सुरगंग-तटी, रसखान मही और धनकोष भरी जनराज सुदर्शनशाह की पुरी टिहरी में जन्में, पले और युवा हुए लोग वृद्धावस्था में टिहरी बाँध के कारण निर्वासित कर दिए गए हैं। जननी-जन्मभूमि छोड़ने की वेदना नयी पीढ़ी की अपेक्षा वृद्धों को अधिक सता रही है। वे नए स्थान और नए परिवेश में स्वयं को समायोजित नहीं कर पा रहे हैं।
अस्सी वर्षीय आचार्य चिरंजीलाल असवाल देहरादून में अपनी भव्य इमारत को अपना घर स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। वे तीन वर्ष पूर्व अठूर (टिहरी) छोड़ चुके हैं। घर (टिहरी) से आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से वे घर का हालचाल पूछते हैं जबकि वे टिहरी के अपने मकान और खेतों को सरकार के हवाले कर चुके हैं। वे जब तब अपने पुत्रों और पुत्र-वधुओं पर झल्लाते रहते हैं, ‘यहाँ आने की इतनी जल्दी क्या पड़ी थी आप लोगों को। कम से कम मुझे अपने घर पर आराम से मरने तो देते।’ अब उन्हें कौन समझाए कि पहाड़ के बेकार घर से बेहतरीन घर तो यहाँ देहरादून में बना है। यहाँ शौचालय और स्नानघर उनके कक्ष से जुड़े हैं। लेकिन नित्य-क्रियाओं से कमरे के अन्दर ही फारिग होना उन्हें बेहद नागवार गुजरता है। यहाँ वे कमरे के अन्दर कैद होकर रह गए हैं।
टिहरी रियासत के भारत में विलीन होने के बाद आचार्य असवाल टिहरी-उत्तरकाशी के प्रथम जिला विद्यालय निरीक्षक बने। यदि वे टिहरी से उखड़ने का कष्ट करते तो सम्भवतः शिक्षा निदेशक बन कर सेवा-निवृत्त हुए होते। उन्होंने सन 1938 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए. (इतिहास-राजनीतिशास्त्र), बी.टी. की उपाधि हासिल की थी लेकिन वे टिहरी से उखड़े नहीं क्योंकि टिहरी उनकी अपनी थी और वे टिहरी के थे। यहाँ उनका फलों का बागीचा है, अठूर का सैण (अठूर की समतल भूमि) है और भागीरथी-भिलंगना का संगम है। इससे भी बढ़कर टिहरी की धरती की खुशबू है जो उन्हें अन्यत्र नहीं मिल सकती थी। जिला विद्यालय निरीक्षक से एक सीढ़ी नीचे उतर कर वे राजकीय प्रताप इण्टर कॉलेज के प्रधानाचार्य बने। तब से सन 1968 में सेवा-निवृत्त होने तक वे जिले की सर्वोच्च शिक्षण संस्थाओं राजकीय प्रताप इण्टर कॉलेज और राजकीय दीक्षा विद्यालय में इधर से उधर स्थानान्तरित होते रहे। सेवा मुक्त होने पर उन्होंने टिहरी में डिग्री कॉलेज की स्थापना का सफल प्रयास किया।
टिहरी में उनका समय आसानी से कट जाया करता था। भागीरथी के तट पर घूमने जाना, बागीचे का निरीक्षण करना, सुमन पुस्तकालय और स्वामी रामतीर्थ वाचनालय का दौरा करना, नरेन्द्र महिला महाविद्यालय और राजकीय स्वामी रामतीर्थ महाविद्यालय में होने वाले अनेक उत्सवों का कभी उद्घाटन और कभी समापन करना उनकी दिनचर्या के अंग थे। कभी अपने शिष्यों (जो अब वृद्ध हो गए हैं) से तो कभी अपने गुरु भाइयों कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार और महावीर प्रसाद गैरोला से गप्प-शप करने में समय कट जाता था। स्वामी रामतीर्थ की प्लेटिनम पुण्य तिथि पर गुरु-भाइयों में छिड़े विवाद से कुछ न निकला हो पर एक माह का समय तो आराम से कट गया। गैरोला और पंवार का मानना था कि स्वामी रामतीर्थ को कोटी गाँव में सेमल के पेड़ के नीचे बैठकर आत्मज्ञान मिला था जबकि आचार्य असवाल इस मत के विरोधी थे।
देहरादून में आचार्य असवाल परकटे पक्षी की तरह चुपचाप बैठे रहते हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि अपनी भाई विरादरी की बात ही कुछ और होती है। यहाँ वे अपने पड़ोसी को नहीं जानते-पहचानते। गाँव में कसी बन्धु-बांधव की मृत्यु होने पर अर्थी को कन्धा देने में असमर्थ रहने पर भी श्री असवाल बिरादरी के लोगों के साथ घाट पर पहुँच कर दाह-संस्कार में अवश्य सम्मिलित होते थे। सामूहिक भोज के अवसर पर पंगत में बैठकर भोजन करने का अवसर भी वे नहीं चूकते थे लेकिन अब तो बिरादरी बिखर गई है।
उनके पास स्वामी रामतीर्थ की कुटिया, सेठ मुरलीधर की कुटिया, स्वामी नारायण, आचार्य श्रीराम शर्मा इत्यादि लोगों से जुड़ी स्मृतियाँ हैं। महाराजा का जनता दरबार, रियासत का फांसी स्थल ‘गुदाडू की डोखरी’, राजा-रानी का विवाह उनकी आँखों में सजीव हो उठते हैं। एक मायने में वे टिहरी की स्मृतियों के सहारे जी रहे हैं।
मैं टिहरी का कुरूप चेहरा उन्हें दिखता हूँ। मैं कहता हूँ, ‘टिहरी उजाड़ हो गयी है। वहाँ अत्यधिक गर्मी और मच्छर हो गए हैं। अधिक ट्रैफिक के शोर से कान फटने लगते हैं। वहाँ तो धूल उड़ती रहती है और वहाँ लोग दिन-दहाड़े मारे जा रहे हैं।’ इस प्रकार की बातों से मैं टिहरी के प्रति उनकी अनुरक्ति कम करना चाहता हूँ। लेकिन वे कहते हैं, किसी बूढ़े बर्गद के पेड़ को उखाड़ कर भिन्न जलवायु वाले स्थान में लगाया जाए। पर्याप्त खाद पानी देने पर भी बर्गद का पेड़ दिन प्रतिदिन सूखता जाएगा। मैं भी बर्गद की भाँति हूँ। सरकार नई टिहरी नगर बसा रही है। वहाँ भव्य-भवन बनाए जा रहे हैं। मास्टर प्लान के अन्तर्गत सारा काम हो रहा है लेकिन सरकार नई टिहरी नगर में भागीरथी और भिलंगना का संगम नहीं बना सकती। इन दो नदियों के संगम का नाम ही टिहरी है।
कुछ सोचकर वे कविवर गुमानी पंत की कविता गुनगुनाने लगते हैं-
सुरगंग तटी, रसखान मही
धनकोष भरी, यह नाम रह्यो।
पद तीन बनाए रचों बहु बिस्तर,
वेग नहीं अब जात कह्यो।
इन तीन पदों के बसान बस्यो,
अक्षर एक ही एक लह्यो।
जनराज सुदर्शनशाह पुरी,
टिहरी इस कारण नाम रह्यो।
लोग मिलकर लोकतन्त्र का निर्माण करते हैं। उन्हें उनकी इच्छा के विपरीत घरों से क्यों खदेड़ा जा रहा है? अपनी धरती पर जमे हुए लोग अपने अधिकारों को पाने के लिये मुस्तैदी से संघर्ष कर सकते हैं और धरती से उखड़े हुए लोग याचक बन जाते हैं। जिससे लोकतंत्र कमजोर होता है। लोगों को उनकी धरती से उखाड़ना लोकतन्त्र के लिये भयानक दुर्घटना है।
एक थी टिहरी (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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(27 मार्च 1985 ‘युगवाणी’ साप्ताहिक में प्रकाशित)
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