1893 में ब्रेबरी से नैनीताल को ताँगे आने लगे थे। अब काठगोदाम से तल्लीताल तक ताँगे से आना सम्भव हो गया था। पर यह यातायात बहुत धीमा और महंगा था। काठगोदाम, दो गाँव, ब्रेबरी और तल्लीताल में ताँगा पड़ाव बनाए गए। काठगोदाम से नैनीताल ताँगा रोड के समांतर ही रेल लाइन बिछाने की योजना बनाई गई थी। इसी साल बाजार के समीप पक्की और हवादार गौशालाएँ बनाई गई। मुर्गियों के लिए खास किस्म के दड़बे बनाए गए।
1893 में ब्रेबरी से नैनीताल को ताँगे आने लगे थे। अब काठगोदाम से तल्लीताल तक ताँगे से आना सम्भव हो गया था। पर यह यातायात बहुत धीमा और महंगा था। काठगोदाम, दो गाँव, ब्रेबरी और तल्लीताल में ताँगा पड़ाव बनाए गए। काठगोदाम से नैनीताल ताँगा रोड के समांतर ही रेल लाइन बिछाने की योजना बनाई गई थी। इसी साल बाजार के समीप पक्की और हवादार गौशालाएँ बनाई गई। मुर्गियों के लिए खास किस्म के दड़बे बनाए गए। संक्रामक बीमारी से पीड़ित व्यक्ति के वस्रों को नगर क्षेत्र में धोने पर पाबंदी लगा दी गई। ऐसे कपड़ों को नगर से बाहर ले जाकर रोगाणु रहित किए जाने की व्यवस्था की गई। 1893 में बार्नसडेल (वर्तमान में उच्च न्यायालय उत्तराखण्ड) का शिलान्यास हुआ। इस भवन के तैयार होने तक सचिव का दफ्तर,डिप्टी कमिश्नर कार्यालय से चला। 25 अप्रैल, 1894 को नगर पालिका बोर्ड की विशेष बैठक में प्रस्ताव संख्या-तीन द्वारा निर्णय लिया गया कि नगर के सभी भवन स्वामियों को रात 10 बजे से सुबह पाँच बजे तक अपने घरों का मल नजदीक के पेल डिपो में डालना होगा। यह भी तय हुआ कि बाजार क्षेत्र के प्रत्येक भवन स्वामी, किराएदार और दुकानदार अपने यहाँ कूड़ादान रखेंगे।
1894 में दो लाख रुपए खर्च कर नैनीताल में छह नए नाले बनाए गए। देख-रेख और रख-रखाव के लिए इन नालों को नगर पालिका बोर्ड को सौंप दिया गया। इसी साल मल्लीताल से रुसी गाँव तक सीवर लाइन डाल दी गई थी। नवम्बर 1894 में नगर पालिका ने पशु वध स्थल के नियम बनाए।
ब्रिटिश सरकार के हर सम्भव प्रयासों के बाद भी शेर-का-डांडा पहाड़ी का रूठना थमा नहीं। यहाँ भू-धंसाव और जमीन के फटने का सिलसिला जारी रहा। शेर-का-डांडा पहाड़ी के इस बर्ताव ने ब्रिटिश सरकार को चिन्ता में डाल दिया। स्नोव्यू की पहाड़ी में जिस क्रम से साल-दर-साल दरारों की संख्या बढ़ रही थी, उसी अनुपात में ब्रिटिश हुक्मरानों की बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी। ब्रिटिशर्स के लिए स्नोव्यू की पहाड़ी की हिफाजत से भी कहीं बड़ा सवाल इस पहाड़ी की चोटी पर अवस्थित राजभवन की सुरक्षा का था। चूँकि अंग्रेजी शासकों की दृष्टि में राजभवन महज पत्थर-गारे से बनी एक भव्य एवं आलीशन इमारत नहीं थी, बल्कि राजभवन ब्रिटिश शासन के वैभव और समृद्धि का प्रतीत भी था। इसीलिए इसकी सुरक्षा अंग्रेजी शासन की प्रतिष्ठा से जुड़ा एक अहम सवाल था। राजभवन के बहाने ब्रिटिश हुकूमत की तकनीकी दक्षता, ज्ञान और प्रशासनिक क्षमताओं की विश्वसनीयता दांव पर थी। ब्रिटिश सरकार राजभवन के सुरक्षा के मामले में किसी प्रकार का कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं थी। लिहाजा राजभवन की सेहत और भविष्यगत सम्भावनाओं की गहन जाँच-पड़ताल के लिए 1894 के बाद विशेषज्ञ समितियों के गठन का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया।
तीन अक्टूबर, 1894 को लेफ्टिनेंट गवर्नर एवं चीफ कमिश्नर सर चार्ल्स एच.टी.क्रोस्थवेट ने राजभवन की सुरक्षा की पड़ताल के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल एफ.वी.कार्बेट और बिल्डिंग एण्ड रोड ब्रांच के कार्यवाहक चीफ इंजीनियर लेफ्टिनेंट कर्नल आर.आर.पुलफोर्ड के नेतृत्व में एक जाँच कमेटी बनाई। लोक निर्माण विभाग के अधिशासी अभियन्ता सी.एच.होल्म भी इस कमेटी में शामिल थे। इस कमेटी ने 18 अक्टूबर, 1894 को राजभवन सहित समूची शेर-का-डांडा पहाड़ी का दौरा किया। मौके की गहन जाँच-पड़ताल के बाद कमेटी ने 27 मार्च, 1895 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी।
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