बस्तर अंचल में रोजगार के नए अवसर सृजित करने के लिए कल-कारखानों, खेती के नए तरीकों और पारम्परिक कला को बाजार देने की कई योजनाएँ सरकार बना रही है, लेकिन यह जानना जरूरी है कि जब तक इलाके में पीने को शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, ऐसी किसी भी योजना का सफल होना संदिग्ध है
अलग छत्तीसगढ़ राज्य बनने से बस्तर को भले ही कुछ खास भला ना हुआ हो, लेकिन वहाँ शहरीकरण की गति तो बढ़ी। पूरे संभाग में सात जिले बने, तो उसके लिए जरूरी महकमे व ओहदेदार भी वहाँ रहने लगे। विडम्बना है कि हर समय तर रहने वाला बस्तर अब पूरे साल बूँद-बूँद पानी को तरस रहा है। खासतौर पर शहरी इलाकों का विस्तार जिन तालाबों को सुखा कर किया गया, अब कँठ सूख रहे हैं तो लोग उन्हीं को याद कर रहे हैं। अभी दो दशक पहले तक बस्तर इलाके में 25,934 तालाब हुआ करते थे, हर गाँव में कम से कम तीन-चार ताल या जलाशय। ये केवल पानी की जरूरत ही नहीं पूरा करते थे, आदिवासियों की रोजी-रेाटी व इलाके के मौसम को सुहाना बनाने में भी भूमिका अदा करते थे।सन 1991 के एक सरकारी दस्तावेज के मुताबिक इलाके के 375 गाँव-कस्बों की सार्वजनिक जल वितरण व्यवस्था पूरी तरह तालाबों पर निर्भर थी। आज हालात बेहद खराब हैं। सार्वजनिक जल प्रणाली का मूल आधार भू-जल हो ग्या है और बस्तर के भू-जल के अधिकांश स्रोत बेहद दूषित हैं। फिर तालाब ना होने से भू-जल के रिचार्ज का रास्ता भी बँद हो गया। यह बात सरकारी दस्तावेज में दर्ज है कि जब बस्तर, केरल राज्य से भी बड़ा एक विशाल जिला हुआ करता था, तब उसके चप्पे-चप्पे पर तालाब थे। आज जिला मुख्यालय बन गए जगदलपुर विकासखंड में 230, कांकेर विकासखंड में 275, नारायणपुर में 523, कोंडागाँव में 623, बीजापुर में 302 और दंतेवाड़ा में 175 तालाब हुआ करते थे। दुगकोंदल में 410, फरसगाँव में 678 कोंटा में 440, कोयलीबेड़ा विकासखंड में 503 तालाब हुआ करते थे। सुकमा, दरभा, भोपालपट्नम जैसे दूभर इलाकों का जनवीजन तो तालाबों पर ही निर्भर था।
सनद रहे कि इलाके में ग्रेनाईट, क्वार्टजाइट जैसी चट्टानों का बोलबाला है और इसमें संध्रता बहुत कम होती है। इसके चलते बारिश का जल रिसता नहीं है व तालाब व छोटे पोखर वर्षा को अपने में समेट लेते थे। आज के तालाबों के हालात तो बेहद दुखद हैं। बस्तर संभाग का मुख्यालय जगदलपुर है। बस्तर तो एक गाँव है, कोंडागाँव से जगदलपुर आने वाले मार्ग पर। सन 1872 में महाराज दलपत राय अपनी राजधानी बस्तर गाँव से उठा कर जगदलपुर लाए थे। इसी याद में विशाल दलपतसागर सरोवर बनवाया गया था। कहा जाता है कि उस समय यह झीलों की नगरी था और आज जगदलपुर शहर का जो भी विस्तार हुआ है, वह उन्हीं पुराने तालाबों को पाट कर हुआ है। दलपतसागर का रकबा अभी सन 1990 तक साढ़े सात सौ एकड़ हुआ करता था जो अब बामुश्किल सवा सौ एकड़ बचा है। पानी की पूरी सतह जलकुंभियों से पटी है व सफाई के अभाव में तालाब बेहद उथला हो गया है। थोड़ा सा पानी बरसने पर शहर की कई कालेानियाँ पानी में डूब जाती हैं और वहाँ के वाशिंदे हल्ला-गुल्ला करते हैं कि पानी उनके घर में घुस रहा है। जबकि हकीकत तो यह है कि ये पूरी रिहाईश ही पानी के घर में घुस कर बसाई ग्ई हैं। जल निधियों से समृद्ध ऐसे शहर में अब दलपत सागर तथा गंगा मुंडा तालाब को छोड़ कर अन्य तालाबों का कोई अता पता नहीं है।
चार दशक पूर्व तत्कालीन टाऊन प्लानिंग के अनुसार जगदलपुर में करीब आधा दर्जन से अधिक तालाब हुआ करते थे। जिसका उपयोग यहां के लोग निस्तार के लिए किया करते थे। तब दलपत सागर व गंगामुंडा के अलावा नयामुुंडा तालाब, बाला तराई, केवरामुंडा, रानमुंडा तथा तत्कालीन अघनपुर तथा वर्तमान में गुरूगोविंद सिंह व छत्रपति शिवाजी वार्ड में दो तालाब थे। लेकिन यहाँ देखने के लिए महज दो ही तालाब रह गये है। हालाँकि अभी कोई तीन तालाब शहरी क्षेत्र में मौजूद है जिनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ठीक इसके विपरीत शहर की आधी से अधिक आबादी को दिन में एक बार भी पानी नहीं मिलता है। पीएचई नलकूपों को रोपने में अपना फायदा देाता है तो यहां का भूगर्भ इस प्रयोग को स्वीकार नहीं करता है।
नतीजनन, जनता पानी को तरसती है व महकमें कागजी घोडों को बजट की घास खिलाते रहते हैं। दंतेवाड़ा में लाल आतंक व पुलिस अत्याचार के ही इतने किस्से होते हैं कि जनता भूल गई है कि वे पानी के लिए भी तरस रहे हैं। यहाँ भी पुराने तालाबों में हो रहे अतिक्रमण और पटते तालाबों के गहरीकरण को गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा हैं। दक्षिण बस्तर जिले के कारली, मांझाीपदर, चितालंका, पुरनतरई, टेकनार, कुम्हाररास, चितालूर, दंतेवाड़ा, तुमनार, समलूर, बिंजाम, नागफनी आदि स्थानों में सदियों पुराने विशाल जलाशय हैं। बारसूर को तो तालाबों और मंदिरों की नगरी ही कहा जाता है, यहाँ के 147 तालाबों में से सौ से ज्यादा तालाब खेतों में तब्दील हो चुके हैं। पुरनतरई, कुम्हाररास, टेकनार, चितालूर, बारसूर के तालाबों से लगे जिन किसानों की खेत हैं, वे अपने खेतों का रकबा तालाबों की सीमा के अंदर तक बढ़ा चुके है।
कांकेर शहर में पानी का संकट स्थाई तौर पर डेरा डाले हुए है। उदयनगर, एमजी वार्ड जैसे घने मुहल्लें में नल बामुश्किल आधा घंटा टपकते हैं। वहीं जमीन पर देखें तो काकेर के चप्पे-चप्पे पर प्राचीन जल निधियाँ हैं जो अब पानी नहीं, मच्छर व गन्दगी बाँटती हैं । शहर की शान कहे जाने वाले इण्डिया तालाब को चौपाटी निर्माण योजना के चलते आधे से ज्यादा हिस्सा पाट दिया गया है। पालिका की चौपाटी की योजना तो चौपट हुई उसके चलते तालाब का हिस्सा भी चौपट हो गया। शहर के माहुरबंद पारा वार्ड के बीचों-बीच स्थित डबरी है तो अब लोगों को याद ही नहीं है क्योंकि उस तक पहुँचने का रास्ता ही भूमाफिया चट कर गए है। इसके साथ ही तालाब के बड़े हिस्से पर दुकानें बना दी गईं। शीतलापारा के दीवान तालाब को कचरें से पाट दिया गया। शहर के बीचों-बीच स्थित गोसाई तालाब का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है, क्योंकि उसे बाकायदा सुख कर हजारों मकान बना दिए गए। कांकेर नगरपालिका दफ्तर के ठीक सामने स्थित दुधावा तालाब को बिल्डर देखते ही देखते हड़प गए व सरकारी रिकार्ड में वहाँ कालोनी दर्ज हो गई। सुभाष वार्ड की डबरी हो या फिर मेला भाठा स्थित काकालीन तालाब , सरकारी अफसरों, नेताओं व बिल्डरों की मिलीभगत से पाट दिए गए।
हालात अकेले शहरों के ही नहीं दूरस्थ अंचलों के भी भयावह हैं । बस्तर संभाग के 70 फीसदी सिंचाई तालाबों का पानी सूख चुका है अथवा बहुत थोड़ा पानी बचा है। जलाशयों का पानी सूखने से इतना तो तय हो गया है कि आने वाले दिनों में सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलेगा और जल निस्तारी समस्या से भी ग्रामीणों को जूझना पड़ेगा। जलाशयों में गर्मी के दिनों में पानी के जल्दी सूख जाने की समस्या आठ-दस साल से ज्यादा गहराने लगी है। मौसम में परिवर्तन तथा गर्मी में बढ़ोत्तरी को सिंचाई विभाग के अफसर इसका प्रमुख कारण मान रहे हैं। बस्तर संभाग में जल संस्थान विभाग की 292 लघु व मध्यम सिंचाई योजनाएं स्थापित हैं, इनमें से 195 सिंचाई जलाशय है, तीन बड़े जलाशयों कोसारटेडा (जल भराव क्षमता 56 मिलियन क्यूबिक मीटर) परलकोट क्षमता 54 मिलियन क्यूबिक मीटर व मयाना जल भराव क्षमता 5 मिलियन क्यूबिक मीटर को छोड़ दिया जाये, तो शेष लघु योजनाएँ हैं, जिनकी जल भराव क्षमता प्रत्येक की औसतन आधा क्यूबिक मीटर से एक क्यूबिक मीटर तक है।
जल संसाधन विभाग के संभागीय कार्यालय इंद्रावती परियोजना मंडल के अनुसार कोसारटेड में जलभराव क्षमता का करीब 35 फीसदी, परलकोट में 24 और मयाना में 7 फीसदी ही पानी बचा है। दूसरी तरफ 137 के आस-पास जलाशय ऐसे हैं जहाँ पानी नहीं है या सूखने की कगार पर है। इंजीनियरों का कहना है कि जल संसाधन विभाग के जलाशयों में एक लेवल डेड वाटर का भी होता है। जब वाटर लेवल डेड की स्थिति में पहुँच जाता है तक गेट से पानी नहर में नहीं आता है। शहर के नजदीक बकावंड ब्लाक में ग्राम ढोढरापाल स्थित जलाशय में पानी सूख चुका है तथा एक सीमित क्षेत्र में ही कीचड़ नजर आ रहा है। एक पखवाड़े में कीचड़ भी सूख जायेगा ऐसी स्थिति कई जलाशयों की है। विभागीय जानकारी के अनुसार सबसे खराब स्थिति मध्यम बस्तर व नारायणपुर जिले के जलाशयों की है। दक्षिण बस्तर में पथरीली जमीन होने से जलाशयों में कुछ ज्यादा ही पानी ठहरता है, परन्तु मई मध्य से लेकर मानसूनी बारिश शुरू होने तक वहाँ की स्थिति भी संतोष जनक नहीं रहती है।
बस्तर अंचल में रोजगार के नए अवसर सृजित करने के लिए कल-कारखानों, खेती के नए तरीकों और पारम्परिक कला को बाजार देने की कई योजनाएँ सरकार बना रही है, लेकिन यह जानना जरूरी है कि जब तक इलाके में पीने को शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, ऐसी किसी भी योजना का सफल होना संदिग्ध है और इसके लिए जरूरी है कि पारम्परिक जल संसाधनों को पारम्परिक मानदंडो के अनूरूप् ही संरक्षित पर पल्लिवत किया जाए।
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