यदि परम्परागत समझ से चला जाए तो उत्सर्जनों के दोगुना होने के जवाब में वैश्विक तापमान 3 डिग्री सेंटीग्रेड या ज्यादा बढ़ सकता है, तो सही जवाब यह होगा जिसके लिए ज्यादातर दुनिया जबानी सहानुभूति दिखाती है कि तापमान और उसे बढ़ाने वाले गैसों पर लगाम लगाई जाए। इसे तकनीकी भाषा में प्रशामन कहा जाता है। इसके अलावा यदि किसी तबाही की बाहरी सम्भावनाएँ हों, जैसे कि 6 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि, जो तीव्र हस्तक्षेप को उचित ठहराती हों। पिछले 15 वर्षों में धरती की सतह पर वायु का तापमान करीब उसी स्तर पर है जबकि विषैली गैसों का उत्सर्जन लगातार बढ़ता जा रहा है। 2000 और 2010 के बीच दुनिया ने वायुमण्डल में मोटे तौर पर 100 बिलियन टन कार्बन की और वृद्धि की है।
1750 से मानव जाति द्वारा वायुमण्डल में छोड़ी गई वह समूची कार्बन डाइऑक्साइड के लगभग एक चौथाई के बराबर है। फिर भी नासा की मोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज के जेम्स हैंसन ने कहा है कि पाँच वर्ष के वैश्विक तापमान का माध्य एक दशक से वैसा ही है।
तापमान लघु अवधि से घटते-बढ़ते हैं पर नई गर्मी की कमी एक आश्चर्य है। ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के एड हाकिंस संकेत करते हैं कि 2005 से सतही तापमान पहले से ही 20 जलवायु मॉडलों से प्राप्त पूर्वानुमानों के दायरे के न्यून सिरे पर हैं। यदि वे वैसे ही रहते हैं तो कुछ वर्षों में मॉडलों के दायरे से ही बाहर हो जाएँगे।
विषैली गैसों के बढ़ते उत्सर्जन और न बढ़ते तापमानों के बीच अन्तरसम्बन्ध का अभाव अब जलवायु विज्ञान की सबसे बड़ी पहेलियों में से एक है। इसका यह मतलब नहीं है कि वैश्विक गर्मी कोई भ्रम है। 21वीं सदी के पहले दशक में तापमान हालांकि उसी स्तर पर है पर वे 20वीं सदी के पहले दशक के स्तर से एक डिग्री से ऊपर बने हुए हैं। पर इसे पहले का खुलासा करने की जरूरत है।
अन्तरसम्बन्धहीनता का यह अर्थ हो सकता है कि किसी अस्पष्ट कारण से 2001-10 में ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड और उच्चतर तापमानों में एक अस्थायी अन्तर है। या यह हो सकता है कि 1990 का दशक, जब तापमान तेजी से बढ़ रहे थे, एक विसंगतिपूर्ण अवधि था। या जैसा कि अनुसन्धान की बढ़ती मात्रा का संकेत कर रही है ऐसा हो सकता कि जलवायु कार्बन डाइऑक्साइड के उच्चतर केन्द्रीकरण के साथ इस तरह से अनुक्रिया कर रहा है जिसे पहले उचित तरह से समझा नहीं गया है। यह सम्भावना यदि सही है, तो इसका दोनों जलवायु विज्ञान और पर्यावरण व सामाजिक नीति के लिए भारी महत्व है।
वैज्ञानिक कार्बन डाइऑक्साइड के स्तरों में परिवर्तन के प्रति जलवायु की प्रतिक्रिया का वर्णन करने के लिए जलवायु संवेदनशीलता शब्द का प्रयोग करते हैं। इसको समान्यतया इस तरह से परिभाषित किया जाता है कि कार्बन डाइऑक्साइड केन्द्रीकरण के हर बार दोगुना होने पर धरती कितनी गर्म होगी। तथाकथित सन्तुलन संवेदनशीलता, जो सामान्य माप है, का मतलब सभी प्रतिपुष्टि तन्त्रों को काम करने देने पर तापमान में वृद्धि से है पर वनस्पति और बर्फ की परतों में परिवर्तन को गणना में नहीं लिया गया है।
कार्बन डाइऑक्साइड खुद अवरक्त को एक जैसी दर पर सोखती है। कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर हर बार दोगुना होने पर हमें मोटे तौर पर एक डिग्री सेंटीग्रेड गर्मी मिलती है। इस तरह संकेन्द्रीकरण के औद्योगिक पूर्व 280 अंस प्रति दस लाख (पीपीएम) से 5600 पीपीएम तक बढ़ने पर धरती एक डिग्री सेंटीग्रेड ज्यादा गर्म होगी। यदि चिन्ता करने के लिए उतना ही होता, जैसा यह है, तो चिन्ता करने की कोई बात न थी।
एक डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि की अनदेखी की जा सकती थी। पर हालात दो कारणों से इतने आसान नहीं हैं। एक, बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड स्तरों का दृश्य जगत पर सीधा असर होता है जैसे जलवाष्प (जो एक विषैली गैस है) और बादलों की मात्रा जो बढ़ती या घटती है, तो तापमान बढ़ता है। यह सन्तुलन संवेदनशीलता पर सीधा असर डालता है। जिसका मतलब है कि कार्बन संकेन्द्रीकरण के दोगुना होने से तापमान में एक डिग्री सेंटीग्रेड ज्यादा वृद्धि होगी। दूसरा कि दूसरे पदार्थों जैसे कि वायुमण्डल में कालिख या दूसरे वायु विलय के बढ़ने पर कार्बन डाइऑक्साइड का असर बढ़ता या घटता है।
सभी गम्भीर जलवायु विज्ञानी इन दो तर्करेखाओं से सहमत हैं। जलवायु बदलाव पर अन्तर सरकारी समूह आईपीसीसी, जो जलवायु विज्ञान की मुख्यधारा की ईकाई है, की गणना के अनुसार जलवायु संवेदनशीलता करीब तीन डिग्री सेंटीग्रेड है जिसमें एक डिग्री या उसके करीब जोड़ा या घटाया जा सकता है। इसके नवीनतम आकलन (2007 में) के अनुसार सन्तुलन जलवायु संवेदनशीलता दो डिग्री सेंटीग्रेड से साढ़े चार डिग्री सेंटीग्रेड के दायरे में हो सकती है जिसका निकटतम अनुमान करीब-करीब तीन डिग्री सेंटीग्रेड और किसी भी तरह डेढ़ डिग्री सेंटीग्रेड से कम नहीं हो सकता है।
साढ़े चार डिग्री सेंटीग्रेड से उत्तर माप को भी नहीं छोड़ा जा सकता। आईपीसीसी का अगला आकलन सितम्बर में आया। इसमें परिणामों का वही दायरा दिया गया है और जोड़ा गया है कि संवेदनशीलता की ऊपरी सीमा 6 से 7 डिग्री सेंटीग्रेड होगी।
करीब 3 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि अत्यधिक नुकसानदेह हो सकती है। आईपीसीसी के पूर्व आकलन में कहा गया है कि ऐसी वृद्धि का मतलब यह हो सकता है कि ज्यादा इलाके सूखे से ग्रस्त होंगे। 30 फीसदी तक प्रजातियाँ विलुप्त होने के भारी जोखिम में होगी, ज्यादातर प्रवाल भारी जैव विविधता की क्षति का सामना करेंगे और तीव्र उष्णकटिबन्धीय चक्रवातों व उच्चतर समुद्री स्तरों में वृद्धि भी सम्भावित है।
हालांकि दूसरे हालिया अध्ययन एक दूसरी तस्वीर पेश करते हैं। सरकारी वित्त-पोषित रिसर्च काउंसिल ऑफ नार्वे की अप्रकाशित रिपोर्ट में, जिसे ओस्लो यूनिवर्सिटी के टेर्जे बंर्सटन के नेतृत्व में एक दल ने संकल्पित किया था, आईपीसीसी से भिन्न एक पद्धति को काम में लिया गया था। इसका निष्कर्ष है कि कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जनों के दोगुना करने पर 90 फीसदी सम्भावना है कि तापमान 1.2 डिग्री सेंटीग्रेड से 2.9 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएँगे, जिसमें ज्यादा सम्भावित आँकड़ा 1.9 डिग्री सेंटीग्रेड है। इस अध्ययन का ऊपरी दायरा आईपीसीसी के सम्भावित संवेदनशीलता के ऊपरी अनुमानों से काफी नीचे हैं।
इस अध्ययन की अभी तक समकक्ष-स्तरीय समीक्षा नहीं हुई है, यह अविश्वसनीय हो सकती है। योकोहामा के रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल चेंज की जूलिया हरग्रीव्ज के 2012 में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि वास्तविक बदलाव 0.5 से 4.0 डिग्री सेंटीग्रेड के दायरे में है जिसका माध्य 2.3 डिग्री सेंटीग्रेड है। यह 20,000 वर्ष पहले की जलवायु चाल पर आधारित है, जब पिछले हिम युग के चरम पर कार्बन डाइऑक्साइड केन्द्रीकरण ने लम्बा कदम बढ़ाया था।
एक स्वतन्त्र जलवायु विज्ञानी निक लेविस ने प्रकाशन के लिए स्वीकृत एक अध्ययन में और ज्यादा न्यून दायरा 1.0 से 3.0 डिग्री सेंटीग्रेड व 1.6 डिग्री सेंटीग्रेड माध्य प्रतिपादित किया। इन सभी गणनाओं में 4.5 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर जलवायु संवेदनशीलता की सम्भावना बहुत क्षीण है।
यदि परम्परागत समझ से चला जाए तो उत्सर्जनों के दोगुना होने के जवाब में वैश्विक तापमान 3 डिग्री सेंटीग्रेड या ज्यादा बढ़ सकता है, तो सही जवाब यह होगा जिसके लिए ज्यादातर दुनिया जबानी सहानुभूति दिखाती है कि तापमान और उसे बढ़ाने वाले गैसों पर लगाम लगाई जाए। इसे तकनीकी भाषा में प्रशामन कहा जाता है। इसके अलावा यदि किसी तबाही की बाहरी सम्भावनाएँ हों, जैसे कि 6 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि, जो तीव्र हस्तक्षेप को उचित ठहराती हों।
1750 से मानव जाति द्वारा वायुमण्डल में छोड़ी गई वह समूची कार्बन डाइऑक्साइड के लगभग एक चौथाई के बराबर है। फिर भी नासा की मोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज के जेम्स हैंसन ने कहा है कि पाँच वर्ष के वैश्विक तापमान का माध्य एक दशक से वैसा ही है।
तापमान लघु अवधि से घटते-बढ़ते हैं पर नई गर्मी की कमी एक आश्चर्य है। ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के एड हाकिंस संकेत करते हैं कि 2005 से सतही तापमान पहले से ही 20 जलवायु मॉडलों से प्राप्त पूर्वानुमानों के दायरे के न्यून सिरे पर हैं। यदि वे वैसे ही रहते हैं तो कुछ वर्षों में मॉडलों के दायरे से ही बाहर हो जाएँगे।
विषैली गैसों के बढ़ते उत्सर्जन और न बढ़ते तापमानों के बीच अन्तरसम्बन्ध का अभाव अब जलवायु विज्ञान की सबसे बड़ी पहेलियों में से एक है। इसका यह मतलब नहीं है कि वैश्विक गर्मी कोई भ्रम है। 21वीं सदी के पहले दशक में तापमान हालांकि उसी स्तर पर है पर वे 20वीं सदी के पहले दशक के स्तर से एक डिग्री से ऊपर बने हुए हैं। पर इसे पहले का खुलासा करने की जरूरत है।
अन्तरसम्बन्धहीनता का यह अर्थ हो सकता है कि किसी अस्पष्ट कारण से 2001-10 में ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड और उच्चतर तापमानों में एक अस्थायी अन्तर है। या यह हो सकता है कि 1990 का दशक, जब तापमान तेजी से बढ़ रहे थे, एक विसंगतिपूर्ण अवधि था। या जैसा कि अनुसन्धान की बढ़ती मात्रा का संकेत कर रही है ऐसा हो सकता कि जलवायु कार्बन डाइऑक्साइड के उच्चतर केन्द्रीकरण के साथ इस तरह से अनुक्रिया कर रहा है जिसे पहले उचित तरह से समझा नहीं गया है। यह सम्भावना यदि सही है, तो इसका दोनों जलवायु विज्ञान और पर्यावरण व सामाजिक नीति के लिए भारी महत्व है।
असंवेदनशील ग्रह
वैज्ञानिक कार्बन डाइऑक्साइड के स्तरों में परिवर्तन के प्रति जलवायु की प्रतिक्रिया का वर्णन करने के लिए जलवायु संवेदनशीलता शब्द का प्रयोग करते हैं। इसको समान्यतया इस तरह से परिभाषित किया जाता है कि कार्बन डाइऑक्साइड केन्द्रीकरण के हर बार दोगुना होने पर धरती कितनी गर्म होगी। तथाकथित सन्तुलन संवेदनशीलता, जो सामान्य माप है, का मतलब सभी प्रतिपुष्टि तन्त्रों को काम करने देने पर तापमान में वृद्धि से है पर वनस्पति और बर्फ की परतों में परिवर्तन को गणना में नहीं लिया गया है।
कार्बन डाइऑक्साइड खुद अवरक्त को एक जैसी दर पर सोखती है। कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर हर बार दोगुना होने पर हमें मोटे तौर पर एक डिग्री सेंटीग्रेड गर्मी मिलती है। इस तरह संकेन्द्रीकरण के औद्योगिक पूर्व 280 अंस प्रति दस लाख (पीपीएम) से 5600 पीपीएम तक बढ़ने पर धरती एक डिग्री सेंटीग्रेड ज्यादा गर्म होगी। यदि चिन्ता करने के लिए उतना ही होता, जैसा यह है, तो चिन्ता करने की कोई बात न थी।
एक डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि की अनदेखी की जा सकती थी। पर हालात दो कारणों से इतने आसान नहीं हैं। एक, बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड स्तरों का दृश्य जगत पर सीधा असर होता है जैसे जलवाष्प (जो एक विषैली गैस है) और बादलों की मात्रा जो बढ़ती या घटती है, तो तापमान बढ़ता है। यह सन्तुलन संवेदनशीलता पर सीधा असर डालता है। जिसका मतलब है कि कार्बन संकेन्द्रीकरण के दोगुना होने से तापमान में एक डिग्री सेंटीग्रेड ज्यादा वृद्धि होगी। दूसरा कि दूसरे पदार्थों जैसे कि वायुमण्डल में कालिख या दूसरे वायु विलय के बढ़ने पर कार्बन डाइऑक्साइड का असर बढ़ता या घटता है।
सभी गम्भीर जलवायु विज्ञानी इन दो तर्करेखाओं से सहमत हैं। जलवायु बदलाव पर अन्तर सरकारी समूह आईपीसीसी, जो जलवायु विज्ञान की मुख्यधारा की ईकाई है, की गणना के अनुसार जलवायु संवेदनशीलता करीब तीन डिग्री सेंटीग्रेड है जिसमें एक डिग्री या उसके करीब जोड़ा या घटाया जा सकता है। इसके नवीनतम आकलन (2007 में) के अनुसार सन्तुलन जलवायु संवेदनशीलता दो डिग्री सेंटीग्रेड से साढ़े चार डिग्री सेंटीग्रेड के दायरे में हो सकती है जिसका निकटतम अनुमान करीब-करीब तीन डिग्री सेंटीग्रेड और किसी भी तरह डेढ़ डिग्री सेंटीग्रेड से कम नहीं हो सकता है।
साढ़े चार डिग्री सेंटीग्रेड से उत्तर माप को भी नहीं छोड़ा जा सकता। आईपीसीसी का अगला आकलन सितम्बर में आया। इसमें परिणामों का वही दायरा दिया गया है और जोड़ा गया है कि संवेदनशीलता की ऊपरी सीमा 6 से 7 डिग्री सेंटीग्रेड होगी।
करीब 3 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि अत्यधिक नुकसानदेह हो सकती है। आईपीसीसी के पूर्व आकलन में कहा गया है कि ऐसी वृद्धि का मतलब यह हो सकता है कि ज्यादा इलाके सूखे से ग्रस्त होंगे। 30 फीसदी तक प्रजातियाँ विलुप्त होने के भारी जोखिम में होगी, ज्यादातर प्रवाल भारी जैव विविधता की क्षति का सामना करेंगे और तीव्र उष्णकटिबन्धीय चक्रवातों व उच्चतर समुद्री स्तरों में वृद्धि भी सम्भावित है।
नए मॉडल
हालांकि दूसरे हालिया अध्ययन एक दूसरी तस्वीर पेश करते हैं। सरकारी वित्त-पोषित रिसर्च काउंसिल ऑफ नार्वे की अप्रकाशित रिपोर्ट में, जिसे ओस्लो यूनिवर्सिटी के टेर्जे बंर्सटन के नेतृत्व में एक दल ने संकल्पित किया था, आईपीसीसी से भिन्न एक पद्धति को काम में लिया गया था। इसका निष्कर्ष है कि कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जनों के दोगुना करने पर 90 फीसदी सम्भावना है कि तापमान 1.2 डिग्री सेंटीग्रेड से 2.9 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएँगे, जिसमें ज्यादा सम्भावित आँकड़ा 1.9 डिग्री सेंटीग्रेड है। इस अध्ययन का ऊपरी दायरा आईपीसीसी के सम्भावित संवेदनशीलता के ऊपरी अनुमानों से काफी नीचे हैं।
इस अध्ययन की अभी तक समकक्ष-स्तरीय समीक्षा नहीं हुई है, यह अविश्वसनीय हो सकती है। योकोहामा के रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल चेंज की जूलिया हरग्रीव्ज के 2012 में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि वास्तविक बदलाव 0.5 से 4.0 डिग्री सेंटीग्रेड के दायरे में है जिसका माध्य 2.3 डिग्री सेंटीग्रेड है। यह 20,000 वर्ष पहले की जलवायु चाल पर आधारित है, जब पिछले हिम युग के चरम पर कार्बन डाइऑक्साइड केन्द्रीकरण ने लम्बा कदम बढ़ाया था।
एक स्वतन्त्र जलवायु विज्ञानी निक लेविस ने प्रकाशन के लिए स्वीकृत एक अध्ययन में और ज्यादा न्यून दायरा 1.0 से 3.0 डिग्री सेंटीग्रेड व 1.6 डिग्री सेंटीग्रेड माध्य प्रतिपादित किया। इन सभी गणनाओं में 4.5 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर जलवायु संवेदनशीलता की सम्भावना बहुत क्षीण है।
यदि परम्परागत समझ से चला जाए तो उत्सर्जनों के दोगुना होने के जवाब में वैश्विक तापमान 3 डिग्री सेंटीग्रेड या ज्यादा बढ़ सकता है, तो सही जवाब यह होगा जिसके लिए ज्यादातर दुनिया जबानी सहानुभूति दिखाती है कि तापमान और उसे बढ़ाने वाले गैसों पर लगाम लगाई जाए। इसे तकनीकी भाषा में प्रशामन कहा जाता है। इसके अलावा यदि किसी तबाही की बाहरी सम्भावनाएँ हों, जैसे कि 6 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि, जो तीव्र हस्तक्षेप को उचित ठहराती हों।
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Post By: Shivendra