओं के साथ ऐसे अशोभनीय कृत्य करा देता था कि वे असन्तुष्ट होकर महोबा राज्य पर आक्रमण कर दें। उसे सफलता भी मिली। पृथ्वीराज चौहान के सैनिकों, अधिकारियों के साथ महोबा के बाग में विश्राम कर लेने की बात पर उसने उन्हें अपमानित किया और युद्ध के लिये आमन्त्रित किया। परिणामस्वरूप पृथ्वीराज चौहान ने 1181 ई. में चन्देल राज्य महोबा पर आक्रमण कर दिया था। बैरागढ़ (उरई) के पास चौहान-चन्देल युद्ध हो गया, जिसमें पृथ्वीराज चौहान ने परमालदेव को पराजित कर उसके वैभव को धूल-धूसरित कर दिया था। चन्देलों की शक्ति क्षीण होते ही बुन्देली राजसत्ता का अभ्युदय हुआ था।
बुन्देला नरेशों ने भी जनहित में बरसाती धरातलीय जल संग्रहण के लिये तालाबों के निर्माण की योजना यथावत जारी रखी। वीरसिंह देव चरित्र (अंग्रेजी ऐतिहासिक) चिरंजीलाल माथुर पृ. 2 पर उल्लेख है कि ओरछा (टीकमगढ़) नरेश महाराजा प्रतापसिंह ने राज्य के किसानों को कृषि सिंचाई सुविधा प्रदान करवाने हेतु 73 पुराने चन्देली तालाबों का जीर्णोद्धार कराया था और उनमें सिंचाई के लिये पानी निकास हेतु कुठियाँ बनवाकर सलूस लगवाये थे। इसके साथ खेतों (टरेटों) तक नहरें खुदवाई थी। चन्देली तालाबों के जीर्णोद्धार के अतिरिक्त उन्होंने 450 नवीन तालाबों का निर्माण कराया था, जिनमें कुछ कच्चे मिट्टी के बाँध वाले थे तो कुछ चूना की पट्टी (बाँध) बनाकर स्टाप डैम सरीखे ही थे, तो कुछ पक्के पत्थर की पैरी एवं मिट्टी के सुदृढ़ तालाब थे।
मदन वर्मा के बनवाये मदन सागर अहार के बाँध पर मदनेशपुरम बस्ती बुन्देला युग में ध्वस्त हो गई थी। मदनेश्वर नाथ का मठ भी ध्वस्त हो गया था। महाराजा प्रताप सिंह ने बाँध पर ध्वस्त भवनों को बाँध पर ही समतल कराकर तालाब के जल निकासी हेतु दो सुलूस कुठिया बनवा दिए थे। मदन सागर तालाब का जो अतिरिक्त जल उत्तर की ओर की पहाड़ियों की पटारों, खदियों से निकल जाता था, उसे महाराजा प्रताप सिंह (1874-1930) ने लड़वारी में दो तालाब माँझ का ताल एवं नया ताल बनवाकर रोक दिया था। इससे मदन सागर अहार तालाब की लम्बाई 6 किलोमीटर हो गई थी। वर्षा ऋतु में जब मदन सागर सरोवर 6 किलोमीटर लम्बा भरता है और पर्यटक तालाब के भराव-बाँधों पहाड़ियों पर से सिद्ध क्षेत्र अहार जी जाते-आते हैं तो सौन्दर्य छटा अवलोक कर विमोहित हो जाते हैं। मानो भगवान शान्तिनाथ ने अपनी शान्ति यहाँ की वादियों, घाटियों, तालाब की उत्तुंग पर्वत श्रेणियों को भी प्रदान कर दी हो। मदन सागर तालाब में मत्स्य पालन भी होता है। सरोवर का सौन्दर्य अवलोकनीय है।
3. मदन सागर सरोवर, जतारा
मदन सागर सरोवर जतारा, टीकमगढ़ जिले के उत्तरी-पूर्वी अंचल में, टीकमगढ़ से 40 किलोमीटर की दूरी पर 25.1 उत्तरी अक्षांश एवं 79.6 पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। जतारा नामकरण के बारे में आइने अकबरी ग्रन्थ (ब्लोचमैन भाग-2, पृ. 188) में उल्लेख है कि यहाँ एक सूफी सन्त अव्दर पीर रहा करते थे। उनके दर्शनों के लिये आगरा से अबुल फजल यहाँ की जात्राएँ (यात्राएँ) किया करते थे। अबुल फजल की जात्राओं के कारण ही इस कस्बा का नाम जतारा पड़ गया था। पं. गोरेलाल तिवारी ने अपने ग्रन्थ ‘बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास’ में बतलाया है कि जतारा का प्राचीन नाम जटवारा था, कालान्तर में जटवारा से जतारा हो गया। ओरछा स्टेट गजेटियर में यह भी उल्लेख है कि “नौ सौ बेर, नवासी कुआँ, छप्पन ताल जतारा हुआ।”
जतारा तालाब के दक्षिणी पार्श्व में गौर (गौरइया) पहाड़ है तो उत्तरी पार्श्व में दतैरी देवी पहाड़ है। गौरेया माता पहाड़ एवं दतैरी देवी पहाड़ को जोड़ती पहाड़ी नीची श्रृंखला थी, जिसकी पटार (खाँद) से पश्चिमोत्तर क्षेत्र का बरसाती धरातलीय जल प्रवाहित होता रहता था, जो पूर्व दिशा की नीची भूमि से उर नदी में चला जाता था। पश्चिमोत्तर भाग में बड़ी ऊँची-ऊँची अनेक टौरियाँ-पहाड़ियाँ थीं जो हरे-भरे पेड़ों से आच्छादित बड़ी आकर्षक मनोहारी लगती रही हैं।
मदन वर्मा चन्देल ने प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर जतारा के गौरेया माता पहाड़ एवं उत्तर-पूर्व के दतैरी माता पहाड़ के मध्य की पहाड़ी नीची श्रृंखला को बीच में दबाते-चपाते हुए विशाल सरोवर का निर्माण करा दिया था, जिसे मदन वर्मा के नाम से मदन सागर तालाब कहा जाने लगा था। इस मदन सागर सरोवर के अतिरिक्त पानी के निकास के लिये गौरेया पहाड़ के दक्षिणी-पश्चिमी पार्श्व में एक छोटा-सा बाँध निर्मित किया गया था, जो तालाब के पूर्ण भराव का प्रतीक (मान) था। अतिरिक्त पानी इसी बाँधनुमा पाँखी को पार कर दक्षिण-पूर्व की निचली भूमि से बहता चला जाता था। मदन सागर तालाब का मुख्य प्रथम बाँध लगभग 600 मीटर लम्बा, 30 फुट ऊँचा एवं 60 फुट चौड़ा है, जो आगे-पीछे पत्थर की पैरियाँ लगाकर बीच में मिट्टी का भराव कर बनाया गया है। इसका भराव क्षेत्र तीन हजार एकड़ से भी अधिक है। जब यह तालाब पूर्णरूपेण भर जाता है तो एक समुद्र की भाँति दिखता है। जतारा कस्बा एवं यहाँ के मदन सागर तालाब की यह विशेषता है कि बस्ती पहाड़ों के पूर्वी अंचल की निचाई में है और मदन सागर तालाब पहाड़ों के मध्य की ऊँचाई वाली समतल पटारी भूमि पर है। बस्ती निचाई में, तालाब ऊँचाई पर, जिस कारण यहाँ हर समय समशीतोष्ण मौसम बना रहता है। इसीलिये जतारा को बुन्देलखण्ड का स्विट्जरलैण्ड माना जाता है।
मदन सागर तालाब के प्राकृतिक मनमोहक सौन्दर्य का आनन्द लेने हेतु राजा मदन वर्मा चन्देल ने तालाब के मध्य के ऊँचे पठार पर एक भवन बनवा दिया था, जिसे मदन महल कहा जाता था। उक्त महल वर्तमान में ध्वस्त हो चुका है, परन्तु उक्त महल के स्थान पर एक शिव मन्दिर बनवा दिया गया है। तालाब के बाँध से पहाड़ियों, टौरियों की हरीतिमा के मध्य से अस्त होते सूर्य की लालिमा की छवि निहारते ही बनती है। ऐसा लगता है मानो सूर्य की लालिमा तालाब की लोल-लोल लहरों के ऊपर बैठकर अठखेलियाँ करती पालना (झूला) झूल रही हों। चाँदनी रात में उत्तुंग लोल लहरें मानों चारूचन्द्र की स्वच्छ चाँदनी में अनूठी छटा बिखेरती अठखेलियाँ कर रही हों अथवा मानो अगणित चन्द्र मदन सागर तालाब के जल में क्रीड़ा करते हुए मदमस्त होकर झूम रही हों।
तालाब के दक्षिणी पार्श्व में गौर पहाड़ (गौरइया पहाड़) है जिस पर गौरइया देवी का मन्दिर है। शायद इन्हीं देवी के नाम पर पहाड़ का नाम गौरइया पहाड़ पड़ा हो अथवा चन्देल राजाओं के पूर्व यहाँ गोरवंशीय क्षत्रियों का आधिपत्य रहा हो, जिससे इसे गौर पहाड़ कहा गया हो। गौर पहाड़ के नीचे बाँध के पूँछा पर सत मढ़ियाँ (सात मढ़ी) बनी हुई थीं। जिनका उल्लेख ओरछा स्टेट गजेटियर 1907 पृ. 78 पर है। लिखा है कि मढ़ियों पर एक शिलालेख था जिसमें उल्लेख था कि “सतमढ़ी के छायरैं और तला के पार। धन गड़ो है अपार। जो होवे चन्देल कौं सो लेव उखार।”
सतमढ़ियों के समीप ही प्राचीनकालीन ईदगाह मस्जिद है। बाँध के ऊपर एक सुन्दर विश्रामगृह बना हुआ है। विश्रामगृह के पास ही सन् 1897 ई. में महाराजा प्रताप सिहं ने तालाब से कृषि सिंचाई हेतु जल निकासी के लिये कुठिया, सलूस एवं नहरों का निर्माण कराया था। बाँध के पीछे नहर दो शाखाओं में विभक्त है। एक शाखा बाँध के पीछे के नजरबाग में से किले के पास से बस्ती में से गुजरती हुई राम बाग आदि बगीचों को सिंचाई जल देती गाँव के बाहर दूर दूर तक चली गई है। दूसरी शाखा मुख्य नहर (दायीं नहर बैरवार क्षेत्र की भूमि की सिंचाई करती है। किटा खेरा, मचौरा, पिपरट, बहारू एवं बैरबार ग्रामों की कृषि सिंचाई इसी दायीं नहर से होती है। बाँध के पीछे नौ देवियों के मन्दिर एक पुंज रूप में निर्मित खड़े हुए हैं। बाँध के उत्तरी पूर्वी भाग की पहाड़ी पर किला है, जो ओरछा नरेश भारतीचन्द ने बनवाया था। उनके भाई मधुकर शाह भी इस किले में रहे थे। जतारा का किला एवं महल हिन्दू मुस्लिम स्थापत्य शैली में निर्मित है जबकि किले का पूर्वाभिमुखी प्रवेश दरवाजा हिन्दू शैली का ही है। यहाँ की एक भग्न गुर्ज रामशाह गुर्ज नाम से जानी जाती है। किले में हनुमान मन्दिर है। इसी से संलग्न तालाब की ओर मुस्लिम शैली की इमारतों के खण्डहर हैं तो बाँध के पीछे दक्षिणी-पूर्वी भाग में स्लामशाह सूर (पुत्र शेरशाह सूरी) के समय के अनेक स्लामी भग्न मकबरे हैं, जिनमें बाजने का मठ, बारह दरवाजी मकबरा के अतिरिक्त 20 से 30 भवनों, मकबरों के भग्नावशेष अवलोकनीय हैं। किला से संलग्न बाँध में तालाब के भराव की ओर एक कुहनी निर्मित है जो तालाब के जल का दबाव (जलाघात) रोकने के लिये है। नदियों-नालों से आता वेगपूर्ण जल कुहनी से टकराकर दाएँ-बाएँ विभक्त होकर भराव क्षेत्र में फैल जाता है और बाँध सुरक्षित रहता है।
मदन सागर तालाब में बरसाती धरातलीय जल लाते दो बड़े नाले पटैरिया नाला एवं कुसैरिया नाले आते हैं। जो ताल लिधौरा, बगौरा, शा, बाजीतपुरा एवं बैरवार ग्रामों के मौजों का बरसाती जल लाते हुए, इसे भरते हैं। परन्तु अब इसमें पानी की आवक कम हो गई है क्योंकि इसके जल स्रोतों (नालों) पर नए-नए बाँध बन गए हैं। फिर भी तालाब एक छोटा समुद्र-सा है। बाँध की पैरियाँ खिसक रही हैं। तालाब के बाँध पर सिंचाई विभाग का कार्यालय है, जिसकी नाक के नीचे बाँध दुर्दशा का शिकार है। तालाबों की मरम्मत-दुरुस्ती का धन अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों की जेबों में चला जाता है। भ्रष्टाचार कर लेने को अधिकारी-कर्मचारी एवं जनप्रतिनिधि चौकस-चौकन्ने रहते हैं और ग्राम क्षेत्र के तालाबों की देखरेख, सुरक्षा एवं मरम्मत-दुरुस्ती जैसे रचनात्मक कार्यों में उदासीन रहते हैं क्योंकि सार्वजनिक हित के कार्यों के बजाय वे व्यक्तिगत हित अधिक साधते हैं।
चन्देल काल में जतारा परिक्षेत्र में जल प्रबन्धन हेतु सर्वाधिक तालाबों का निर्माण कराया गया था। पहाड़-पहाड़ियों एवं टौरियों के मध्य से बरसाती जल के नाले-नालियाँ बहते थे, जिन्हें पत्थर की पैरियों एवं मिट्टी के विशाल सुदृढ़ बाँधों से रोककर बड़े-बड़े तालाब बनवा दिए गए थे। प्रवाहित जल को तालाबों में थमा दिया गया था। पानी थमा तो लोगों का चलता-फिरता घुमन्तु जीवन थम गया था। पानी थमा तो पानी का जलस्तर ऊँचा बढ़ा। सैकड़ों बेरे (बावड़ियाँ) और कुँआ बने। जतारा की लोह लंगर व्यापारियों द्वारा बनवाई बावड़ियाँ तो शायद भारत में अपने ढंग की निराली हैं, जो आकार में विशाल और गहरी हैं। उनमें सीढ़ियाँ नहीं है बल्कि दूर से पानी तक सपाट ढालू मार्ग हैं ताकि पशु भी आसानी से उतरते हुए पानी पीते रहें। ऐसी निराली स्थापत्य शैली में बनी लोह लंगर बावड़ियाँ केवल जतारा में ही हैं जिनमें आदमी, पशु सभी स्वमेव स्वतन्त्रतापूर्वक जल पीते रहे हैं।
जतारा में पानी का भरपूर प्रबन्ध हुआ तो क्षेत्र का आर्थिक, धर्म, संस्कृति कि विकास हुआ। आइने अकबरी में व्लोचमैन ने लिखा है कि मदन सागर बाँध के ऊपर निर्मित किले की दक्षिणी दीवाल से संलग्न एक दरगाह अब्दा पीर की है, जहाँ अबुल फजल दुआ लेने आया करता था। वह अब्दा पीर सन्त सम्भवतः सूरीवंश के सुलतान स्लामशाह सूरी के समय जतारा में रहे हों। स्लामशाह सूरी के समय जतारा स्लामिक संस्कृति का नगर था। उस समय उसे स्लामाबाद के नाम से जाना जाता था।
टीकमगढ़ जिला गजेटियर सन 1995 पृ. 100 पर अब्दा पीर साहब के विषय में उल्लेख है कि अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिस्ती (सन्त) ने अपने एक मुरीद (शिष्य) ख्वाजा रुकनुद्दीन समरकन्दी की शाहबूरी के जतारा क्षेत्र में रहने की हिदायत दी थी। अपने गुरू की हिदायत पाकर ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब, जो उस समय चन्देरी में रहते थे, जतारा (स्लामाबाद) आए और मांचीगढ़ के फूटा ताल को एकान्त-शान्त उपयुक्त समझ, वहीं रहने लगे थे। जैसे ही क्षेत्र के लोगों को ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब के माँची के फूटा ताल पर ठहरे होने एवं उनके चमत्कारों का पता लगता गया, तो लोग उनके पास अपने दुखों-दर्दों से निजात पाने के लिये पहुँचने लगे। एक स्थानीय शेख शाह मुहम्मद रसीद साहब ख्वाजा साहब की सेवा के लिये जतारा से नित्य आने-जाने लगा। वह अपने घर से रुकनुद्दीन साहब के लिये पका हुआ खाना भी लाया करते थे।
एक दिन शेख शाह मुहम्मद रसीद, ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब के लिये भोजन लेकर आए तो उनका पुत्र अब्दा भी बिना वालिद रसीद की जानकारी के उनके पीछे-पीछे चुपचाप चला आया और ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब के दर के बाहर छिपकर खड़ा हो गया था।
ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब ने कुछ देर बाद अपनी दिव्य दृष्टि से बालक अब्दा का बाहर चुपचाप अकेला खड़ा होना जाना तो शेख रसीद से उसे अन्दर दर पर लाने को बोला। शेख रसीद दर से बाहर निकले और अब्दा को चुपचाप खड़ा देखकर चकित हुआ तथा पुत्र अब्दा को लेकर ख्वाजा साहब के पास पहुँचा। ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब ने बालक अब्दा को अपने पास बैठाकर, अपने खाना में से खाना खिलाते हुए, उसकी मुराद पूछी। बालक अब्दा ने कहा, “मुझे ऐसा वरदान दीजिए कि मैं जो चाहूँ सो वह हो जावे।” ख्वाजा साहब ने प्यार से अब्दा की ओर देखते हुए कहा, “हाँ, तेरी इच्छा पूरी होगी, जो तू चाहेगा, वही होगा।” इस प्रकार अब्दा ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब का मुरीद (शिष्य) हो गया था। एक दिन बालक अब्दा ने ख्वाजा साहब के वरदान के परीक्षण हेतु सोचा कि जो मछली मैंने खाई है, वह जिन्दा हो जावे, तो पेट में खाई मछली मुँह से जिन्दा निकल पड़ी और तालाब में उछल गई। इस घटना से वह अपने गुरू ख्वाजा साहब के पक्के मुरीद विश्वासी हो गए थे।
कुछ समय बाद अब्दा के पिता शेखशाह मुहम्मद रसीद दिवंगत हो गए थे तथा ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब चन्देरी चले गए थे। तब रूहानी शक्तियों से मंडित अब्दा पागल की भाँति फकीरी भेष में घूमने-फिरने लगे थे। वे कभी फूटा ताल माँची में दिखते तो कभी जतारा में बस्ती से दूर किले की दीवाल के सहारे खड़े टिके दिखते। कभी-कभी जतारा से दूर बम्हौरी गाँव की पहाड़ी पर दिखते थे। लोग उन्हें पागल सिर्री मानते थे, जबकि उनके पास तो ख्वाजा रुकनुद्दीन साहब की रूहानी (दैवी, ईश्वरीय) शक्तियाँ थीं, जिस कारण लोग उनके पास अपनी व्याधियों, दुखों के निवारणार्थ आने लगे थे। अब्दा की वाणी सफलीभूत होने लगी थी। धीरे-धीरे अब्दा फकीर पागल से अब्दा पीर रूप में प्रसिद्ध हो गए थे। वह ख्वाजा रूकनुद्दीन साहब की राह के सन्त चिस्ती ही बन गए थे।
एक दिन एक व्यक्ति अब्दा पीर साहब के पास कम्बल ओढ़े थर-थर काँपता आया। उसे तिजारी चढ़ी हुई थी। अब्दा पीर साहब ने उसकी पीड़ा देख कर, उससे कहा कि कम्बल को शरीर से हटाकर दूर रख दो। जैसे ही तिजारी वाले व्यक्ति ने अपने शरीर से कम्बल पृथक कर अलग रखा तो अब्दा साहब ने अपनी रूहानी शक्ति (दैवी शक्ति) से तिजारी को कम्बल पर चढ़ा दिया और वृद्ध व्यक्ति ठीक, स्वस्थ हो गया। परन्तु कम्बल काँपने लगा था। तिजारी उतरने से वृद्ध घर चला गया और फिर उनके पास नहीं आया। तो अब्दा साहब ने वृद्ध के हालचाल पूछने के लिये स्वयं उसके पास चलने हेतु, जमीन से कहा कि तू मुझे उस वृद्ध के पास ले चल। पलक झपकते वे उस वृद्ध के पास जा पहुँचे।
ऐसे रूहानी चमत्कारों से प्रभावित होकर लोग अब्दा पीर साहब के पास समूहों में आने लगे थे। लोग अब्दा पीर साहब को घेरने लगे थे, जिस कारण वे कभी माँची तो कभी जतारा चलते-फिरते रहने लगे थे। परेशान होकर एक दिन जतारा माँची छोड़ चार-पाँच किलोमीटर दूर पूर्व दिशा में स्थित ग्राम बम्हौरी की पहाड़ी की खोह (गुफा) में प्रविष्ट होकर छिप गए थे तथा खोह के दरवाजे को एक विशाल प्रस्तर शिला से बन्द कर लिया था। वह पहाड़ी आज भी ‘अब्दा पीर साहब की पहाड़ी’ नाम से प्रसिद्ध है। आज भी लोग बिना धर्म-जाति विभेद के अपने दुखों-व्याधियों से निजात पाने की दुअा लेने-मांगने अब्दा पीर साहब की गुफा पहाड़ी (दर) पर जाते हैं। भादों माह के जुमेरात के दिन अब्दा पीर पहाड़ी पर विशाल मेला लगता है। ओरछा राज्य की महारानी साहिबा ने पहाड़ी पर यात्रियों की सुविधा के लिये एक कोठी (सराय) बनवा दी थी। अब्दा पीर पहाड़ी के पूर्वोत्तर पार्श्व में धरम सागर (थर) नामक विशाल सरोवर है।
4. महेन्द्र सागर (प्रताप सागर), टीकमगढ़
टीकमगढ़ नगर, ओरछा राज्य का राजधानी मुख्यालय था, जो वर्तमान में जिला मुख्यालय है। यह 24.25 उत्तरी अक्षांश एवं 78.50 देशान्तर पर स्थित है। इसका प्राचीन नाम टेहरी था। सन 1783 ई. में झाँसी के मराठा प्रबन्धकों की लूट, आतंक से त्रस्त होकर महाराजा विक्रमाजीत ने ओरछा राजधानी को छोड़कर टेहरी को राजधानी बना लिया था। जिन्होंने पहाड़ी पर किला बनवाया था तथा पहाड़ी के पश्चिमी भाग में आधुनिक बस्ती बसाकर उसे नगर परकोटे से सुरक्षित किया था। चूँकि महाराजा विक्रमादित्य सिंह श्री कृष्ण उर्फ टीकम जी के अनन्य भक्त थे इसलिये उन्होंने किला का नामकरण टीकमजी के नाम पर टीकमगढ़ रख दिया था। जब नगर की बसाहट हो गई तो नगर बस्ती भी टीकमगढ़ नाम से जानी जाने लगी थी।
टीकमगढ़ राजधानी मुख्यालय हो जाने पर भी यहाँ कोई तालाब नहीं था। नगर निवासियों की जल व्यवस्था हेतु राजाओं ने कुँए, चौपरे नगर के चारों ओर एवं मुहल्लों में बनवा दिए थे। नगर के बाहर चारों और एक-एक मील की दूरी पर बावड़ियाँ, कुएँ बनवाए गए थे कि राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों से जो लोग गाड़ियों, गधों एवं लद्दू भैसों पर माल लादकर आवें, वह वहाँ ठहरकर मवेशियों को जल पिलाएँ, स्वयं भोजन करें, फिर बाजार करें और कार्य पूरा होने पर बिना परेशानी घर वापिस जाएँ।
टीकमगढ़ किला पहाड़ी के दक्षिणी छोर की ओर नीची समतल भूमि थी, जो कृषि भूमि थी, जिसमें 8-10 कुएँ थे। नायकों का एक मन्दिर है जिसके पास एक लोर तला (बन्धिया) था, जिसमें पूर्वी क्षेत्र का बरसाती जल बहता हुआ आकर भर जाता था। वह लोर तला नायकों का कृषि तला था। जब लोर तला जल से भर जाता था तो उसका वेशी पानी महाराजपुरा के चन्देली तालाब को भरता था। महाराजपुरा तालाब का वेशी जल बौरी के हनुमान सागर तालाब को भरता हुआ जामुनी नदी में चला जाया करता था।
विक्रमाजीत सिंह ने अपने जीवन-काल में ही पुत्र धर्मपाल सिंह को राजा बना दिया था, जिनका निःसन्तान निधन हो गया था। तत्पश्चात उनकी मझली महारानी लड़ई सरकार रीजेन्ट बनी थी, जिन्होंने दिगौड़ा के जागीरदार के ज्येष्ठ पुत्र हमीर सिंह को गोद लेकर ओरछा (टीकमगढ़) का राजा बना दिया था। परन्तु उनके 1854 ई. में राजा बनने के 3 साल बाद सन् 1857 ई. में गैर क्षेत्रीय मराठी दासता से विमुक्ति का युगान्तकारी संघर्ष प्रारम्भ हो गया था, जिस कारण राज्यों का सम्पूर्ण ध्यान मराठों को बुन्देलखण्ड से निष्कासित करने में लग गया था। युगान्तकारी संघर्ष के शमन के पश्चात 1870 में हमीर सिंह का निधन हो गया था। वह निःसन्तान थे जिस कारण रीजेंट महारानी लड़ई सरकार ने हमीर सिंह के छोटे भाई प्रताप सिंह दिगौड़ा को गोद लेकर ओरछा (टीकमगढ़) का राजा बनाया था।
राजगद्दी पर बैठते समय वह मात्र 20 वर्ष के थे, जिस कारण राज्य शासन व्यवस्था की देखरेख के लिये अंग्रेजी सरकार ने एक अंग्रेज अधिकारी मेजर ए. मायने को नियुक्त किया था।
सन 1887 ई. में महाराजा प्रताप सिंह ने पहाड़ी के दक्षिणी अंचल की नीची भूमि पर चूना-पत्थर की एक किलोमीटर लम्बी पट्टी का बाँध बनाकर उसमें सुन्दर स्नान घाट-सीढ़ियाँ बनवाकर पक्की पट्टी के पीछे मिट्टी का चौड़ा बाँध तैयार करवाकर प्रताप सागर तालाब बनवा दिया था। इसी प्रताप सागर तालाब को लोग महेन्द्र सागर कहने लगे थे।
प्रताप सागर तालाब के उत्तरी अंचल में अनूठा महिला स्नान घाट, देवी मन्दिर, चित्रगुप्त मन्दिर, प्रतापेश्वर महादेव मन्दिर, नायकों का मन्दिर, तत्पश्चात तालकोटी, हनुमान मन्दिर, बजाज की बगिया का मन्दिर है। तालाब के पीछे परमार परिवार का मकबरा है जिससे संलग्न महाराजा प्रताप सिंह का सैरगाह महेन्द्र बाग है जो अति सुन्दर बगीचा है। महेन्द्र बाग के दक्षिण में सलूस के पीछे गऊ घाट स्थान है जिसमें जल भरा रहता था। इसमें गायें और अन्य पशु पानी पीते रहते थे। महाराजा प्रताप सिंह ने पुरानी टेहरी के मध्य से किला को घेरते हुए एक गहरी एवं चौड़ी पत्थरों से युक्त नाली बनवाई थी जो जानकीबाग बगीचे को पानी देती थी तथा वृन्दावन तालाब को भरा करती थी। प्रताप सागर तालाब का उबेला पूर्व की ओर है जिसमें से तालाब का वेशी पानी निकलकर बगर के तालाब को भरता था।
महाराजा प्रताप सिंह के समय टीकमगढ़ में रामलीला का मंचन भव्य रूप से किया जाता था। रामलीला में लंका के दृश्य मंचन के लिये तालाब के अन्दर एक कोठी बनवाई थी जिसे लंका नाम दिया गया था। इसी लंका कोठी के पास एक विभीषण मढ़ी बनवाई गई थी।
5. धर्म सागर सरोवर, थर-बराना
धर्म सागर तालाब टीकमगढ़ जिला के बड़े तालाबों में से एक है, जो जतारा के मदन सागर के पूर्व में, सीधे चलने पर दस किलोमीटर की दूरी पर, लेकिन वाहन मोटर अथवा मोटर साइकिल से टेढ़े-मेढ़े चक्करदार पक्के पलेरा बस मार्ग पर स्थित ग्राम कुड़याला के दक्षिण में मुड़कर, पहुँच मार्ग पर 5 किलोमीटर चलकर धर्म सागर सरोवर पर पहुँच जाते हैं। इस टेढ़े चक्करदार मार्ग से चलने पर जतारा से इसकी दूरी 20 किलोमीटर हो जाती है। इस तालाब के भराव क्षेत्र के चारों ओर कुड़याला, खैरों, पठापुर, रामनगर, बराना एवं बम्हौरी अब्दा ग्राम बसे हुए हैं। थर ग्राम तालाब के बाँध पर ही बसा था, परंतु अब बाँध के पृष्ठ भाग में लगभग डेढ़ किलोमीटर समतल (थर भूमि) पर बस गया है । वैसे इस तालाब का जल भराव क्षेत्र भी थर भूमि (समतल) वाला ही है, जो चारों ओर की पहाड़ियों, टौरियों के मध्य आठ-दस किलोमीटर की गोलाई में है। आठ-दस किलोमीटर के घेरे में 20 से 25 फुट ऊँचा पानी संग्रहीत होने पर, यह तालाब एक छोटा समुद्र-सा लगने लगता है। बाँध पर खड़े होने पर, मैदानी हवा के वेग से पानी के हिडौले (बड़ी लहरें) जब बाँध से टकराते हैं तो लगता है कि बाँध हिल रहा है, उड़ा जा रहा है। अजीब दृश्य देखकर दिल धड़कने लगता है। अजीब है थर का धर्म सागर। मनमोहक है, दर्शनीय है, आकर्षक है, लेकिन पूर्ण भरने पर थर-थर कंपाता भी है, दिल धड़काता भी है, भयभीत करता है।
धर्म सागर सरोवर थर का बाँध दो पहाड़ों के मध्य की खाँद में लगभग 200 मीटर लम्बा, 30 फुट ऊँचा और 60 फुट चौड़ा है। उत्तरी पहाड़ी एवं दक्षिणी पहाड़ी के मध्य की खाँद तो लगभग 100 मीटर ही है, लेकिन बाँध की मजबूती के लिये पहाडों की पश्चिमी तलहटी 50-50 मीटर भराव क्षेत्र की ओर दबाते हुए बाँध को 200 मीटर लम्बा किया गया है। बाँध मदन वर्मा चन्देल शासनकालीन है। इस तालाब में बरसाती जल की आवक दक्षिणी-पश्चिमी और उत्तरी दिशाओं के आठ-दस किलोमीटर परिक्षेत्र से है। तालाब के अगोर (भराव क्षेत्र) से संलग्न टौरियों पहाड़ियों के मध्य चार-पाँच ग्राम बसे हुए हैं, जिनका बरसाती धरातलीय प्रवाहित जल इस तालाब में इकट्ठा होता है। इसके अतिरिक्त रामनगर की तरफ से दैजा नाला दूर-दूर का पानी लाकर इसी तालाब में डालता है। एक नाला खैरों वाला है, जो इसी तालाब में आता है। पानी के वेग-दबाव को काटने-मोड़ने हेतु बाँध में छह मोड़ें (चाँदे) दिए गए हैं।
थर के धरम सागर सरोवर का भराव क्षेत्र लगभग आठ किलोमीटर के घेरे से भी अधिक है। भराव क्षेत्र के संलग्न चारों ओर टौरियाँ पहाडियाँ हैं, जिनकी पटारों में पानी भर जाने पर तालाब विकराल रूप धारण कर लेता है। इसका उबेला (अतिरिक्त पानी निकलने की पाँखी) तालाब के उत्तरी दिशा के पहाड़ के उत्तरी पूँछा के चचरीले-पथरीले मैदानी ढाल से है, जो तालाब के बाँध के उत्तर में लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर है, तथा नया बनाया गया है। चन्देल काल में जब बाँध (तालाब) बना था, तभी चचरीले मैदानी भाग में पत्थर की पैरियाँ लगाकर एक छोटा नीचा बाँध (रोक) बनाया गया था, जो मात्र एक-एक पत्थर का ही था, जो अब अस्त व्यस्त स्थिति में है, जिस कारण लगभग एक फुट जल भराव कम हो रहा है। वर्तमान में उबेला से अतिरिक्त निकलते जाने वाले पानी को रोकने के लिये एक पटार में स्टाप डैम कम वैस्ट वियर निर्मित कर दिया गया है।
धरम सागर तालाब के बाँध पर प्राचीन थर ग्राम बसा हुआ था जो वर्तमान में बाँध के पीछे समतल भूमि पर लगभग 2 किलोमीटर दूर स्थापित हो चुका है। प्राचीन बस्ती थर के भग्नावेश अभी भी दृष्टव्य हैं। महान पक्की ईटों-पत्थर, मिट्टी एवं चूना से बनाए गए थे। बस्ती में देवालय भी थे। बाँध के उत्तरी भाग की पहाड़ी की तलहटी में एक चिरौल के वृक्ष के नीचे गौंड़ बब्बा जू का चबूतरा है, तो दक्षिणी पार्श्व की पहाड़ी की तरफ बाँध के दक्षिणी पूँछा के मैदान में विशाल पीपल के पेड़ के नीचे शिव मन्दिर है। पीपल के वृक्ष के पार्श्व में चार ताड़वृक्ष (ताड़ पाठे) हैं, जो हवा के वेग से निरन्तर सरसराते, नाना प्रकार के स्वरों में गुनगुनाते, मानो धर्म सागर समुद्र एवं आसपास के प्राकृतिक सौन्दर्य की महिमा का मधुर गान करते रहते, पर्यटकों के स्वागत को आतुर खड़े हैं।
धरम सागर सरोवर के निर्माण के समय चन्देल काल में, तालाब के बाँध में जल निकास के लिये औंनौं (सलूस) नहीं बनाया गया था। क्योंकि उस समय बरसाती धरातलीय प्रवाहित जल संग्रहण के लिये बनाए गए तालाबों का जल केवल जन निस्तार एवं पशुओं, वन्य प्राणियों को पीने के लिये भंडारण, सुरक्षित संग्रहीत रखा जाता था। केवल एक अथवा दो उबेला, पाँखियाँ मात्रा से अधिक पानी भरने पर, बाँध के दाएँ-बाएँ पार्श्वों की चचरीली-पथरीली, टौरियाऊ भूमि से होकर बना दी जाती थीं जिससे भराव क्षमता से अतिरिक्त जल निकलता जाए और बाँध को किसी प्रकारद की क्षति न पहुँच सके।
बुन्देला शासन काल में, ओरछा (टीकमगढ़) नरेश महाराजा प्रताप सिंह जू देव ने राज्य में कृषि विकास एवं विस्तार हेतु तालाबों के संग्रहीत जल को सिंचाई हेतु प्रयोग करने के निमित्त सन 1897 ई. में बड़े विशाल तालाबों में पानी निकासी के लिये औनें, सलूस बनवाने एवं नहरें खुदवाकर खेतों तक पानी पहुँचाने की योजना प्रारम्भ की थी। सिंचाई के लिये तालाब के पानी की निकासी हेतु बन्धान के मध्य भाग के दक्षिणी पार्श्व में कुठिया सलूस बनवाकर दाईं-बाईं नहर निकाली गई थीं जो तत्कालीन अभियान्त्रिकी कला का श्रेष्ठ नमूना है। पहाड़ों के मध्य के दर्रा पटार में से सलूस एवं नहरें ऐसे कलात्मक तरीके से निकाली गईं कि नीचे पुल है तो पुलों के ऊपर से सरसराती नहरें बहती हैं। नहरों के नीचे से पटार का पानी निकलता चला जाता है। बाँध के पृष्ठ भाग से पचास फुट की दूरी से बाईं एवं दाईं नहरें विभक्त की गई हैं। नहरों पर भी पानी को बन्द करने, खोलने, छोड़ने के लिये छोटे-छोटे सलूस लगे हैं। पानी किस नहर में कितना छोड़ा जाना है यह सब कार्य सलूसों के माध्यम से किए जाने की व्यवस्था है। इस तालाब से लगभग 1500 हेक्टेयर की सिंचाई होती है।
इस तालाब में मत्स्य पालन तो होता ही है, साथ ही साथ ग्रीष्म ऋतु में चीमरी, डँगरा (खरबूज-तरबूज), मूँग उड़द एवं धान भी पैदा कर लिया जाता रहा है।
तालाब का बाँध सुदृढ़ है। जिस पर पानी का दबाव, वेग-आघात काटने हेतु छह कौनियाँ-चाँदे-मोड़ें दी गई हैं। प्राचीन तालाब होने से बाँध के ऊपरी भाग की सीढ़ियाँ खिसकने लगी हैं। थर का यह धर्म सागर सरोवर बुन्देलखण्ड की प्राचीन पुरानिधि है। बाँध की मरम्मत वांछित है ताकि बाँध एवं सरोवर आकर्षण का केन्द्र बना रहे एवं सैलानियों-पर्यटकों के आवागमन का स्थल बन सके।
6. नदनवारा तालाब, नदनवारा
चन्देल राजाओं, जिनकी राजसत्ता बुन्देलखण्ड में लम्बे समय तक रही थी, उनके पूर्व बुन्देलखण्ड जलविहीन क्षेत्र था। क्षेत्र पठारी-पहाड़ी, ऊँचा-नीचा, असमान वनाच्छादित था। वेतवा, पहुँज, सिंध, यमुना नदियों वाला उत्तरी बुन्देलखण्ड ही विकसित था, क्योंकि इन नदियों में पानी रहता था। ‘सुखी जीव जहँ नीर अगाधा’ के अनुसार इन नदियों के कछारीय भाग के लोग सम्पन्न थे, कृषि करते थे। अनेक औद्योगिक एवं व्यावसायिक नगर इन नदियों के किनारे बसे थे। जैसे पंवाया, नरवर, देवगढ़ चन्दैरी, काल्पी एवं हमीरपुर जैसे बड़े-बड़े महानगर पानीदार नदियों के किनारे ही थे और आज भी नामवर हैं।
दक्षिणी बुन्देलखण्ड शुष्क पठारी, पहाड़ी भूभाग था। जो बरसाती पानी चौमासे में बरसता था वह टौरियों, पहाड़ियों के मध्य की नालियों-नालों में से तेज गति से बहता क्षेत्र से बाहर निकल जाता था, क्योंकि बरसाती धरातलीय जल को क्षेत्र में रोकने के लिये तालाब आदि नहीं थे। जब पानी नहीं था तो खेती नहीं होती थी, लोग केवल पशुपालन करते थे। हाँ, नदियों के तटों को काटकर समतल बनाते हुए छोटे-छोटे खेत बनाकर उनमें धान, बराई (गन्ना), जौ, चना, मसूर बो लेते थे। खरीफ की बरसाती फसल में कोदो, धान, लठारा, समां, शाली कुटकी एवं तिल्ली बो कर अपनी गुजर-बसर कर लिया करते थे। आबादी घुमक्कड़ थी, खानाबदोस जैसी।
चन्देल नरेशों ने दो टौरियों, पहाड़ियों के मध्य पत्थर मिट्टी से लम्बे-चौड़े मजबूत बाँध (बन्धान, पाल) बनवाकर तालाब बनवाए। जब पानी इकट्ठा हो गया तो बाँध पर अथवा बाँध के किनारे बस्ती बसा दी गई। बाँध अथवा तालाब के नाम पर बस्ती का नाम रखा जाना प्रारम्भ हुआ। नदनवारा तालाब बना तो उसी से संलग्न नदनवारा बस्ती भी बसा दी गई थी।
नदनवारा तालाब एवं ग्राम, जिला टीकमगढ़ के पश्चिमी पार्श्व में 25.2 उत्तरी अक्षांश एवं 78.52 पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। जिले में यह एक बड़ा तालाब है, जिसकी सिंचाई क्षमता 1677 हेक्टेयर से भी अधिक है। इस तालाब पर पहुँचने के लिये टीकमगढ़ मोहनगढ़ जैरोन बस मार्ग पर से एक लिंक रोड है। दूसरा मार्ग टीकमगढ़-पृथ्वीपुर बस मार्ग के बम्हौरी बराना ग्राम से नदनवारा तालाब को जाता है।
नदनवारा तालाब चन्देला युगीन, प्राचीन तालाब है जो वारगी नदी के जल को दो पहाड़ियों के मध्य रोककर बनाया गया था। वारगी नदी के जलाघात को बाँध सह नहीं पाया था, जिस कारण बाँध टूट गया था, जिसे ओरछा नरेश महाराजा वीर सिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) ने बाँध का पुनर्निर्माण कराया था। उन्होंने तालाब के भराव की ओर ऊँची पक्की दीवाल एवं स्नान घाट बनवा दिए थे। बाँध पर गणेश जी की मूर्ति स्थापित कराई थी, जिस कारण लोग इसे गणेश ताल भी कहने लगे थे। बाँध पर एक ऊँचा बड़ा चबूतरा भी बैठक हेतु बनवाया था। इस चबूतरे से तालाब का दृश्य बड़ा विहंगम एवं मनोहारी लगता है। बाँध पर रेस्ट हाउस है।
नदनवारा तालाब के पक्के बाँध की लम्बाई 250 मीटर और ऊँचाई 17.50 मीटर है। दो पहाड़ियों के मध्य बड़ी चौड़ी पाँखी, उबेला (क्षमता से अधिक जल निकास साधन) है, जिसकी चौड़ाई 107 मीटर है। तालाब का भराव क्षेत्र लगभग 15 वर्ग किलोमीटर है। इस तालाब से लगभग 2800 हेक्टेयर कृषि भूमि सींची जाती है। इसकी बाईं नहर की लम्बाई 16 किलोमीटर है जिससे केशरीगंज, नदनवारा, बुदर्रा, पाराखेरा, बाराबुजुर्ग, ककावनी, लुहुरगुवाँ, मजल, ममौरा, रौतेरा, बजरंगगढ़ आदि इन ग्यारह ग्रामों को पानी जाता है। दाईं नहर लगभग 5 किलोमीटर लम्बी है जिससे नदनवारा, बम्हौरी मुड़िया एवं खाकरौन ग्रामों की फसलों को पानी पहुँचाया जाता है।
जिला के लगभग 150 चन्देली तालाब खेती में प्रयुक्त हैं, जिनके पट्टे रियासती समय में रसूकदार किसानों को दे दिए गए थे। वर्तमान में 995 तालाब इस जिला में शासकीय हैं। इनके अतिरिक्त लगभग 600 कच्ची बन्धियां (तालाब) भी टीकमगढ़ जिला में हैं, जो किसानों ने निजी तौर पर अपनी मौरूसी पट्टे की भूमि पर बना रखी हैं जिनमें किसान रबी एवं खरीफ की फसल बोते रहे हैं।
नदनवारा तालाब टौरियों, पहाड़ियों के मध्य प्राकृतिक सुषमा-सौन्दर्य से परिपूर्ण है। उत्तरी-पश्चिमी कोण में उबेला है। ‘विन्ध्य भूमि’ प्रदेश परिचय अंक वर्ष 4 अंक 2-3 रीवा के पृष्ठ 20-21 पर इस नदनवारा तालाब के बारे में एक विस्मयकारी चमत्कारिक चर्चा को उल्लिखित किया गया है कि “इस तालाब का निर्माण ओरछा नरेश महाराजा वीर सिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) ने कराया था। यह तालाब वारगी नामक नदी को रोककर बनवाया गया है। कहा जाता है कि दो बार इस नदी के तालाब ने बाँध को तोड़ दिया था और तीसरी बार भी टूटने की आशंका थी। इसलिये श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को महाराज वीरसिंह देव ने स्वयं उस बाँध पर शयन किया। रात में जब नदी में बाढ़ आई तब ऐसा लगा कि बाँध टूट जाएगा और राजा बह जाएँगे। तब नदी ने देवी का रूप धारण करके स्वप्न दिया, ‘तुम यहाँ से हट जाओ, बाँध टूट रहा है।’ महाराजा देवी के बड़े भक्त थे। उन्हें सदा देवी जी के द्वारा स्वप्न होता और आगे आने वाले कार्यों का संकेत मिलता था। उसी के अनुसार वे कार्य भी करते थे। नींद खुलने पर महाराज चिन्तित हुए। कुछ समझ में न आया। नदी का वेग देखकर ऐसा लग रहा था कि अभी कुछ पलों में बाँध टूटता है। उन्होंने देवी जी से निवेदन किया- “मैंने अनेक बार आपकी आज्ञाओं का पालन किया है। जब-जब आपने आदेश दिया उसे शिरोधार्य किया, लेकिन एक मेरी प्रार्थना आप भी स्वीकार कर लीजिए। मैं चाहता हूँ कि यह बाँध बना रहे। टूटे नहीं। बड़े परिश्रम से हमने इसका निर्माण कराया है। इसके रहने से असंख्य पशु-पक्षी पानी पीयेंगे और मानव समाज का भी उपकार होगा। इसलिये आप नदी को दूसरी ओर से ले जाइए।राजा की विनम्र प्रार्थना सुनकर देवी का हृदय पिघल गया और उसने बाँध न तोड़ना स्वीकार कर लिया। बाँध से करीब 50 गज की दूरी पर दो पहाड़ियों के बीच होकर नदी ने अपना मार्ग बना लिया और बहने लगी। बारगी की इस कृपा पर राजा बहुत प्रसन्न हुए और फूले न समाये। तभी से यह ताल लोकरंजन कर रहा है। लोगों का कथन है कि प्रारम्भ में यह ताल बहुत बड़ा था। पच्चीसों मील के घेरे में था। वर्तमान समय में रानीगंज, बिदारी आदि जो गाँव पहाड़ियों से बहुत दूर बसे हुए हैं, वहाँ तक इस सरोवर का पानी फैला रहता था। समय की गतिविधि से विशाल रकबा कम हो गया है।
इस तालाब में कमल खिले रहते हैं। सिंघाड़ा भी बहुत होता है। वर्षाकाल में बाँध पर खड़े होने पर दूर तक जल ही लज दिखता है। पहाड़-पहाड़ियों से नीचे गिरती हुई जलधाराएँ बहुत सुन्दर लगती हैं। दूर-दूर से पानी आकर इस तालाब में इक्ट्ठा हो जाता है। इस तालाब का गहरीकरण आवश्यक है क्योंकि पानी के साथ दूर-दूर से मिट्टी इसमें भर रही है।
7. तालाबों का नगर कुड़ार
कुड़ार, टीकमगढ़ जिला मुख्यालय से 107 किलोमीटर एवं निवाड़ी तहसील मुख्यालय से 22 किमी. की दूरी पर, जिला के उत्तरी अंचल में 25.30 उत्तरी अक्षांश एवं 28.57 पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। कुड़ार शब्द की व्युत्पत्ति बुुन्देली बोली के शब्द कुड़ार अर्थात बड़ा विशाल कूँड़ों से हुई है। तात्पर्य कि कुड़ार किला अपने चारों ओर के पहाड़-पहाड़ियों से घिरा हुआ है जिनके मध्य के एक ऊँचे पठार पर किला स्थापित है। जैसे कि कूँड़े की तलहटी गहरी होती है और उसकी औठीं-घेरा चारों ओर को ऊँची होती है। ऐसी ही (कूँड़े की बनावट की तरह) भौमिक संरचना के मध्य में कुड़ार किला है। जो अपने प्रकार का एकमात्र किला है, यह चारों ओर घेराबन्दी लिये पहाड़ों-पहाड़ियों के मध्य की नीची तलहटी के पठार पर निर्मित है तथा बहुत दूर से दिखता है और नजदीक से पहाड़ों की ओट के अंचल में छिप जाता है। इस किले का निर्माण चन्देल राजा यशोवर्मा (925-40 ई.) ने अपने दक्षिणी-पश्चिमी राज्य क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था हेतु एक सुदृढ़ सैनिक केन्द्र के रूप में करवाया था जिसका दुर्गाध्यक्ष शिया जू परमार एवं नायब किलेदार खूब सिंह खगार था।
किला कुड़ार बन जाने एवं सूबाई मुख्यालय होने से किला नाम से बस्ती भी कुड़ार नाम से प्रसिद्ध हो गई थी। पहाड़-पहाड़ियों के मध्य विशाल बस्ती थी। मीलों के घेरे में बस्ती-बसाहट होने से यशोवर्मन चन्देल ने लोगों एवं सेना के लिये पीने के पानी एवं निस्तारू जल की व्यवस्था के लिये छोटे-बड़े अनेक तालाबों का निर्माण कराया था, जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
1. सिन्दूर सागर (सिंह सागर)- कुड़ार नगर के उत्तरी-पूर्वी में अंचल एक बड़ा नाला (छोटी नदी) जिसे हाटी नदी कहते थे, जो देवी पहाड़ के पूर्वी पार्श्व से, दूर-दूर के पहाड़ों एवं मैदानों का बरसाती धरातलीय जल लेकर निकली थी, यशोवर्मा ने देवी पहाड़ के दक्षिणी छोर को जोड़ते हुए दक्षिणी भाग की पहाड़ी तक पत्थर की पैरियों एवं मिट्टी से विशाल बाँध बनवाकर सिन्दूर सागर नाम से विशाल तालाब तैयार करवा दिया था। इसमें पानी की आवक अधिक थी। पूर्ण भरने पर सिन्दूर सागर समुद्र की तरह दिखता था। कालान्तर में यह तालाब अधिक जल भराव के कारण उत्तरी-पश्चिमी किनारे से फूट गया था।
कालचक्र के घुमाव के साथ, बुन्देलखण्ड में चन्देल राज सत्ता अस्त व्यस्त हो गई जिस कारण बुन्देलों को अपनी सत्ता स्थापित करने का संयोग मिल गया था। चन्देलों की तरफ से कुड़ार किले का दुर्गाध्यक्ष शिया जू परमार था, जो 1182 ई. में चन्देल-चौहान (परमाल देव एवं पृथ्वीराज चौहान) के मध्य उरई के बैरागढ़ में होने वाले संग्राम में मारा गया था। उरई के बैरागढ़ युद्ध में चन्देली सत्ता अस्त-व्यस्त हो गई। उसके सभी लड़ाका योद्धा 1182 ई. के युद्ध में मारे गए थे। कुड़ार के किलेदार शिया जू परमार के मारे जाने पर नायब किलेदार खूब सिंह खंगार ने अवसर का लाभ उठाया और स्वयं कुड़ार का अधिपति बन गया था। इसी समय महौनी का अपदस्थ राजा सोहन पाल बुन्देला बेतवा के वनाच्छादित क्षेत्र में ससैन्य प्रविष्ट हुआ। जिसने सन 1257 ई. में कुड़ार पर आक्रमण कर खँगार राजा को परास्त कर कुड़ार में अपनी बुन्देली सत्ता स्थापित कर ली थी। कुड़ार में 1539 ई. तक राजधानी रही। तत्पश्चात ओरछा राजधानी स्थानान्तरित कर ली गई थी।
सोहनपाल बुन्देला ने सिन्दूर सागर के किनारे पहाड़ी के पूँछा पर अपनी आराध्य देवी गिद्ध वाहिनी देवी की स्थापना कर यहाँ का धार्मिक-सांस्कृतिक वैभव बढ़ाया था। कालान्तर में ओरछा में महान स्थापत्य प्रेमी महाराजा वीरसिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) राजा हुए थे जिन्हें अनूठे दर्शनीय महत्त्वपूर्ण स्थापत्य निर्माण कार्य कराने का शौक था। उन्होंने अपने शासनकाल में कुड़ार के फूटे विशाल सरोवर का जीर्णोद्धार कराया था। यह जीर्णोद्धार कार्य चूना-पत्थर का दर्शनीय बाँध बनाकर पूर्ण हुआ जिसका नया नाम ‘सिंह सागर’ रखा था।
सिंह सरोवर बुन्देलखण्ड के दर्शनीय तालाबों में से एक है। यह सरोवर विशाल है, जिसका आधा बाँध-देवी मन्दिर से आधे तक पक्का पत्थर-चूने का बना हुआ है, और आधा भाग दक्षिणी पार्श्व वाला कच्चा पुराना चन्देल युगीन ही है। देवी मन्दिर से लगायत पूरे पक्के बाँध में, ऊपर से नीचे तक आने-जाने, नहाने धोने के लिये बड़े कलात्मक सुन्दर पक्के घाट बने हुए हैं। वर्षा ऋतु में जब यह तालाब लबालब पूरा भरता है और समुद्र की तरह जब ऊँची-ऊँची लहरें, हिड़ोलें हवा के तीव्र वेग के साथ बाँध से टकराती हैं तो भयावह आवाज आती है जिससे बाँध पर खड़े लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं, शरीर में कँपकँपी आ जाती है। आभास होने लगता है कि यह ऊँची-ऊँची लहरें, हिड़ोलें साँय-साँय करती बाँध से टकराती-फुफकारती क्रोधित होकर, उनको बाधित किए बाँध को उड़ा देना चाहती हैं।
सिंह सागर कुड़ार का पक्का बाँध लगभग साढ़े पाँच चेन है तथा इतना ही कच्चा पैरी वाला चन्देली बाँध है। इसका भराव क्षेत्र लगभग छह वर्ग मील है। इससे लगभग 525 हेक्टेयर (1300 एकड़) भूमि की सिंचाई होती है।
2. फुटेरा तालाब- कुड़ार के मुड़िया महल की पहाड़ी के दक्षिणी ओर एक चन्देली तालाब है जो फूटा हुआ है। इसी कारण इसे फुटेरा ताल कहा जाता है। यह तालाब भी चन्देली युगीन है। इस तालाब का भराव क्षेत्र लगभग 6 हेक्टेयर का है। यदि इसकी मरम्मत हो जाए तो 80 से 100 एकड़ तक की सिंचाई की जा सकती है।
3. पुरैनियाँ तालाब- पुरैनियाँ तालाब कुड़ार के पास निस्तारी तालाब है जिसमें कमल (पुरैन) अधिक होता रहा है, जिस कारण इसे पुरैनियाँ तालाब कहा जाता रहा है।
4. गंज तालाब- किला कुड़ार के दक्षिणी पार्श्व में गंज तालाब है। ओरछा नरेश महाराजा वीरसिंह देव (1605-27 ई.) ने गंज मुहल्ला कुड़ार में चूना-पत्थर से पक्का बाँध बनवाया था। इस तालाब का भराव क्षेत्र लगभग दो हेक्टेयर का है। तालाब के बाँध के पास गजानन देवी का मन्दिर है। तालाब के सुन्दर स्नान घाट बने हुए हैं। यह तालाब गंज के निवासियों के निस्तार के उपयोग में आता है। गंज क्षेत्र में कुड़ार के राजाओं, चन्देलों एवं बुन्देलों की सेना के घोड़ों के लिये घास की गंजी (गाँज) लगाई जाती थी जिसे गंज कहा जाता था। कालान्तर में मध्यकाल में यहाँ मुसलमानों की बस्ती स्थापित हो गई थी जिसे गंज ग्राम बस्ती नाम से जाना जाता है। वैसे यह कुड़ार का ही एक मुहल्ला है।
5. किला कुड़ार परकोटा के अन्दर एवं किला के पूर्वी-दक्षिणी किनारे पठार पर एक छोटा-सरोवर है, जिसमें किला परिसर का ही बरसाती धरातलीय जल भरता रहता है।
किला पहाड़ी के पठार के पश्चिमी पार्श्व में भी एक छोटा चन्देली तालाब था, जिसे सुजान सागर कहा जाता था, परन्तु वर्तमान में इसका अस्तित्व समाप्त हो चुका है।
6. डाबर झोर तालाब- कुड़ार दुर्ग के पास उत्तरी पार्श्व के जंगल में एक चन्देली तालाब है जो लगभग 5 एकड़ का है। इसके बाँध की लम्बाई लगभग 150 मीटर है। यह वन तालाब है।
7. यहाँ एक बरतला तालाब भी वन तालाब है, जो पहाड़ियों के मध्य जंगल में वन्य पशुओं के हितार्थ बनवाया गया था। यह चन्देला युगीन है।
8. वीर सागर तालाब, ग्राम वीर सागर (पृथ्वीपुर)
वीर सागर तालाब, वीर सागर ग्राम में 25.12 उत्तरी अक्षांश एवं 78.45 पूर्वी देशान्तर पर, टीकमगढ़ जिला के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र में, टीकमगढ़-झाँसी बस मार्ग के पृथ्वीपुर तहसीली मुख्यालय से पश्चिम में पृथ्वीपुर-सिमरा बस मार्ग पर पृथ्वीपुर से 7 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ियों के मध्य स्थित है। वीर सागर तालाब एक ऐतिहासिक दर्शनीय झील है जो बहुत गहरी है। जिसका जल स्वच्छ नीला बना रहता है। इसमें पहाड़ियों एवं पठारों का पानी झिर-झिर कर आता रहता है। बुन्देलखण्ड में बड़े-छोटे हजारों तालाब हैं, परन्तु वीर सागर तालाब की छटा एवं प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत ही है। पर्यटकों एवं सैलानियों को इस वीर सागर तालाब की छटा का अवलोकन अवश्य करना चाहिए। यहाँ झाँसी, नौगाँव, छतरपुर, सागर, टीकमगढ़ से आने-जाने के लिये बस सेवा निरन्तर उपलब्ध रहती है। पृथ्वीपुर बस स्टॉप पर वीर सागर पहुँचने को टैक्सी उपलब्ध रहती हैं।
आचार्य केशवदास ओरछा ने अपने ‘कविप्रिया’ ग्रन्थ के दोहा 16 में तालाब सौन्दर्य का वर्णन इस प्रकार किया है-
“ललित लहर, खग पुष्प, पशु, सुरभि समीर तमाल।
करत केलि, पंथी प्रकट, जलचर वरनहु ताल।।”
वास्तव में आचार्य, कवि शिरोमणि केशवदासजी की कल्पना काव्योक्ति का साकार स्वरूप वीर सागर तालाब है जिसे देखने से मन प्रफुल्लित हो जाता है।
मढ़िया ग्राम की पहाड़ी के पश्चिमी पार्श्व में अछरू माता मन्दिर है। यह सिद्ध क्षेत्र है। यहाँ चारों ओर पठार ही पठार है। ऊपर पठार है तो पठार के नीचे लाल मुरम ककरीली मिट्टी है और यह स्थिति वीर सागर तक है। पहाड़-पहाड़ियों एवं पठार के नीचे का जल भंडार वीर सागर तालाब में रिस-झिर कर पहुँचता रहता है। झिर कर पानी से भरने के कारण यह वीर सागर सरोवर एक झील ही है। एक कहावत प्राचीन है कि, अछरू यादव नामक एक बरेदी अपने मवेशी इस पठारी क्षेत्र में चराया करता था। पठार में एक जलभरा गड्ढा था, जिसका वह दिन में पानी पिया करता था। एक दिन अछरू ने अपनी छोटी बाँस की लाठी गड्ढा नापने के लिये गड्ढे में डाली। लाठी गड्ढे में चली गई। कुछ दिन बाद अछरू मवेशी चराता हुआ वीर सागर तालाब के अगोर में जा पहुँचा। वहाँ उसने तालाब के पानी में तैरती हुई अपनी वह डंडिया (लाठी) देखी तो वह आश्चर्यचकित रह गया। बस अछरू यादव ने पठार के गड्ढे को देवी माता के रूप में आस्था रखना प्रारम्भ कर दिया और मान्यता इतनी बढ़ी की वह गड्ढा ‘अछरू माता’ के नाम से जग जाहिर हो गया था। लोग वहाँ आस्था के साथ पहुँचने लगे। नारियल फोड़कर गरी के टुकड़े कुंड रूपी गड्ढे में डालते और गरी के ऊपर आ जाने से उसे उठाकर खाते तथा मनोकामना पूरी होने को आश्वस्त हो जाते रहे हैं। यदि कुंड में डाली वस्तु ऊपर न आकर नीचे ही चली जाती तो देवी ने मनोकामना पूर्ण नहीं की।
झाँसी-टीकमगढ़ बस मार्ग पर स्थित पृथ्वीपुर कस्बा से एक पक्का बस मार्ग दक्षिण दिशा को जेरौन एवं सिमरा के लिये जाता है; परन्तु 3-4 किलोमीटर चलने पर करगुवां ग्राम मिलता है, जहाँ से एक बायाँ मार्ग जैरोन के लिये जबकि दूसरा दायां मार्ग करगुवा ग्राम में होकर वीर सागर एवं सिमरा के लिये जाता है। करगुवां ग्राम के बाहर निकलते वीर सागर तालाब की पाँखी अथवा उबेला की पुलिया है। यहाँ से पहाड़ पर होकर सीधा पैदल रास्ता वीर सागर तालाब पर पहुँचता है। जबकि दूसरा पक्का रास्ता उबेला की पुलिया से सीधा वीर सागर तालाब के बाँध पर पहाड़ के पिछवाड़े से पहुँचता है।
वीर सागर तालाब करगुवां ग्राम से ही लगा हुआ है। यह तालाब 5 कि.मी. लम्बा एवं 21/2 किलोमीटर चौड़ा है। बहुत ही गहरा है। बाँध के ऊपर से नीचे पानी देखने पर दिमाग चक्कर सा खाने लगता है। तालाब के चारों ओर गिरिमालाएँ श्रेणियाँ फैली-बिखरीं इसकी शोभा में चार चाँद लगा देती हैं। दो ऊँचे पहाड़ों के मध्य एक संकीर्ण दर्रा (खांद) था जिसमें से दक्षिणी-पूर्वी पहाड़-पहाड़ियों एवं टौरियों का जल बहता हुआ पश्चिमी मैदानी पार्श्व की ओर चला जाता था।
महाराजा वीरसिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) ने दोनों पहाड़ों के मध्य की खन्दक (दर्रा) जो 50 फुट चौड़ा है, के आगे पूर्वी भाग में लगभग 100 मीटर लम्बा, 80 मीटर चौड़ा दोनों पहाड़ों को जोड़ते हुए, अर्ध चन्द्राकार चादौं बनवाकर यह विशाल रमणीक दर्शनीय सरोवर ‘वीर सागर’ का निर्माण कराया था। तालाब के उत्तरी पार्श्व के पहाड़ पर वीर सरोवर की छटा का रसपान करने हेतु एक कोठी भी बनवाई थी जो राजा की बैठक थी। चन्द्राकार चाँदव रूपी बाँध पर बाँके बिहारी (श्री कृष्ण) का बहुत सुन्दर मन्दिर बनवाया था। मन्दिर के प्रांगण में सुन्दर बगीचा है। इस तालाब को देखने मुगल सम्राट जहाँगीर भी आया था।
इस वीर सागर तालाब की महिमा एवं सौन्दर्य का आँखों देखा वर्णन, ओरछा के कविवर आचार्य श्री केशवदास जी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘वीर सिंह चरित’ प्रकाश पन्द्रह में पद क्र. 3 से 22 तक में किया है। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि केशवदासजी ओरछेश महाराजा वीर सिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) के राजदरबारी कवि थे जिन्होंने इस सरोवर को बनते, भरते एवं लोल लहरों से उफनाते, इठलाते हुए देखा था। भरे हुए वीर सागर तालाब को देखकर, तालाब की महिमा में निम्नांकित, काव्य भाव प्रस्फुटित हो गए थे-
वीर-वीर सागर को देख। वरनन लागे वचन विशेखि।।
अति आनंद भूतल जलखण्ड। अद्भुत अमल अगाध अखण्ड।।(3)
फूले फूलन को आवास। मानो सहित नक्षत्र अकास।।
अति सीतलता कैसो देश। ग्रीषम रितु पावत न प्रवेश।।(4)
शुभ सुगंधता कैसो ओक। मानहु सुन्दरता का लोक।।
जग सन्तापन को हरतार। मनहु चंडिका को अवतार।।(5)
तुंग तरंग धननि की राजि। बरखत पवन बुंद जल साजि।।
अरुन जोति दामिनि संचरे। जगत चिन्त की चिन्ता हरे।।(6)
नाचत नील कंठ चहु दिशा। बरखति बरखा वासर निसा।।
फूले पंडरीक चंद्रभान। स्वेताभ चंद्रिका समान।।(7)
हंसनीन संग सोहत हंस। बसत शरद सर सोभित अंस।।
सीतल जल अति सीतल बात। सीतल होत छुवत ही गात।।(8)
ऊपर लसत हंस सौ हंस। सरद बसन्त सिसर को अंस।।
चंदन बन्दन कैसी धूरि। उड़ पराग दसौ दिसि पूरि।।(9)
करि करि सरवर में केलि। फूले फूल फाग सी खेल।।
बसत सरोवर में हेमंत। मुदित होत सब संग अनंग।।(10)
भ्रमत भंवर बग गज मैमत्त। पद्मिनी सोहे अति अनुरक्त।।
बोलत कल हंसी रस भरैं। जनु देवी देवनि अनुसरैं।।(11)
सोहत समर समेत बसन्त। विरही जन को दुख्ख अनंत।।
पाँचौ रितु मानहु सर बसै। सिगरे ग्रीषम रितु को हँसै।।(12)
फूले स्वेत कमल देखिये। सुन्दरता हिय से लेखिये।।
फूले नील कमल जल ऐन। मानहु सुन्दरता को नैन।।(13)
कुल कल्हार संगन्धित भनौ। सुभ सुगंधता के मुख मनौ।।
प्रफुलित सूर कोक नद किये। मानहु अनुरागिनि के हिये।(14)
पीत कमल देखत सुख भयौ। मनौ रूप के रूपक रयौ।।
रति नील कंज कर हाट। तापर सोहत जनु सुर राट।। (15)
बैठे जुग आसन जुग रूप। सुर को करि सेवा अनुरूप।।
सोधि-सोधि सब तंत्र प्रसिद्ध। जल पर जपत मंत्र सो सिद्ध।।
पातक हरन काय मन राज। राजकीय बस कीवे काज।।(16)
सुन्दर सेत सरोरुह में करहाटक हाटक की दुति सोहै।।
तापर भौंर भलौ मन रोचन लोक विलोचन की रूचि रोहै।।
देख दई उपमा जलदेविनि दीरघ देवन के मन मोहै।
केशव, केशवराय मनौ कमलासन के सिर ऊपर सोहै।।(17)
सोषन बन्धन मथन भय लै जनु मन-मन सोचि।
वीर सिंध सरवर बस्यो सिंधु सरीर सकोचि।।(18)
मगरमच्छ बहु कच्छप बसै। सारस हंस सरोवर लसै।।
चंचरीक बहु चक्र चकोर। कहुँ सुरभि मृग गन चित चोर।।(19)
कहु गयंद कलोलनि करै। करि कलभनि के मन गन हरै।
वहु सुन्दर जल भरै। कहुँ महामुनि मौननि धरैं।।(20)
वीर सिंघ नर देव की सेवा करौ सभाग।
बाँधे ही सम्पत्ति बढ़ै, देखहु बूझि तड़ाग।।(21)
जंबुक जमाति कोल कामिनी विभाति जहाँ,
करि कुल काम केलि प्रीति किलकति हैं।
जहाँ आँक कनक कमल कुबलय तहाँ,
गौधन के थल हंस हंसनी लसति हैं।
जहाँ भूत भामिनी समेत तहाँ केसौदास,
देवन सौं देवी जल केलि विलसति हैं।
देख वीर सागर कौं, नागर कहत यह,
सम्पति वीरेस जू कै बाँधे की बढ़त है।।(22)
9. बराना तालाब, बराना (बम्हौरी)
बराना तालाब टीकमगढ़ जिला मुख्यालय से 44 किलोमीटर की दूरी पर, जिला के उत्तरी-पश्चिमी पार्श्व में 25.3 उत्तरी अक्षांश एवं 78.53 पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। यह तालाब टीकमगढ़ झाँसी बस मार्ग के बम्हौरी गाँव एवं लिघौरा झाँसी बस मार्ग के मुगलाई (छिपरी) गाँव के मध्य लगभग तीन किलो मीटर लम्बाई में है, जो सिंघाड़े के आकार का है। इसमें बम्हौरी भाटा, अपर्वल, मरगुआ एवं मजरा ग्रामों का बरसाती धरातलीय जल, सिमिट-सिमिटकर पटार एवं छिपरी नालों द्वारा संग्रहीत होता है। इसका भराव तीन ग्रामों बराना, पुरा एवं बम्हौरी तक है।
बराना तालाब का बाँध प्राकृतिक पहाड़-पहाड़ियों का है। केवल पुरा गाँव के पास 200 मीटर लम्बा एवं 40 मीटर चौड़ा बाँध (पाल) पत्थर की पैरियों एवं मिट्टी से बना हुआ है जो चन्देल युग का है। ऐसी लोग मान्यता है कि इस तालाब का निर्माण केवल नामक चन्देल ने कराया था, जिस कारण इसे केवलर्स झील भी कहा जाता है। पुरा गाँव के पास बाँध पर कैलाश वासी शिवजी का मन्दिर भी चन्देल युगीन है, जिस कारण इसे कैलाश सागर भी कहते हैं। चन्देला युग में बने इस तालाब से जल निकासी के लिये सुलूस (जल निकास द्वार ‘औनों’) नहीं था। हाँ, अतिरिक्त जल निकास के लिये पुरा एवं बराना के मध्य की पहाड़ियों की खाँद (खन्दक) को काटकर उबेला (पाँखी) बनाई गई थी जिससे अतिरिक्त जल उबेला से पश्चिम दिशा को निकलता हुआ नन्दनवारा तालाब में जा पहुँचता है। सन 1905 में ओरछा नरेश प्रताप सिंह ने तालाब के पानी का उपयोग कृषि विस्तार विकास में लेने के उद्देश्य से दो सुलूस बनवाये थे। प्रथम सुलूस पुरा के पास है जबकि दूसरा सुलूस पूरा एवं बराना के मध्य की पहाड़ी काटकर बनाया गया था, जो उबेला के पास है।
इस तालाब से बम्हौरी, लाखरौन, बराना, पुरा एवं प्रतापपुरा ग्रामों की भूमि को सिंचाई जल मिलता है। बराना तालाब के बाँध पर 3 दर्शनीय मन्दिर हैं-1. बर्छी बहादुर मन्दिर, बराना 2. नरसिंह मन्दिर (बड़ा मन्दिर), बराना एवं 3. शिव मन्दिर पुरा।
पहाड़ पर निर्मित निरसिंह मन्दिर अति भव्य एवं ऊँचा है। यह हमेशा शीतल सुखद हवा से लबरेज रहता है। सन 1835 के दिसम्बर माह की 11 तारीख को कर्नल स्लीमैन यहाँ ठहरा था जिसने यहाँ से नन्दनवारा तालाब के दर्शन किये थे। बराना तालाब और यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शनीय है। इस तालाब में कमल के फूल, कमलगट्टा, मुरार एवं सिंघाड़ा खूब पैदा होता है।
टीकमगढ़ जिला (पूर्वकालिक ओरछा स्टेट) चन्देली तालाबों की बहुतायत के लिये प्रसिद्ध रहा है। सिंचाई सम्भाग टीकमगढ़ म.प्र., माह सितम्बर 1987 के एनेक्जर-1 के अनुसार, इस जिले में 962 तालाबों की सूची दर्शायी गई है। वैसे इस जिले में चन्देले एवं बुन्देले राजाओं के बनवाए हुए लगभग 1100 तालाब कहे-माने जाते हैं। चन्देली तालाब पत्थर की पैरीं एवं मिट्टी से बने हुए हैं जबकि बुन्देली तालाब पत्थर, मिट्टी एवं चूना का प्रयोग करते हुए बनाए गए हैं। इस जिले की भूमि रांकड़, पठारी, पथरीली, पहाड़ी ढालू, ऊँची-नीची वनाच्छादित रही है जिस पर बरसाती धरातलीय जल नालियों-नालों एवं नदियों द्वारा बहता हुआ क्षेत्र से बाहर चला जाता था। इस कारण क्षेत्र मात्र चरागाही ही था। लोग घमुन्तु जीवन बिताते हुए पशुपालन व्यवसाय करते थे। कभी इस पहाड़ी-पहाड़ की नालियाँ-नदियों के किनारे पशु चराते, पड़ाव डालते तो कभी उस पार पड़ाव डाल लेते थे। चन्देल राजाओं ने इस भूभाग को विकसित करने एवं स्थायी जन-बसाहट के लिये टौरियों-पहाड़ियों के मध्य की नीची पटारी नालियों-नालों द्वारा प्रवाहित होते जाते जल को स्थान-स्थान पर रोककर संग्रह करने के लिये तालाबों का निर्माण करा कर धरातलीय बरसाती प्रवाहित होते जल को थमा दिया था। क्षेत्र में जल थमा तो लोगों का घुमन्तू चरागाही जीवन थम गया। तालाब बने तो इस भूभाग सहित समूचा बुन्देलखण्ड जनजीवन के लिये जलाश्रय के थमने से, रहने, निवास करने लायक हो गया था क्योंकि जलाश्रय से ही मनुष्य ठहरता है। तालाब बने तो उनके पास और बाँधों पर भी बस्तियाँ बसीं। पशुपालन के साथ-साथ व्यक्ति ने तालाबों के निचली बाजुओं पर और तालाबों के पीछे के बहारू क्षेत्र में कृषि कर्म करना प्रारम्भ कर दिया था। चन्देलों एवं बुन्देला नरेशों ने इस जनविहीन-निर्जन क्षेत्र में तालाबों का निर्माण कराकर बस्तियाँ बसाईं। पानी हुआ तो खेती होने लगी। क्षेत्र विकसित हुआ।
यहाँ के बुन्देली एवं चन्देली तालाबों की उम्र सौ से पौन हजार वर्ष तक की हो चुकी है। दीर्घायु होने के कारण वे जर्जर हो चुके हैं। बिना गहरीकरण कराये एवं शासकीय और ग्राम समाज की उदासीनता-उपेक्षा के कारण तालाबों के बाँध खस्ता हाल में हैं। भराव क्षेत्र में गौंद, गौंड़र मिट्टी भर चुकी है। बाँधों में रिसन होने लगी है। कुछ के बाँध फूट चुके हैं जिनकी मरम्मत नहीं हई। सैकड़ों तालाबों में किसान खेती करने लगे हैं जिनमें अधिकांश को तो किसानों को मौरूसी पट्टों पर दे दिए गए हैं। जंगलों में जो तालाब थे, बाँधों की पैरियों-पत्थरों के चिन्हों-संकेतों के अलावा तालाब भूमि के समतल ही हो गए हैं। वह मिट्टी से पट चुके हैं।
अधिसंख्य सरोवर, ग्राम-बस्तियों के किनारे रहे हैं। ग्रामवासियों की अचेतनता, और उपेक्षा के कारण भी निस्तारी तालाब बड़े स्वरूप से लघु रूप पोखर-पुखरियों में बदल गए हैं। महिलाएं घरों का कचरा तालाबों में डाल देती रही हैं। कुछ लोगों ने तालाबों की भूमि पर मकानों का निर्माण कर लिया है। इस प्रकार इस जिले के 1100 तालाबों में से मात्र 176 तालाब ही कृषि सिंचाई के योग्य रह गए हैं। इन 176 सिंचाई तालाबों में से 58 तालाब ही ऐसे सक्षम तालाब हैं जो सौ एकड़ से अधिक की सिंचाई को जल देते हैं। शेष 118 तालाबों की जल धारण क्षमता मिट्टी, गौंड़र भर जाने से कम हो गई है। ऐसे तालाब दस से चालीस एकड़ तक की ही सिंचाई को बमुश्किल जलापूर्ति कर पाते हैं। शेष 924 तालाबों की स्थिति खराब है। उनमें गौंड़र मिट्टी भर गई है। कुछ फूट गए हैं अथवा लोगों ने कृषि के लालच में फोड़ लिये हैं। कुछ किसानों के कब्जे में हैं। कुछ वन तालाब आकार मात्र रह गए हैं।
टीकमगढ़ जिलान्तर्गत बड़े विशाल एवं दर्शनीय तालाब निम्नांकि हैं- 1. ग्वाल सागर बल्देवगढ़, 2. मदन सागर अहार, 3. खौड़ेरा तालाब, 4. पराई मार भितरवार, 5. बलवन्तपुरा तालाब, 6. सरकरनपुर तालाब, 7. देरी तालाब, 8. धनैरा तालाब, 9. कोटरा तालाब, 10 छिदारी तालाब, 11. ददगाँय तालाब, 12. डुड़ियन खेरा तालाब, 13. रतन सागर तालाब नारायणपुर, 14. मड़रखा तालाब, 15. नदनवारा तालाब नदनवारा, 16. बराना-बम्हौरी तालाब, 17. दुशियारा तालाब बिलगांय, 18. मोहनगढ़ तालाब, 19. कुम्हैड़ी तालाब, 20. अचर्रा तालाब, 21. पटैरिया तालाब गोर, 22. दरगांय खुर्द तालाब, 23. मदन सागर तालाब जतारा, 24. धर्म सागर थर, 25. पदमा सागर मुहारा, 26. मोर पहाड़ी तालाब मोर पहाड़ी, 27. खरौं तालाब खरौं, 28. फुटेरा तालाब खरौं, 29. राम सागर तालाब टीला लारौन, 30. घूरा तालाब घूरा, 31. बड़का मुर्राहा तालाब बड़का मुर्राहा, 32. पुरैनिया तालाब पुरैनिया, 33. गजाधर तालाब पलेरा, 34. कीरतवारी तालाब कमल नगर, 35. दीपसागर कारी, 36. महेन्द्र सागर टीकमगढ़, 37. राजेन्द्र सागर (नगदा) बम्हौरी, 38. अस्तौन तालाब, 39. हनुमान सागर हनुमान सागर (टीकमगढ़), 40. रईरा ताल मबई, 41. धमेला ताल लार बंजरया, 42. पोखना तालाब बड़ा गाँव धसान, 43. उपत सागर दरगुवां, 44. दन्नीटेरी तालाब नन्नीटेरी 45. डिकौली तालाब डिकौली, 46. सिद्ध खांद तालाब श्रीनगर, 47. मामौन तालाब मामौन, 48. बेला ताल सुन्दरपुर, 49. रिगौरा तालाब रिगौरा 50. सोन सागर हीरानगर बावरी, 51. प्रेम सागर मबई, 52. परा तालाब परा, 53. विन्ध्यवासिनी तालाब चन्दूली डुम्बार 54. जैरोन तालाब जैरोन, 55. वीर सागर तालाब, 56. दिगौड़ा तालाब दिगौड़ा, 57. फुटेर तालाब फुटेर, 58. खैरा ताल भेलसी, 59. रानी तालाब भेलसी।
इनके अतिरिक्त चालीस एकड़ तक अथवा कम सिंचाई करने वाले निम्नांकित तालाब हैं-
1. मातौल तालाब, 2. लखैरा तालाब भेलसी, 3. चन्दैरी तालाब चन्दैरी, 4. झिनगुवां तालाब झिनगुवां (झिनगुवां में सिंगा तालाब, फुटेरा तालाब, अमतला तालाब, फूटा तालाब एवं सौतेली तलइया जैसे 5 अन्य तालाब भी हैं जो फूटे हैं तथा काश्तकारी में प्रयुक्त हैं), 5. ऐरोरा तालाब, 6. शाहपुर तालाब, 7. चन्दैरा तालाब, 8. रामनगर तालाब, 9. समदुआ मुहारा, 10. अतरार तालाब, 11. छुटकी तालाब निवावरी 12. बहारू तालाब बहारू टानगा, 13. कंदवा तालाब, 14. बिलवारी तालाब मुहारा, 15. बैरवार तालाब बदरगुड़ा, 16. चतुरकारी तालाब चतुरकारी, 17. टुड़ियारा तालाब टुड़ियारा, 18. वृषभान पुरा तालाब, 19. गिदवासन तालाब मनियाँ, 20. दरगांय कला तालाब 21. मजल तालाब, 22. छोटा तालाब लछमनपुरा 23. सुनैरा तालाब माडूमर 24. चिता नाला तालाब खरों, 25. बेरमी नाला तालाब, 26. नहारुआ तालाब मुहारा, 28. हिरनी सागर सिमरा खुर्द, 29. गुरैरा तालाब कुड़याला, 30. लिधौरा तालाब, 31. लार बुजुर्ग तालाब, 32. गौना तालाब गौना, 33. चोर टानगा तालाब, 34. टौरिया तालाब टौरिया, 35. गोर तालाब गोर, 36. चमरा तालाब पड़वार गोर, 37. कौंड़िया तालाब गोर, 38. वर्मा तालाब वर्मा, 39. वनगांथ तालाब वनगांय, 40. ऊमरी तालाब ऊमरी (घूघसी), 41. सकेरा बड़ा तालाब सकेरा, 42. सकेरा छोटा तालाब सकेरा, 43. चन्दपुरा तालाब, 44. अस्तारी तालाब अस्तारी, 45. कन्धारी तालाब दुलावनी, 46. फुटेरा तालाब सादिक पुरा, 47. पराखेरा तालाब, 48. लड़वारी तालाब लड़वारी, 49. गिदखिनी तालाब, 50. असाटी ताल असाटी, 51. तरीचर तालाब तरीचर, 52. गुखरई तालाब गुखरई, 53. तालमऊ तालाब, 54. हटा तालाब, 55. गुना तालाब, 56. गोरा तालाब, 57. सुजानपुरा तालाब, 58. लुहर्रा तालाब, 59. देव तालाब वैसा खास, 60. बुपरा तालाब बैसा ऊगड़ 61. वृषभान पुरा तालाब, 62. बार तालाब बार (हीरापुर), 63. पुरैनिया तालाब पुरैनिया (हीरापुर), 64. हीरापुर तालाब हीरापुर, 65. गैंती तालाब गैंती, 66. खेरा ताल खेरा, 67. नारगुड़ा तालाब, नारगुड़ा, 68. महाराजपुरा तालाब महाराजपुरा, 69. पुरैनिया तालाब पुरैनिया (बुड़ेरा) 70. गैरोरा तालाब माडूमर 71. बुड़ेरा तालाब बुड़ेरा 72. बम्हौरी नकीवन तालाब बम्हौरी नकीवन, 73. विन्द्रावन तालाब टीकमगढ़, 74. मजना तालाब मजना, 75. नयागाँव तालाब नयागाँव (गुखरई) 76. सुनौनी तालाब रायपुर सुनौनी, 77. कुलुआ तालाब कुलुआ, 78. मकारा तालाब मकारा, 79. ओगरी तालाब ओगरी, 80. भमौरा तालाब, 81. पाराखेरा तालाब, 82. मड़िया तालाब मड़िया, 83. राधा सागर पृथ्वीपुर, 84. सौतेला तालाब, 85. जटेरा तालाब जटेरा, 86. पटारी तालाब महेवा 87. गोपरा तालाब महेवा 88. बनयारा तालाब महेवा एवं 89. रानी सागर महेवा। इस तालाब में कमल पुष्प खिले रहते हैं। यह छत्रसाल बुन्देला की जन्मभूमि है।
राधा सागर पृथ्वीपुर के तालाब का शिलालेख-
संवत सै दस अष्ट सप्त जुज ऊपर लहिये।
जेठ मास सिति पक्ष चौथ सनिवार जो कहिये।।
अम्बु अनुपम अमल सम पीवत लागै।
नर नारी अस्नान करत पातक सब भागै।।
दरस के लेत होत अति ही उदोत मन यहै जिय जानौ, छानौ तीरथ सवायो है।
ताके तीर करै नरनारी अस्नान ध्यान गान, मुनि गावै तौन देखैं छवि है।।
90. सुनौनिया तालाब पृथ्वीपुर, 91. यज्ञ सागर बिन्दुपुरा। ऐसी लोक धारणा है कि इस तालाब के मध्य में जनमेजय राजा ने यज्ञ कराया था। यज्ञ के लिये ही इसे बनवाया था। 92. रसोई तालाब 93. चौपरा तालाब, 94. ककखाहा तालाब, 95. धजरई तालाब, सिमरा तालाब सिमरा (जेरोन), 97. डिकौली तालाब, 98. मचखेरा तालाब, 99. रमन्ना (टीकमगढ़) में 6 तालाब सुधासागर, मगरा, मजैरा, भिलमा एवं भान तला, बगर (गौशाला) का तालाब, 100. परशुआ की तलैया 101. मोती सागर कुड़ार, 102. खरगापुर तालाब, 103. सूरजपुर तालाब, 104. जुगल सागर बल्देवगढ़, 105. धर्मसागर बल्देवगढ़, 106. देवपुर तालाब, 107. करमारी तालाब, 108. सागौनी तलइया, 109. लड़वारी (अहार) के दो तालाब माँझ का तालाब एवं छोड़ का तालाब, 110. बसतगुवाँ तालाब, 111. दर्रेठा ताल, 112. अतर्रा तालाब, 113. बनारसी तलैया, 114. मस्तापुर तालाब, 115. पठरा तालाब, 116, मोहनगढ़ भाटा तालाब, 117. प्रेमपुरा तालाब, 118. दरदौरा तालाब।
लगभग 40 तालाब टीकमगढ़ जिला के सघन वनों में वन्य जीवों के पानी पीने एवं आदिवासियों-वन संरक्षकों के निस्तार कि लिये चन्देलों एवं बुन्देले राजाओं के बनवाए हुए बतलाए-कहे जाते हैं जिनमें से जो देखे जा सके वह निम्नांकित हैं-
माचीगढ़, आलपुर, सूरन तालाब, कलोकिरा, भड़रा तालाब, झिंझा तालाब, चरी तालाब, चोर टांनगा तालाब, मड़खेरा तलइया, मछरया तालाब, ओगरी ताल, जावई डाबर, रमतला, सौतेली तलइया, सुनारवारी तलैया, रायपुर सुनौनी तलइया, सुकौरा तालाब, बड़माड़ई तलइया, चन्दपुरा तलइया, लठेरा तलइया, गुवरा तलइया, पठारी तलइया, पारागढ़ की तलइया मवई पारे की तलइया आदि।
सिंचाई विभाग टीकमगढ़ के तालाबों की जानकारी रिपोर्ट में परिशिष्ट IV में दर्शाए ये छोटे-छोटे तालाब भी हैं- गोदम तालाब, मत्सहार, बार तालाब, बैसा तालाब, तमोरा, तमोरम डूँड़ा जागीर, गहरन तलाब, मगर तालाब, सुरभी सागर, झिकनी तलैया मान सरोवर, वृषभानपुरा तलैया, कैलाश सागर, नया ताल, परशुआ तलइया, टुगदा तलैया, गढ़ी तलैया, गबरा तलैया, पीपरवाली तलैया सुरबारा तलइया, तिदारी तलइया, भुतई की तलैया, हम्मीर सिंह तलैया, पमार तलैया, ग्यास तलैया, लल्लू तलैया, सैलसागर तला, मातौली तलैया, पुरुषोत्तमगढ़ तला, मछरया तला, जतारा की तलैया, तलैया बैसा नगरा, नया ताल, रानीपुरा ताल, तुला की तलैया, चौपरा ताल, सुनवारा तालाब, बन्धी तालाब, बनयारा तालाब, मगरया तालाब, लखनारौ घाटन तलैया, मनैरा तालाब, मटिया तालाब, हिन्दी सागर, कुना तलइया, बारौ तालाब, समर्रा तालाब, हम्प तालाब, जमरदा तलइया, बिराउरी तलैया, काल्पी तालाब, नया तालाब, कुनार तलइया, सुंगरवा तालाब, चन्दैरा तलइया, बनखारी तालाब, मजगुँवा तालाब, बर्मा सड़क तालाब, श्याम सागर, कमल नगर तलैया, कपूली तलैया, बार तलैया, गुरेवा तालाब, उदिशपुरा तलैया, जरावली तलैया, नगैपा तलैया, जितकौरा तलैया, खट्टर तालाब, अबरल तालाब, बाबी तलैया, कैलास सागर, धरम सागर, जंगा सागर, उदैपुरा तालाब, मानसरोवर बाउनी तलैया, वृषभान सागर, दागौद खुर्द तालाब, खेवा तलइया, बारौतला, मिनौरा तलइया, करिया ताल, लैवेपुर तलैया, विद्यूसागर, चंपा तलइया, गोपरा ताल सौरई ताल, अलवैना ताल, बीरन ताल, बर्माडांग तलइया, गुर्दन पाली तलइया माची, बैंढ़न तलइया, खरौ तलइया, देवखा तलइया, खुरैल तलइया, रजपुरा तलैया, चिप्पोरी, मटयारी तलैया, भिटारी तलइया, निवाड़ी तलइया, गटोला लोना ताल, सुमेवा ताल, नीम तला, नैतला, घुमेवा, बूढ़ौ ताल, चमर तला पथेकारी तलइया, गवोदन तलइया, बजरंग ताल, नाम ताल, राजा ताल, वासौ ताल, पनयारा स्टाप डैम ताल।
ओरछा (टीकमगढ़) के महाराजा प्रताप सिंह (1874-1930) ने राज्य में जल प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिया था। वीरसिंह देव चरित्र अंग्रेजी चिरंजीलाल माथुर पृ. 2 पर उल्लेख है कि उन्होंने राज्य में 7086 कुआँ बावड़ी बनवाए थे, 73 तालाब स्टॉप डैम कृषि सिंचाई सुविधा के लिये खुदवाए थे तथा 450 प्राचीन चन्देली तालाबों की मरम्मत कराकर उनमें जल निकासी के लिये कुठियां, औनें एवं सुलूस बनवाए थे। तालाबों से खेतों तक नहरें खुदवाई थीं। इससे कृषि क्षेत्र में इजाफा हुआ था।
उपर्युक्त छोटी तलइयों के अतरिक्त ग्रामों में निस्तारी तालाब भी बनाए गए थे। ऐसे निस्तारी तालाबों से ग्राम-वासियों के दैनिक जल की आपूर्ति होती थी। लोगों का नहाना-धोना, पशुओं को पीने को पानी, यहाँ तक कि आवश्यकता के समय लोगों के पीने के पानी की आपूर्ति भी ऐसे निस्तारी तालाबों से होती थी। निस्तारी तालाब ग्रामों के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनकी संख्या लगभग 500 तक है। जैसे बसगोई तालाब, जटउआ, राधापुर, हमोदी मड़िया, खिरिया घाट, धनवाहा, नैगुवाँ, खिरिया, पांड़ेर, चरपुआ, नीमखेरा, मिनौरा, जमडार, सावन्तनगर, सागौनी, पथौरा की तलइया, मधुवन, लधूरा, बहादुरपुर, रिगौरा, देवपुर, बुड़की खेरा महाराजपुरा में 2, हनुमान सागर में 2, हजूरी नगर, दुर्गापुर, रानी पुरा स्याग, प्रेमपुरा, जसात नगर, श्रीनगर, बड़ा गाँव खुर्द, तखा, पारी, सुनवाहा हरपुरा, आलमपुर, गर्रौली, भड़रा, रामपुरा, ककावनी, गोपालपुरा, बिहारीपुरा, धरमपुरा, जुड़ावन तलैया, कीरतपुरा, नचनवारा, दिगौड़ा धजरई तलइया, लछमनपुरा, नारायणपुर (हार) सुनौरा खिरिया, बड़ौरा सतगुवां, पहाड़ी खुर्द, कप्तान का मजरा का ताल, जसवंत नगर, कांटी, सुनार की बन्धिया, देवकी (मधुबन) राशन खेरा, भैलो, अटरिया, रजपुरा, ककरबाहा।
सकुलाई, ऊमरी हैदरपुर, भैंसवारी, मिथिलाखेरा मौखरा, कबराटा, सांपौन, अन्तौरा, जमुनिया खेरा, गनेशगंज, गोपालपुरा रतनगंज, हिरदैनगर, अजनौर, अमरपुर, परा, रमपुरा, डूड़ाटौरौ, कैनवांर, मैनवारी माते वाला, खुशीपुरा, सकेरा, गनेशनगर, पतारी डिकौली, सुजारा, डौगरपुर, बुड़ेरा में 3, हरपुरा, जलगुवां, हटा में 2, पटौरी कन्न्पुर, खरीला, करीला, सैपुरा, कड़वाहा, हीरापुर में 2, बुदौरा, दैवरदा में 2, बर्मा, चदैरी ऊगड़, कुड़ीला, दरेरा, जिनागढ़ भानपुरा, किटरा में 2, टीला शिवनगर, हृदय नगर में 3, देवपुर, गुना में 2, चौबारा में 2, तिगोड़ा पिपरा, वनपुरा सापौन, हीरापुर, बनयानी, भिलौनी पथरगुवा में 2, रामनगर, ददगांय, धरमपुरा, करमासन घाट, प्रतापपुरा, चन्दूली, डुम्बार, झिनगुवां में 3, दुर्गानार में 3, समर्रा पातर खेरा, बड़माड़ई, रसोई, दरी, श्यामपुरा, पुरैनिया में 2, मगराखेरा सुधा धरमपुरा, रामनगर खास, लक्ष्मणपुरा, भदौरा, चौपरा, कुँवरपुरा, पिपराहार, इकबाल पुरा, हनुपुरा, भासी हार, पिथनौरा कंजपुरा, थपरिया, धाना, सिद्ध गनेश, जेरा, केशवगढ़, खाकरौन, रानीगंज, बम्हौरी, बिदारी, बरेठी, बन्दा, मालपीथा, टपरियन, टौरिया में 2, मड़ोर में 3, पंचमपुरा, मस्तापुर, दरा, बिहारी पुरा, भमराई, जगत नगर, वीजौरपुरा, नंदपुरा, पुछी गोर चक्र 3, मौगना चक्र 1, मौगुवां चक्र 2, रतनगुवां, बदली हार, दिलन गांय जंगल 1, दिलनगांय जंगल चक्र 2, बछौंड़ा, बछौड़ा चक्र 2, देवपुर, माधौबुजुर्ग चक्र 1, माधौबुजुर्ग चक्र 2, सतराई, जनकपुर, ऊमरी कारीमल, खैरा, मड़खेरा, हसगोरा, शिवराजपुरा, रामनगर, धरमपुर खास, कुर्राई चक्र 2, अमरपुरा भाटा, सैमरखेरा, पूनौन, रिघा, गोर, पड़बार, फिहार, कचगुवां, बिजरावन, दिगौड़ा चक्र 1, दिगौड़ा चक्र 2, धामना, जनकपुर, खर्रौई, पड़ुआ, लुहरगुवाँ, धमना, भगवन्तपुरा टौरिया, मदनपुरा, जेवर, उपरारा हरकनपुरा, मैंदवारा, कछियागुड़ा, विशनपुरा, बनपुरा, महेवा चक्र 1, चक्र 2, चक्र 3, चक्र 4, चक्र 5, पैग खेरा, लड़ियापुरा, तगैड़ी, मदरई, उदैपुरा, बारी, बारौन, सौरई, छिपरी, गौटैट छत्रसाल टौरिया, वीरपुरा, मड़ोरी पैतपुरा, पटखिरका, दलपुरा खरौं चक्र 1, खरौं चक्र 2, अपर्वल, ईशौन, मातौल, सतगुवां, बिजैपुर, भूपगंज, पथरिया टौरिया, पैदपुरा चक्र 2, विजौली बैदौरा, सगरवारा, कौंदपुरा, चतुरकारी चक्र 3, पठरा चक्र 2, दिनउ की तलैया, नगारी, माखनपुरा, बम्हौरी कला चक्र 1, बम्हौरी कला चक्र 2, गब्दारी गंज, कटेरा, तिली, निबावरा, पटैलनगर, कलरा, कंजना, चंदैरा चक्र 1, चंदैरा मगासुर, जरया, किटाखेरा बैरबार, विक्रमपुरा, बदनगुड़ा, बाजीतपुरा, मिचौरा तलइया, पिपरट, बार, रघुनाथपुरा, सिमिरिया, रतवांस, मबई, इटायली, कचौरा, कपासी, गोदारी, दरदौरा, खजरी, छाउली, टौरिया, खैरा, अजोखर, गौना चक्र 2, करौला चक्र 2, बोल तलैया, लारौन चक्र 2, पडुआ, कुबदी, हनौता, पलेरा खास, पलेरा चक्र 3, देवराहा चक्र 2, बम्हौरी अब्दा चक्र 2, किशनपुरा तलैया, बन्नेबुजुर्ग, दंतागढ़, टौरी, परा, अलोपा, बसतगुवां मनेद्र महेबा, चोर टोनगा चक्र 2, गुआवा टौरिया, बखतपुरा चक्र 2, भगवन्तपुरा, टानगा, महादेव पुरा, टपरियां चौहान, पाली, रमपुरा निवारी चक्र 2, कंदेरी, रामगढ़ खरगूपुरा, निवावरा, जवाहरपुरा, खैरा, खुमानगंज, लार बुजुर्ग, छोटी बन्नै, बर्मा डॉग, बर्मा माँझ, बिजरौठा, करौली, मुहारा चक्र 4, मुहारा चक्र 5, मनेथा, चौमों, कुअरपुरा, विरौरा, जबेरा, चिकुटा, दहाड़ी, बंजारीपुरा, गोपालपुरा, अस्तारी, सोरका, गर्रौली, खिस्टौन, जलंधर, मबई, मड़िया, तिलपुरा, चिरपुरा, केशरीगंज, ककावनी मजल, जैरोन चक्र 2, रौतेरा, मुड़ेरी, डिरगुवां, खुरई, भेलसी, रमपुरा, बोरेश्वर, तातारपुरा, जिराबनी, गलूरा, सैतगारा, गतारा, करगुवां, तरीपुरा, बनियानी, सुनरई, चौर्रा, कोटी, हमीरपुरा, सरसौरा, नैगुवां खुर्द, पनियारी, मड़ोरी, अतर्रा, लड़वारी, चंदैरी हार, रजपुरा, मजरा माखेरा, सुनौनियां, बसन्तपुरा, भेलसा, मोहनपुरा, सुजानपुरा, डुलावनी, रमपुरा, हीरापुर, कनैरा, लठेसरा, पठारी, चकरपुर, रजपुरा महाराजपुरा, जमुनियां, कुमर्रा, रामनगर, बासौदा, जिजौरा, सीतापुर, घटवाहा, भोजपुरा तलैया, मख्ता, कठऊ पहारी, सैंदरी, शक्त भैरों, सकूली, दउअर, कुअरपुरा, सियामसी, बीजौर, बाघाट, पुछी करगुवां, मोहनपुरा, किशोरपुरा, तरीचरखुर्द, कलू तलैया, पठाराम, चचावली धामना, थौना, घूघसी, नौटा, जिखनगांव, उरदौरा, विनवारा, गितखिनी बावई, देवेन्द्रपुरा, कैना, मुड़ारा, चुरारा, बासवान, जुगयाई, असाटी, रासली, टीला, चंदपुरा, मड़िया तालाब, कुरेजा, कहेसरा तालाब, पक्षी तालाब, नीमखेरा, मछया ताल, सोरका ताल, गबरा ताल, कुड़ार ताल, तलैया बूढ़ापुरा, धमना, चोटल, धवा बजूरा ताल, बमरू ताल, वनसागर, चचावली, कालेवारी तलैया, गुंदरीड़ी तलैया मुरैनी तलैया, दरकेव तलैया।
जिला के लगभग 150 चन्देली तालाब खेती में प्रयुक्त हैं, जिनके पट्टे रियासती समय में रसूकदार किसानों को दे दिए गए थे। वर्तमान में 995 तालाब इस जिला में शासकीय हैं। इनके अतिरिक्त लगभग 600 कच्ची बन्धियां (तालाब) भी टीकमगढ़ जिला में हैं, जो किसानों ने निजी तौर पर अपनी मौरूसी पट्टे की भूमि पर बना रखी हैं जिनमें किसान रबी एवं खरीफ की फसल बोते रहे हैं।
इस प्रकार लगभग 1500 तालाब, तलैयां एवं बन्धियां इस टीकमगढ़ जिला में हैं। फिर भी यहाँ निरन्तर जलाभाव रहता है। जिसका मूल कारण तालाबों में मिट्टी, गौड़र भर जाना है। कुछ तालाबों के बाँधों में रिसन उत्पन्न हो गई है जिससे पानी रिस-रिस कर बाहर बह जाता है। कुछ तालाब पांखियों के पास से फूट गए हैं तो कुछ के बन्धानों (पाल) की पैरियां खिसक गई हैं। यदि यहाँ के सभी तालाबों का गहरीकरण करा दिया जाए, बाँधों की मरम्मत करा दी जाए एवं तालाबों की जनसमितियाँ अपने-अपने क्षेत्र के तालाबों की चौकसी करते रहते हुए, उनके भराव जलस्रोतों एवं स्वच्छता का पूरा-पूरा दायित्व निर्वहन करें तो जल समस्या दूर हो सकती है। जल के प्रश्न पर जन-चेतना अनिवार्य है।
बुन्देलखण्ड के तालाबों एवं जल प्रबंधन का इतिहास (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम | अध्याय |
1 | |
2 | |
3 | |
4 | |
5 | |
6 | |
7 | |
8 | |
9 | |
10 | |
11 | |
12 | |
13 | |
14 | |
15 | |
16 |
TAGS |
Water Resources in Tikamgarh in Hindi, tikamgarh Ponds history in Hindi, history of Ponds of tikamgarh, tikamgarh Ponds history in hindi, tikamgarh city and rural Ponds information in Hindi, tikamgarh palace and Ponds information in Hindi, tikamgarh fort and Ponds, Tikamgarh ke talabon ka Itihas, Tikamgarh ke talabob ke bare me janakari, hindi nibandh on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil), quotes Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) hindi meaning, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) hindi translation, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) hindi pdf, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) hindi, hindi poems Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil), quotations Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) hindi, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) essay in hindi font, health impacts of Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) hindi, hindi ppt on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil), Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) the world, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi, language, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil), Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi, essay in hindi, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi language, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi free, formal essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil), essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi language pdf, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi wikipedia, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi language wikipedia, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi language pdf, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi free, short essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) and greenhouse effect in Hindi, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) essay in hindi font, topic on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in hindi language, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) in 1000 words in Hindi, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) for students in Hindi, essay on Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) for kids in Hindi, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) and solution in hindi, globle warming kya hai in hindi, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) quotes in hindi, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) par anuchchhed in hindi, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) essay in hindi language pdf, Tikamgarh Ponds and Lake (Talab aur Jhil) essay in hindi language. |
/articles/taikamagadha-jailae-kae-taalaaba-evan-jala-parabanadhana-vayavasathaa