दुनिया में पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन का सवाल आज सबसे अहम बना है। जब तक इसका हल नहीं निकलेगा, दुनिया पर संकट मंडराता रहेगा।संयुक्त राष्ट्र सहित दुनिया के अधिकतर सरकारी, गैर-सरकारी व निजी संस्थानों के हालिया अध्ययन व शोध इसकी पुष्टि करते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही आज महासागरों में मौजूद बर्फीली चट्टानों (आईसबर्ग) का उन्मुक्त बहते रहना पर्यावरण संतुलन के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहा है। समुद्र में तैरते आइसबर्ग अपने आसपास मौजूद पानी से अधिकतम मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड सोख लेते हैं और ग्लोबल वार्मिंग के कारण जब यह पिघलते हैं, तो इससे निकलने वाले खनिज पदार्थ समुद्री वनस्पतियां अवशोषित कर लेती हैं और उत्सर्जन के दौरान कार्बन डाई ऑक्साइड समुद्र तल पर तैरने लगता है जो समुद्री जीवन के लिए बेहद हानिकारक है।
दक्षिणी सागर के बेड्डेल नामक समुद्र में कुछ साल पहले किया गया शोध प्रमाण है कि ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव से समुद्री जीवन अछूता नहीं है। शोधों से पुष्टि हो चुकी है कि ध्रुवों के निकट तापमान में बढ़ोतरी जारी है। नतीजतन गर्म इलाकों के जीव-जंतु नये इलाकों की आ॓र रूख करने लगे हैं। 2003 के एक अध्ययन के अनुसार पेड़-पौधों व जंतुओं की 1.700 प्रजातियां बीती आधी सदी के दौरान 6.4 किमी प्रति दशक की रफ्तार से ध्रुवों की आ॓र खिसक रही हैं। तापमान में वृद्धि के कारण प्रशांत महासागर में छोटे द्वीपीय देश तुलावु के अधिकांश हिस्से समुद्र में डूब चुके हैं। बीते छह दशकों में ध्रुवीय क्षेत्रों की बर्फ में आई गिरावट ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है।
हिमालयी पर्वतमाला में ग्लेशियरों का तेजी से सिकुड़ना, वृक्षरेखा का ऊपर की आ॓र बढ़ना, बीती सदी में गोमुख ग्लेशियर का तकरीब 19 किमी से भी ज्यादा सिकुड़ना व उसकी सिकुड़न की गति बढ़ते रहना इसी का नतीजा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि सर्वाधिक संकट गोमुख ग्लेशियर को ही है जिसकी बर्फ पिघलने की रफ्तार बीते 15 बरसों में सबसे तेज है। हिमाच्छादित क्षेत्रों में हजारों लाखों वर्षों से जमी बर्फीली परत भी पिघलने लगी है। गोमुख की ऊपरी सतह पर ग्रेवासिस यानी दरारें बढ़ रही हैं। ऐसा ग्लेशियर पर स्नोलाइन से नीचे ज्यादा मात्रा में बर्फ पिघलने और डेबरीज कहलाने वाली चट्टानों के पत्थरों तथा दूसरे अवशेषों के ढेर में बढ़ोतरी से हो रहा है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण बांग्लादेश और नीदरलैंड सहित विश्व के अनेक देशों के तटीय इलाकों के डूबने का खतरा पैदा हो गया है। विशेषज्ञों के अनुसार आल्प्स पर्वतमाला के ग्लेशियर पिछले दो दशकों में 20 प्रतिशत से ज्यादा सिकुड़ गए।
संयुक्त राष्ट्र की एक परियोजना में किए गए अध्ययन के अनुसार वाहनों, फैक्ट्रियों और बिजलीघरों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों के कारण दुनिया का तापमान 2100 तक 1.4 से 5.8 डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ सकता है। उल्लेखनीय है कि दो वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और काठमांडू स्थित ईसीमॉड संस्थान की संयुक्त परियोजना में हिमालय के तेजी से पिघल रहे ग्लेशियरों पर गहरी चिंता व्यक्त की गई थी। परियोजना में नेपाल और भूटान हिमालय के 4000 ग्लेशियरों तथा 5000 बर्फानी झीलों का व्यापक जमीनी और उपग्रहीय अध्ययन किया गया। इसके निष्कर्षों में बताया गया कि नेपाल और भूटान की दर्जनों बर्फीली झीलें ग्लेशियर पिघलने के कारण खतरनाक हद तक फूल गई हैं और कुछ वर्षों के भीतर कभी भी फट सकती हैं।कुछ समय पहले तिब्बत की पारि छू नदी में बन गई कृत्रिम झील के कारण हिमाचल प्रदेश में अब तक खतरा बना हुआ है। अनेक विशेषज्ञ इसका कारण ग्लेशियरों का पिघलना मानते हैं। उन्होंने हिमालयी क्षेत्र में बड़ी जल विघुत परियोजनाओं की संभावनाएं तलाशे जाने के मद्देनजर ग्लेशियरों के पिघलने और इसके परिणामस्वरूप बर्फीली झीलों के फटने की प्रवृ-िा को गंभीरता से लिए जाने की जरूरत बताई है।
प्रकृति के साथ मानव का खिलवाड़ ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेवार है। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। इसके कारण जलवायु में तो बदलाव आ ही रहे हैं, बादलों में भी कई तरह के घातक रसायन मौजूद हैं। यदि इसी तेजी से पर्यावरण बिगड़ता रहा तो आने वाले 20-25 सालों में भारत में भीषण अकाल के हालात बन सकते हैं। आज जरूरत है कि भारत चीन जैसी कोयला आधारित ऊर्जा के बजाय वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को तरजीह दे। साथ ही पर्यावरण पर नजर रखने के लिए अन्य साधनों के बजाय मानव रहित विमानों (यूएवी) के इस्तेमाल पर जोर दे ताकि बादलों के भीतर स्कैनिंग की जा सके। यूएवी का इस्तेमाल अच्छा और सस्ता साधन है। प्रकृति के साथ मनुष्य द्वारा की गई छेड़छाड का परिणाम आज सूखा, अतिवृष्टि चक्रवात, समुद्री हलचल तो है ही, जल, जंगल, जमीन, नदी, समुद्र, प्राकृतिक संसाधन और मनुष्य के साथ बेजुबान पशु-पक्षी भी उसका खमियाजा भुगत रहे हैं।
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