टी.एच.डी.सी. ने सरकार को बांध से 5 किलोमीटर के हिस्से पर कोई भी गतिविधि चलाने पर पाबंदी लगाई है। अभी लंबी लड़ाई के बाद भी सुरक्षा कारणों से बांध से उस पार जाने के लिए के रास्ता के इजाज़त स्थानीय लोगों को नहीं है। जबकि जो रास्ता दिया गया है उसकी हालत बहुत ही खराब है। सरकारी या अन्य ‘बड़े‘ लोगों को बांध पर रास्ता दिया जाता है। यह असमंजस की स्थिति है कि टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है? वास्तव में तो बांध विस्थापितों का ही झील पर पहला व अंतिम अधिकार बनता है। टिहरी बांध के कारण भागीरथी-भिलंगना के निवासियों के पास से बहती नदी और उसके लाभ चले गए। आज स्थानीय लोग पीने के पानी के लिए तरस रहे हैं आशंका है कि वैसे ही अब झील भी पर्यटन के नाम पर ना छिन जाए।
टिहरी बांध की झील भरने के बाद सर्वे आफ इंडिया ने डूब की पूर्वलाईन गलत होने के कारण जिन्हें विस्थापित माना उनका पुनर्वास भी अभी तक नहीं हो पाया है। झील के किनारे के लगभग 80 गाँवों में भूस्खलन के कारण नया विस्थापन शुरू हुआ है। सबसे ज्यादा खराब स्थिति तो झील के पार की है, जिसे कट आॅफ एरिया कहा जा रहा है। झील में पर्यटन की संभावनाओं व योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं दूसरी तरफ झील के किनारे के गाँवों में आ रही दरारों, भूस्खलन, धसान आदि का पूरा आकलन करने में बांध कंपनी व सरकारों की कोई इच्छा नहीं है।
टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है? यह विवाद का विषय नहीं वरन् समझ का विषय है। भागीरथी घाटी के विकास व संरक्षण के लिए टिहरी बांध परियोजना की पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 में शर्त संख्या 3.7 में केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय को 31.3.1991 तक ‘भागीरथी घाटी प्रबंधन प्राधिकरण’ बनाने के निर्देश दिए गए थे। जिसे वास्तव में लगभग 22 साल बाद 2003 में फिर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया तब 2005 में इसे वास्तविक रूप में बनाया गया। इस प्राधिकरण ने भी टिहरी झील में पर्यटन के लिए 15 सितंबर 2006 को नई टिहरी में बैठक का आयोजन किया था। जिसमें एक विस्तृत योजना बनी थी। जिसमें तत्कालीन व पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों ने खास रुचि ली थी। राज्य सरकार ने एक ‘झील प्राघिकरण’ भी बनाया है। जिसकी अब तक बैठक तक नहीं हो पाई है।
टिहरी जिला पंचायत ने 13 अक्तूबर 2011 को टिहरी व कोटेश्वर बांध झीलों के महापर्यटन के लिए लाइसेंस प्रक्रिया पर आमंत्रित सुझावों पर बैठक करके झील पर अपना अधिकार जमाने की कोशिश की। इसके लिए अखबार में जो नोटिस दिया गया था उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वहां बड़े पूंजीगत पर्यटन को ध्यान में रखकर ही काम हो रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री के सुपुत्र श्री साकेत बहुगुणा बड़ी-बड़ी बाहरी कंपनियां को बुलाने के पक्ष में निर्देश दे रहे थे। अब स्थिति बदली है नए मुख्यमंत्री जी क्या करेंगे? 300 के करीब आवेदन जिले में दिए गए हैं। जिसमें बाहर के लोग भी हैं। अपुष्ट जानकारी के आधार पर दोनो बांधों के निर्माण में लगे ठेकेदारों ने पहले की झील किनारे की काफी ज़मीन पर कब्जा कर रखा है। विस्थापितों की मांग के बावजूद उन्हें झील किनारे की जमीन का टुकड़ा नहीं मिला।
टी.एच.डी.सी. ने सरकार को बांध से 5 किलोमीटर के हिस्से पर कोई भी गतिविधि चलाने पर पाबंदी लगाई है। अभी लंबी लड़ाई के बाद भी सुरक्षा कारणों से बांध से उस पार जाने के लिए के रास्ता के इजाज़त स्थानीय लोगों को नहीं है। जबकि जो रास्ता दिया गया है उसकी हालत बहुत ही खराब है। सरकारी या अन्य ‘बड़े‘ लोगों को बांध पर रास्ता दिया जाता है। यह असमंजस की स्थिति है कि टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है? वास्तव में तो बांध विस्थापितों का ही झील पर पहला व अंतिम अधिकार बनता है। मात्र कुछ रुपए देकर यह अधिकार नहीं छीना ला सकता है।
सही तो यह है कि टिहरी बांध और कोटेश्वर बांध की झीलों संबंधी सभी रोजगारों पर जैसे मछली पकड़ना, नौकायन, मोटरबोट संचालन, रोपवे संचालन, राफ्टिंग, जलाशय में जलक्रीड़ा संबंधी सभी कामों में टिहरी बांध विस्थापितों को हक मिले। प्रभावित गाँवों के लोगोंं में खासकर धनार लोग, पुश्तैनी नाविक और मछली का काम करते रहे हैं। उनकी बेरोजगारी दूर करने के लिए उन्हें मछली व बोट का काम दिया जा सकता है।
कुछ युवकों ने हिमाचल में जलक्रीड़ा संबंधी प्रशिक्षण भी लिया है वे जलक्रीड़ा के सभी उद्यमों में सफल हैं और अन्यों को प्रशिक्षण देने की क्षमता भी रखते हैं। उन्हें चूंकि स्थानीय परिस्थितियों के बारे में सब पता है इसलिए वे इन सब कामों के उपयुक्त व नीति सम्मत भी रहेंगे। लोगों को पर्यटन आदि में भी यदि रोज़गार के अवसर दिए जाए तो यह उनके सामाजिक व आर्थिक स्तर को ना केवल ऊंचा उठाएगा साथ ही पर्यटकों को भी स्थानीय समझ के साथ उच्चस्तरीय सुविधा मिलेगी।
बांध प्रभावितों/स्थानीयों को नौकायन, जलक्रीड़ा, राफ्टिंग, मत्स्य पालन में मात्र सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं वरन् अधिकार मिलना चाहिए। बांध प्रभावितों/स्थानीयों को झील संबंधी किसी भी तरह के व्यवसाय की लाईसेंस फीस न्यूनतम होनी चाहिए। 75 प्रतिशत स्थानीय श्रमिक रखने की शर्त ही नहीं वरन् सभी कामों में 75 प्रतिशत आरक्षण स्थानीय लोगों को हो। यहां स्थानीय से तात्पर्य झील के किनारे के गांववासी व विस्थापित से है, चाहे वो कहीं भी बसा हो। इससे सही मायने में पलायन रुकेगा और जो मुश्किलें विस्थापितों ने झेली है और अभी भी झेल रहे हैं, इससे उनका कुछ सहयोग हो पाएगा और जीवनस्तर भी कुछ उठ पाएगा। जिला पंचायत को ‘होम स्टे’ जैसी पद्धति, जिसमें पर्यटक घरों में रुकते हैं, को लाना चाहिए। एक सहकारी समिति के तहत यह व्यवस्था पूरे गांव में हो सकती है।
इस तरह की सहकारी समिति को लाइसेंस देकर जिला पंचायत स्थाई पर्यटन को बढ़ावा देने के साथ स्थानीय विकास में भारी योगदान दे सकता है। देश में यह सफल रूप में कई स्थानों पर चलाई जा रही है। कुंमाऊ में, पिथौरागढ़ के मुन्सयारी गांव में ‘होम स्टे’ पद्धति, का लाभ ग्रामीण वर्षाें से उठा रहे हैं। पर्यटकों को भी उचित दर पर आवास और भोजन मिल जाता है। वे स्थानीय संस्कृति को भी समझ पाते हैं।
बड़ी पर्यटन परियोजना में महंगे लाइसेंस प्रभावशाली लोगोंं, व्यापारियों, बड़े ठेकेदारों या राजनैतिक हितों के पक्ष होंगे। वास्तव में ये छोटे स्तर के उद्यमियों के पक्ष में होनी चाहिए। जिससे स्थानीय लोगों का जिनमें खासकर महिलाएं हैं, जीवन स्तर सुधरेगा। इसके लिए आवश्यक है कि पर्यटन की छोटी परियोजनाएं हों जिन्हें स्थानीय लोग/ विस्थापित स्वयं या सहकारी समिति के माध्यम से चला सकें।
जहां ग्रामीणों को मत्स्य व्यवसाय, नौकायन, मोटरबोट संचालन, रोपवे संचालन, राफ्टिंग, जलाशय में जलक्रीड़ा संबंधी कामों की जानकारी ना हो वहां जिला पंचायत को स्थानीय स्तर पर उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। प्रशिक्षण के लिए टीएचडीसी से सहयोग की मांग करनी चाहिए। टीएचडीसी ‘‘व्यवसायिक सामाजिक दायित्व’’ के अंतर्गत स्वंय इसे कर सकती है। आखिर एकमुश्त आधा-अधूरा पुनर्वास देकर, टीएचडीसी प्रतिदिन करोड़ों रुपए कमा रही है। जिसमें से राज्य सरकार भी 12 प्रतिशत हिस्सा लेती है। इसलिए प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था दोनों का ही दायित्व है।
महापर्यटन में रोजगार का नया भ्रम दिखाकर लोगों को छलने से बेहतर होगा की झीलों में पर्यटन पर एक खुली बैठक बुलाई जाए। किसी भी तरह से पर्यटन, पर्यावरण व स्थानीय संस्कृति की रक्षा व उसके साथ सामंजस्य के साथ होना चाहिए। नए मुख्यमंत्री जी को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए।
टिहरी बांध की झील भरने के बाद सर्वे आफ इंडिया ने डूब की पूर्वलाईन गलत होने के कारण जिन्हें विस्थापित माना उनका पुनर्वास भी अभी तक नहीं हो पाया है। झील के किनारे के लगभग 80 गाँवों में भूस्खलन के कारण नया विस्थापन शुरू हुआ है। सबसे ज्यादा खराब स्थिति तो झील के पार की है, जिसे कट आॅफ एरिया कहा जा रहा है। झील में पर्यटन की संभावनाओं व योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं दूसरी तरफ झील के किनारे के गाँवों में आ रही दरारों, भूस्खलन, धसान आदि का पूरा आकलन करने में बांध कंपनी व सरकारों की कोई इच्छा नहीं है।
टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है? यह विवाद का विषय नहीं वरन् समझ का विषय है। भागीरथी घाटी के विकास व संरक्षण के लिए टिहरी बांध परियोजना की पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 में शर्त संख्या 3.7 में केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय को 31.3.1991 तक ‘भागीरथी घाटी प्रबंधन प्राधिकरण’ बनाने के निर्देश दिए गए थे। जिसे वास्तव में लगभग 22 साल बाद 2003 में फिर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया तब 2005 में इसे वास्तविक रूप में बनाया गया। इस प्राधिकरण ने भी टिहरी झील में पर्यटन के लिए 15 सितंबर 2006 को नई टिहरी में बैठक का आयोजन किया था। जिसमें एक विस्तृत योजना बनी थी। जिसमें तत्कालीन व पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों ने खास रुचि ली थी। राज्य सरकार ने एक ‘झील प्राघिकरण’ भी बनाया है। जिसकी अब तक बैठक तक नहीं हो पाई है।
टिहरी जिला पंचायत ने 13 अक्तूबर 2011 को टिहरी व कोटेश्वर बांध झीलों के महापर्यटन के लिए लाइसेंस प्रक्रिया पर आमंत्रित सुझावों पर बैठक करके झील पर अपना अधिकार जमाने की कोशिश की। इसके लिए अखबार में जो नोटिस दिया गया था उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वहां बड़े पूंजीगत पर्यटन को ध्यान में रखकर ही काम हो रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री के सुपुत्र श्री साकेत बहुगुणा बड़ी-बड़ी बाहरी कंपनियां को बुलाने के पक्ष में निर्देश दे रहे थे। अब स्थिति बदली है नए मुख्यमंत्री जी क्या करेंगे? 300 के करीब आवेदन जिले में दिए गए हैं। जिसमें बाहर के लोग भी हैं। अपुष्ट जानकारी के आधार पर दोनो बांधों के निर्माण में लगे ठेकेदारों ने पहले की झील किनारे की काफी ज़मीन पर कब्जा कर रखा है। विस्थापितों की मांग के बावजूद उन्हें झील किनारे की जमीन का टुकड़ा नहीं मिला।
टी.एच.डी.सी. ने सरकार को बांध से 5 किलोमीटर के हिस्से पर कोई भी गतिविधि चलाने पर पाबंदी लगाई है। अभी लंबी लड़ाई के बाद भी सुरक्षा कारणों से बांध से उस पार जाने के लिए के रास्ता के इजाज़त स्थानीय लोगों को नहीं है। जबकि जो रास्ता दिया गया है उसकी हालत बहुत ही खराब है। सरकारी या अन्य ‘बड़े‘ लोगों को बांध पर रास्ता दिया जाता है। यह असमंजस की स्थिति है कि टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है? वास्तव में तो बांध विस्थापितों का ही झील पर पहला व अंतिम अधिकार बनता है। मात्र कुछ रुपए देकर यह अधिकार नहीं छीना ला सकता है।
सही तो यह है कि टिहरी बांध और कोटेश्वर बांध की झीलों संबंधी सभी रोजगारों पर जैसे मछली पकड़ना, नौकायन, मोटरबोट संचालन, रोपवे संचालन, राफ्टिंग, जलाशय में जलक्रीड़ा संबंधी सभी कामों में टिहरी बांध विस्थापितों को हक मिले। प्रभावित गाँवों के लोगोंं में खासकर धनार लोग, पुश्तैनी नाविक और मछली का काम करते रहे हैं। उनकी बेरोजगारी दूर करने के लिए उन्हें मछली व बोट का काम दिया जा सकता है।
कुछ युवकों ने हिमाचल में जलक्रीड़ा संबंधी प्रशिक्षण भी लिया है वे जलक्रीड़ा के सभी उद्यमों में सफल हैं और अन्यों को प्रशिक्षण देने की क्षमता भी रखते हैं। उन्हें चूंकि स्थानीय परिस्थितियों के बारे में सब पता है इसलिए वे इन सब कामों के उपयुक्त व नीति सम्मत भी रहेंगे। लोगों को पर्यटन आदि में भी यदि रोज़गार के अवसर दिए जाए तो यह उनके सामाजिक व आर्थिक स्तर को ना केवल ऊंचा उठाएगा साथ ही पर्यटकों को भी स्थानीय समझ के साथ उच्चस्तरीय सुविधा मिलेगी।
बांध प्रभावितों/स्थानीयों को नौकायन, जलक्रीड़ा, राफ्टिंग, मत्स्य पालन में मात्र सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं वरन् अधिकार मिलना चाहिए। बांध प्रभावितों/स्थानीयों को झील संबंधी किसी भी तरह के व्यवसाय की लाईसेंस फीस न्यूनतम होनी चाहिए। 75 प्रतिशत स्थानीय श्रमिक रखने की शर्त ही नहीं वरन् सभी कामों में 75 प्रतिशत आरक्षण स्थानीय लोगों को हो। यहां स्थानीय से तात्पर्य झील के किनारे के गांववासी व विस्थापित से है, चाहे वो कहीं भी बसा हो। इससे सही मायने में पलायन रुकेगा और जो मुश्किलें विस्थापितों ने झेली है और अभी भी झेल रहे हैं, इससे उनका कुछ सहयोग हो पाएगा और जीवनस्तर भी कुछ उठ पाएगा। जिला पंचायत को ‘होम स्टे’ जैसी पद्धति, जिसमें पर्यटक घरों में रुकते हैं, को लाना चाहिए। एक सहकारी समिति के तहत यह व्यवस्था पूरे गांव में हो सकती है।
इस तरह की सहकारी समिति को लाइसेंस देकर जिला पंचायत स्थाई पर्यटन को बढ़ावा देने के साथ स्थानीय विकास में भारी योगदान दे सकता है। देश में यह सफल रूप में कई स्थानों पर चलाई जा रही है। कुंमाऊ में, पिथौरागढ़ के मुन्सयारी गांव में ‘होम स्टे’ पद्धति, का लाभ ग्रामीण वर्षाें से उठा रहे हैं। पर्यटकों को भी उचित दर पर आवास और भोजन मिल जाता है। वे स्थानीय संस्कृति को भी समझ पाते हैं।
बड़ी पर्यटन परियोजना में महंगे लाइसेंस प्रभावशाली लोगोंं, व्यापारियों, बड़े ठेकेदारों या राजनैतिक हितों के पक्ष होंगे। वास्तव में ये छोटे स्तर के उद्यमियों के पक्ष में होनी चाहिए। जिससे स्थानीय लोगों का जिनमें खासकर महिलाएं हैं, जीवन स्तर सुधरेगा। इसके लिए आवश्यक है कि पर्यटन की छोटी परियोजनाएं हों जिन्हें स्थानीय लोग/ विस्थापित स्वयं या सहकारी समिति के माध्यम से चला सकें।
जहां ग्रामीणों को मत्स्य व्यवसाय, नौकायन, मोटरबोट संचालन, रोपवे संचालन, राफ्टिंग, जलाशय में जलक्रीड़ा संबंधी कामों की जानकारी ना हो वहां जिला पंचायत को स्थानीय स्तर पर उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। प्रशिक्षण के लिए टीएचडीसी से सहयोग की मांग करनी चाहिए। टीएचडीसी ‘‘व्यवसायिक सामाजिक दायित्व’’ के अंतर्गत स्वंय इसे कर सकती है। आखिर एकमुश्त आधा-अधूरा पुनर्वास देकर, टीएचडीसी प्रतिदिन करोड़ों रुपए कमा रही है। जिसमें से राज्य सरकार भी 12 प्रतिशत हिस्सा लेती है। इसलिए प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था दोनों का ही दायित्व है।
महापर्यटन में रोजगार का नया भ्रम दिखाकर लोगों को छलने से बेहतर होगा की झीलों में पर्यटन पर एक खुली बैठक बुलाई जाए। किसी भी तरह से पर्यटन, पर्यावरण व स्थानीय संस्कृति की रक्षा व उसके साथ सामंजस्य के साथ होना चाहिए। नए मुख्यमंत्री जी को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए।
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