तालाब यानि वरुण देवता का प्रसाद

पहाड़ी व पथरीले संताल परगना के इलाके में 41 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के बावजूद तालाब में अच्छी मात्रा में पानी की उपलब्धता जल संचय-प्रबन्धन के हमारे परम्परागत टिकाऊ सोच का जीता-जागता उदाहरण था। तालाब के चारों तरफ लगे वृक्ष हमारे पुरखों के जल के वाष्पीकरण को रोकने की वैज्ञानिक सोच को इंगित कर रहे थे। ब्रिटिश काल के अंग्रेज हुक्मरानों के ठसकों और हमारे मौजूदा हाकिमों के दम्भ से परे एक राजा परिवार के हाथों से निकलकर दूसरों के हाथों में आ गया है। घोर उपेक्षा व ज्यादती के दंश इसके सीने में लगे खरोचों में साफ नजर आ रहे हैं।झारखण्ड-पश्चिम बंगाल की सीमा पर स्थित यह गाँव पाकुड़ जिला (संताल परगना) का एक पुराना प्रखण्ड है। सड़क मार्ग के अलावा पटना-हावड़ा लूप रेल लाइन पर बीरभूम (पश्चिम बंगाल) के मुरारई स्टेशन से 10 कि. मी. का रास्ता तय कर भी यहाँ पहुँचा जा सकता है। एक जमाने में यह संताल परगना के “धान के कटोरे” के रूप में प्रसिद्ध था और यहाँ से सर्वाधिक राजस्व की वसूली होती थी। पर अब हालात वैसे नहीं हैं। आज भी यहाँ पर राजाओं के बिखरे पड़े ध्वस्त महल, कचहरी, अस्तबल, मन्दिर, नाचघर आदि पुरानी दास्तान बयाँ करते नजर आते हैं।

पूर्व में सुल्तानबाद परगना के नाम से प्रसिद्ध यह इलाक़ा घने जंगलों और जंगली जानवरों से भरा पड़ा था। यहाँ पहाड़ियाँ आदिम जनजाति का बाहुल्य था जिसका अगुआ चाँद सरदार था। जिला गजेटियर (1965) के अनुसार गोरखपुर (उ.प्र.) से आये खड़गपुर राजा के सम्बन्धी अबू सिंह और बाकू सिंह ने यहाँ के स्थानीय जमींदार को परास्त कर इस पर कब्जा जमाया। बड़े भाई बाकू सिंह ने महेशपुरराज में अपनी राजधानी स्थापित की। सन् 1781 ई. में अंग्रेज कलेक्टर क्लीवलैंड के समय में यह पाकुड़ के अम्बर परगना के साथ राजशाही जिला (वर्तमान बांग्लादेश) से अलग कर भागलपुर जिला में “पहाड़ियाँ उन्नयन योजना” के तहत मिला दिया गया।

झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने संताल परगना दौरे के दौरान पाकुड़ में घोषणा की थी कि पेयजल संकट को दूर करने के लिये हर जिले को एक-एक करोड़ दिये गए हैं। संताल परगना में लम्बित सिंचाई परियोजनाओं की बाधा दूर करने व चेकडैम, कुएँ तथा तालाबों को बरसात के पहले पूरा कराने हेतु जिला उपायुक्तों को आदेश दिये गए हैं। यह भी कहा गया कि पाकुड़ जिला सहित महेशपुरराज में बिजली आपूर्ति दुरुस्त कर दी जाएगी...। इस एक ने टोका, ‘‘बिजली वाली बात तो ठीक है।” सरकार जोर लगाएगी तो हो जाएगा, पर सिंचाई योजनाओं का क्या?

महेशपुरराज में ही करोड़ों रुपए खर्च कर बाँसलोई नदी पर बासमती से लेकर सोलहपटिया, धोबन्ना, बाबूपुर, इंग्लिश पाड़ा, लूढाई तक 20 जगहों पर लिफ्ट इरीगेशन की योजना शुरू की गई। कुएँ बने, पम्प हाउस बने इंजीनियर से लेकर आपरेटर, नाइट गार्ड, खलासी तक की बहाली हुई। आज के दिन सब ठप्प-सिर्फ आफिस ही टिप-टाप है।

बाँध-कुओं की भी तो यही स्थिति है। पीने के पानी की समस्या अलग। एक तो पानी में लौह तत्वों की अधिक मात्रा बीमारी का सबब, दूसरे इस गर्मी के मौसम में पानी का स्तर एकदम नीचे।

मैं खड़े-खड़े पूरी बातें सुन रहा था। मन में आया क्यों न बाँसलोई नदी को देखा जाय जिस पर बने लिफ्ट इरीगेशन की यहाँ चर्चा हो रही है। मैं सिंहवाहिनी मन्दिर होते हुए बाँसलोई नदी के किनारे पहुँच गया। नदी क्या, बस यूँ कहें कि बालू का ढेर! चैत में ‘‘सावन” की मेहरबानी से इधर-उधर जल की महीन रेखाएँ जरूर खिंच गई थीं। गोड्डा के बाँस पहाड़ से निकलकर पछवारा, सिलंगी, कुसकिरा से महेशपुरराज होते हुए बाँसलोई नदी मुरारई (प.बं.) पार कर भगीरथी में मिलती है। कभी यह संताल परगना की “जीवन रेखा” कहलाती थी। नदी के किनारे लिफ्ट इरीगेशन योजना के कुएँ के टूटे बिखरे रिंग बदहाली की पूरी दास्तान बयाँ कर रहे थे।

जीवनदायिनी जल से हमारा जुड़ाव और लगाव दूर का हो गया है तथा हमने कितनी उपेक्षा की है पानी व इसके प्रबन्धन के साथ। सहसा मुझे याद आ गई प्रख्यात पर्यावरणविद व गाँधीवादी अनुपम मिश्र की पुस्तक ‘‘आज भी खरे हैं तालाब” की। हाल में निर्मित लिफ्ट इरीगेशन सरीखीं सिंचाई योजनाएँ जब ‘‘डिलीवर” करने में खोटी साबित होती जा रही हैं, तो भी सदियों पूर्व हमारे पूर्वजों-पुरखों द्वारा निर्मित तालाब आज भी खड़े हैं लोगों की प्यास बुझाने व धरती का सीना तर करने के लिये? पंचायत के उप मुखिया अभिषेक सिंह ने बताया, ‘‘महेशपुरराज और इसके आस-पास के जो भी तालाब आज कारगर हैं, वे सब यहाँ के राजाओं द्वारा निर्मित है पूरे प्रखण्ड में सबसे बड़ा तालाब है ‘‘हँस सरोवर” वह यहाँ से 13 कि.मी. दूर देवीनगर पंचायत में है।

धड़ल्ले से हो रही पेड़ोें की कटाई और सीमित हो रहे वन क्षेत्र के इस दौर में भी देवीनगर में चतुर्दिक हरियाली है। देवीनगर में राजा उदय नारायण सिंह ने अपनी प्रजा के लिये हँस सरोवर का निर्माण करवाया था। वहाँ एक सुरंग के अवशेष भी दिखाई दिये। जो ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार वह यहाँ से 11 कि.मी. पूरब बिरकिट्टी गाँव में निकलती है। हँस सरोवर के पास पहुँचा तो इसके बनावट की सुन्दरता देख मन हर्षित हो उठा। तालाब के चारों ओर हरे-भरे पेड़ों की शृंखलाएँ और जल पर पड़ती उनकी छाया मनोरम दृश्य उपस्थित कर रहे थे। लाल लखौरी ईंटों से बनी बड़ी-बड़ी कलात्मक सीढ़ियाँ इसकी सुन्दरता बढ़ा रहीं थीं।

पहाड़ी व पथरीले संताल परगना के इलाके में 41 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के बावजूद तालाब में अच्छी मात्रा में पानी की उपलब्धता जल संचय-प्रबन्धन के हमारे परम्परागत टिकाऊ सोच का जीता-जागता उदाहरण था! तालाब के चारों तरफ लगे वृक्ष हमारे पुरखों के जल के वाष्पीकरण को रोकने की वैज्ञानिक सोच को इंगित कर रहे थे। ब्रिटिश काल के अंग्रेज हुक्मरानों के ठसकों और हमारे मौजूदा हाकिमों के दम्भ से परे एक राजा परिवार के हाथों से निकलकर दूसरों के हाथों में आ गया है। घोर उपेक्षा व ज्यादती के दंश इसके सीने में लगे खरोचों में साफ नजर आ रहे हैं।

40-50 बीघे में फैला यह तालाब अतिक्रमण की चपेट में आकर सिमटने लगा है। एक तरफ से मिट्टी भरकर तालाब-क्षेत्र को खेत में तब्दील करने का सिलसिला प्रारम्भ हो चुका है। राजा तालाब की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखते थे ताकि ग्रामीणों को शुद्ध जल मिल सके। अब मनमाने ढंग से गन्दगी फैलाने की छूट है। ग्रामीण भरे मन से कहते हैं, ‘‘एक समय में हंस सरोवर देवीनगर और महेशपुरराज की पहचान था। हमारे सामाजिक जीवन, आस्था विश्वास, पूजा व अनुष्ठान का केन्द्र था। पर आज हालात सामने हैं।”

लौटते समय मैं सोच रहा था कि पुराने लोगों ने जल की महत्ता को कितनी गहराई से समझा। इसकी एक-एक बूँद को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सहेज कर रखा। उन दिनों यहाँ पीने के पानी की घोर समस्या थी। तब राजा ने बनवाया ‘‘बाँधा पोखर”। जहाँ से सिर्फ पीने का पानी भरने की इजाजत थी। दूसरा पोखर खुदवाया ‘‘काना पोखर” नहाने-धोने के लिये। तीसरे का नाम ‘‘चील पोखर” पड़ा मछली पालन के लिये।

फिर सार्वजनिक व्यवहार के लिये एक और पोखर बनवाया ‘‘सिद्दार पोखर”। सरकारी उपेक्षा, लोेगों की ज्यादतियों, पर्यावरण से लगातार छेड़-छाड़ ने इनके रूप रंग को बिगाड़ रखा है। इसके बावजूद अपने सन्तानों के गले तर रखने व उन्हें शीतलता प्रदान करने को अपने आँचल में जल संजोए ये तालाब आज भी खड़े हैं। इस बीच सरकारी फाईलों में न जाने कितने तालाब खुदे और भरे होंगे-बिना एक बूँद जल टपकाए।

उपेक्षा की इस आँधी के बावजूद आज भी कई तालाब खड़े हैं। देशभर में कोई आठ से दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों को भी बाँट रहे हैं।

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Post By: RuralWater
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