तालाबों के पुनरुद्धार से मिली विकास की राह

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पचास साल पहले तक इन गाँवों में जरूरत के मुताबिक तालाब होते थे। पोखर ग्राम्य जीवन के अभिन्न अंग होते थे। इनसे कई प्रयोजन सिद्ध होते थे। बरसात के मौसम में वर्षाजल इनमें संचित होता था। बाढ़ आने पर वह पानी पहले तालाबों को भरता था। गाँव और बस्ती डूबने से बच जाते थे। अगर कभी बड़ी बाढ़ आई तो तालाबों के पाट, घाट मवेशियों और मनुष्यों के आश्रय स्थल होते थे। अगर बाढ़ नहीं आई तो अगले मौसम में सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध होता था। कोसी तटबन्धों के बीच फँसा एक गाँव है बसुआरी। तटबन्ध बनने के बाद यह गाँव भीषण बाढ़ और जल-जमाव से पीड़ित हो गया। यहाँ भूतही-बलान नदी से बाढ़ आती थी जो अप्रत्याशित और भीषण बाढ़ के लिये बदनाम नदी है। अचानक अत्यधिक पानी आना और उसका अचानक घट जाना इसकी प्रकृति रही है। पर तटबन्ध बनने के बाद बाढ़ के पानी की निकासी में अवरोध आया और पानी अधिक दिन तक जमने लगा।

तटबन्ध बनने के पहले भी इस क्षेत्र में बाढ़ आती थी। कई बार पानी अधिक दिनों तक लगा रहता था और कई बार साल में पाँच-सात बार बाढ़ आ जाती थी। जिससे धान की फसल भी नहीं हो पाती थी या लहलहाती फसल बह जाती थी। धान का इलाक़ा कहलाने वाले इस क्षेत्र में ऐसी हालत निश्चित रूप से बहुत ही भयावह होती थी। पर धान की फसल नहीं हो, तब भी दलहन की उपज काफी होती थी। मसूर, खेसारी और तिसी की फसल में कोई खर्च भी नहीं होता था। गर्मी अधिक होने पर सिंचाई करनी पड़ती थी। जिसके लिये गाँव-गाँव में बने तालाब काम में आते थे।

तटबन्ध बनने के बाद तालाबों में कीचड़-बालू भरने से कठिनाई होने लगी। वर्ष 2004 की बाढ़ में कई तालाब पूरी तरह भर गए। खेती करना बहुत कठिन हो गया। खेतों में बालू की परत बिछी थी और सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध नहीं था। लेकिन एक लाभ भी हुआ कि बड़ी बाढ़ का आना, गाँवों में पानी भरना रुक गया।

पूरा इलाका ऊँचा हो गया था और शायद बाढ़ का पानी गाँवों में आने का रास्ता बन्द हो गया था। धीरे-धीरे लोगों ने नलकूप इत्यादि का इन्तज़ाम किया। पर वह बहुत महंगा विकल्प था और हर किसी के लिये डीजल पम्प का इन्तज़ाम करना सम्भव भी नहीं था। सबसे अधिक कठिनाई मवेशियों के पीने-नहाने के पानी का इन्तज़ाम करना था।

ऐसे समय में जर्मनी की संस्था वेल्टहेगरहिल्फे के सहयोग से तालाबों के पुनरुद्धार कराने का प्रस्ताव लेकर घोघरडीहा प्रखण्ड स्वराज्य विकास संघ सामने आया। उसने छह गाँवों के सात तालाबों का पुनरुद्धार कराया। पर यह प्रक्रिया इस तरह आगे बढ़ी कि बसुआरी के आसपास के 19 तालाब पुनर्जीवित हो गए हैं।

इस इलाके के 25-30 तालाबों को बाढ़ की कीचड़-मिट्टी ने भर दिया था। तालाबों की भूमिका को इन गाँवों ने नए सिरे से समझा है और उनका पुनरुद्धार करने में जुट गए हैं। तालाबों में जमा गाद की सफाई के अलावा घाट और सीढ़ियों का निर्माण हुआ। तालाब में पानी आने और जाने के रास्ते बनाए गए। धीरे-धीरे आम ग्रामीण इस काम में जुड़ते गए और सरकारी योजनाओं के अन्तर्गत इस काम को शामिल करने के प्रयास भी हो रहे हैं।

पचास साल पहले तक इन गाँवों में जरूरत के मुताबिक तालाब होते थे। पोखर ग्राम्य जीवन के अभिन्न अंग होते थे। इनसे कई प्रयोजन सिद्ध होते थे। बरसात के मौसम में वर्षाजल इनमें संचित होता था। बाढ़ आने पर वह पानी पहले तालाबों को भरता था। गाँव और बस्ती डूबने से बच जाते थे। अगर कभी बड़ी बाढ़ आई तो तालाबों के पाट, घाट मवेशियों और मनुष्यों के आश्रय स्थल होते थे। अगर बाढ़ नहीं आई तो अगले मौसम में सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध होता था।

तालाबों से सिंचाई के लिये पानी निकालने की कई तकनीकें प्रचलित थीं। उनमें कई तो अब विलुप्त हो गए हैं। पर बाँस की बनी टोकरियों में रस्सी बाँधकर पानी उलीचने का उपकरण आसानी से बनाया जाता था। बाद में जब डीजल पम्प आए तो उन पम्पों से भी पानी निकाला जाने लगा। यह थोड़ा खर्चिला तो होता है, पर नलकूप से पानी निकालने की अपेक्षा तालाब से पानी निकालना हर हाल में सस्ता होता है।

मवेशियों के पीने और नहाने के लिये पानी तो तालाबों में हर समय उपलब्ध रहता है। तालाबों के नष्ट होने से दूसरी कठिनाईयों के अलावा मवेशियों के लिये पानी की उपलब्धता काफी घट गई। मवेशियों के लिये नलकूप से पानी खींचने के खर्चीला तामझाम करने के बजाय लोग मवेशी पालना ही छोड़ने लगे। इससे पूरे इलाके में मवेशियों की तदाद काफी कम हो गई है।

तालाबों के पानी एकत्र रहने से नलकूप से पानी निकालना भी थोड़ा आसान होता है क्योंकि भूजल का स्तर बना रहता है। तालाबों के एकत्र पानी रिस-रिसकर जल-कुंडों को भरते रहते हैं। इससे गाँवों में कुआँ खोदना और नलकूप लगाना भी आसान होता था। तालाबों में मत्स्य पालन भी होता है जिससे ग्रामीण समुदाय के पास प्रोटीन का एक बेहतरीन स्रोत हर समय उपलब्ध रहता है। जलाशयों के आसपास हरियाली फैली रहती है। पेड़-पौधे हरे-भरे बने रहते हैं। इससे गाँवों का पर्यावरण बेहतर और शुद्ध बना रहता था। गाँवों के अनेक धार्मिक एवं सामाजिक उत्सवों का आयोजन होते थे।

तटबन्धों और नहरों की व्यवस्था आने के बाद इन परम्परागत जलस्रोतों की उपेक्षा की जाने लगी। तटबन्ध के बीच फँसे गाँव तो दूसरे कई तरह से भी उपेक्षित और पीड़ित हो गए। बाढ़ और जलजमाव का प्रकोप बढ़ गया। बाढ़ का पानी उतरता तो तालाबों में मिट्टी और कीचड़ भरे होते। मिट्टी भर जाने के बाद कई तालाबों पर दबंगों का नाजायज कब्जा हो गया। बचे खुचे तालाबों के उपयोग से आम ग्रामीण वंचित हो गए।

इसका ख़ामियाज़ा गाँव वालों को भुगतना पड़ा। लोगों की मजबूरी हो गई कि पीने, नहाने और दूसरे कामों के लिये पानी की वैकल्पिक इन्तज़ाम करें। वैकल्पिक इन्तज़ाम केवल नलकूप था जो महंगा था और गरीब गाँववासियों के आवश्यक खर्च में बढ़ोत्तरी होने लगी। सबसे खराब असर यह पड़ा कि मवेशी रखना कठिन होता गया।

पशुपालन घटने से ग्रामीण किसानों को कई नुकसान हुए। उनकी थाली से दूध-दही गायब होता गया। आमदनी का एक स्रोत घट गया और मवेशियों से मिलने वाली खाद के अभाव में रासायनिक खाद की जरूरत पड़ने लगी। देखरेख के अभाव में तालाबों के घाट भी काम के नहीं रहे। बाढ़ में फँसे लोगों का यह आश्रय स्थल उपलब्ध नहीं रहा। लोगों के सामने भगवान का नाम लेते हुए दिन गुजारने के सिवा कोई उपाय नहीं बचा।

कोसी तटबन्धों के भीतर संकट कुछ अधिक था, पर तालाबों के नष्ट होने का असर पूरे मिथिलांचल पर पड़ा है। तटबन्धों के बाहर बाढ़ से सुरक्षित कहे गए इलाके में नदी का पानी भले नहीं आता था, पर वर्षा का पानी जमा रहने लगा। उस पानी की निकासी का रास्ता बन्द हो गया था। कोसी परियोजना के अन्तर्गत तटबन्धों के अलावा नहरें भी बननी थी। उनका निर्माण आरम्भ भी हुआ। पर पचास साल बीतने के बाद भी नहरें पूरी नहीं हुईं। उ

नसे सिंचाई मिलने की बात ही नहीं हैं। लेकिन सरकारी धन का आवंटन नहरों के लिये होने लगा। सिंचाई के दूसरे परम्परागत साधन सीधे-सीधे उपेक्षित हो गए। सिंचाई के लिये किसान भूजल पर निर्भर होते गए। लेकिन बरसाती पानी का सही तरीके से संचयन नहीं होने से भूजल स्तर गिरने लगा। नलकूपों से पानी निकालने के लिये डीजल का जरूरत होती। डीजल की कीमतें बढ़ती गईं। दूर देहातों के दूर्गम इलाके में डीजल के दाम पर उसे लाने का खर्च भी जुड़ जाता। इसकी काला बाजारी भी होती।

डीजल खरीदना हर किसी के वश में नहीं रहा। सिंचाई की व्यवस्था सही नहीं होने से लोग कम पानी वाली फसल उपजाने के लिये मजदूर होते गए। धान की खेती वाले इस इलाके में धान की खेती कम होती गई। इस सबका असर हुआ कि परम्परागत रहन-सहन, रीति-रीवाज और खानपान बदलने लगा। तालाबों के पुनरुद्धार की प्रक्रिया आरम्भ होने के बाद जनजीवन के पटरी पर वापस लौटने के आसार बने हैं।

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Post By: RuralWater
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