मैं कोदो हूं, अनाजों का राजा। मेरी विंध्य क्षेत्र में तीन प्रजातियां हैं-कोदइला, लूमा और विसवरिया। मैंने 80-80 वर्षों तक कोठियों में सुरक्षित रहकर अकाल-दुर्भिक्ष के समय लोगों की सेवा की है। विंध्य क्षेत्र में पहले जो लगभग 6 हजार तालाबों का निर्माण हुआ था उसमें मेरी भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता।
यह बीज महोत्सव के मौके पर आयोजित पोस्टर प्रदर्शनी का हिस्सा है। यह कार्यक्रम 20-21 सितंबर को सतना में आयोजित किया गया था। इसे परंपरागत देसी बीज अनाज बीज महोत्सव समिति ने आयोजित किया था।
इस अवसर पर एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसमें देशी अनाजों के महत्व पर प्रकाश डाला गया था। कुटकी, सांवा, ज्वार, मक्का, जौ, कठिया, बाजरा, आदि अनाजों की कहानी आकर्षण का केंद्र थी।
बीज महोत्सव के संयोजक सतना जिले के एक छोटे किसान बाबूलाल दाहिया हैं, जो न केवल देशी बीजों के संरक्षण-संवर्धन में लगे हैं बल्कि इस धरोहर को लोक व्यवहार में लाने के लिए सतत प्रयासरत हैं। वे स्कूली बच्चों के बीच पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण के कार्यक्रम तो करते हैं, किसान और नागरिकों के बीच जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं।
बाबूलाल दाहिया सतना जिले की उचेहरा विकासखंड के पिथौराबाद गांव में रहते हैं। वे बघेली के साहित्यकार हैं और जब उन्हें लगा लोक भाषा, लोक साहित्य के साथ लोक अनाज भी बचाने की जरूरत है तब से वे देशी अनाजों के संरक्षण में लगे हैं।
आज उनके पास देशी धान की करीब 110 किस्में हैं जिनको वे छोटे-छोटे भूखंड में हर साल उगाते हैं और बीज संरक्षण करते हैं। धान के अलावा, अन्य देशी अनाजों की किस्में भी हैं।
प्रदर्शनी में सांवा के बारे में पोस्टर कहता है कि- मैं सभी अनाजों का ज्येष्ठ भ्राता हूं। क्योंकि मैं भोजन से त्रस्त गरीब किसान को शीघ्र पककर उसे राहत पहुंचाता हूं। अगर किसान मानसूनी वर्षा के तुरंत बाद एक बार खेत में हल्की जुताई कर मेरे बीज बिखेर दें और एक दो पानी और मिल जाए तो मेरी फसल डेढ़ माह में पक जाती है। फिर चाहे मेरी आप रोटी खाएं चाहे भात। तभी तो लोग मेरे बारे में कहते हैं-सांवा जेठा अन्न कहावै, सब अनाज से आगे आवै।
कुटकी कहती है कि मैं सिर्फ तीन पखवाड़े में पक जाने वाला छोटा अनाज हूं। इसलिए लोग मेरे बारे में कहते हैं कि तीन पाख दो पानी, पक आई कुटक रानी। मेरी खिचड़ी या दूध के साथ पकाई गई खीर स्वाद में लाजवाब होती है। मैं अनेक औषधीय गुणों से परिपूर्ण हूं। पर मेरी गिनती खेती में नहीं की जाती है जैसे बकरी पालन को धन नहीं माना जाता। इसलिए कहते हैं- कुटकी खेती न म्यावधन।
ज्वार बोलती है कि मेरी लाल और मटमैले रंगों वाली लगभग बारह प्रजातियां थी। मेरी तासीर गर्म होने के कारण लोग मुझे कार्तिक से फागुन तक अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करते थे। कभी रोटी, कभी दलिया और कभी लाई के रूप में उपयोग करते थे।
हम अपने पारंपरिक तालाब, गढ़री, जोहड़, बावड़ी, चाल और खाल को बचाना चाहते हैं तो हमें अपने देशी (स्थानीय) अनाजों की किस्मों को भी बचाना या उन्हे पुनजीर्वित करना होगा क्योंकि देशी अनाज कम से कम पानी पाकर अपने को तैयार कर लेते हैं। मैं असाढ़ में बोने के पश्चात कार्तिक में पक कर आ जाती हूं। मेरी फसल को दूर-दूर अंतराल में बोने की परंपरा है। इसलिए मेरे साथ अरहर, तिल, अवारी, मूूंग उड़द, भिंडी, खीरा, ककड़ी और बरबटी आदि कई की मिलवां खेती की जा सकती है। कहावत भी कही गई है किः-
कदम-कदम पर बाजरा दादुर कुदनी ज्वार,
जो जन ऐसा बोइ है उनके भरे कुठार।
इसी प्रकार कठिया गेहूं की कहानी दर्ज थी। मेरा नाम कठिया गेहूं है। रंग में लाल और खाने में स्वादिष्ट होने के कारण लोगों के दिल दिमाग में मेरी आज तक पैठ बनी हुई है। मेरा हलवा लाजवाब होता है। मैं बगैर सिंचाई पकने वाली प्रजाति हूं पर बौनी जाति के मेरे अन्य विदेशी स्वजातीय भाईयों की घुसपैठ के कारण दिन प्रतिदिन मेरा रकबा सिमटता जा रहा है। अब मेरी खोज खबर सिर्फ बीमार लोग ही करते देखे गए हैं।
मैं जौ हूं। खाने में भले ही गेंहू की तरह कोमल और स्वादिष्ट लगूं पर मैं मनुष्य का बहुत पुरानी साथी हूं। मनुष्य ने अनाज के रूप में सब से पहले मेरी और तिल की ही पहचान की थी यही कारण है कि सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमो में आज भी मेरी पूंछ परख है। अब मेरा उपयोग मनुष्य के खाने में नहीं, भैंस को खिलाने मे किया जाता है।
मक्का कहता है कि मैं मनुष्य का प्रागैतिहासिक काल का साथी हूं। आग की खोज के पहले ही वह मुझे खाने के काम में लाता था। मेरा उपयोग रोटी, महेरी, फूटा आदि कई पकवानों में होता है । यदि भुट्टों को भूंज कर खाया जाय तो स्वाद में लाजवाब।
बाबूलाल दाहिया देशी अनाजों के महत्व के बारे में बताते हैं कि मौसम बदलाव के कारण यह जरूरी हो गया है कि हम अपनी मिट्टी पानी में वर्षों से विकसित बीजों को बचाएं। इनसे ही हमारी खेती बच सकती है। वे बताते हैं कि हमारे देश में 1965 में करीब 1 लाख 10 हजार धान की प्रजातियां थीं लेकिन वर्तमान में केवल 2 हजार ही धान की प्रजातियां बची हुई हैं। देशी व परंपरागत धान की कई ऐसी प्रजातियां थी जो प्रतिकूल मौसम में भी पककर तैयार हो जाती थी। इनमें कई कीट प्रतिरोधी थी।
मोटे अनाजों की श्रेणी में मुख्यतः कोदो, कुटकी, सांवा, काकुन, ज्वार, बाजरा, मेड़िया, मक्का आदि अनाज माने जाते हैं। हमारे देश मे इन की खेती लगभग हजारों वर्षों से होती चली आ रही है। जब मनुष्य ने आग की खोज नहीं की थी और इन अनाजों को पका कर खाने की तकनीक विकसित नहीं हुई थी तब मनुष्य के खानपान में फल, फूल कंद और मांस ही मुख्यतः शामिल थे। उन दिनों यह सभी अनाज घास के रूप में चिन्हित थे। पर आग की खोज के पश्चात मनुष्य इन अनाजों को कूट पीस और भून पकाकर खुद खाने लगा।
आज की हाईब्रीड बीजों का कार्यकाल दो से तीन वर्ष होता है। इसके साथ ही उन्हें महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है। इन हाईब्रीड किस्मों को उगाने हर वर्ष पानी का संकट बढ़ता जा रहा है। क्योंकि ये फसलें यहां की जलवायु के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
वे बताते हैं कि 90 के दशक में हमारे विंध्य क्षेत्र में कोदो, कुटकी, सांवा, काकुन, ज्वार, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, तिल और अलसी आदि की खेती होती थी। इन फसलों में मौसम की मार सहने की अद्भुत क्षमता थी। ऋतुओं के साथ-साथ संचालित होने के कारण आगे पीछे फसलें पक जाती थीं। कोदो-कुटकी को तो 90 साल तो अकाल और दुर्भिक्ष के मौके के लिए सुरक्षित रखा जाता था।
रासायनिक बेतहाशा इस्तेमाल के कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है। मौसम बदलाव के कारण हर साल कभी सूखा और अधिक, अनियमित बारिश से फसलें खराब हो रही हैं। इसलिए हमें यहां की मिट्टी, पानी और आबोहवा के अनुकूल देशी अनाजों को बचाने की दिशा में बढ़ना चाहिए। हमें देशी बीजों की परंपरागत खेती की ओर लौटने पर विचार करना चाहिए, यही हमें खेती के संकट से निजात दिलाने में सहायक होगी।
यह बीज महोत्सव के मौके पर आयोजित पोस्टर प्रदर्शनी का हिस्सा है। यह कार्यक्रम 20-21 सितंबर को सतना में आयोजित किया गया था। इसे परंपरागत देसी बीज अनाज बीज महोत्सव समिति ने आयोजित किया था।
इस अवसर पर एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसमें देशी अनाजों के महत्व पर प्रकाश डाला गया था। कुटकी, सांवा, ज्वार, मक्का, जौ, कठिया, बाजरा, आदि अनाजों की कहानी आकर्षण का केंद्र थी।
बीज महोत्सव के संयोजक सतना जिले के एक छोटे किसान बाबूलाल दाहिया हैं, जो न केवल देशी बीजों के संरक्षण-संवर्धन में लगे हैं बल्कि इस धरोहर को लोक व्यवहार में लाने के लिए सतत प्रयासरत हैं। वे स्कूली बच्चों के बीच पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण के कार्यक्रम तो करते हैं, किसान और नागरिकों के बीच जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं।
बाबूलाल दाहिया सतना जिले की उचेहरा विकासखंड के पिथौराबाद गांव में रहते हैं। वे बघेली के साहित्यकार हैं और जब उन्हें लगा लोक भाषा, लोक साहित्य के साथ लोक अनाज भी बचाने की जरूरत है तब से वे देशी अनाजों के संरक्षण में लगे हैं।
सांवा जेठा अन्न कहावै, सब अनाज से आगे आवै
आज उनके पास देशी धान की करीब 110 किस्में हैं जिनको वे छोटे-छोटे भूखंड में हर साल उगाते हैं और बीज संरक्षण करते हैं। धान के अलावा, अन्य देशी अनाजों की किस्में भी हैं।
प्रदर्शनी में सांवा के बारे में पोस्टर कहता है कि- मैं सभी अनाजों का ज्येष्ठ भ्राता हूं। क्योंकि मैं भोजन से त्रस्त गरीब किसान को शीघ्र पककर उसे राहत पहुंचाता हूं। अगर किसान मानसूनी वर्षा के तुरंत बाद एक बार खेत में हल्की जुताई कर मेरे बीज बिखेर दें और एक दो पानी और मिल जाए तो मेरी फसल डेढ़ माह में पक जाती है। फिर चाहे मेरी आप रोटी खाएं चाहे भात। तभी तो लोग मेरे बारे में कहते हैं-सांवा जेठा अन्न कहावै, सब अनाज से आगे आवै।
तीन पाख दो पानी, पक आई कुटक रानी
कुटकी कहती है कि मैं सिर्फ तीन पखवाड़े में पक जाने वाला छोटा अनाज हूं। इसलिए लोग मेरे बारे में कहते हैं कि तीन पाख दो पानी, पक आई कुटक रानी। मेरी खिचड़ी या दूध के साथ पकाई गई खीर स्वाद में लाजवाब होती है। मैं अनेक औषधीय गुणों से परिपूर्ण हूं। पर मेरी गिनती खेती में नहीं की जाती है जैसे बकरी पालन को धन नहीं माना जाता। इसलिए कहते हैं- कुटकी खेती न म्यावधन।
कदम-कदम पर बाजरा दादुर कुदनी ज्वार...
ज्वार बोलती है कि मेरी लाल और मटमैले रंगों वाली लगभग बारह प्रजातियां थी। मेरी तासीर गर्म होने के कारण लोग मुझे कार्तिक से फागुन तक अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करते थे। कभी रोटी, कभी दलिया और कभी लाई के रूप में उपयोग करते थे।
हम अपने पारंपरिक तालाब, गढ़री, जोहड़, बावड़ी, चाल और खाल को बचाना चाहते हैं तो हमें अपने देशी (स्थानीय) अनाजों की किस्मों को भी बचाना या उन्हे पुनजीर्वित करना होगा क्योंकि देशी अनाज कम से कम पानी पाकर अपने को तैयार कर लेते हैं। मैं असाढ़ में बोने के पश्चात कार्तिक में पक कर आ जाती हूं। मेरी फसल को दूर-दूर अंतराल में बोने की परंपरा है। इसलिए मेरे साथ अरहर, तिल, अवारी, मूूंग उड़द, भिंडी, खीरा, ककड़ी और बरबटी आदि कई की मिलवां खेती की जा सकती है। कहावत भी कही गई है किः-
कदम-कदम पर बाजरा दादुर कुदनी ज्वार,
जो जन ऐसा बोइ है उनके भरे कुठार।
इसी प्रकार कठिया गेहूं की कहानी दर्ज थी। मेरा नाम कठिया गेहूं है। रंग में लाल और खाने में स्वादिष्ट होने के कारण लोगों के दिल दिमाग में मेरी आज तक पैठ बनी हुई है। मेरा हलवा लाजवाब होता है। मैं बगैर सिंचाई पकने वाली प्रजाति हूं पर बौनी जाति के मेरे अन्य विदेशी स्वजातीय भाईयों की घुसपैठ के कारण दिन प्रतिदिन मेरा रकबा सिमटता जा रहा है। अब मेरी खोज खबर सिर्फ बीमार लोग ही करते देखे गए हैं।
मैं जौ हूं। खाने में भले ही गेंहू की तरह कोमल और स्वादिष्ट लगूं पर मैं मनुष्य का बहुत पुरानी साथी हूं। मनुष्य ने अनाज के रूप में सब से पहले मेरी और तिल की ही पहचान की थी यही कारण है कि सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमो में आज भी मेरी पूंछ परख है। अब मेरा उपयोग मनुष्य के खाने में नहीं, भैंस को खिलाने मे किया जाता है।
मक्का कहता है कि मैं मनुष्य का प्रागैतिहासिक काल का साथी हूं। आग की खोज के पहले ही वह मुझे खाने के काम में लाता था। मेरा उपयोग रोटी, महेरी, फूटा आदि कई पकवानों में होता है । यदि भुट्टों को भूंज कर खाया जाय तो स्वाद में लाजवाब।
बाबूलाल दाहिया देशी अनाजों के महत्व के बारे में बताते हैं कि मौसम बदलाव के कारण यह जरूरी हो गया है कि हम अपनी मिट्टी पानी में वर्षों से विकसित बीजों को बचाएं। इनसे ही हमारी खेती बच सकती है। वे बताते हैं कि हमारे देश में 1965 में करीब 1 लाख 10 हजार धान की प्रजातियां थीं लेकिन वर्तमान में केवल 2 हजार ही धान की प्रजातियां बची हुई हैं। देशी व परंपरागत धान की कई ऐसी प्रजातियां थी जो प्रतिकूल मौसम में भी पककर तैयार हो जाती थी। इनमें कई कीट प्रतिरोधी थी।
मोटे अनाजों की श्रेणी में मुख्यतः कोदो, कुटकी, सांवा, काकुन, ज्वार, बाजरा, मेड़िया, मक्का आदि अनाज माने जाते हैं। हमारे देश मे इन की खेती लगभग हजारों वर्षों से होती चली आ रही है। जब मनुष्य ने आग की खोज नहीं की थी और इन अनाजों को पका कर खाने की तकनीक विकसित नहीं हुई थी तब मनुष्य के खानपान में फल, फूल कंद और मांस ही मुख्यतः शामिल थे। उन दिनों यह सभी अनाज घास के रूप में चिन्हित थे। पर आग की खोज के पश्चात मनुष्य इन अनाजों को कूट पीस और भून पकाकर खुद खाने लगा।
आज की हाईब्रीड बीजों का कार्यकाल दो से तीन वर्ष होता है। इसके साथ ही उन्हें महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है। इन हाईब्रीड किस्मों को उगाने हर वर्ष पानी का संकट बढ़ता जा रहा है। क्योंकि ये फसलें यहां की जलवायु के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
वे बताते हैं कि 90 के दशक में हमारे विंध्य क्षेत्र में कोदो, कुटकी, सांवा, काकुन, ज्वार, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, तिल और अलसी आदि की खेती होती थी। इन फसलों में मौसम की मार सहने की अद्भुत क्षमता थी। ऋतुओं के साथ-साथ संचालित होने के कारण आगे पीछे फसलें पक जाती थीं। कोदो-कुटकी को तो 90 साल तो अकाल और दुर्भिक्ष के मौके के लिए सुरक्षित रखा जाता था।
रासायनिक बेतहाशा इस्तेमाल के कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है। मौसम बदलाव के कारण हर साल कभी सूखा और अधिक, अनियमित बारिश से फसलें खराब हो रही हैं। इसलिए हमें यहां की मिट्टी, पानी और आबोहवा के अनुकूल देशी अनाजों को बचाने की दिशा में बढ़ना चाहिए। हमें देशी बीजों की परंपरागत खेती की ओर लौटने पर विचार करना चाहिए, यही हमें खेती के संकट से निजात दिलाने में सहायक होगी।
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Post By: Shivendra