नेपाल में आए विनाशकारी भूकम्प ने एक बार फिर वैज्ञानिक जगत के सामने कड़ी मुश्किल पेश कर दी है। साथ ही, राष्ट्रों के आपदा प्रबन्धन, भवन नीति और कुदरत के साथ छेड़-छाड़ के बारे में दोबारा सोचने की जरूरत जताई जा रही है। भूकम्प की भविष्यवाणी की सम्भावना को लेकर भी चर्चाएँ तेज हुई हैं। भूकम्प के बारे में जायजा ले रहे हैं यादवेंद्र।
पच्चीस अप्रैल को आए भूकम्प से नेपाल और भारत में काफी तबाही हो चुकी है। करीब नौ हजार लोग काल के गाल में समा गए हैं और इससे अधिक घायल हैं। करोड़ों की सम्पत्ति बर्बाद हो चुकी है। नेपाल के प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला ने मृतकों की संख्या दस हजार तक होने की आशंका जताई है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि नेपाल के भूकम्प में अस्सी लाख लोग प्रभावित हुए हैं। चौदह लाख लोगों को भोजन की जरूरत है। पेयजल और आश्रय स्थलों की कमी है।
जैसा आम तौर पर दुनिया भर में होता है, नेपाल का भूकम्प सिर्फ अपनी भौगोलिक सीमा में नहीं रहा, बल्कि भारत के साथ चीन में भी व्यापक तबाही मचा गया। चीन के बारे में बहुत कम समाचार मिल रहे हैं, पर जानकारों का मानना है कि बड़ी रेल और विद्युत परियोजनाओं की वजह से चीन ने अपने इलाके के वास्तविक विनाश को सार्वजिनक रूप में सामने नहीं आने दिया। भारत के बिहार राज्य में सौ से ज्यादा लोगों की अकाल मृत्यु की खबर है, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाकों से भी जान-माल के बड़े नुकसान की खबरें आई हैं।
इस त्रासदी ने एक बार मानव जाति के सामने इस सवाल को विमर्श के केन्द्र में ला दिया है कि भूकम्प जैसी धरती के मीलों नीचे जन्म लेने वाली प्राकृतिक घटना के बारे में हम कितना जानते हैं। नेपाल में भूकम्प आने से हफ्ता भर पहले दुनिया के अनेक भूकम्प विज्ञानी काठमांडू में इकट्ठा हुए थे और उन्होंने आसन्न भूकम्प से बड़ी तबाही की चेतावनी भी दी थी। विनोद गौड़ और सीपी राजेंद्रन जैसे भारतीय भूकम्प विशेषज्ञ पिछले कुछ वर्षों से लगातार भारतीय हिमालय में रिक्टर स्केल पर आठ या उससे ज्यादा तीव्रता के भूकम्प की चेतावनी देते आ रहे हैं। उनके अध्ययन का आधार यह है कि पिछला बड़ा भूकम्प आने के बाद से दो प्लेटों के खिसकते रहने के कारण हिमालय के नीचे की धरती के अन्दर इतनी ऊर्जा एकत्र हो चुकी है कि उसका बाहर निकलना जल्द ही स्वाभाविक है। पूर्व चेतावनी के लिए वैज्ञानिक परिभाषा में दो अहम विवरण को अनिवार्य माना जाता है- स्थान और काल। इन दोनों विवरणों का पैमाना इतना बड़ा है कि इनसे न तो भारत के किसी स्थल को रेखांकित किया जा सकता है और न ही किसी तारीख, माह या वर्ष को। हिमालय की बात करते हुए यह बताना भी सम्भव नहीं है कि कोई बड़ा भूकम्प आए तो उसका केन्द्र गढ़वाल में होगा या कुमाऊँ, हिमाचल, लद्दाख या तिब्बत में।
अगर वैज्ञानिक ज्ञान व्यक्ति निरपेक्ष है तो दिल्ली के जोखिम वाले इलाकों को लेकर जानकारों के बीच इतने मतभेद क्यों हैं? कुछ दिनों पहले जापान के एक प्रतिष्ठित भूकम्प विज्ञानी प्रोफेसर तोरू मात्सुजावा ने एक बैठक में यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि जापान को दुनिया के सबसे बड़े यानी रिक्टर स्केल पर दस तीव्रता के भूकम्प के लिए तैयार रहना चाहिए। मानव इतिहास में मापे गए सबसे बड़े भूकम्प का नाम दक्षिण अमेरिकी देश चिली के साथ जुड़ा हुआ है, जहाँ 1960 में रिक्टर स्केल पर 9.5 तीव्रता का भूकम्प वलदिविया इलाके में आया था।
भूकम्पों के पूर्वानुमान से जुड़े एक अजीबोगरीब मामले में मार्च-अप्रैल 2012 में दुनिया के आधुनिक इतिहास में पहली बार छह सम्मानित भूकम्पवेत्ताओं को तीन साल तक चली कानूनी कार्रवाई के बाद छह साल की कैद और कड़े जुर्माने की सजा सुनाई गई। संयोग है कि गैलीलियो जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिक को सजा सुनाने वाला देश इटली ने इस कहानी को फिर से दुहराया। लेकिन, जबरदस्त अन्तरराष्ट्रीय आलोचना के बाद नवम्बर 2014 में अदालत ने वैज्ञानिकों को दोषमुक्त कर दिया। इसी के साथ यह सवाल बरकरार है कि अगर वैज्ञानिकों को भय की वजह से भविष्यवाणी करने से रोका जाएगा तो वे प्रयोग कैसे करेंगे। लेकिन, साथ में यह सवाल भी उतना ही प्रखर है कि हर किसी को इस विषय पर बोलने की इजाजत भी नहीं मिलनी चाहिए। भारत में देखा जाता है कि अकसर कोई ज्योतिषी, अल्पज्ञ या साधु बाबा बड़ी-बड़ी भयावह भविष्यवाणियाँ बिना किसी आधार के किया करते हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया बर्कले के छात्र क्विंगकाई कोंग आजकल एक ऐसा सेल फोन विकसित करने में जी जान से लगे हैं, जिसमें कम्पनमापी सेंसर लगे हों और भूकम्प आने पर अन्य महँगे यन्त्रों के साथ-साथ लोगों की जेबों में रहने वाले हजारों-लाखों सेल फोनों पर भी इसका डाटा एकत्र किया जा सके। उनका कहना है कि अब तक जो भूकम्पमापी यन्त्र प्रचलन में हैं वे रिक्टर स्केल पर पाँच की तीव्रता के भूकम्प सफलतापूर्वक रिकॉर्ड कर सकते हैं, पर कोंग की कोशिश और अधिक संवेदनशील यन्त्र बनाने की है। उनको असली मुश्किल इस बात में आ रही है कि आदमी की अपनी दैनिक जीवन की गति से पैदा होने वाले कम्पन को असली भूगर्भीय कम्पन से अलग कैसे किया जाए। वे अपनी टीम के साथ एक ऐसी तरकीब को विकसित कर रहे हैं, जिनसे मानवीय गति को छानना (फिल्टर किया जाना) सम्भव हो। अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन की अहम बैठक में प्रस्तुत कोंग की कोशिशें कितनी सफल हो पाएँगी यह आने वाला समय ही बताएगा।
भारत में भूकम्प आने की घटनाएँ नई नहीं हैं। साथ ही अनाप-शनाप भविष्यवाणियों की वजह से आए दिन होने वाली अफरा-तफरी भी नई नहीं। 1998 के आखिरी दिनों का कोई भी अखबार या पत्रिका उठा कर देखने पर मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले के पंधाना जैसे लगभग अपरिचित कस्बे का नाम देखने को मिल जाएगा। 11 सितम्बर से लेकर 27 नवम्बर 1998 के बीच के 78 दिनों में भूकम्प के कुल 1153 छोटे झटके दर्ज किए गए थे, जिनकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर तीन तक मापी गई थी। कई महीने चली इस कुदरती गतिविधि से स्थानीय जनता इस कदर डर गई थी कि प्रशासन के लिए वैकल्पिक इन्तजाम करना तो मुश्किल था ही, इलाके का सामाजिक आर्थिक ढाँचा सम्भाले रखना और लोगों को तत्काल मदद का भरोसा दिलाते रहना भी असामान्य धैर्य और कौशल की माँग करता था। मौत और सम्पत्ति के नुकसान की आशंका से डरे हुए लोगों ने सामूहिक तौर पर बीमा कराए, घर-बार छोड़ कर खुले आकाश के नीचे सोना शुरू कर दिया, दुकानदारों ने गरीबों को उधार सौदा देना बन्द कर दिया, विनाश की आशंका से कोई भी कल-कारखाना लगाने को तैयार नहीं हुआ। लोग-बाग दूसरे इलाकों में पलायन करने लगे। हफ्तों तक अफसरों और पुलिस-कर्मियों की अतिरिक्त फौज भी वहाँ तैनात रही।
इन सब विवरणों के अलावा जो चौंकाने वाली बात वैज्ञानिक जगत में देखी गई वह थी भूकम्प के अध्ययन को समर्पित देश के प्रतिष्ठित शोध संस्थान के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक का बार-बार यह सार्वजनिक बयान देना कि पंधाना की छोटे झटकों की यह शृंखला सम्भावित किसी बड़े भूकम्प की पूर्व चेतावनी है। उन्होंने इस क्षेत्र में आए पिछले भूकम्पों का हवाला देकर बताया कि उस क्षेत्र की ‘सेस्मिक साइकिल’ पैंसठ वर्षों की है और उसके अनुसार 2003 में बड़ा भूकम्प आने की बारी है। उन्होंने इन छोटे झटकों को इसी कड़ी की घटना माना।
पर दुनिया भर में छोटे भूकम्पों की शृंखला (अर्थक्वेक स्वार्म) के अध्ययन बताते हैं कि इन्हें निश्चित तौर पर किसी बड़े भूकम्प का पूर्व संकेत नहीं माना जा सकता। दुनिया के अनेक हिस्सों में ऐसे स्वार्म आते रहते हैं, पर बड़े भूकम्प नहीं आते। अमेरिका के कैलिफोर्निया में पिछले काफी दिनों से ऐसी घटनाएँ जारी हैं। भारत में गुजरात का जामनगर, जूनागढ़, राजकोट और भावनगर इलाका पिछले दशक में इस तरह की भूगर्भीय घटना का साक्षी रहा है। महाराष्ट्र का लातूर, कोयना, नासिक और नांदेड़ भी ‘अर्थक्वेक स्वार्म’ सक्रिय क्षेत्र हैं। हरियाणा के जींद शहर के निवासियों की नींद भी इन्हीं कारणों से 2003 में उड़ी हुई थी। राजस्थान के सीकर से भी ऐसी खबरें आई हैं। पर ऐसे स्वार्म सिर्फ बड़े भूकम्पों से पहले आते हों ऐसा नहीं है बल्कि 2004 के सुनामी पैदा करने वाले शक्तिशाली सुमात्रा भूकम्प के महीने भर बाद अंडमान के समुद्र में छह दिनों तक चली ऐसी ही गतिविधि का देश के अनेक शीर्ष वैज्ञानिकों ने गहन अध्ययन किया है।
मानव ज्ञान की अपनी सीमा होने के बावजूद ऐसे उपायों और तकनीक की खोज निरन्तर जारी है जिनसे भूकम्प आने के पहले जा सके। अमेरिका, जापान और मैक्सिको जैसे गिने-चुने कुछ देशों में पूर्व चेतावनी का तन्त्र सफलतापूर्वक काम कर रहा है। इस प्रणाली में यन्त्रों की शृंखला भूकम्प के केन्द्र में उत्पन्न ‘पी’ तरंगों (तेज गति से यात्रा करने वाली, पर विनाशरहित) को पहचान कर विनाशकारी ‘एस’ तरंगों के गंतव्य तक पहुँचने का सम्भावित समय (टाइम गैप) बता देती हैं, जिससे लोगों को चेतावनी देकर घरों से बाहर निकाल लिया जाता है। पिछले कुछ दशकों में लाखों लोगों की जान इससे बचाई जा सकी है। भारत में किए गए एक अध्ययन के अनुसार हिमालय में आने वाले किसी बड़े भूकम्प की विनाशकारी तरंगे दिल्ली पहुँचने में एक मिनट का समय लेंगी। पर अभी इस प्रणाली के व्यावहारिक स्वरूप पर काम किया जाना बाकी है।
भारत में अकसर कोई अल्पज्ञ भी प्राकृतिक और राजनीतिक आपदाओं की भविष्यवाणी करता हुआ दिख जाता है। कई बार अपने विशिष्ट वैज्ञानिक ज्ञान के लिए सम्मानित लोग भी ऐसी बातें सार्वजनिक तौर पर कह देते हैं जो सत्य साबित नहीं होती। और तो और, साल के शुरू में ज्योतिषी लोग आगामी साल भर का लेखा-जोखा तो बाकायदा अखबारों, पत्रिकाओं और किताबों में प्रकाशित कराते हैं। नेपाल के भूकम्प के बाद एक बार फिर से ज्योतिषियों ने एक के बाद एक प्राकृतिक आपदा आने के बारे में बयान देने शुरू कर दिए हैं। आज तक कभी किसी ने पलट कर यह नहीं पूछा कि उनकी भविष्यवाणी सही नहीं हुई तो लोगों को खामखाह भयभीत करने के आरोप में उन पर कोई कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की जाती?
वैज्ञानिक विषयों पर बोलने का अधिकार सिर्फ विशेषज्ञों को मिलना चाहिए, पर इसका ध्यान रहे कि इस बारे में परस्पर विरोधी बयान देकर कोई संशय नहीं पैदा किया जाना चाहिए। भूकम्प के साथ जुड़ी दूसरी बड़ी चीज है बचाव और राहत। नेपाल के भूकम्प में भारत सहित दुनिया भर के तमाम देशों ने जिस तरह से मदद में हाथ बटाया है, उसकी तारीफ की जानी चाहिए। आपदा नहीं टाली जा सकती, लेकिन मानवीय आधार पर घटना के बाद मदद करना जरूरी है। लेकिन, नेपाल में भूकम्प के बाद हुई बारिश ने वहाँ बचाव कार्य में भी बाधा पहुँचा दी है।
जाहिर है, यह ऐसी समस्या है कि दुनिया भर के देशों को मिल कर इसका मुकाबला करना होगा। वैज्ञानिकों का एक समूह इस दिशा में फिर से सक्रिय हो गया है। कोशिश यही है कि विनाश के पहले कोई भविष्यवाणी की जा सके, लेकिन यह सब अभी दूर की कौड़ी ही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वे जरूर इस समस्या पर एक दिन काबू पा लेंगे...लेकिन पता नहीं कब तक!
तबाही किसी का इन्तजार नहीं करती, वह दे जाती है कभी न मिटने वाला जख्म, सदियों तक जमा रहने वाला दुख और पीढ़ियों को सुनाई जाने वाली कहानियाँ...।
ईमेल - yapandey@gmail.com
पच्चीस अप्रैल को आए भूकम्प से नेपाल और भारत में काफी तबाही हो चुकी है। करीब नौ हजार लोग काल के गाल में समा गए हैं और इससे अधिक घायल हैं। करोड़ों की सम्पत्ति बर्बाद हो चुकी है। नेपाल के प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला ने मृतकों की संख्या दस हजार तक होने की आशंका जताई है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि नेपाल के भूकम्प में अस्सी लाख लोग प्रभावित हुए हैं। चौदह लाख लोगों को भोजन की जरूरत है। पेयजल और आश्रय स्थलों की कमी है।
जैसा आम तौर पर दुनिया भर में होता है, नेपाल का भूकम्प सिर्फ अपनी भौगोलिक सीमा में नहीं रहा, बल्कि भारत के साथ चीन में भी व्यापक तबाही मचा गया। चीन के बारे में बहुत कम समाचार मिल रहे हैं, पर जानकारों का मानना है कि बड़ी रेल और विद्युत परियोजनाओं की वजह से चीन ने अपने इलाके के वास्तविक विनाश को सार्वजिनक रूप में सामने नहीं आने दिया। भारत के बिहार राज्य में सौ से ज्यादा लोगों की अकाल मृत्यु की खबर है, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाकों से भी जान-माल के बड़े नुकसान की खबरें आई हैं।
इस त्रासदी ने एक बार मानव जाति के सामने इस सवाल को विमर्श के केन्द्र में ला दिया है कि भूकम्प जैसी धरती के मीलों नीचे जन्म लेने वाली प्राकृतिक घटना के बारे में हम कितना जानते हैं। नेपाल में भूकम्प आने से हफ्ता भर पहले दुनिया के अनेक भूकम्प विज्ञानी काठमांडू में इकट्ठा हुए थे और उन्होंने आसन्न भूकम्प से बड़ी तबाही की चेतावनी भी दी थी। विनोद गौड़ और सीपी राजेंद्रन जैसे भारतीय भूकम्प विशेषज्ञ पिछले कुछ वर्षों से लगातार भारतीय हिमालय में रिक्टर स्केल पर आठ या उससे ज्यादा तीव्रता के भूकम्प की चेतावनी देते आ रहे हैं। उनके अध्ययन का आधार यह है कि पिछला बड़ा भूकम्प आने के बाद से दो प्लेटों के खिसकते रहने के कारण हिमालय के नीचे की धरती के अन्दर इतनी ऊर्जा एकत्र हो चुकी है कि उसका बाहर निकलना जल्द ही स्वाभाविक है। पूर्व चेतावनी के लिए वैज्ञानिक परिभाषा में दो अहम विवरण को अनिवार्य माना जाता है- स्थान और काल। इन दोनों विवरणों का पैमाना इतना बड़ा है कि इनसे न तो भारत के किसी स्थल को रेखांकित किया जा सकता है और न ही किसी तारीख, माह या वर्ष को। हिमालय की बात करते हुए यह बताना भी सम्भव नहीं है कि कोई बड़ा भूकम्प आए तो उसका केन्द्र गढ़वाल में होगा या कुमाऊँ, हिमाचल, लद्दाख या तिब्बत में।
अगर वैज्ञानिक ज्ञान व्यक्ति निरपेक्ष है तो दिल्ली के जोखिम वाले इलाकों को लेकर जानकारों के बीच इतने मतभेद क्यों हैं? कुछ दिनों पहले जापान के एक प्रतिष्ठित भूकम्प विज्ञानी प्रोफेसर तोरू मात्सुजावा ने एक बैठक में यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि जापान को दुनिया के सबसे बड़े यानी रिक्टर स्केल पर दस तीव्रता के भूकम्प के लिए तैयार रहना चाहिए। मानव इतिहास में मापे गए सबसे बड़े भूकम्प का नाम दक्षिण अमेरिकी देश चिली के साथ जुड़ा हुआ है, जहाँ 1960 में रिक्टर स्केल पर 9.5 तीव्रता का भूकम्प वलदिविया इलाके में आया था।
भूकम्पों के पूर्वानुमान से जुड़े एक अजीबोगरीब मामले में मार्च-अप्रैल 2012 में दुनिया के आधुनिक इतिहास में पहली बार छह सम्मानित भूकम्पवेत्ताओं को तीन साल तक चली कानूनी कार्रवाई के बाद छह साल की कैद और कड़े जुर्माने की सजा सुनाई गई। संयोग है कि गैलीलियो जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिक को सजा सुनाने वाला देश इटली ने इस कहानी को फिर से दुहराया। लेकिन, जबरदस्त अन्तरराष्ट्रीय आलोचना के बाद नवम्बर 2014 में अदालत ने वैज्ञानिकों को दोषमुक्त कर दिया। इसी के साथ यह सवाल बरकरार है कि अगर वैज्ञानिकों को भय की वजह से भविष्यवाणी करने से रोका जाएगा तो वे प्रयोग कैसे करेंगे। लेकिन, साथ में यह सवाल भी उतना ही प्रखर है कि हर किसी को इस विषय पर बोलने की इजाजत भी नहीं मिलनी चाहिए। भारत में देखा जाता है कि अकसर कोई ज्योतिषी, अल्पज्ञ या साधु बाबा बड़ी-बड़ी भयावह भविष्यवाणियाँ बिना किसी आधार के किया करते हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया बर्कले के छात्र क्विंगकाई कोंग आजकल एक ऐसा सेल फोन विकसित करने में जी जान से लगे हैं, जिसमें कम्पनमापी सेंसर लगे हों और भूकम्प आने पर अन्य महँगे यन्त्रों के साथ-साथ लोगों की जेबों में रहने वाले हजारों-लाखों सेल फोनों पर भी इसका डाटा एकत्र किया जा सके। उनका कहना है कि अब तक जो भूकम्पमापी यन्त्र प्रचलन में हैं वे रिक्टर स्केल पर पाँच की तीव्रता के भूकम्प सफलतापूर्वक रिकॉर्ड कर सकते हैं, पर कोंग की कोशिश और अधिक संवेदनशील यन्त्र बनाने की है। उनको असली मुश्किल इस बात में आ रही है कि आदमी की अपनी दैनिक जीवन की गति से पैदा होने वाले कम्पन को असली भूगर्भीय कम्पन से अलग कैसे किया जाए। वे अपनी टीम के साथ एक ऐसी तरकीब को विकसित कर रहे हैं, जिनसे मानवीय गति को छानना (फिल्टर किया जाना) सम्भव हो। अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन की अहम बैठक में प्रस्तुत कोंग की कोशिशें कितनी सफल हो पाएँगी यह आने वाला समय ही बताएगा।
भारत में भूकम्प आने की घटनाएँ नई नहीं हैं। साथ ही अनाप-शनाप भविष्यवाणियों की वजह से आए दिन होने वाली अफरा-तफरी भी नई नहीं। 1998 के आखिरी दिनों का कोई भी अखबार या पत्रिका उठा कर देखने पर मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले के पंधाना जैसे लगभग अपरिचित कस्बे का नाम देखने को मिल जाएगा। 11 सितम्बर से लेकर 27 नवम्बर 1998 के बीच के 78 दिनों में भूकम्प के कुल 1153 छोटे झटके दर्ज किए गए थे, जिनकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर तीन तक मापी गई थी। कई महीने चली इस कुदरती गतिविधि से स्थानीय जनता इस कदर डर गई थी कि प्रशासन के लिए वैकल्पिक इन्तजाम करना तो मुश्किल था ही, इलाके का सामाजिक आर्थिक ढाँचा सम्भाले रखना और लोगों को तत्काल मदद का भरोसा दिलाते रहना भी असामान्य धैर्य और कौशल की माँग करता था। मौत और सम्पत्ति के नुकसान की आशंका से डरे हुए लोगों ने सामूहिक तौर पर बीमा कराए, घर-बार छोड़ कर खुले आकाश के नीचे सोना शुरू कर दिया, दुकानदारों ने गरीबों को उधार सौदा देना बन्द कर दिया, विनाश की आशंका से कोई भी कल-कारखाना लगाने को तैयार नहीं हुआ। लोग-बाग दूसरे इलाकों में पलायन करने लगे। हफ्तों तक अफसरों और पुलिस-कर्मियों की अतिरिक्त फौज भी वहाँ तैनात रही।
इन सब विवरणों के अलावा जो चौंकाने वाली बात वैज्ञानिक जगत में देखी गई वह थी भूकम्प के अध्ययन को समर्पित देश के प्रतिष्ठित शोध संस्थान के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक का बार-बार यह सार्वजनिक बयान देना कि पंधाना की छोटे झटकों की यह शृंखला सम्भावित किसी बड़े भूकम्प की पूर्व चेतावनी है। उन्होंने इस क्षेत्र में आए पिछले भूकम्पों का हवाला देकर बताया कि उस क्षेत्र की ‘सेस्मिक साइकिल’ पैंसठ वर्षों की है और उसके अनुसार 2003 में बड़ा भूकम्प आने की बारी है। उन्होंने इन छोटे झटकों को इसी कड़ी की घटना माना।
पर दुनिया भर में छोटे भूकम्पों की शृंखला (अर्थक्वेक स्वार्म) के अध्ययन बताते हैं कि इन्हें निश्चित तौर पर किसी बड़े भूकम्प का पूर्व संकेत नहीं माना जा सकता। दुनिया के अनेक हिस्सों में ऐसे स्वार्म आते रहते हैं, पर बड़े भूकम्प नहीं आते। अमेरिका के कैलिफोर्निया में पिछले काफी दिनों से ऐसी घटनाएँ जारी हैं। भारत में गुजरात का जामनगर, जूनागढ़, राजकोट और भावनगर इलाका पिछले दशक में इस तरह की भूगर्भीय घटना का साक्षी रहा है। महाराष्ट्र का लातूर, कोयना, नासिक और नांदेड़ भी ‘अर्थक्वेक स्वार्म’ सक्रिय क्षेत्र हैं। हरियाणा के जींद शहर के निवासियों की नींद भी इन्हीं कारणों से 2003 में उड़ी हुई थी। राजस्थान के सीकर से भी ऐसी खबरें आई हैं। पर ऐसे स्वार्म सिर्फ बड़े भूकम्पों से पहले आते हों ऐसा नहीं है बल्कि 2004 के सुनामी पैदा करने वाले शक्तिशाली सुमात्रा भूकम्प के महीने भर बाद अंडमान के समुद्र में छह दिनों तक चली ऐसी ही गतिविधि का देश के अनेक शीर्ष वैज्ञानिकों ने गहन अध्ययन किया है।
भारत में किए गए एक अध्ययन के अनुसार हिमालय में आने वाले किसी बड़े भूकम्प की विनाशकारी तरंगे दिल्ली पहुँचने में एक मिनट का समय लेंगी। पर अभी इस प्रणाली के व्यावहारिक स्वरूप पर काम किया जाना बाकी है।
देश की राजधानी दिल्ली को लेकर यह बात तो बिल्कुल साफ है कि आवास निर्माण की आँधी में सुरक्षा मानकों के गम्भीर उल्लंघन किए जा रहे हैं और उनको जाँचने की कोई चूकरहित वैज्ञानिक प्रणाली अस्तित्व में नहीं है। एक बार फिर से नेपाल के भूकम्प के बाद इतने सारे दावे किए जा रहे हैं कि विज्ञान से अनभिज्ञ जनता क्या विज्ञान पढ़े हुए जानकार लोग भी जबरदस्त भ्रम में हैं। 2007 के ‘वल्नरेबिलिटि एटलस’ के अनुसार दिल्ली के इकतीस लाख मकान मध्यम जोखिम की श्रेणी में हैं और करीब डेढ़ लाख मकान उच्च जोखिम की। 2007 से लेकर 2015 तक कितने और मकान इस फेहरिस्त में शामिल हुए, किसी को सही-सही नहीं मालूम। एक बड़े अधिकारी ने बताया कि दिल्ली के 70-80 फीसद मकान नेशनल बिल्डिंग कोड लागू होने से पहले के हैं, सो उनमें भूकम्प सुरक्षा उपायों के लागू किए जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता। अधिकारियों का एक धड़ा कहता है कि बड़े भूकम्प की स्थिति में सबसे ज्यादा नुकसान अनधिकृत और पुनर्वास कॉलोनियों को झेलना पड़ेगा तो दूसरा धड़ा मानता है कि ऊँची बहुमंजिला इमारतों सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त होंगी।मानव ज्ञान की अपनी सीमा होने के बावजूद ऐसे उपायों और तकनीक की खोज निरन्तर जारी है जिनसे भूकम्प आने के पहले जा सके। अमेरिका, जापान और मैक्सिको जैसे गिने-चुने कुछ देशों में पूर्व चेतावनी का तन्त्र सफलतापूर्वक काम कर रहा है। इस प्रणाली में यन्त्रों की शृंखला भूकम्प के केन्द्र में उत्पन्न ‘पी’ तरंगों (तेज गति से यात्रा करने वाली, पर विनाशरहित) को पहचान कर विनाशकारी ‘एस’ तरंगों के गंतव्य तक पहुँचने का सम्भावित समय (टाइम गैप) बता देती हैं, जिससे लोगों को चेतावनी देकर घरों से बाहर निकाल लिया जाता है। पिछले कुछ दशकों में लाखों लोगों की जान इससे बचाई जा सकी है। भारत में किए गए एक अध्ययन के अनुसार हिमालय में आने वाले किसी बड़े भूकम्प की विनाशकारी तरंगे दिल्ली पहुँचने में एक मिनट का समय लेंगी। पर अभी इस प्रणाली के व्यावहारिक स्वरूप पर काम किया जाना बाकी है।
भारत में अकसर कोई अल्पज्ञ भी प्राकृतिक और राजनीतिक आपदाओं की भविष्यवाणी करता हुआ दिख जाता है। कई बार अपने विशिष्ट वैज्ञानिक ज्ञान के लिए सम्मानित लोग भी ऐसी बातें सार्वजनिक तौर पर कह देते हैं जो सत्य साबित नहीं होती। और तो और, साल के शुरू में ज्योतिषी लोग आगामी साल भर का लेखा-जोखा तो बाकायदा अखबारों, पत्रिकाओं और किताबों में प्रकाशित कराते हैं। नेपाल के भूकम्प के बाद एक बार फिर से ज्योतिषियों ने एक के बाद एक प्राकृतिक आपदा आने के बारे में बयान देने शुरू कर दिए हैं। आज तक कभी किसी ने पलट कर यह नहीं पूछा कि उनकी भविष्यवाणी सही नहीं हुई तो लोगों को खामखाह भयभीत करने के आरोप में उन पर कोई कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की जाती?
वैज्ञानिक विषयों पर बोलने का अधिकार सिर्फ विशेषज्ञों को मिलना चाहिए, पर इसका ध्यान रहे कि इस बारे में परस्पर विरोधी बयान देकर कोई संशय नहीं पैदा किया जाना चाहिए। भूकम्प के साथ जुड़ी दूसरी बड़ी चीज है बचाव और राहत। नेपाल के भूकम्प में भारत सहित दुनिया भर के तमाम देशों ने जिस तरह से मदद में हाथ बटाया है, उसकी तारीफ की जानी चाहिए। आपदा नहीं टाली जा सकती, लेकिन मानवीय आधार पर घटना के बाद मदद करना जरूरी है। लेकिन, नेपाल में भूकम्प के बाद हुई बारिश ने वहाँ बचाव कार्य में भी बाधा पहुँचा दी है।
जाहिर है, यह ऐसी समस्या है कि दुनिया भर के देशों को मिल कर इसका मुकाबला करना होगा। वैज्ञानिकों का एक समूह इस दिशा में फिर से सक्रिय हो गया है। कोशिश यही है कि विनाश के पहले कोई भविष्यवाणी की जा सके, लेकिन यह सब अभी दूर की कौड़ी ही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वे जरूर इस समस्या पर एक दिन काबू पा लेंगे...लेकिन पता नहीं कब तक!
तबाही किसी का इन्तजार नहीं करती, वह दे जाती है कभी न मिटने वाला जख्म, सदियों तक जमा रहने वाला दुख और पीढ़ियों को सुनाई जाने वाली कहानियाँ...।
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