तालाब: राम कोडावय ताल सगुरिया

राम कोडावय ताल सगुरिया दूर-दूर तक नज़र दौड़ायी । कहीं कोई नहीं । फूलचुहकी भी नहीं, जो उस दिन इसी महुए के पेड़ पर फुदकती दिख पड़ी थी । ऐसे में यह कौन मद्धिम स्वर में गा रहा है ? सिर पर पागा बाँधे,हाथ में तेंदू-लउड़ी धरे वह चरवाहा भी नहीं । फिर यह चिर-परिचित तान कौन छेड़ रखा है ? हाँ लोकगीत भी तो वही है । जगह भी वही । पर गायक है कि अदृश्य । शायद बचपन में सुना हुआ गीत गूँज रहा है । शायद मेरे भीतर के गायक को उसका प्रिय गीत याद आ गया हो-

राम कोडावय ताल सगुरिया
लछिमन बँधवाय पार


राम तालाब खुदवाते हैं । लक्ष्मण मेड़ बँधवाते हैं । ताल या तालाब ऐसा जो सागर ही हो । मेरे अपने जनपद छत्तीसगढ़ को न हिन्द महासागर स्पर्श करता है, न अरब सागर, न ही बंग सागर । समुद्री सीमा से पूर्णत: विलग । फिर भी लोक के आत्मबोध की गहराई कहें या आश्वस्ति की ऊँचाई कि यहाँ समुद्र के अभाव की पूर्ति ताल-तलैयों में ही सागर, सगुरी या सगुरिया का भाव देख कर कर ली जाती है । ताल को सागर मानना लघुता में प्रभुता की तलाश है । दरअसल अभाव ही लोक का भाव है । दरअसल यही भाव-दृष्टि, यही भाव-सृष्टि लोक की जीवंतता का रहस्य भी है ।

तालाब को सागर क्यों न माना जाय !


तालाब पानी का संग्रह मात्र नहीं । तालाब स्थिर पानी नहीं । उसमें जीवन की रवानी है । उसमें निरंतर शुचिता की कहानी है। नदी की धारा कंटकाकीर्ण दीर्घ यात्रा के पश्चात सागर बन पाती है पर तालाब तो स्वयं सागर है । सार्वजनिक श्रम बिंदु की इति तालाब का अर्थ है । बूँद-बूँद से सागर भरने का मुहावरा कितना सच है, कितना झूठ । बरोबर नहीं कहा जा सकता, पर इतना तो सोलह आना सच है कि एक-एक व्यक्ति के श्रम से जो तालाब रचा जाता है, वह जल- आपूरित होकर सागर का उल्लास जगाता है ।

जहाँ सब मिल जाते हैं, तीर्थ उपस्थित हो जाता है । जब समूचा गाँव एक साथ उमड़ पड़ता है, हाथों में गैंती, फावड़ा, कुदाल चमक उठता है । लोहे में व्याप्त सृजन का स्वर निनादित हो उठता है । हर कोई भगीरथ-सा प्रतीत होने लगता है । तब देखते-ही -देखते बंजर धरती ताल बन जाती है । मेघ का आशीर्वाद छलकने लगता है । प्रजा से लेकर राजा तक घाट की ओर खिंचे चले आते हैं । मन जल में लीन हो जाता है । मन का पोर-पोर भींग उठता है । तालाब का लबालब भर जाना उत्सव बन जाता है । उत्सव आनंद, उमंग, उल्लास, मंगल के अथाह जल में स्नान ही तो है । ऐसे स्नान के बाद गंगा, यमुना, सरस्वती आदि मोक्षदायिनी नदियों में स्नान का अर्थ फीका पड़ने लगता है । इसलिए गाँव का आदमी तालाब रचकर ही तीर्थ का पुण्य कमा लेता है । लक्ष्मण मस्तुरिया का कवि भी इस मर्म को अच्छी तरह समझता है -

कहाँ जाबे बड़ दूर हे गंगा
पापी इहें तरौ रे
मोर संग चलव जी


तालाब मानव की संचय-वृत्ति का परिणाम ही नहीं,


यह उसके अंतर्मन में महाजल के लिए अगाध सम्मान-प्रवृत्ति का भी अपर नाम है । जल मानव की प्रथम परिचिति है । मनु के तन-मन प्राण में जल आप्लावित है । जल जीवन की तृप्ति है । जल आत्मा की संतृप्ति है । जल के पड़ोस में ही उनेक सस्कृतियाँ जन्मी, पली, बढ़ीं । जल शुरू से ही आकर्षण, आश्चर्य एवं आदर भाव का विषय रहा है । प्रवाहित जल अर्थात् नदी सभ्यता से दूर होकर भी मानव जल को विस्मृत नहीं कर पाया, बल्कि उसने जल को अपने समीप ही प्रतिष्ठित किया । ताल,तालाब, बँधान ऐसी प्रतिष्ठा के नाम हैं । हमारे तालाब वरुण देव के मंदिर ही हैं । जहाँ जल होगा, वहाँ निर्मलता होगी । पावनता होगी। जहाँ निर्मलता होगी, पावनता होगी, वहाँ भोले बाबा स्वयंमेव खिंचे आयेंगे । तालाब की मेड़ पर भोले बाबा का डेरा लग जाये, तो गाँव बड़े सकारे तालाब से एक लोटा पानी उलीच कर उन पर रितोना कैसे भूल जायेगा । फिर मजाल है जो जलाभिषेक से मुदित होकर औघड़दानी असीस देना भूल जायें । तालाब स्नान-सत्र का नियत स्थल नहीं वह घर गृहस्थी वालों के लिए अध्यात्म का सूत्र है । डिंगल भाषा के व्याकरण ग्रंथ हमीरनामा में तालाबों को 'धरम सुभाव' कहकर श्रेष्ठता प्रदान की गई है । हमारे वैदिक ॠषियों ने सुदीर्घ मनन से सलाह दी है कि निवास के आसपास ही शुद्ध जल से परिपूर्ण जलाशय होना चाहिए । जलाशय की समीपता का आशय रसमयता की समीपता है । यजुर्वेद का ॠषि अपनी प्रार्थना में कहता है-

यो व: शिवतमो रस्तस्य भाजयतेह न:।
उशतीरिव मातर (यजुर्वेद 36-15)

''हे जल ! जैसे माँ अपनी सन्तान को दूध पिलाती है, वैसे ही जो तुम्हारा कल्याणतम रस है, उसे हमें प्रदान करें ।''यहाँ जल का अर्थ 'पानी' नहीं है, रस है । रसौ वै स: । जल में विद्यमान चार गुणों (शब्द, स्पर्श, रस एव रूप) में प्रमुख रस है । रस जल का सूक्ष्मतम गुण है । सृष्टि में जो भी सौंदर्य है, दीप्ति है, कांति है, संस्कृति है, वह रसमयता के कारण ही है । पानी स्थूल-स्वरूप है, जिससे देह का संपोषण होता है । रस सूक्ष्म स्वरूप है, जिससे आत्मा का संपोषण होता है । मनुष्य का चाल-चलन उसमें व्याप्त रस से ही निर्देशित होता है । आग में रस का सर्वथा अभाव होता है, इसलिए वहाँ न जीवन है, न आनंद है, न उल्लास है । परमात्मा सबसे सूक्ष्म हैं इसलिए सबसे सरस भी हैं । उनकी यही रसमयता ही अनंत ब्रह्मांडों की विविधता, विशिष्टता एवं निरन्तरता का केन्द्र है । रसहीनता निर्जीव का लक्षण है । नीरसता श्मशान का पर्याय है । रस की एकाध बूँद भी जिसमें होती है, उसे उत्फुल्लता से वंचित नहीं किया जा सकता । रस का सूखना मृत्यु की ओर बढ़ना है । कविता में रस होता है, इसलिए वहाँ रोचकता है । कवि इसी रस-आग्रह से अकेला होकर भी नहीं टूटता । आनंद के सागर में गोते पर गोते लगाता रहता है । मैं कवि को उसके रस-वितरण-कार्य के लिए सबसे बड़ा धार्मिक मानता हैं । रस से किसी को वंचित करना अधर्म है । जल के स्थूल रूप की अभिरक्षा ही हमारा अंतिम कर्तव्य नहीं है । उसके सूक्ष्म रूप में किसी को रस से वंचित न करना ही हमारा अंतिम लक्ष्य होना चाहिए । घर आये अतिथि को एक लोटा पानी देने में तृषा-निवारण का संस्कार गौण रस-संचारण का संस्कार असल है । रहीम के 'बिन पानी सब सून' में किसी की अवज्ञा, अपमान के निषेध का भी संकेत है । मानुष की जात भले ही पानी केरा बुदबुदा हो, हर इंन्सान 'पानी देने वाला' की कामना नहीं त्यागता, शायद इसलिए कि उसमें जो भी सरस है, उसके नहीं रहने पर भी बना रहे, बचा रहे ।

रस-प्रसंग पर मुझे वाल्मीकि और तुलसी के वनवासी राम वेदव्यास के नगरवासी कृष्ण से अधिक रसवंत जान पड़ते हैं । इसका आशय यह नहीं कि कृष्ण में सरसता नहीं। वे तो रसावतार हैं । पर राम की रसिकता लोकमन-सा अथाह है- ''राम सीय जस सलिल सुधा सम ।'' कृष्ण स्वयं को नदियों में श्रेष्ठ गंगा कहते हैं । 'स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी।' इससे दो कदम आगे बढ़कर वेद व्यास अर्जुन की प्रश्नाकुलता पर कृष्ण को पृथ्वी के जलाशयों में सबसे बड़े अर्थात् समुद्र निरूपित करते हैं । सरसामस्मि सागर:। लाँघने की कुचेष्टा नहीं करते । यह अधिकार तो अन्त्यज केवट को है । यहाँ तुलसी के राम गंगा अर्थात् रस और केवट अर्थात् रस आश्रित दोनों की अस्मिता की रक्षा करते हैं । गंगा जैसी नदिया या सागर से कहीं क्षुद्र पम्पा सरोवर के सम्मुख वाल्मीकि के वनवासी राम की सरसता इतनी सरल हो जाती है कि उन्हें न इन्द्रलोक की आकांक्षा रह जाती है, न अयोध्या राज्य की -

यदि दृश्येत सा साध्वी यदि चेह वसेमहि ।
स्पृहयेयं न शक्राय नायोध्यायै रघुत्तम ॥
न ह्मेवं रमणीयेषु शाद्वलेषु तथा सह ।
रमतो मे भवेच्चिन्ता न स्पृहान्येषु वा भवेत् ॥ (वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड प्रथम सर्ग, 95-36)


यह सरोवर का संस्कार हीं है,


जो वियोगी राम के मन को सरस बनाये रखता है, सूखने नहीं देता । सीता की अनुपस्थिति में भी उन्हें सरस बनाता है । सरसता ही प्राण है। जो सरोवर जीवन का राग रचे, उसका समाज क्यों कर आराधना न करे । इस आराधना से मेरी, जब तक गाँव में रहा, अविकल घनिष्ठता बनी रही । अब यह आत्मा का गीत बन चुका है । तब मैं बहुत छोटा था । नानी, माँ, मौसी या मामी के पीछे-पीछे एक गमछा पकड़कर मैं भी पानखाई तालाब पहुँच जाता । तब तक डुबकता, दूसरे बच्चों पर पानी उछालता, जब तक वे नहा-धोकर मेड़ पर नहीं आ जाते । कभी-कभी आँखे रक्तिम हो जातीं, तो माँ की डाँट पड़ती । नानी को चुटकी लेने का अवसर मिल जाता-पानबुड़ीर पुअ आऊ केन्ता थीबा (पानबुड़ी का बेटा और कैसा होगा ) बड़े भोर से स्नान-ध्यान करने के कारण बड़े पिताजी को गाँव के लोग प्यार से 'पानबुड़ी' कहकर बुलाते थे । नानी आदि सभी अपने साथ बाल्टी में लाये आधे जल को रास्ते के वटवृक्ष की जड़ में उड़ेलते और शेष को घर के तुलसी चौरे में । मैं जल चढ़ाने का मतलब तब नहीं समझता था । पर मैं भी कभी-कभार एकाध लोटा पानी वटवृक्ष मे उड़ेल देता और देखा- सुना मंत्र मन ही मन कहता -'शंकर बाबा ! मुझे विद्या देना, बुद्धि देना ।'

उम्र बढ़ी तो तालाब का सम्मोहन भी बढ़ गया। शाम ढलने से घटों पहले ही तालाब के लिए मन मचलता रहता। स्कूल के संगी-साथियों की मंडली तालाब की मेड़ पर जम जाती। दुनिया भर की बातें बैठे-बैठे मन का पर्यटन। मेड़ से गुजर कर दूसरे गाँव को जाने वाले से अनेक प्रश्न -कहाँ के हो? कहाँ जा रहे हो? वहाँ के गुरुजी को जानते हो? कब गहिरा मेला है? कब रथयात्रा है? आदि-आदि। मन फिर आँखों के साथ तालाब के वैभव पर जा टिकता? पुरइन पे पत्ते इतने घने कि लगते जैसे तालाब ने हरी चादर ओढ़ रखी हो? बीच-बीच में कमल दीप की तरह टिमटिमाते रहते। जलपक्षी भूले से किनारे आ जाते, तो हा-हू करने से पहले ही फुर्र से उड़ जाते और तालाब के मध्य जा बैठते। हममें से कोई पानी की सतह पर आये मेंढ़क राजा को एकाध कंकड़ मार देता तो बहस छिड़ जाती -तुम्हें मारने से कैसा लगेगा भला! हाँ! एक पादासन रत बगुले को देखकर सभी चिढ़ जाते -धूर्त कहीं का, मछली की ताक में भगत बना बैठा है।

नहावन घाट से दाँयी तरफ धोबी घाट था । धोबिन दिन-भर गाँव-भर का कपड़ा-लत्ता पटक-पटक कर धोती । धोबी काली हंड़ियों में राख डालकर कपड़ों को पकाता रहता । कभी-कभी वह लोकगीत की कोई पंक्ति गुनगुना पड़ता । बाईं तरफ वाले घाट में पनिहारिनें पीने-खाने का पानी भरने उगती थी । वे झुंड में आतीं, तो हम सबके कान खड़े हो जाते । आप न पूछ बैठे कि मानस क्या-क्या सुना है वहाँ ? भई, वही जो आप भी जानते हैं कि किस छोकरे का गाल टमाटर-सा लाल है ? किसकी आँखों में जादू है ? किसने किसे महुआ बीनते वक्त कोरिया फूल फेंक कर नेह का आमंत्रण दिया था ? किसके डउका (पतिदेव ) ने कल ----हाँ--- हाँ वही --आप तो समझदार हैं। कदाचित् ऐसे किसी ताल-तलैया में निराला ने जो देखा-महसूसा, वह कंठहार कविता बनकर आज भी रसमय बना देती है -

बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु
पूछेगा सारा गाँव बन्धु


खैर ! निराला की निराला ही जाने । गाँव का यह तालाब मेरी कविता में कब शामिल हो गया, मुझे पता ही नहीं लगा -

तालाब का ठहरा हुआ पानी
बहता रहे भीतर-ही -भीतर
और सघन हों पहाड़ियाँ
उगे कुछ अधिक टहनियाँ
टहनियों पर कुछ और कोंपले फूटें
उससे ज्यादा फूल
फूल से ज्यादा फल

उमड़ पड़ें रंग-बिरंगी तितलियाँ
हवा कुछ कदम और चलकर आ सके
खिड़कियाँ खुली हुईं हों इससे अधिक
सपनों की और करीब हों आँखे
मुस्कानों में निश्च्छलता का अंश बढ़ता रहे
कोने-अंतरे के रूदन से दहल उठे ब्रह्मांड
तारों को मुस्काता देख
चांद बन पड़े कुछ ज्यादा सुंदर/इसी तरह सूरज भी

इसलिए कि हम सभी को कहा जा सके
अधिक सुंदर अधिक प्रखर (होना ही चाहिए आंगन-मनोकामना -78)


तालाब सिर्फ जलाधार नहीं,


तालाब सिर्फ पानी का ठहराव भर नहीं । तालाब तन-शुद्धि का परंपरित आगार है और मन-शुद्धि का प्रतिष्ठित आकार भी है । इसलिए तालाब में समाज का मन झलकता रहा । और समाज के मन में तालाब छलकता रहा । भारतीय मन में एक बार कोई बस जाये, तो वह एकाकी नहीं रह पाता । वहाँ 'कुछ-कुछ' भी 'बहुत कुछ' के साथ मिलकर 'सब कुछ' बन जाता है । यही भारतीय मन का अद्वैत है । तालाब सबका पानी लेकर ही प्राणवान हो पाता है । उसका पानी सबके पानी में उपस्थित होता है । प्राण-प्रतिष्ठा एक छोटे से तालाब की होती है, परन्तु आवाहन सारे भारत की पवित्र नदियों का होता है ।

पानी के संस्कार-महोत्सव में जलदेवता वरुण, इन्द्र सहित पंचदेव स्वयंमेव स्मरण हो आते हैं । पानी का कर्म सबके लिए धर्म बन जाता है । पानी का प्रबंध समाज के लिए कर्तव्य बोध का ललित निबंध बन जाता है । बूँद-बूँद में सागर दिखाई देता है । मृगतृष्णा परास्त हो जाती है । पखेरुओं को चोंच भर पानी मिल जाता है । मवेशियों की प्यास मिट जाती है । सारा गाँव बड़े भोर से अवगाहन कर शांत-शीतल-समुज्ज्वल हो उठता है । वेद-पुराणों मे पानी को राजा की कसौटी माना गया है । मत्स्यपुराण और अनुशासन पर्व में कहा गया है -

शालाप्रपातडागानि देवतायतनाति च
ब्राह्मणावसथाश्चैवर् कर्तव्य नृप सत्तमै ।

शुक्रनीति के मत में सीढ़ियों वाले जलाशय, तालाब, झीलें आदि खुदवाना राजा का परम कर्तव्य है । ऐसे परम कर्तव्य के पालन में खारवेल राजा रुद्रदामा (ईसा पूर्व चौथी शताब्दी) अग्रपांक्तेय हैं, जिन्होंने बिना बेगार लगाये राज्यकोष से जूनागढ़ के पास सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार कराया था । इस झील का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य एवं अशोक के प्रांतपतियों ने किया था । दक्षिण भारत के पत्लव राजाओं ने अनगिनत तालाब खुदवाये थे जिसका पानी आज भी पुरातन रस की ओर याद दिलाता है । तालाब हर काल में राज-काज की सफलता की इकाई रहे । पहले तो बसाहट की पहचान तालाबों से होती थी । कोई यह न पूछता था कि कितनी आबादी वाला गाँव या शहर है। प्रश्न होता कि कितने तालाबों वाला गाँव है ? हाल ही में अड़भार गया था । नवरात्र में, अष्टभुजी देवी के दर्शन करने । लोगों से सुना तो मन ही मन गुनने लगा-हो न हो माई अड़भार में कई शताब्दी से इसलिए फूटी झोपड़ी में रहकर खुश है, क्योंकि उसके गाँव में स्नान-ध्यान के लिए छह कोरी छह आगर (126)ताल-तराई जो रहे हैं । छत्तीसगढ़ तालाबों को कुपुँआरा नहीं छोड़ता, वह उसकी शादी रचाता है । बाकायदा बरात निकलती है, दाइज-डोर के साथ विदाई होती है । तालाब यहाँ के परिवारिक रिश्तों से जाने जाते हैं । कहीं वह मामा -भांचा तराई कहलाता है, तो कहीं बूढ़ा तालाब । अब यह दीगर बात है कि नल के शावर से भिगोने वालों का मन बातों में भींग न पाये । कदाचित् वे मुझे ही उल्टा गधा समझें । मिनरल वाटर की बोतल पर जीने वालों को तालाब पानी के एक गड्ढे से ज्यादा न समझ आये । कदाचित् आधुनिकता और प्रायोजित सतर्कता की अंधी घुडदौड़ में शामिल कथित सभ्य लोगों को मैं ही पिछड़ा या दकियानूस नजर आऊँ । मुझे उनसे कोई शिकवा नहीं । मुझे तो अपने जैसे उन लोगों के चरित्र का दुख है, जिन्होंने कभी पानी का रास्ता बनाया था, पानी की रखवाली की थी, घाट रचा था, घाट पर पाट रखा था, उन्होंने ही तालाबों को वनवास दे दिया । अपने ही हाथों पानी को मार दिया । अजीब उलटवासी है कि तालाब प्रसन्न थे जब हम असभ्य थे। आज जब हम सभ्यता के उत्तर आधुनिक दिक् पर खड़े हैं, तो तालाब उदास, विषाक्त और गायब होते जा रहे हैं । मन की बातें किससे कहूँ ! शायद गाँव का वह बूढ़ा चरवाहा भी अब रहा नहीं।

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