सुधीर पाल, भारतीय पक्ष/उन्हें नहीं पता कि देशभर की नदियों को जोड़ने की योजना बनाई जा चुकी है। इस योजना से होने वाले नफा-नुकसान से भी उनका कोई सरोकार नहीं है। उनके पास तो नदियां हैं ही नहीं, बस तालाब हैं और वे इसे ही जोड़ने की योजना पर काम कर रहे हैं। तालाबों को जोड़ने के लिए उनके पास श्रम की पूंजी है और नतीजे के रूप से चारों ओर लहलहाती फसल। यही वजह है कि झारखंड के इस गांव में अब कोई प्यासा नहीं है। इस गांव के तालाब अब सूखते नहीं और फसलों की पैदावार ऐसी होती है कि लोगों के जीवन में खुशहाली आ गई। ग्रामीण किसान मजदूर विकास समिति के अधयक्ष एतवा बेदिया कहते हैं कि चार तालाब और बन जाएं तो लोग सौ फीसदी खुश हो जाएंगे।
दरअसल रांची जिले के अनगड़ा प्रखंड के टाटी पंचायत के सिंगारी गांव के लोगों को ऐसा मंत्र मिल गया है जिसकी बदौलत उन्होंने अपने गांव की किस्मत ही बदल दी है। करीब दो हजार की आबादी वाले इस गांव में 18 तालाब हैं और इसे तालाबों वाले गांव के नाम से जाना जाता है। लेकिन 1978 से पहले यहां के हालात कुछ और थे। गांव में तालाब तो थे लेकिन वे केवल बरसात में ही भर पाते थे। इन तालाबों का पानी सालभर की फसल और सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं था। पानी की कमी के चलते लोग असम, कलकत्ता और धनबाद के ईंट भट्ठों और चाय बगानों में काम करने जाते थे। हालांकि वे बरसात से पहले वापस लौट आते, पर ज्यादा से ज्यादा 15 जनवरी तक ही अपने गांव में रह पाते। हर साल लगने वाले टुसू मेले के बाद गांव में वीरानी छा जाती थी। एक जानकारी के अनुसार गांव में सिर्पफ 12 परिवार ही रह जाते थे, जिनका किसी न किसी मजबूरी के चलते गांव से बाहर निकलना मुश्किल था।
हर साल हो रहे पलायन से गांव के बड़े-बुर्जुगों को गांव में सामाजिक असंतुलन पैदा होने का डर हो गया। लेकिन यह भी हकीकत थी कि बिना पानी के कोई भी गांव में रफककर अपने परिवार वालों को भूखे रखने का खतरा नहीं उठाना चाहता था। गांव में सामूहिक बैठक में इस पर विचार किया गया कि यदि वर्षा के पानी को रोका जाए और पानी का बैंक बनाया जाए तभी जीने का साधन मिलेगा। अब क्या था, गांववालों को तो जैसे एक मंत्र ही मिल गया। सबने मिलकर सबसे पहले पानी के स्रोतों को ढूंढ़ने पर विचार किया।
गांव के बुजुर्गों को अच्छी तरह पता था कि पानी कहां-कहां मिल सकता था। उन्होंने मिलकर वैसी जगह तालाब खोदने का फैसला किया जहां पहले दांडी होते थे। दांडी सदियों पुराने पानी के वे स्रोत थे जिनमें साल भर पानी हुआ करता था। पहले सिंगारी के हर टोले में एक दांडी हुआ करता था, लेकिन धीरे-धीरे ये दांडी भी खत्म होने लगे थे।
तालाब खोदने में हजारों रपए खर्च होने थे और गरीब गांववालों के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वे इतने रफपयों का इंतजाम कर पाएं। लिहाजा बुजुर्गों की सलाह पर गांव के हर व्यक्ति ने तालाब खोदने में श्रमदान किया। इस दौरान वे लोग भी लौटकर अपने गांव आ गए थे जो रोजगार के चलते किसी न किसी शहर में चले गए थे। सिंगारी में पिछले एक दशक में कई विकास कार्य हुए हैं और इतना सब कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि गांव वालों ने सरकारी कार्यों और योजनाओं को अपना ही समझा। सरकार की सभी योजनाएं गांव में लागू तो हुईं लेकिन उसके रखरखाव और प्रबंधन की जिम्मेदारी गांव वालों ने अपने हाथ में ही रखी। यही वजह है कि गांव में आज 68 कुंए, 22 हैंडपंप और 18 तालाब हैं और सभी ठीक-ठाक हालत में हैं।
सुधीर पाल, भारतीय पक्ष
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