कविताएँ भावनात्मक सर्जना का एक प्रतिबिम्ब होती हैं जिन पर समकालीन व्यवस्था व परिवेश का प्रभाव होता है। टिहरी पर रची गई कविताएँ भी इससे अछूती नहीं रहीं। इसे स्पष्टतः उन कविताओं में देखा, पढ़ा व महसूस किया जा सकता है जो टिहरी की स्थापना के समय से लेकर उसके जलप्लावित होने तक लिखी जाती रही।
प्रस्तुत लेख टिहरी से जुड़ी मात्र कुछ कविताओं का संकलन भर है। यदि इससे सम्बन्धित कविताओं का उल्लेख किया जाए तो उससे एक बड़ा ग्रन्थ तैयार हो जाए। उक्त लेख में टिहरी की काव्यात्मक सर्जना के विभिन्न रंगों को संजोने का प्रयास किया गया है ताकि विपुल जलराशि के गर्भ में समाने के बाद टिहरी का सृजनकर्म व टिहरी पर लिखी उन कविताओं की याद सदा-सदा के लिये बनी रहे।
टिहरी का यदि सबसे पुराना उल्लेख कहीं मिलता है तो वह है केदारखण्ड में। जिसमें टिहरी की पहचान धनुषतीर्थ के रूप में की गई है। इसके 47वें अध्याय में भागीरथी एवं भिलंगना नदियों के संगम का उल्लेख है। लिखा गया है कि यहाँ पर गंगा के किनारे रक्तवर्ण की गणेश जी की शिला है। गणेशशिला का वाम भाग धनुषतीर्थ (टिहरी) तथा दक्षिण भाग शेषतीर्थ कहलाता है-
अथान्यदपि सुक्षेत्रं सर्वपाप प्राणाशनम्।
गणेशेन पुरी यत्र पूजितो वृषभध्वजः।।
भिल्लांगणोद्भावो यत्र धारां गंगागसंभवा।
गंगायास्मे देव यत्र तीर्थ तु तत्ससंमृतम।।
उल्लेखनीय है कि यहाँ प्राचीन काल में गणेशजी का मन्दिर था, जो रक्तवर्ण की शिला के अवशेष के रूप में विद्यमान था-
गणेश्वरी शिला तत्र रक्तवर्णा सुपुण्यदां।
तभैव रक्तवर्षा च चलं रक्तमयं परम्।।
तत्र गणेशवरं लिंग शिवभक्ति प्रदायकम्।
दर्शनादेव वै मस्य गणः सद्यो भवेन्नरः।।
धनुषतीर्थ च तत्रैव वाम भागे महाफलम्।
धनुराकृति ब्रहमात्र शतयज्ञफलं लभेत्।।
ततो वै दक्षिणे भागे शेषतीर्थ शुभ्रप्रदम।
तत्र स्नात्वा नरोयाति विष्णुलोकमनामयम्।।
सुदर्शनशाह का काल: टिहरी राज्य की स्थापना के उपरान्त जितना लेखन सुदर्शनशाह के काल में हुआ, उतना किसी अन्य नरेश के काल में नहीं। इस दौर में न तो शिक्षा सुविधायें थीं और न छापेखाने का विकास हुआ था। विद्वतजन तब पाण्डुलिपियों को अपनी हस्तलिपि में ही तैयार करते थे। बाद में उसकी माँग पर अन्य प्रतिलिपियों को हाथ से तैयार करते थे इसलिए सुदर्शनशाह के काल का सारा ही साहित्य पाण्डुलिपियों के रूप में मिलता है।
सुदर्शनशाह के काल में टिहरी के दरबार में अनेक विद्वत कवियों को प्रश्रय मिला था। कवि गुमानी ने टिहरी के नामकरण पर एक छंद राजा सुदर्शनशाह के दरबार में समस्यापूर्ति के अवसर पर सुनाया था जो सर्वविदित है-
सुरगंग तटी, रसखान मही, धनकोष भरी, यहु नाम रह्यो
पद तीन बनाय, रच्यों बहु विस्तर, वेग नहीं जब जात कहयो।
इन तीन पदों के बसान बस्यो, अक्षर एक ही एक लह्यो
जनराज सुदर्शनशाह पुरी, टिहीरी इस कारण नाम रह्यो।।
सुदर्शनशाह के दरबार में हिन्दी में संस्कृत के अनेक प्रखर कवियों में पं. हरिदत्त नौटियाल, कुमुदानन्छ बुघाणा, मदनकवि, ज्वालाराम तोमर, भजनराय विष्णुदत्त, अजबराम मनोरथ कवि और नेपाली कवि मोक्ष मण्डल शामिल थे। आरम्भ में दरबारी कवियों का उद्देश्य राज-प्रसाद प्राप्त करना होता था, इसलिए उस समय कविता की विषय वस्तु राजा और राजदरबार की प्रशंसा या फिर विषय वस्तु धार्मिक विषयों के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। प्रो. दामोदर प्रसाद थपलियाल ने इस बारे में लिखा है कि संस्कृत कवि हरिदत्त नौटियाल ने तो राजा को शंकर के समान कारुणिक और कृष्ण के समान रिपुहन्ता कह कर उनकी प्रशंसा की है-
कारुणिकः शंकर इव हरिरिव रिपुवर्ग विध्वंसी।
तो कवि कुमुदानन्द बुघाणा ने उन्हें (कवि सूरत के रूप में महाराजा) इस पृथ्वी के दानवीर कर्ण की, युद्ध कौशल में सुयोधन, कीर्ति में अर्जुन की और सौन्दर्य में कामदेव की संज्ञा ही दे डाली थी-
दानेन कर्णे च सुयोधने च
मत्तेन कीर्त्या कपिकेतनम् च।
शरीरकांत्या मकरध्वजं च
चकार तुल्यं पृथ्वीतले यः।।
इसके सापेक्ष नेपाली कवि मोक्ष मण्डल याचना करता है-
निर्बला मोक्षे मुनि अर्ज करत है,
सुदर्शनजी को पास
दीनदयाल गढ़वार के स्वामी
तुम हि पुन्यावै आस।
ज्वालाराम तोमर की कविता में राजा की मंगलकामना इस प्रकार की गई है-
बन्दे बाल विशाल तनु
शुद्ध स्फटिक समान।
महाराज सुदर्शनशाह कौ
करो सदा कल्याण।
कवि भजनराय ने राजा के दृढ़ता के गुण की प्रशंसा की है-
राजजु के मुँह को वचन पाहन की सी रेष।सुम कही जल लीक हीकविजन लैंह परेष।
महाराज सुदर्शनशाह भी स्वयं कवि थे और कवि सूरत के नाम से कविता करते थे। उनका लिखा सभासार ग्रन्थ उनकी सृजनशीलता का एक प्रमाण है इसकी समीक्षा उनके दरबारी कवि कुमुदानन्द बुघाणा ने इस प्रकार की-
शास्त्रस्य सारं सुविचार्य सम्यक्तथा पुनर्बुद्धिमतां च सारम्।राजा स्वबुद्धं प्रसमीक्ष्य सारम्ग्रन्थ सभासारमसौ चकार।।
कवि मौलाराम भी श्रीनगर से टिहरी आना चाहते थे। इसलिए उनके द्वारा शुरुआत में राजा सुदर्शशाह के राज्याभिषेक के अवसर पर अपने पुत्र को भेजा गया व उनकी स्तुति में एक कविता भी भेजी-
जब लगि धारणि अकास
वायु वारि वैसंधर,
सप्तद्वीप नौ षंड वृंच
हरि गौरी शंकर
जब लगि शेष कुबेर
लक्ष्मी गिरा सावित्री,
षटमुख गणपति श्रुति
सास्त्र उच्चार गायित्री
जब लगि तंत्र हि मंत्र
जग धर्म रहे शुभवंस भुव
सकल कुटुम्ब परिवार जुत
राज रहे महाराज तुव
किन्तु महाराज सुदर्शनशाह उक्त पद से खुश नहीं हुए। वे कवि मौलाराम से अप्रसन्न थे क्योंकि राजपाठ छिन जाने के कारण जब वे दर-दर की ठोंकरें खा रहे थे तो मौलाराम, गोरखा शासकों की वृत्ति पाकर उनका गुणगान कर रहा था।
इसके बाद मौलाराम टिहरी गए जहाँ उनको उम्मीद थी कि राजा उनको कुछ धन-सम्मान के साथ विदा करेंगे, किन्तु कई बार के आवेदन के बाद भी राजा की कृपा उन पर नहीं हुई। टिहरी में रहते हुए मौलाराम कर्ज में डूब गये थे। अन्त में राजा ने अपने एक मन्त्री से दो रुपए में दो आना कम दिलवाकर उनको विदा किया। इससे मौलाराम बेहद आहत हुए। इसका उल्लेख मौलाराम ने अपने एक छन्द में भी किया है-
शुभ दरसन महाराज, गुनिजन पे दिल कीने
दो आने कम दोय, कसम दन हमको दीने।
तुमहूँ दिलाये मेहर में जस फैलायो
जिनहूँ सुनि इह बात, सोई बहुते पछतायो।
ऐसे मन्त्री आफ के, मौलाराम विचार कहीं
कठिन भई है कविन को
गढ़मरजाद कुछ नाहिं रहि।
उसके बाद मौलाराम कभी टिहरी नहीं गये और उनकी कविताओं का सुर ही बदल गया। सुदर्शन दर्शन में लिखी उनकी कुछ कविताओं की बानगी देखिए जिसमें राजा की आलोचना की गई है-
उत्तर देश कंगाल अत, षसिया जहाँ षबीसं
सूरत वचन घिनावने, करे कविन सौं हीस।
राजा के स्वयं कविता करने पर मौलाराम ने एक छंद में इस प्रकार अपनी टिप्पणी की है-
राग रंग आफ हिसाब गावै
कविता दोहे स्याल बनावै।
कम ही लोग जानते हैं कि इस युग में सुदर्शन शाह के चाचा प्रीतमशाह ने भी कविताएँ लिखीं किन्तु उनकी कविताओं का विषय कुछ भिन्न था। प्रीतमशाह ने शृंगाररस प्रधान कविताएँ लिखी हैं-
लोचन-चटकोर चपल कान लौं सिधारे,
और अति तीषै अनियारे झलक झपकारे हैं।
काजर बिना कारे, अतिकोरन रतनारे हैं
उजियारे हरिन मीन लजवारे हैं
कमल तैं विमल सारे रति की शोभ भारे
मदनबान धारे हैं।
प्रीतमशाह को चित्रकला सीखने का शौक था वे टिहरी से पैदल चलकर मौलाराम के पास श्रीनगर चित्रकला सीखने जाते थे। उनका लिखा यह पद अपनी श्रीनगर जाने की व्यथा को व्यक्त करता है-
टिहरी से विरत रहे, गुरु द्वारे श्रीनग्र
आवत-जात हि पग थके, दियो नहीं कवि सग्र
हम पे क्यों नहि आवते, तुम कवि मोलाराम,
कहते हैं प्रीतमशाह, तुम बैठे निज धाम।
कीर्तिशाह का काल:
सुदर्शनशाह के निधन के बाद टिहरी में कविताकर्म की गति मंथर पड़ गई। भवानीशाह, प्रतापशाह व महारानी गुलेरिया के काल में अपेक्षाकृत कम सृजन हुआ। कीर्तिशाह जब टिहरी की गद्दी पर सिंहासनारूड़ हुए तो एक बार फिर टिहरी में कविताकर्म ने गति पकड़ी। कीर्तिशाह ने स्वयं दिलचस्पी लेते हुए अपने पूर्ववर्ती राजाओं सुदर्शनशाह व भवानीशाह के काम में राज कवियों की प्रकाशित कई पाण्डुलिपियों का बम्बई की वैंकटेश्वर स्टीम प्रेस से मुद्रण कराकर संरक्षित करने का प्रयास किया। उधर कीर्तिशाह के दौर में देश में स्वाधीनता की अनुगूँज भी सुनाई देने लगी थी। टिहरी में उच्च शिक्षा सुविधाओं के अभाव में वहाँ के युवक राज्य से बाहर अन्य विश्वविद्यालयों को जाने लगे तो वे राष्ट्रीय विचारधारा से प्रभावित होने लगे। वहाँ से आने के बाद वे अपने को उस प्रभाव से मुक्त नहीं कर पाते। यही कारण था उस दौर में कविताओं की विषयवस्तु तो बदली ही बल्कि उनका स्वर भी बदलने लगा था। भारत में चल रहे स्वतन्त्रता आन्दोलनों का प्रभाव इस काल में टिहरी के कवियों पर भी पड़ा। पहले कुछ लोग छुट-पुट रूप से देश-भक्ति की कविताएँ लिखने लगे लेकिन फिर भी राजभक्ति उनकी पहली पसन्द थी। कविवर सत्यशरण रतूड़ी की ‘जै नगर टिहरी’ कविता से इसकी बानगी ली जा सकती है-
जै! भूमि बदरीनाथ, गंगा शैल हिम केदार जै।
जै! प्रजावत्सल महा, गढ़राज की सरकार जै।
भगीरथी-भिल्लागंना मिल कण्ठाहार प्रकार है
यमुना ललित की काञ्चि गुण-शोभा अतीव अपार है।
विविध भाँति मनोज अति रमणीय कलख गान है।
मधुकर-मधुर-रव-वाद्य शुभ वीणा प्रवीण समान है।
पल्लव-ललित, मृदु-गंध-पुष्पित-वाटिका उपहार से,
मिष्ट फल, सुस्वादु पय, पूजन सहित उपचार से
वर भूषणों से है, सुसज्जित रत्नगर्भा आज यह,
गढ़ भूमि प्रस्तुत है अहो! तेरे निकट महाराज! यह
इसी दौर के एक और कवि बहादुर सिंह रघुवंशी की ‘आर्त गिरा’ कविता की बानगी देखिए-
नहिं धर्म-अधर्म से काम जिन्हें,
उनसे सत्कर्म कि आस तजो,
गहि मौन रहो मन में भगवन,
फिर चीन के खम्भ जरा प्रकटो।।
कलि-काल कराल कृपाण चली,
अब शोणित शीष है न्याय प्रभो।
अब तो सरकार पुकार यही।
फिर चीर के खम्भ जरा प्रकटो।।
टिहरी महाराजा को ‘बोलान्दा बदरीनाथ’ अर्थात बोलता हुआ बदरीनाथ से सम्बोधित किया जाता था। अपने बोलान्दा बदरीनाथ से कवि विनती करते हैं-
सब की मद अंध चले खल वृन्द
कुछ कूप में भांग पड़ी अब तो।
हरि रूप धरो, मम पीर हरो।
फिर चीन के खम्भ, जरा प्रकटो।।
कवि मोदिनीधर डंगवाल ने राजवंश की प्रशस्ति में जो गीत लिखा, वह बाद में टिहरी रियासत का राज्य गीत घोषित किया गया और कालान्तर में यह राज्य के विद्यालयों में प्रार्थना के अवसर पर गाया जाने लगा-
रक्षतु बोलान्दा बदरि, जननि सिंह वाहिनी,
दीजो सम्पति अखिल, कमल दल विहारिणी।
श्रीमन नृप कनकपाल, वंश भानु हैं विशाल
विजयी हों तेज भाल, गिरा शक्ति शलिनी।।
दावानल विपिन माहि, केहरि करि यूथ माहि,
प्रखरै गढ़ भूमि तेज, अरिन शत्रु-नाशिनी।
जब लौं नभ सूर्य-चंद्र, तब लौं गढ़ राज्य अटल,
शासन होवे अटूट, ऋद्धि-सिद्धि दायिनी।
जननी वरदान देहि मन-बच-गुण गान करहि
चिर-चिरंजीवै गजेन्द्र अम्ब आयु वार्द्धिनी।
देश में चल रहे स्वाधीनता आन्दोलन में तेजी आने के साथ टिहरी में रची इस दौर की कविताओं में दोनों धाराओं का प्रभाव दिखाई देने लगा। कवि आत्माराम गैरोला की राजभक्ति के साथ-साथ देशभक्ति के भाव वाली कविता ‘टीरी’ कुछ यही कहती है-
सपूत सच्चा गढ़वासियों को
राजा भि मन्त्री भि, प्रजा भि तिन्यौं
को देश सेवा अर भक्ति कर्णी।
छः मुख्य उद्देश्य पवित्र धार्मिक
परन्तु मैं एक अवश्य विन्ती
विनीत कर्दू दुई हाथ जोड़ी
आदर्श टीरी सणि राजु मांझे
बणौण कू तैं तुम एक होवा
क्या गर्व नी छः गढ़वासियों कू?
राजा भि, हम भि, गढ़वाली ही छौंः
गढ़वाल स्वाधीन भि यो हमारो।
स्वराज वास्ता छन-जान-माल
न्योछावर करणा, रोणा-चिलाणाँ
कपालि फोड़ना पाई नि सकणाँ।
स्यो राज हमकू छः मिल्यूँ मिलायूँ।
नरेन्द्र शाह का काल:
कीर्तिशाह के देहान्त के उपरान्त कुछ समय तक टिहरी पर रीजेन्सी का शासन रहा क्योंकि तब नरेन्द्रशाह वयस्क नहीं थे। सन 1916 में जब उन्होंने राजगद्दी सम्भाली तो देश में स्वतन्त्रता संग्राम की अनुगूँज और तेज हो चुकी थी। इसका प्रभाव लोगों की विचारधारा पर भी पड़ने लगा। अब लोग गुपचुप रूप से टिहरी से बाहर हो रही घटनाओं की चर्चा करते। इसका प्रभाव टिहरी की कविताओं पर भी दिखने लगा। हालाँकि प्रारम्भ में कम ही कवियों ने विरोध की धारा में बहने का साहस किया। इस पर उनका विरोध सीधा न होकर अप्रत्यक्ष ही होता। कवि आत्माराम गैरोला की गढ़वाली कविता की बानगी देखिए, जिसमें गढ़वाल के पण्डितों से पेट पूजा से आगे देश की सेवा करने का आह्वान किया गया था-
नी बीच दान्यौं की, कसर हमारा
गढ़वाल माँझे, गत युद्ध साक्षी
दे दोन्छ देन्दो छः साक्षात प्रमाण मानी
हे राजपूतों! तुम धन्य-धन्य
हे पेटदासी गढ़वाली विप्रों!
आये तुम्हारी अब सारि बारी,
पोटग्यों की पूजा करि भौत याले
स्वदेश पूजा कि भि ओर देखा।
विमुक्त वत्सा गढ़ कामधेनु
पूजा तपस्या करि तैं कि देखा
कमी नि होन्दी मन कामनौं की
स्या देणा वाली, विप्रो! तुमारी
इन छुपाई स्पृहणीय क्वी जो
आवा सपूतों! घर-बार छोड़ा स्वदेश वास्ता पहरीक कफनी
बीड़ा उठावा तुम देश-श्री को।
समय के साथ कविताओं में विरोध के स्वर और मुखर होने लगे। पहले कविताओं में सूचनात्मक जानकारी होती थी किन्तु बाद में यहाँ के कवि कविताओं के माध्यम से लोगों से देश भर में चल रहे स्वतन्त्रता संग्राम से प्रेरणा लेने की बात करने लगे। उधर ‘जै टिहरी नगर’ जैसी कविता लिख चुके सत्यशरण रतूड़ी ने इस बीच एक क्रांतिकारी कविता ‘उठा गढ़वालियों’ में लोगों से जागरुक होने का आह्वान किया-
उठा गढ़वालियों! अब त वक्त यो सेण को नी छः
तजा ई मोह-निद्रा कू, अजौं तैं जू पड़ीं ही छः।
अलो अपणा मुल्क की यीं छुटावा दीर्घ निन्द्रा कू
सिरा का तुम इनि गहरी खड्डा मा जीन गेरयाल्यैं।।
अहा तुम भैर त देखा, कभी से लोग जाग्यां छन
जरा सि आँख त खोला, कनों अब घाम चमक्यूँ छन
स्वदेशी गीत कू एक दम गूँजावा स्वर्ग तैं भायों
भला डौंरू कसालू की कभी तुमकू कमी नी छः।।
बजावा ढोल, रणसिंघा सजावा थौल कू सारा
दिखावा देश-वीरत्व, भरी-पूरी सभा बीच।
उठा ला देश का देवतौं सणी बांका भडूं कू भी
पुकारा जोर से भायौं, घणा मण्डाण का बीच।।
स्वतन्त्रता के भाव लेकर यह उस समय की सबसे मुखर कविता थी। इस कविता को पढ़ राज शासन में बैठे लोगों के कान खड़े होना स्वाभाविक था। आगे से ऐसा न हो इसलिए स्वाधीनता के बारे में ऐसी भावना रखने वाले कवियों व साहित्यकारों को राज्य और राजा का विरोधी समझा जाने लगा। इस दौर में आत्माराम गैरोला ने राज्य में प्रजा की स्थिति का वर्णन करती एक कविता क्या लिखी राज्य में तूफान खड़ा हो गया। इसमें टिहरी के शासकों का ध्यान खींचते हुए राज्य विद्रोहियों को दण्डित करने और चाटुकारों को उपकृत करने की दरबार की परिपाटी की ओर दिलाया था जिनके झगड़े में प्रजा कुचली जा रही थी-
होलो कुई कारण स्यो अनोखों,
अगण्य लोगू नि बतौण योग्य
स्वदेशि जौं कौन करीक साहस,
करी छः शंका अर बाद ठाणे
तौंकि त भारी गत खोटि होए,
कैकू करे देश-निकाल कैका
लेया मुचल्का बतलाई बागी,
बागी बताया सच्चा हितैशी।
पौ बार तौंकी पड़ि क्या ही खूब,
मामा पुफू का भाई स्याला,
घुसेड़ि दीन्या अर पदु उच्च माँझे
बागी झणौं की ज्युकुड़ी जलाई।
ऊँ खैरख्वाह यूँ बागियों की
स्वीयार्थ हेतु पड़े चुफि हाथ,
ब्वै-बाबू झगड़या, कुरची गयौं मैं,
ये हाल होया यख की प्रजा का।
ब्रिटिश सरकार द्वारा आरम्भ की गई बेगार प्रणाली से गढ़वाल व टिहरी में लोग बहुत तंग थे। इसलिए इस समस्या के निदान के लिये तहसीलदार जोधसिंह नेगी के प्रयासों से जब पौड़ी में कुली ऐजेन्सी की स्थापना की गई। टिहरी रियासत में जब यह शोषणकारी प्रथा जारी रही तो प्रजा को जगाने के लिये आत्माराम गेरोला ने ‘कुली ऐजेन्सी महिमा’ पर एक कविता लिख डाली-
एजेन्सी जब बात-चीत लग्दे, तब्बातु की याद मा
औन्देन सब रीझ-बूझ मन की छोटी-बड़ी बात
एजेन्सी तू वजीर का हृदय मा बेठीक थोड़ी घड़ी
धर देई टिहरी प्रजा कू सुख मा ओ छन सुघडंई घड़ी।
एजेन्सी टिहरी प्रजा छः गढ़ मा अन्धी विचारी इनी
ना खान्दी इनि छ, घर मा लड़दी, चितौन्दे बि नीं।
तू जाईक सुधार ली, सुधरली या मा क्वी बात नीं
देखेली गढ़वाल की सुमहिमा, दुय्यौं कि सुन्दर्बणी।।
लेकिन दूसरी ओर वे नाबालिग राजा नरेन्द्रशाह के प्रति उदारता का भाव प्रदर्शित करते हुए एजेन्सी से कहते हैं
एजेन्सी
पर लाइली व इनि जै सब की पियारी वणी।
क्योंकि छन महाराज बालक,
अभि इन्साफ करन्या भिनी।।
जो छाः धीर, सुबीर, सुन्दर कला कौशल्हि का पुतला।
श्री राजा सर कीर्तिशाह जी बिना टिहरी छः हत्भागिनी।
इसके बाद कवि तोताकृष्ण गैरोला ने एक सुप्रसिद्ध काव्य ‘प्रेमी-पथिक’ की रचना कर डाली। उनके काव्य के एक पद्य से राजा इस प्रकार कुपित हुए कि तोताकृष्ण गैरोला को सियासत छोड़नी पड़ी-
मोति सि सेति मति होव जैकी,
वणो जवोरी धन दान कैके।
त्यागि महात्मा उपकारि प्यारो,
सबूक हो मोहनदास ह्वेके।
लज्जा रखू बल्लभ बन्धु बण्के,
गरीब गुर्बो सणि कैक राजी।
भागौ इनौ जो तिलकौ च टीको,
वही बड़ो मानदो मैं त माँजी।
तोताकृष्ण गैरोला ने अपने इस काव्य में सेठ-साहूकारों और सामन्त थोकदारों की काली-करतूतों का खूब वर्णन किया है।
कवियों की कलम समकालीन कुप्रथाओं पर भी चली। कुमाऊँ एवं ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी रियासत में कुली-बेगार और बर्दायश की प्रथा से प्रजा दुखी थी। अपने जेल प्रवास से काफी पहले श्रीदेव सुमन कविता लिखने लग गये थे। स्वाधीनता पर सुमन की लिखी ‘मातृ-भूमि की वन्दना’ कविता में उनके मन में देश-प्रेम के भाव को समझा जा सकता है-
जिस जननी के शुचि रण-कण से
तन-मन है यह जीवन है
जिसके निस्सीम अनुग्रह से
मिलता उर को नित भोजन है।
शुभ स्नेहमयी जिस गोदी में
विश्राम हमें मिलता नित है
जिस राष्ट्र-ध्वज के तले अहा
बन मोदमयी खिलता चित है।
आजादी के दौर में टिहरी में गुणानन्द पथिक एक ऐसे कवि हुए जो अपनी कविताओं को लिखने के साथ-साथ जनता में गाया भी करते थे। उनकी कविताएँ आमजन का प्रतिनिधित्व किया करती थीं। आजादी के बाद भी कवि गुणानन्द पथिक ने ललकार और झंकार कविता संग्रह प्रकाशित किए जिनको वे हारमोनियम के साथ टिहरी के चौराहों पर गाया करते थे-
गरीब की दुनिया मा धनवान कू राज
हम भूखा तड़प्या, सि ह्वैन सरताज
यो गीत सुणि जा।
अमीरु का घर मा हलुवा, रति ब्याणी,
गरीबु का घर मा कण्डाली मी स्याणी
यो गीत सुणि जा।
सदियों से दलित और शोषित वर्ग पर उनकी कविता ‘गाँधी जी का प्यारा हरिजन समाज मा गिर्या किलै?’ पर उन्हें पुरस्कृत किया गया था। उन्होंने गढवाली में रामायण भी लिखी और सार्वजनिक स्थानों पर उसे गा-गा कर सुनाया भी।
लेकिन सभी कवि आजादी के संग्राम पर ही लिखते रहे हों ऐसा नहीं था। टिहरी में अनुकूल वातावरण न मिलने के कारण कवि चन्द्रमोहन रतूड़ी टिहरी से बाहर चले गये, किन्तु उनका मन अपने गंगाड़ में ही लगा रहता। ‘देववण को वर्णन’ नामक कविता में उन्होंने अपनी व्यथा का वर्णन इस प्रकार किया-
उड़दो मेरो मन यखन, पर फिर भी अपणा गंगाड़
प्यारा मैं क छन फिर भी अपणा, सारी-सेरा व सौड़।।
जोड़दों हाथ मैं यख न अपणी, मा सी भागीरथी को
यींका गोद स्थित ही, अपणा जन्म का गोदी गौंक।।
अई गयौं सि मैं त या, मेरी टीरी रै तु ता
दूर पड़ग्यां बिगड़े क्या, तेरो मैं तू मेरी छैं
मैं भलो त तू भली, तू बुरी त मैं बुरो,
सुपिन्यों मा नि हम जुदा तेरों मैं तू मेरी छै।
मैं बुरो कि तू बुरी थै कि जाणे लोग क्या
बोल्दा होला, बौल्ण दे, तेरू मैं तू मेरी छे।
इसी दौर में कवि मनोहरलाल उनियाल ‘श्रीमन’ की हिन्दी कविता उल्लेखनीय रही-
रक्त रंजित पथ हमारा
हम पथिक हैं आग वाले
आग का हम राग गाते
पाप की दुनियाँ जलाते
हम यही हैं घर जिन्होंने
वज्र भू पर शैल ढाले
राज महलों के टूटेंगे
मुष्टिका से आज ताले।
वस्तव में जनता की मुष्टिका से राज-महलों के ताले टूट गये। उधर ‘श्रीमन’ ने तिलाड़ी के मैदान को जलियावाला बाग की संज्ञा देते हुए कहा-
धन्य अरे! जलियावाला बाग।
रवांई के सीने के दाग
रियासत टिहरी के अभिमान।
तिलाड़ी के खूनी मैदान।
आजादी के दौर में मुरलीधर शास्त्री का लिखा जनक्रान्ति का गीत भी चर्चित रहा। हालाँकि उनकी टिहरी की क्रांन्ति पाण्डुलिपि प्रकाशित नहीं हो पाई-
हम तो टिहरी पर कुर्बान हो जायेंगे
नाम जिन्दो में लिखा जायेंगे।
आजादी के उपरान्त की कविताएँ
आजादी के पूर्व टिहरी साहित्यिक दृष्टि से जितनी उन्नत थी, आजादी के बाद उसकी गति मन्द पड़ गई। कुछ समय बाद टिहरी में ‘गंगा प्रसाद साहित्यिक मंच’ ने साहित्यिक वातावरण बनाकर नवयुवकों को कविता लेखन के लिये प्रोत्साहित किया। इस मंच की ओर से कवियों को सम्मानित किया जाता था इनमें से कवि जीवानन्द श्रीयाल भी एक थे। कवि जीवानन्द की टिहरी नगर पर लिखी निम्न पंक्तियों में इस नगर की विशिष्टता का सुन्दरता से वर्णन किया गया है-
टिहरी जनु पीपल कु सि पत्ता लठु
ध्यान लगा अर देखण जा,
जनु भेड़, दिख्यौं मटकाणि मुंगै
जख राणी कु बाग छः नागरजा।
अर नोक छः सेमल तप्पड़ै
जख था घट रामपुरी तरदा,
दरबार बाजार छः बीच सभी
जख रात-दिन विनती करदा।
बजदा छन शंख व ढोल दमौ
तुरि भेरि भंकोरि कि घांड भला
उठि झुस्मुस मा शुद्ध ह्वई
मिलि मन्दिरु मा नर-नारी चल्या।
कलशा। भरि पाणिन जाह्नवि का
फल-फूल सदा सदि हाथ धरि
कुई इक्कि गली-कुई हैक्कि गली
जख भी छन मन्दिर तें टिहरी।
रघुनाथ कखी, बनमालि कखी
बिन मूरति नी छन खालि कखी,
शिवलिंग घणा, खुशि शैव झणा
सिरिजन्त्र छः दक्खण कालि कखी।
गुरुद्वारु छः मन्दिर-मस्जिद भी
बदरीश प्रभो हर पाप हरी।
गमना-गमनै कनु सुन्दर ह्वै गई
मोटरु मा अब तैं टिहरी।
टिहरी का घण्टाघर टिहरी की सुन्दर कृति ही नहीं अपितु टिहरी का एक प्रतीक भी था। यही कारण था कि अनेकों कवियों ने अपनी कविताओं में इस घण्टाघर का प्रमुखता से उल्लेख किया है। जीवानन्द श्रीयाल ने इस कविता में इसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया है-
अट्ठारह सौ सताणनब्बे इसवी मा तै टिहरी नगर
बण्यो बड़ा। खरचा से टावर खुशी मनैन्दी सबुका घर।
चौफल पर चमकीलो जै पर घड़ि भि लगनि चार-चत्तर,
लम्बाई मा एक सऊ दस फीट यो उच्चो घण्टाघर।
बजदन अद्धा समय-समय पर घण्टा पूरा ठन-ठन-ठन
तीन मील की दूरी पर भी, सुणदा-गणदा सभी जन।
धूप-घड़ी भ्वां दक्षिण पर वा सदा सहायक जैकी अर,
बीचों-बीच सिढ़ी छन जाणक इनों टिहरी को घण्टाघर
भवां च बगल मा नौबत खानू
ढोल नगारा दमौ सभी
स्याम-सुबेर्यो सेण उठण पर दास बजौन्दन खास तभी
उच्चो टावर द्यौ की डर से चुम्बक पत्ता चोटी पर।
इतिहास मा पैल्या नम्बर गढ़ को सुन्दर घण्टाघर।।
आजादी के उपरान्त टिहरी नगर अनेकों जनान्दोलनों यथा मद्य-निषेध, अस्पृश्यता और चिपको आन्दोलनों का साक्षी रहा। मद्यनिषेध आन्दोलन के दौरान कवि घनश्याम ‘सैलानी’ ने महिलाओं का आह्वान किया था-
हिट्टा दिदी! हिटा भुली, चला टीरी जौला
दारू कू दैन्त लग्यूं, तै दैन्त हटौला।
आजादी के बाद टिहरी में शराब विरोधी आन्दोलन सबसे बड़ा आन्दोलन बन कर उभरा। सैलानी की इस कविता में मदिरा की दुकान पर जनता के सत्याग्रह का वर्णन मिलता है-
ह्वैगे सत्याग्रह शुरू ब्यालि बिटेन,
दारू की दुकान खोले लोग उठेन।
टिहरी मा सत्याग्रही दफ्तर खुलीगे
जनता दफ्तर मा नौऊ लिखौण ल्हैगें
टिहरी सहारनपुर तलक जेल भरीगे,
जनता का जनमत से सरकार डरीगे
माता बैणी टिहरी मा रणचण्डी बणीगे।
पी.ए.सी. पुलिस तौंकी ठण्डी पड़ीगे।
टिहरी भिटी दारू को तब दैन्त भागीगे।
जनता की जीत को रणसिंघा बाजीगे।
बाँध की पीड़ा-
टिहरी में बाँध बनाने के निर्णय के बाद टिहरी में पैदा होने वाले सामाजिक प्रभावों का उल्लेख यहाँ रची जाने वाली कविताओं में होने लगा। महन्त देवीप्रसाद की लिखी यह कविता एक समय में पूजा से जीवन-यापन करने वाले पुजारियों के समक्ष बाँध निर्माण के कारण पैदा हुई त्रासद स्थिति का उल्लेख है-
जिन्दगी मन्दिरू मा गुजारी
बुढैन्दि दौं कख जाला पुजारी
बाँध की योजना बणि ग्ये सारी।
कख झैं पराण खोला पुजारी
कख पराण खोण ले खोण बुबा।
पुजारी नि होणु नि होणु बुबा
बन्धानु का नौ नि टका।
पुजारी नि होणु नि होणु बुबा।
बाँध बनने के कारण टिहरी नगर की स्थिति बिगड़ने लगी थी। इसका एक चित्र राजेन्द्र निर्मल की कविता ‘टिहरी: एक मरा हुआ शहर’ खींचती है’
रात भर सूनी सड़कों परगऊओं का बाजार गर्म रहता हैगलियों में कीचड़ में नहाए हुएसुअर कूड़े का पाउडर मलते हैंऔर मच्छर मोहम्मद रफी औरलता का रिकार्ड तोड़करएक नया प्रतिमान स्थापित करते हैंटिहरी एक मरा हुआ शहरनींद की बाहों में सोता रहता है।
गढ़वाल विश्वविद्यालय के स्वामी रामतीर्थ परिसर टिहरी के कई छात्रों ने टिहरी की वेदना को अपने शब्द दिए। परिसर की उस दौर की वार्षिक पत्रिका हिमालोकिनी में टिहरी की तत्कालीन स्थिति का वर्णन इन कविताओं में मिलता है। छात्र विनोद कुमार की कविता देखें-
सारे शहर में प्रदूषण भारी,
जनता है परेशानी में सारी।
खुली सांस हेतु तड़प रही जनता
दिन-प्रतिदिन प्रदूषण बढ़ता।
छात्र राजीव नेगी लिखते हैं कि-
घाटर पर पड़ा कचरे का ढेर
भागीरथी में गिरता गंधाता पानी
बहते अधजले शवों पर
चोंच मारते गिद्ध
बाहर निकलने पर
इन अट्टालिकाओं के
जंगल से
वर्ष 1995 के अंक में मन्त्रीप्रसाद सेमवाल की कविता टिहरी की तत्कालीन स्थिति से इस प्रकार परिचित कराती है-
पहाड़ों से सुरंग बनाकर
खोखला उन्हें कर दिया
पेड़-पौधों को काटकर
उनका नामोनिशान ही मिटा दिया
जलमग्नता से पहले
टिहरी को धूलमग्न अवश्य बना दिया
बाँध के साथ-साथ
टिहरी का भविष्य भी अधर में लटका दिया
धूल की लहरें
इस नगर में चलती हैं ऐसे
समुद्र में तूफान का ज्वार उठता है जैसे
दिन में भी अन्धेरा छा जाता है
बादल उतर आये हों जमी पर जैसे
पल्लव-ललित, मृदु गंध पुष्पित
परम वैभवशाली
टिहरी नगर आज कहाँ पहुँच गया है?
लेखक आलोक प्रभाकर की इस कविता से स्पष्ट होता है कि-
गंगा भिलंगना के दोआब में
बसी यह टिहरी
गुमानी ने इसे कहा था
रसखान मही धनकोष भरी
अब तो दिखती है
यह एक उदास नायिका सी
पुँछ गई है माँग
लगती है, यह डरी-डरी।
टिहरी निवासी इसरार अहमद फारुखी ने गंगा जल व टिहरी को अपनी शायरी में इस प्रकार लिखा है-
बँधे बाँध बँधे जल चले न चले
गंगा कसम तुझे, निकल जा तले जले
आब जम जम से कम नहीं
भागीरथी का जल
भर बल चलें
कल पवित्र मिले न मिले
दिल की जुबाँ सुने तो दिल मेरा कहे
मुल्क अदम में गर
पुराना शहर टिहरी मिले
डॉ. महावीर प्रसाद गैरोला की कविता संग्रह कपाली की छमोट में छपी ‘टीरी’ कविता कुछ उन गिनी-चुनी कविताओं में शामिल है जिसमें उन्होंने बाँध को विकास का प्रतीक माना है-
यख रामतीर्थ विज्ञानानन्द न
तत्व ज्ञान कू शंख बजाए
वीर सुमन, नागेन्द्र मोलू न
प्राण दीक अमर पद पाए
चौरासी दिन तड़पि-तड़पिकि
वीर ‘सुमन’ बलिदानी ह्वे था
मैं भारत छौं बोली थौ जौन
उ रामतीर्थ डुबीक मरि था।
जाणदौं तू उदास छैं केक?
इ द्वी कलंक कुछ कम नी छन।
बाँध बणवैक अब डुबणी छैं
यां से हर्षित छः जन-जन
तेरा प्रायश्चित से ही अब
यख भी देख, उद्यों ह्वेगे
भाँति-भाँति का मनखी ऐग्या
यख भी अब दिल्ली बणिगे
किन्तु बाद में बाँध बनने की तिथि निकट आते देख डॉ. गैरोला का टिहरी प्रेम उमड़ आया और वे टिहरी की भैरव द्वारा रक्षा की बात करने लगे।
इस अवधि में जो भी रचनाएँ लिखी गई उनमें टिहरी नगर की पीड़ा झलकती है। बाँध निर्माण के कार्य में प्रगति होने के साथ-साथ टिहरी निवासियों को टिहरी के डूबने का अहसास होने लगा था। इस दौर की रचित कविताओं में उसकी अभिव्यक्ति मिलती है। मेरे शहर की आत्मा में पत्रकार विक्रम बिष्ट लिखते हैं-
गणेश प्रयाग की गणेश-शिला
अब अदृश्य हो चुकी है
जल-प्रलय की तिथि
शायद निकट आ चुकी है।
महन्त देवी प्रसाद नौटियाल की कविता ‘धनुषतीर्थ’ की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
रघुनाथ, हनुमान, पंचमुखी जख,गुरुजी का गुरुद्वारा छन,
राजराजेश्वरी, दुर्गा देवी, गोपाल
आर्य समाज अर मस्जिद छन
यीं पावन धरती की गरिमा
महिमा मन मां भूलां न्हीं
बाँध बणू चाहे डाम पडूँ
यीं धरती तैं कभि छोड़ा न्हीं
स्वर्ग जनी या पुण्य भूमि
कखि हौर जगा यनि मिलणी न्हीं
चारों ओर से गाँव घेरयाँ जख
इनि ‘टिहरी’ कखि मिलणी न्हीं।
मातृभूमि के डूबने से उत्पन्न पीड़ा से डॉ. उमाशंकर ‘सतीश’ की कविता ‘टीरी नगर’ की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
यो पापी पराणी उबणू च,
अब मेरू टीरी डुबणू च
भिलंगना तू गाडि वाच,
भागीरथी तेरी मन्सा क्या च।
जिकुड़ी मा गरुड़ रीटणू च
अब मेरू टीरी डुबणू च
टिहरी की विरह वेदना
टिहरी के डूबने का दर्द टिहरी में रहने वालों के अतिरिक्त टिहरी से जुड़े कई अन्य लोगों ने भी महसूस किया और अपनी रचनाओं में स्थान दिया। टिहरी को कवियों के अलावा गीतकारों ने भी अपने गीतों में महत्व दिया। गढ़वाली के सुप्रसिद्ध गायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने टिहरी के डूबने से पूर्व की संवेदना को जिस प्रकार मार्मिक और हृदयस्पर्शी गीत के रूप में व्यक्त किया है, वह टिहरी के निवासियों की आँखों में आज भी आँसू ले आता है-
भेंटि जा यूँ गौला-ग्वींडों जौंमा खेलिक सयाणू ह्वे तू,
ग्वाया लगैनि जैं डिंड्याली
जैं चौक जौं बाटों आणू-जाणू रै तू,
कखन देखण लठ्याला त्वैन जलम भूमि या फीर
टीरी डुबण लग्यूं च बेटा डाम का खातीर।
पितरु कू बसायूँ गौऊं, सैन्त्यूँ पाल्यूं बण,
धारा, मंगरा, गुठ्यारा व चौक कन कैकि छोड़ण।
कण्ठ भोरीक औन्द उमाल, औ! बंधै जा धीर,
टीरी डुबण लग्यूँ च बेटा डाम का खातीर।
रज्जा कु दरबार, घण्टाघर, आमू का बग्वान,
कनु डुबलो यो टीरी बजार, सिंगोरियों की दुकान,
समलौण्याँ रै जाली भोल, साख्यी पुराणी जागीर
टीरी डुबण लग्यूँ च बेटा डाम का खातीर।
समझैदे अपड़ि सरकार द्वी चार दिन ठैरि जावा
बुझैण द्या यूँ दानी आँख्यों हम दना बुढ्यों मन्न द्यावा
ज्यूंदी आँख्यों कनुकै दख्यण परलै की तस्वीर,
टीरी डुबण लग्यूँ च बेटा डाम का खातीर।
गीतकार प्रीतम भरतवाण ने भी टिहरी के छोड़ने की घड़ी में ससुराल से मायके आने-जाने वाली बेटी-बहुओं की हृदय की पीड़ा को अपने इस गीत में उड़ेला है-
छोड़ण लैगेन घेंडुड़ी-घुघती आमू कि डाल्यूं कु बास
टीरी डुबण कि ऐसी घड़ी नि रंया अब यख का सास
समलौण्या रै जालु मुल्क गऊ मैत छौ
तुमारु जख भेंटि आवा दिशा धियाण्यौं
आखिरी बार आज वख
बेटि-ब्यार्यो कु मैत छुटे, औण-जाण कि आस टुटे
आँख्यों मा मैत्या मुलक रैगे, अब जलम भूमि डूबण लैगे
बचपन बिताई जखन, अठुर कू सैण अब देखण कखन
आखिरी बार टीरी देख्याली मैत कु गौंगलु मैंन भेंटयाली
टीरी छोड़ण कू बगत ऐगे, अब जलम भूमि डूबण लैगे
जिकुड़ी मा खुद की कुरेड़ी
अब जलम भूमि छूटण लैगे
झिलमिल गौं-गौं उज्यालू होलू, जब पुराणी टीरी याद
औणी रहली तब
टीरी डाम तेरो परताप ह्वैगे
अब जलम भूमि डूबण लैगे।
टिहरी के डूबने की उधेड़बुन में जहाँ टिहरी के रचनाकारों की सृजनशीलता पर एक विराम लगा वहीं टिहरी को करीब से देखने वालों ने उजड़ती टिहरी व बाँध के कारण टिहरी नगर की दृर्दशा का अपनी अभिव्यक्ति में स्थान दिया। सुश्री गीता गौरोला की कविता देखें, जिसमें कवियत्री ने टिहरी के स्थान पर विशाल झील के लिये योगदान करने वालों का सवाल उठाया है-
ये झील जिसकी पूर्णता का स्वप्न
देख रहे हों
किसी की जड़ों की मिट्टी है
जब इसकी शक्ति तुम्हें प्रकाश
क्या तुम याद कर सकोगे
उन शहीदों को, जिनकी जड़ें
गाँव, गली, इस झील की
नींव है।
कहानीकार हेमचन्द्र सकलानी ने ’टिहरी एक विरासत’ नामक कविता में टिहरी के डूबने को विरासत का डूबना माना है-
एक दिन एक नदी थम गई
इतिहास को लेकर, एक विरासत की
स्वर्णिम स्मृतियों, पृष्ठों, पटलों
किंवदन्तियों, पुराकथाओं के साथ
बाँध ने सहसा बाँध दिया
जीवन, गति, दृश्य
कीर्तिकथाओं का आदि-अन्त
विकास की सलीब चढ़ गई
एक विरासत
विरासत से विलग हुए लोग
एक शहर,
टिहरी गुम हो गया
नदी थम गई अन्ततः
एक दिन
टिहरी के दर्द को सिर्फ टिहरीवासियों ने ही नहीं महसूस किया बल्कि वहाँ कुछ समय व्यतीत करने वाले लोगों ने भी महसूस किया। लेखक आनन्दबर्द्धन की कविता झील बाँध बनने के समय की है जो कई प्रश्नों को उठा रही है-
उदास झील
बन रहा है बड़ा बाँध,
और डूब जाएगा
यह पहाड़ों का शहर झील में
डूब जायेंगे पहाड़
सपने हो जायेंगे हरे-भरे सीढ़ीदार खेत
लोग उजाड़ने लगे हैं अपने घर
दरवाजे खिड़कियाँ दीवारों की ईंटें
जहाँ हमने शामें खर्च की थीं कितनी ही
उस क्लब को कल शाम गिरा दिया गया।
मैदान बन चुका है स्कूल
व्यस्त रहे बाजारों में दुकानें खाली हैं
सड़कों ने बदल दिए हैं रास्ते
पर कुछ सिरफिरे बूढ़े और कुछ जवान
शहर को झील नहीं बनने देना चाहते
इसलिए पुलिस की कवायद बढ़ गई है
शहर झील बनेगा और झील बिजली बन जायेगी।
पहाड़ी शहर ने अपने शहर में
आखिरी नींद में डूबे
पुराने सपनों की तह लगाकर उन्हें संजो रहे हैं
कल वे अपने बच्चों को बतायेंगे
कि तुम्हारे बाप दादा का घर
इस झील के नीचे है पहाड़ अभिशप्त हैं
कल वे उदास झील में खो जायेंगे।
टिहरी के एक छात्र सुनील कुमार डबराल ने टिहरी बाँध के निर्माण व्यथा कथा से दुखी होकर विश्वकर्मा से यह अपेक्षा व्यक्त की है कि बाँध निर्माण से गढ़ विकसित हों और समृद्धि आए-
जून की एक शाम भागीरथी के तट पर
ठण्डी हवा के आँचल में
डूबते सूरज की छाँव तले
ढूँढता हूँ उस पावन नगरी को
जो खोती जा रही है
बाँध निर्माण के बीच, पहले तो यह यों न थी
तपो भूमि स्वामी रामतीर्थ की और
सुमन की बलिदान की धरती
टेढ़े-मेढ़े धनुषाकार में बहती
स्वच्छ धारा ललकार रही है
गगनचुम्बी घण्टाघर, कोई
कचहरी, मोती बाग और
सुन्दर, सुरम्य अठूर, खाण्ड को
जल समाधि लगाने के लिये
यह स्वप्न हम सब का भविष्य है?
क्या छमुण्ड, कुलणा, बौराड़ी के वृक्ष
झील को लख सकेंगे?
हे राजमहल! तू साक्षी है, टिहरी के निर्माण से
उधेड़बुन तोड़-फोड़ से लुप्त
यह सब निर्माण है कि निर्वाण?
यह स्वप्न पाश्चात्य है या क्या यह शिक्षा
सभ्यता और संस्कृति का विकास है?
या नियति को भुला देने का कोई षडयन्त्र
हे विश्वकर्मा! यह ध्यान रहे
बाँध बनाकर गढ़ विकसित हो
एक नया स्वर्ग उत्तरांचल हो
पूर्ण विकास से घर-घर
जल विद्युत बन, बाग कुबेर बने।
पत्रकार राजेन्द्र टोडरिया ने टिहरी में बाँध निर्माण के लिये वहीं के लोगों को जिम्मेवार माना है-
समझदार लोग बाबुओं से मिले
बाबुओं ने उन्हें साहबों से मिलाया
साहबों ने बताये, टिहरी डूबने के फायदे
जीवन जीने के फायदे
और जीते जी डूब गया एक शहर
समझदार लोग इतने समझदार होते हैं
कि जानते हैं घर मकान और पुरखों की जमीन
इन सबको बदला जा सकता है
मुद्रा की खनक में
मुद्रा ही वह धुरी है
जिसके चारों ओर नाचती है पृथ्वी
समझदार लोग हाड़ माँस के पुतले होते हैं
वे पत्थर में गुदी हुई मानवाकृति से हैं
भावनाओं अन्तरात्मा के पचड़े में नहीं पड़ते
इसलिए टिहरी के लोगों!
एक सीधी-साधी नदी को दोष मत देना
किसी नगर को डुबोने के लिये
काफी नहीं होती है एक नदी
सिक्कों के संगीत पर नाचते
समझदार लोग हों, भीड़ बँटी हुई
कायरों के पास हो तर्कों की तलवार
तो यकीन मानिए, शहर तो शहर क्या
यह काफी है देश डुबोने के लिये
लगभग यही रंग जयप्रकाश उत्तराखण्डी की कविता में भी दिखता है-
टिहरी तुझे डूबना ही था
तूने जनी थी नपुंसक पुत्रों की पूरी जमात
कायर राजा चालाक बनिए, उस्ताद ठेकेदार
लोभी दफ्तरी, भगोड़े बुद्धिजीवी
इनके दोनों हाथों में थे लड्डू
बरसों से चला रहे थे
तुझे डुबोने न डुबोने की दुकान।
टिहरी धीरे-धीरे डूब रही है
पानी निगल रहा है समृद्ध सभ्यता
विश्व का लोकतंत्र मना रहा है उत्सव
प्राचीन संस्कृतियों का जारी है यशोगान।
टिहरी के डूबने पर कई लोग अपनी अभिव्यक्ति प्रकट किए बिना न रह सके। हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’ ने टिहरी के डूबने पर ‘टिहरी डूब रही है देखो’ में अपनी भवनायें इस प्रकार प्रकट की हैं-
टिहरी डूब रही है देखो,
सौ गाँवों के सपने सारे
सदियों से संजोये पाले
अरमान नये हर मन के
पल भर में यों ही डूब गए
है कैसी देखो विडम्बना?
कैसा नारा यह विकास का?
जन-जन की आशाएँ सारी
धड़कनें आहें, हर दिल की
खुशहाली सारी घर-घर की
हँसी-खुशी पूरे जनपद की
जलमग्न हुई क्यों? सोचो तो!
सामाजिक कार्यकर्ता विमल भाई की कविता ‘स्तब्ध’ की बानगी देखें-
जैसे सब कुछ स्तब्ध हो गया,
उछलती-उफनती नदी का वेग
थम गया
तैरने लगे शैवाल, मृत पशु
नदी की छाती पर
शोक का लिबास छा गया,
शीशे से दमकते जल पर।
बिदुली ठगी सी खड़ी रह गई किनारे पर
नदी कहाँ गई?
पहाड़ में आक्रोश, संघर्ष के बाने-ताने
फैल गये नदी के चौड़े बनते तट पर
शाश्वत डूब रहे हैं
स्मृतियों के किनारे
विकास (?) की गोद में
समा रही है
प्रकृति।
अब किस मैया की स्तुति होगी?
मैया तो डूब गई स्वयं अपने में
ठहर गई तारने वाली।
उधर गणेश खुगशाल ‘गणी’ ने अपनी गढ़वाली कविता ‘टीरी एक ढण्ड’ में बाँध बनने के बाद भागीरथी नदी की बेचैनी को लिखा है जो अपनी सखी भिलंगना के न मिलने पर हतप्रभ है-
ऐंच बिटि औदि भागीरथी
उप्पूगढ़ से पैलि खैल्ये जैलि
फट्ट फटगरेलि, रगरेलि
अपणि सौंजड्या भ्यटेणौं।
सोचलि,
लोलि भिलंगणा कख हरचि?
सोचलि,
आज मि अपणों बाटु
किलै रिबडणूं छौ?
स्वचणी रैलि भागीरथी!
वर्षु तक मत्ति मर्यां कि सी
रिटणीं रैलि औता मा
जुं ऊंलै बणैं दे वीकु
जौं खुणि बगणीं रै वा साख्यूं बिटि
बरसू मा समझि साकलि भिलंगणा कि,
टीरी की जैं ढण्डिउंद व प्वणीं छ
अब द्वी का द्वी
साख्यूं तक रैलि
ई दण्डिउंद रिटणी
सुसगरा भ्वनी
28 दिसम्बर 1815 को पूर्वाह्न ग्यारह बजे शंख और घण्टे घड़ियालों की मधुर ध्वनि के बीच तथा धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार पूजा-अर्चना के बाद महाराजा सुदर्शनशाह ने जिस टिहरी नगर की स्थापना की थी वह नगर अब नहीं है लेकिन टिहरी पर लिखी इन कविताओं को पढ़कर टिहरी 189 साल का इतिहास चलचित्र की भाँति सामने आ जाता है।
एक थी टिहरी (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम | अध्याय |
1 | |
2 | |
3 | |
4 | |
5 | |
6 | |
7 | |
8 | |
9 | |
10 | |
11 | |
12 | |
13 | |
14 | |
15 | |
16 |
Path Alias
/articles/taiharai-kai-kavaitaaon-kae-vaivaidha-ranga
Post By: Hindi