जीवन के उत्तरार्द्ध में मैंने पथारोहण के साथ ही यात्रा संस्मरण लिखना, फोटोग्राफी करना और पर्वतारोहण सम्बन्धी साहित्य का अध्ययन करना आरम्भ किया है। कैलास पर्वत एण्ड टू पासेज ऑफ द कुमाऊँ हिमालय ह्यू रटलेज ने रालम पास और ट्रेल पास अभियान का वर्णन किया गया है। ह्यू रटलेज ने अपनी पत्नी और लेखक विल्सन के साथ जून 1926 में मरतोली से ब्रिजिगांग, सिपाल (रालम) धुरा, सिनला पास और लिपूलेक पार कर तिब्बत में प्रवेश किया था। रटलेज ही प्रथम यूरोपीय था, जिसने कैलास की परिक्रमा की थी। ह्यू रटलेज का दल भऊंटा धुरा पार कर ट्रेल पास को पार करने के उद्देश्य से 8 अगस्त को पुनः मरतोली पहुँचा और 11 अगस्त को ट्रेल पास पार करने में सफल हुआ था। श्रीमती रटलेज इस गिरि पथ रटलेज की भाँति इन सभी गिरिद्वारों को पार करना तो था नहीं। परन्तु जब मैंने अनायास ही ऊँटा, खिगंरू और ट्रेल पास पार कर लिया था तो मेरे मन मेें विचार उठता रहा कि सिपाल धुरा पार कर एक बार ब्यांस घाटी में प्रवेश किया जाए। रटलेज से पूर्व रालम और सीपू गाँव के लोग भी प्रायः इस मार्ग से आवागमन करते रहते थे। 1861 मेें कर्नल एडमिण्ड स्मिथ में इस गिरिद्वार को पार कर यात्रा वर्णन लिखा था। सन 1846 के लगभग ला टोचे नाम के एक भूगर्भ शास्त्री को भी इस भूभाग के सर्वक्षण का अवसर प्राप्त हुआ था।
सौभाग्य से जब मैं 1995 के अगस्त माह में कैलास के निकट उन्नीस हजार फिट ऊँचे डोलमा ल्हा और भारत तिब्बत सीमा द्वार पर स्थित लीपूलेक को पार कर वापस गुन्जी पहुँचा, तो मुझे मुनस्यारी का एक परिचित गोविन्द सिंह कोरंगा मिला, जो पोर्टर के रूप में पहले ही सिपालधुरा पार कर चुका था। वह मेरे साथ चलने के लिये सहमत हो गया अब हम काली के किनारे दार्चुला जाने की अपेक्षा कुयाग्ती के किनारे उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ने लगे।
1962 में भारत-तिब्बत व्यापार बन्द हो जाने के पश्चात भी ब्यांस घाटी पूर्ण रूप से आबाद है सभी गाँवों में चहल-पहल है। बेल, रागा और भोज पत्रों के जंगल से सम्पूर्ण ब्यांस घाटी आच्छादित है। गुन्जी से अठारह किमी. पर पहली पड़ान कुटी और अड़तीस किमी. पर दूसरा पड़ान ज्योलिंगकौंग पड़ता है। ज्योलिंगकौंग के सम्मुख ही पश्चिम में सिनला गिरिद्वार के निकट छोटा कैलास का उच्च शिखर है। जिसकी परछाई पार्वती सरोवर में पड़ने से दृश्य अति मनोहारी लगता है। ज्योलिंगकौंग रंग-बिरंगी फूलों और घास से आच्छादित एक विस्तृत बु्ग्याल है। हजारों भेड़, बकरियाँ चुगने के लिये जाती हैं। ज्योलिंगकौंग से 18030 फीट ऊँचे सिनला को पार कर दारमा घाटी के विदांग गाँव में पहुँचा जा सकता है। यद्यपि सिनला के दोनों ओर मार्ग विकट है, परन्तु विदांग की ओर से मार्ग पर ऊपर से पत्थर गिरने और चट्टान पर पांव फिसलने का भय अधिक है। ज्योलिंगकौंग की भाँति विदांग भी एक विस्तृत बुग्याल है। जहाँ राथी-जुम्मा के भेड़ पालकों के डेरे तथा भा.ति.सीमा पुलिस की चौकी है। विदांग भारतीय खम्पाओं का पुराना गाँव है। अब ये लोग तवाघाट, पिथौरागढ़, टनकपुर तथा नैनीताल में स्थायी रूप से व्यवस्थित हो गए हैं। केवल पूजा के निमित्त यहाँ आते हैं।
अतीत में नुई ल्हा से दारमा और मनवन ल्हा से कुटी के व्यापारी तिब्बत के छाकरा मण्डी में व्यापार हेतु जाया करते थे। विदांग की ओर से बहने वाली दारमा गाड़ और सीपू की ओर से आने वाली लसरयांग्ती के संगम पर दाईं ओर तिदांग और ढाकर तथा बाईं ओर मार्छा गाँव बसे हैं। गो से आगे यह नदी धौली कहलाती है। हम ज्योलिंगकौंग से चल कर रात में धौली नदी के बाएँ तट पर स्थित गो गाँव पहुँचे।
अगस्त माह के तृतीय सप्ताह में दातों गाँव मेें गबला देवता का समारोह मनाया जा रहा था। ऊपरी दारमा घाटी के प्रायः सभी लोग मेले में आए हुए थे। गो में धौली पार कर हम दातों जाने की अपेक्षा नदी के दाएँ किनारे ऊपर की ओर बढ़ने लगे। दारमा घाटी का सम्पूर्ण क्षेत्र पल्थी के गुलाबी और सरसों के पीले फूलों से सुशोभित था। गो से हम ढाकर, तिदांग और मार्छा होते हुए सीपू गाँव पहुँचे। इन सभी गाँव के लोगों ने चाय पिलाकर हमारा सत्कार किया। मार्छा गाँव के लोगों से उनके अतीत की घटनाओं तथा वर्तमान परिस्थितियों पर चर्चाएँ हुईं ।सीपू गाँव में पातों गाँव की सीता और बिकू नाम की दो विवाहित लड़कियाँ मिलीं। मातृ (मायका) देश मुनस्यारी के परिचित व्यक्तियों के आगमन पर उन्हें बहुत ही प्रसन्नता हुई और उन्होंने भ्रातृवत हमारा सत्कार किया। 1992 में सिपालधुरा पार कर रालम पहुँचने के उद्देश्य से हरीश पांगती भी बिकू के घर में रुका था। ऐसे साहसी, मृदुभाषी और होनहार नवयुवक के हमारे मुख से निधन का समाचार सुनकर बिकू बिलख-बिलख कर रोने लगी। वास्तव में हरीश जहाँ भी जाता था, अपने मधुर स्वभाव से सबके मन को जीत लेता था। आज लोगों के मन में उसकी एक मधुर स्मृति ही शेष रह गई है।
22 अगस्त की प्रातः सीपू गाँव से चार किमी. आगे चढ़ने क पश्चात हम लसरयांग्ती के पश्चिम से बहने वाले नाले के दाएँ किनारे से आगे बढ़े। उस नाले पर संगम के निकट भोजपत्र के पतले डण्डों पर बड़े-बड़े चौड़े पत्थर बिछाकर बनी हुई पुलिया टूटने ही वाली थी। अतः कुछ ऊपर चढ़ने के पश्चात नाले में पड़े बड़े पत्थर से तीन मीटर तक छलांग मार कर हमने नाला पार किया। ऐसी स्थिति में यदि कोई छलांग मारने का साहस न कर पाए या पांव फिसल जाए तो वह पल भर में उपनती हुई जलधारा में समा जाएगा। परन्तु हमारे सम्मुख समस्या थी, पार उतरने की , मरता क्या न करता । बारह बजे हम हिमाचल के एक भेड़ पालक के डेरे में पहुँचे। वहाँ पर भोजन करने के पश्चात हम आगे बढ़े। स्यूंतीला हिम शिखर की ओर से आने वाले ग्लेशियरी नाले को पार करते हुए पग-पग पर पत्थर गिरने का भय था। लगभग पन्द्रह हजार फिट की ऊँचाई पर पहुँचने पर गोविन्द ने मुझे कुछ क्षण एक चट्टान के सहारे विश्राम करने का आग्रह किया। घना कोहरा छाया हुआ था। सिलिट (बुग्यार) गिरने लगा और मैं पॉलिथीन शीट से ढक कर चट्टान के सहारे दुबका पड़ा रहा। दो घण्टे तक गोविन्द वापस लौटा नहीं। उसे पुकारने पर केवल मेरी आवाज ही प्रतिध्वनित हो वापस आ रही थी। लगभग छः बजे होफते हुए मेरे निकट पहुँच कर उसने बताया कि हम दिशा भटक गए हैं। अब हमें पुनः डेढ़ हजार मीटर नीचे समतल ग्लेशियर पर उतरना होगा। मोरने युक्त ढलान पर फिसलते और गिरते हुए निपच्यूकांग ग्लेशियर के पदल के निकट पहुँच कर एक चट्टान के सहारे हमने रात्रि विश्राम का विचार किया। परन्तु हमारे पास भोजन सामग्री का अभाव था। अतः सामान एक पत्थर से ढक कर ग्लेशियर को पार करते हुए हम लगभग सात किमी. नीचे भेड़ पालक के डेरे में वापस लौट आए।
23 अगस्त की प्रातः आकाश स्वच्छ रहने के कारण गोविन्द को सिपाल पास की ओर जाने की दिशा का सही ज्ञान हो गया था। अब हमें नेपच्यूकांग ग्लेशियर के बाईं ओर मोरेन समाप्त होने पर खड़ी चट्टान के ऊपर पहुँचना था। अतः चट्टान पकड़ते सावधानी पूर्वक दाएँ-बाएँ और ऊपर-नीचे कदम बढ़ाते हुए दो बजे हम एक समतल ढलान पर पहुँचे। उस चट्टान से नीचे उतरते समय अभियान दल को रस्सी के सहारे रैप्लिंग करना पड़ता है। अब हमें आधा किमी. के मोरेन को पार करना था। लेकिन इस भाग में बहुत दूर ऊँचाई से मृगों के चलने या हवा के झोंके से प्रति पल पत्थर गिरने का भय रहता है। पूर्व प्रचलित किंदन्ती के अनुसार सिपाल हूँ कहने पर गिरता हुआ पत्थर रुक जाता है। अतः हमने धूप बत्ती और मानसरोवर के जल तथा कैलास का ध्वज वस्त्र चढ़ा कर उस सिपाल भूतात्मा की मनौती मनाई और सकुशल उस भयग्रस्त क्षेत्र को पार किया। ग्लेशियर के किनारे आगे बढ़ते हुए जू हम लगभग चार बजे साढ़े सत्रह हजार फीट की ऊँचाई पर पहुँचे थे, तीव्र हवा के झोंके के साथ सिलिट गिरने लगा। अतः गोविन्द ने मुझे एक बहुत बड़े पत्थर के सहारे विश्राम करने का आग्रह किया और स्वयं आगे बढ़ता गया क्योंकि उसे दिशा का ज्ञान था ही। सिपाल धुरा के निकट जाकर बोझ एक पत्थर के ऊपर सुरक्षित रखकर वह अंधेरा होने पर ही मेरे पास वापस पहुँच पाया। गोविन्द के इतना विलम्ब करने का कारण मेरी मनोदशा अर्द्ध चेतन जैसी होती जा रही थी। पत्थर की ओट में मोरने हटा कर हम दोनों आड़े-तिरछे लेटे रहे। रात भर हल्की बर्फ गिरी रही। बर्फ तथा हवा के झोंके और पत्थर सेरिसने वाले पानी की धार से बचाव के लिये एक डण्डे के सहारे पॉलिथीन लटका कर रात्रि व्यतीत की। दिन में एक-एक सिलीकोटे (पल्थी की रोटी) खाई थी। रात में मोमबत्ती की लौ से एक डिब्बे में पानी गुनगुना करके सत्तू का घोल पीकर क्षुधा शान्त की गई। निकट ही चौधारा के उच्च हिम शिखरों से रात भर ग्लेशियरों के लगातार टूटने की भयावह ध्वनि मन को कम्पित करती रही। लगभग एक माह के कठिन प्रयास के कारण इस शिथिल तन में जब नींद की झपकी लगती, तो उनींदे स्वप्नलोक की यात्रा करने लगता, जिससे नींद के टूटते ही चित्त कभी प्रसन्न होता तो कभी भय से तन-मन काँप उठता।
24 अगस्त की प्रातः भी सुहावनी थी। उच्च हिम शिखरों पर सूर्य स्वर्णिम आभा निखर रही थी। गत रात्रि बर्फ गिरने से ग्लेशियर के समतल भू-भाग पर कहीं भी काला धब्बा दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। ठोस ग्लेशियर के ऊपर दस सेमी. तक की नई बर्फ में धंसते और ग्लेशियर पर फिसलते आधा किमी. प्रति घण्टे की चाल से चल कर हम दस बजे 18,470 फीट ऊँचे सिपालधुरा गिरीद्वार में पहुँच ही गए। सम्मुख ही नन्दा देवी, नन्दाकोट आदि उच्च हिम शिखरों के दर्शन होने से मन प्रफुल्लित हो उठा। इस गिरिद्वार पर बने कैर्न (पनपती) को शिव शक्ति का प्रतीक मानकर अगरबत्ती प्रज्वलित कर उपासना की गई। अब हमें रालम घाटी की ओर उतरना था। सिपालधुरा से पश्चिमी ढाल के थैचर ग्लेशियर पर बनी हजारों दरारों को पार करके आगे बढ़ने में बहुत कठिनाई होने लगी। दाएँ ओर के तीव्र ढलान वाले कठोर ग्लेशियर के ऊपर पड़े मोरेम पर धोखे से पांव पड़ने पर फिसलकर दरारों में गिर पड़ने का भय था। फिर भी उतार पर तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए हमने यांगचर ग्लेशियर पार किया और लगभग आधे किमी. की खड़ी चढ़ाई चढ़कर हम चार बजे एक पहाड़ी श्रेणी पर पहुँचे। यांगचर के मुख्य ग्लेशियर को छोड़कर अब हमें पूर्व दिशा की ओर यांगजली बुग्याल में पहुँचना था। घना कोहरा घिरा होने के कारण रालम घाटी दिखाई नहीं दे रही थी। डेढ़ किमी. की मोरेन युक्त ढलान से उतर कर हम यांगजली बुग्याल में पहुँचे। सैकड़ों प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों से आच्छादित इस विस्तृत बुग्याल की नैसर्गिक छटा को देखकर मन में विचार उठता था कि कुछ दिन यहाँ विश्राम किया जाए। परन्तु ऐसा मेरा सौभाग्य नहीं था।
चमोली जिले में घघरिया और कुण्डूखाल स्थित फूलों की घाटी देखने के पश्चात यदि कोई प्रकृति प्रेमी माह अगस्त में यांगजली बुग्याल का भ्रमण करे तो सबसे अधिक आकर्षक दृश्य देखने को यहीं मिलेगा। यहाँ का कुछ क्षेत्र चौड़ी पत्ती युक्त टांटुरी से आच्छादित है तो ब्रह्म कमल के सफेद फूलों से सुशोभित कुछ बुग्याल दूर से हजारों भेड़-बकरियों के झुण्ड से प्रतीत होते हैं। कहीं पर एक ही प्रकार के नीले, पीले, लाल, गुलाबी, सफेद और नारंगी रंग के फूलों की चादर बिछी रहती है तो कुछ भू-भाग विष के नीले फूलों से बहने वाली गन्ध से सुवासित रहते हैं। वास्तव में इस विष पौधे की बहुलता के कारण ही यह यांगजली बुग्याल पशु चारकों के लिए प्रकृति द्वारा ही प्रतिबन्धित है। इस बुग्याल के मध्य बहने वाली छोटी-छोटी जल धाराएँ और सरोवर, सम्मुख ही उच्च हिम शिखर तथा नीचे बहने वाली रालम नदी का दृश्य और मोरेन पर थिरकते हुए भरल मृगों का झुण्ड एवं निकटवर्ती पर्वत चोटियों को चूमते हुए कोहरे की लहरे किसी भी प्रकृति प्रेमी के लिए नन्दन वन से कम आनन्ददायी नहीं है।
प्रकृति-सुषमा का आनन्द लेते हुए आदम कद झाड़ियों को कूदते-फांदते तथा नीचे मोरेन पर फिसलते हुए जब हम रालम नदी के मुहाने पर पहुँचे, गोविन्द इस ऊफनती हुई नदी को तैर कर पार करने हेतु हठ करने लगा। परन्तु मैं तो एक छोटे से नाले को भी पार करने में भयभीत हो उठता हूँ। अतः जब मैं आधा किमी. ऊपर जाकर ग्लेशियर पार करने हेतु आगे बढ़ने लगा, तब गोविन्द भी मेरे पीछे-पीछे आ गया। रालम ग्लेशियर के पार नदी के मुहाने के दाएँ किनारे पर पहुँच कर अपने अभियान की सफलता पर कैलासपति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करके हम परस्पर गले मिले और तेज गति से आगे बढ़ते हुए आठ बजे रात रालम गाँव पहुँचे। वहाँ भीम सिंह ढकरियाल में हमारा हार्दिक सत्कार किया। सीपालधुरा तो लोग प्रायः पार करते हैं, परन्तु कैलास हुए यहाँ आने पर रालमवासियों को आश्चर्य अवश्य हुआ। अपने इस अभियान के अन्तिम चरण में 15,310 फीट ऊँचे बुर्जिकांग दर्रे को पार कर 25 अगस्त को हम जोहार घाटी के अभियान से प्रेरित होकर एक लघु प्रयास को पूर्ण करके मुझे भी अवश्य आत्मसन्तुष्टि हुई।
सौभाग्य से जब मैं 1995 के अगस्त माह में कैलास के निकट उन्नीस हजार फिट ऊँचे डोलमा ल्हा और भारत तिब्बत सीमा द्वार पर स्थित लीपूलेक को पार कर वापस गुन्जी पहुँचा, तो मुझे मुनस्यारी का एक परिचित गोविन्द सिंह कोरंगा मिला, जो पोर्टर के रूप में पहले ही सिपालधुरा पार कर चुका था। वह मेरे साथ चलने के लिये सहमत हो गया अब हम काली के किनारे दार्चुला जाने की अपेक्षा कुयाग्ती के किनारे उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ने लगे।
1962 में भारत-तिब्बत व्यापार बन्द हो जाने के पश्चात भी ब्यांस घाटी पूर्ण रूप से आबाद है सभी गाँवों में चहल-पहल है। बेल, रागा और भोज पत्रों के जंगल से सम्पूर्ण ब्यांस घाटी आच्छादित है। गुन्जी से अठारह किमी. पर पहली पड़ान कुटी और अड़तीस किमी. पर दूसरा पड़ान ज्योलिंगकौंग पड़ता है। ज्योलिंगकौंग के सम्मुख ही पश्चिम में सिनला गिरिद्वार के निकट छोटा कैलास का उच्च शिखर है। जिसकी परछाई पार्वती सरोवर में पड़ने से दृश्य अति मनोहारी लगता है। ज्योलिंगकौंग रंग-बिरंगी फूलों और घास से आच्छादित एक विस्तृत बु्ग्याल है। हजारों भेड़, बकरियाँ चुगने के लिये जाती हैं। ज्योलिंगकौंग से 18030 फीट ऊँचे सिनला को पार कर दारमा घाटी के विदांग गाँव में पहुँचा जा सकता है। यद्यपि सिनला के दोनों ओर मार्ग विकट है, परन्तु विदांग की ओर से मार्ग पर ऊपर से पत्थर गिरने और चट्टान पर पांव फिसलने का भय अधिक है। ज्योलिंगकौंग की भाँति विदांग भी एक विस्तृत बुग्याल है। जहाँ राथी-जुम्मा के भेड़ पालकों के डेरे तथा भा.ति.सीमा पुलिस की चौकी है। विदांग भारतीय खम्पाओं का पुराना गाँव है। अब ये लोग तवाघाट, पिथौरागढ़, टनकपुर तथा नैनीताल में स्थायी रूप से व्यवस्थित हो गए हैं। केवल पूजा के निमित्त यहाँ आते हैं।
अतीत में नुई ल्हा से दारमा और मनवन ल्हा से कुटी के व्यापारी तिब्बत के छाकरा मण्डी में व्यापार हेतु जाया करते थे। विदांग की ओर से बहने वाली दारमा गाड़ और सीपू की ओर से आने वाली लसरयांग्ती के संगम पर दाईं ओर तिदांग और ढाकर तथा बाईं ओर मार्छा गाँव बसे हैं। गो से आगे यह नदी धौली कहलाती है। हम ज्योलिंगकौंग से चल कर रात में धौली नदी के बाएँ तट पर स्थित गो गाँव पहुँचे।
अगस्त माह के तृतीय सप्ताह में दातों गाँव मेें गबला देवता का समारोह मनाया जा रहा था। ऊपरी दारमा घाटी के प्रायः सभी लोग मेले में आए हुए थे। गो में धौली पार कर हम दातों जाने की अपेक्षा नदी के दाएँ किनारे ऊपर की ओर बढ़ने लगे। दारमा घाटी का सम्पूर्ण क्षेत्र पल्थी के गुलाबी और सरसों के पीले फूलों से सुशोभित था। गो से हम ढाकर, तिदांग और मार्छा होते हुए सीपू गाँव पहुँचे। इन सभी गाँव के लोगों ने चाय पिलाकर हमारा सत्कार किया। मार्छा गाँव के लोगों से उनके अतीत की घटनाओं तथा वर्तमान परिस्थितियों पर चर्चाएँ हुईं ।सीपू गाँव में पातों गाँव की सीता और बिकू नाम की दो विवाहित लड़कियाँ मिलीं। मातृ (मायका) देश मुनस्यारी के परिचित व्यक्तियों के आगमन पर उन्हें बहुत ही प्रसन्नता हुई और उन्होंने भ्रातृवत हमारा सत्कार किया। 1992 में सिपालधुरा पार कर रालम पहुँचने के उद्देश्य से हरीश पांगती भी बिकू के घर में रुका था। ऐसे साहसी, मृदुभाषी और होनहार नवयुवक के हमारे मुख से निधन का समाचार सुनकर बिकू बिलख-बिलख कर रोने लगी। वास्तव में हरीश जहाँ भी जाता था, अपने मधुर स्वभाव से सबके मन को जीत लेता था। आज लोगों के मन में उसकी एक मधुर स्मृति ही शेष रह गई है।
22 अगस्त की प्रातः सीपू गाँव से चार किमी. आगे चढ़ने क पश्चात हम लसरयांग्ती के पश्चिम से बहने वाले नाले के दाएँ किनारे से आगे बढ़े। उस नाले पर संगम के निकट भोजपत्र के पतले डण्डों पर बड़े-बड़े चौड़े पत्थर बिछाकर बनी हुई पुलिया टूटने ही वाली थी। अतः कुछ ऊपर चढ़ने के पश्चात नाले में पड़े बड़े पत्थर से तीन मीटर तक छलांग मार कर हमने नाला पार किया। ऐसी स्थिति में यदि कोई छलांग मारने का साहस न कर पाए या पांव फिसल जाए तो वह पल भर में उपनती हुई जलधारा में समा जाएगा। परन्तु हमारे सम्मुख समस्या थी, पार उतरने की , मरता क्या न करता । बारह बजे हम हिमाचल के एक भेड़ पालक के डेरे में पहुँचे। वहाँ पर भोजन करने के पश्चात हम आगे बढ़े। स्यूंतीला हिम शिखर की ओर से आने वाले ग्लेशियरी नाले को पार करते हुए पग-पग पर पत्थर गिरने का भय था। लगभग पन्द्रह हजार फिट की ऊँचाई पर पहुँचने पर गोविन्द ने मुझे कुछ क्षण एक चट्टान के सहारे विश्राम करने का आग्रह किया। घना कोहरा छाया हुआ था। सिलिट (बुग्यार) गिरने लगा और मैं पॉलिथीन शीट से ढक कर चट्टान के सहारे दुबका पड़ा रहा। दो घण्टे तक गोविन्द वापस लौटा नहीं। उसे पुकारने पर केवल मेरी आवाज ही प्रतिध्वनित हो वापस आ रही थी। लगभग छः बजे होफते हुए मेरे निकट पहुँच कर उसने बताया कि हम दिशा भटक गए हैं। अब हमें पुनः डेढ़ हजार मीटर नीचे समतल ग्लेशियर पर उतरना होगा। मोरने युक्त ढलान पर फिसलते और गिरते हुए निपच्यूकांग ग्लेशियर के पदल के निकट पहुँच कर एक चट्टान के सहारे हमने रात्रि विश्राम का विचार किया। परन्तु हमारे पास भोजन सामग्री का अभाव था। अतः सामान एक पत्थर से ढक कर ग्लेशियर को पार करते हुए हम लगभग सात किमी. नीचे भेड़ पालक के डेरे में वापस लौट आए।
23 अगस्त की प्रातः आकाश स्वच्छ रहने के कारण गोविन्द को सिपाल पास की ओर जाने की दिशा का सही ज्ञान हो गया था। अब हमें नेपच्यूकांग ग्लेशियर के बाईं ओर मोरेन समाप्त होने पर खड़ी चट्टान के ऊपर पहुँचना था। अतः चट्टान पकड़ते सावधानी पूर्वक दाएँ-बाएँ और ऊपर-नीचे कदम बढ़ाते हुए दो बजे हम एक समतल ढलान पर पहुँचे। उस चट्टान से नीचे उतरते समय अभियान दल को रस्सी के सहारे रैप्लिंग करना पड़ता है। अब हमें आधा किमी. के मोरेन को पार करना था। लेकिन इस भाग में बहुत दूर ऊँचाई से मृगों के चलने या हवा के झोंके से प्रति पल पत्थर गिरने का भय रहता है। पूर्व प्रचलित किंदन्ती के अनुसार सिपाल हूँ कहने पर गिरता हुआ पत्थर रुक जाता है। अतः हमने धूप बत्ती और मानसरोवर के जल तथा कैलास का ध्वज वस्त्र चढ़ा कर उस सिपाल भूतात्मा की मनौती मनाई और सकुशल उस भयग्रस्त क्षेत्र को पार किया। ग्लेशियर के किनारे आगे बढ़ते हुए जू हम लगभग चार बजे साढ़े सत्रह हजार फीट की ऊँचाई पर पहुँचे थे, तीव्र हवा के झोंके के साथ सिलिट गिरने लगा। अतः गोविन्द ने मुझे एक बहुत बड़े पत्थर के सहारे विश्राम करने का आग्रह किया और स्वयं आगे बढ़ता गया क्योंकि उसे दिशा का ज्ञान था ही। सिपाल धुरा के निकट जाकर बोझ एक पत्थर के ऊपर सुरक्षित रखकर वह अंधेरा होने पर ही मेरे पास वापस पहुँच पाया। गोविन्द के इतना विलम्ब करने का कारण मेरी मनोदशा अर्द्ध चेतन जैसी होती जा रही थी। पत्थर की ओट में मोरने हटा कर हम दोनों आड़े-तिरछे लेटे रहे। रात भर हल्की बर्फ गिरी रही। बर्फ तथा हवा के झोंके और पत्थर सेरिसने वाले पानी की धार से बचाव के लिये एक डण्डे के सहारे पॉलिथीन लटका कर रात्रि व्यतीत की। दिन में एक-एक सिलीकोटे (पल्थी की रोटी) खाई थी। रात में मोमबत्ती की लौ से एक डिब्बे में पानी गुनगुना करके सत्तू का घोल पीकर क्षुधा शान्त की गई। निकट ही चौधारा के उच्च हिम शिखरों से रात भर ग्लेशियरों के लगातार टूटने की भयावह ध्वनि मन को कम्पित करती रही। लगभग एक माह के कठिन प्रयास के कारण इस शिथिल तन में जब नींद की झपकी लगती, तो उनींदे स्वप्नलोक की यात्रा करने लगता, जिससे नींद के टूटते ही चित्त कभी प्रसन्न होता तो कभी भय से तन-मन काँप उठता।
24 अगस्त की प्रातः भी सुहावनी थी। उच्च हिम शिखरों पर सूर्य स्वर्णिम आभा निखर रही थी। गत रात्रि बर्फ गिरने से ग्लेशियर के समतल भू-भाग पर कहीं भी काला धब्बा दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। ठोस ग्लेशियर के ऊपर दस सेमी. तक की नई बर्फ में धंसते और ग्लेशियर पर फिसलते आधा किमी. प्रति घण्टे की चाल से चल कर हम दस बजे 18,470 फीट ऊँचे सिपालधुरा गिरीद्वार में पहुँच ही गए। सम्मुख ही नन्दा देवी, नन्दाकोट आदि उच्च हिम शिखरों के दर्शन होने से मन प्रफुल्लित हो उठा। इस गिरिद्वार पर बने कैर्न (पनपती) को शिव शक्ति का प्रतीक मानकर अगरबत्ती प्रज्वलित कर उपासना की गई। अब हमें रालम घाटी की ओर उतरना था। सिपालधुरा से पश्चिमी ढाल के थैचर ग्लेशियर पर बनी हजारों दरारों को पार करके आगे बढ़ने में बहुत कठिनाई होने लगी। दाएँ ओर के तीव्र ढलान वाले कठोर ग्लेशियर के ऊपर पड़े मोरेम पर धोखे से पांव पड़ने पर फिसलकर दरारों में गिर पड़ने का भय था। फिर भी उतार पर तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए हमने यांगचर ग्लेशियर पार किया और लगभग आधे किमी. की खड़ी चढ़ाई चढ़कर हम चार बजे एक पहाड़ी श्रेणी पर पहुँचे। यांगचर के मुख्य ग्लेशियर को छोड़कर अब हमें पूर्व दिशा की ओर यांगजली बुग्याल में पहुँचना था। घना कोहरा घिरा होने के कारण रालम घाटी दिखाई नहीं दे रही थी। डेढ़ किमी. की मोरेन युक्त ढलान से उतर कर हम यांगजली बुग्याल में पहुँचे। सैकड़ों प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों से आच्छादित इस विस्तृत बुग्याल की नैसर्गिक छटा को देखकर मन में विचार उठता था कि कुछ दिन यहाँ विश्राम किया जाए। परन्तु ऐसा मेरा सौभाग्य नहीं था।
चमोली जिले में घघरिया और कुण्डूखाल स्थित फूलों की घाटी देखने के पश्चात यदि कोई प्रकृति प्रेमी माह अगस्त में यांगजली बुग्याल का भ्रमण करे तो सबसे अधिक आकर्षक दृश्य देखने को यहीं मिलेगा। यहाँ का कुछ क्षेत्र चौड़ी पत्ती युक्त टांटुरी से आच्छादित है तो ब्रह्म कमल के सफेद फूलों से सुशोभित कुछ बुग्याल दूर से हजारों भेड़-बकरियों के झुण्ड से प्रतीत होते हैं। कहीं पर एक ही प्रकार के नीले, पीले, लाल, गुलाबी, सफेद और नारंगी रंग के फूलों की चादर बिछी रहती है तो कुछ भू-भाग विष के नीले फूलों से बहने वाली गन्ध से सुवासित रहते हैं। वास्तव में इस विष पौधे की बहुलता के कारण ही यह यांगजली बुग्याल पशु चारकों के लिए प्रकृति द्वारा ही प्रतिबन्धित है। इस बुग्याल के मध्य बहने वाली छोटी-छोटी जल धाराएँ और सरोवर, सम्मुख ही उच्च हिम शिखर तथा नीचे बहने वाली रालम नदी का दृश्य और मोरेन पर थिरकते हुए भरल मृगों का झुण्ड एवं निकटवर्ती पर्वत चोटियों को चूमते हुए कोहरे की लहरे किसी भी प्रकृति प्रेमी के लिए नन्दन वन से कम आनन्ददायी नहीं है।
प्रकृति-सुषमा का आनन्द लेते हुए आदम कद झाड़ियों को कूदते-फांदते तथा नीचे मोरेन पर फिसलते हुए जब हम रालम नदी के मुहाने पर पहुँचे, गोविन्द इस ऊफनती हुई नदी को तैर कर पार करने हेतु हठ करने लगा। परन्तु मैं तो एक छोटे से नाले को भी पार करने में भयभीत हो उठता हूँ। अतः जब मैं आधा किमी. ऊपर जाकर ग्लेशियर पार करने हेतु आगे बढ़ने लगा, तब गोविन्द भी मेरे पीछे-पीछे आ गया। रालम ग्लेशियर के पार नदी के मुहाने के दाएँ किनारे पर पहुँच कर अपने अभियान की सफलता पर कैलासपति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करके हम परस्पर गले मिले और तेज गति से आगे बढ़ते हुए आठ बजे रात रालम गाँव पहुँचे। वहाँ भीम सिंह ढकरियाल में हमारा हार्दिक सत्कार किया। सीपालधुरा तो लोग प्रायः पार करते हैं, परन्तु कैलास हुए यहाँ आने पर रालमवासियों को आश्चर्य अवश्य हुआ। अपने इस अभियान के अन्तिम चरण में 15,310 फीट ऊँचे बुर्जिकांग दर्रे को पार कर 25 अगस्त को हम जोहार घाटी के अभियान से प्रेरित होकर एक लघु प्रयास को पूर्ण करके मुझे भी अवश्य आत्मसन्तुष्टि हुई।
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