ताकि रोजगार गारंटी कार्यक्रम सार्थक साबित हो

यूपीए सरकार भी मनरेगा को अपनी एक उपलब्धि बताती रही है। इसके बावजूद भी वह उसकी खामियों को दूर करने के बजाय उसे न्यूनतम मजदूरी के दायरे से बाहर रखने पर पूरा जोर लगाए हुए है। सच्चाई यह है कि राज्यों में इस योजना में भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की खबरें आए दिन मिलती रही हैं। संसद की वित्त संबंधी स्थायी समिति ने भी पाया कि जरूरतमंदों को न सौ दिनों का काम मिल पाया न निर्धारित मजदूरी। अत: सरकार को चाहिए कि वह मेहनताना के बेजा विवाद से आगे बढ़कर योजना के कार्यान्वयन की खामियों को दूर करे ताकि मनरेगा ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने में कामयाब बने।

जिस मनरेगा को ग्रामीण भारत के कायापलट का कारगर हथियार माना गया आज उसकी सारी कवायद मजदूरी पर आकर टिक गई है। इसका कारण है कि जहां मनरेगा की मजदूरी केंद्र सरकार तय करती है वहीं न्यूनतम मजदूरी तय करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। सामाजिक कार्यकर्ता मनरेगा के मजदूरी को न्यूनतम मजदूरी के बराबर करने की मांग करते रहे हैं लेकिन सरकार मनरेगा को सामाजिक सुरक्षा का उपाय बताकर न्यूनतम मजदूरी देने के प्रावधान से बचती रही है। हां, उसने इतना अवश्य किया कि 1 जनवरी 2011 से मनरेगा की मजदूरी को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ दिया जिससे आज यह विभिन्न राज्यों में 118 से 181 रुपए के बीच है। मनरेगा में मजदूरी पर विवाद की शुरुआत जनवरी 2009 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय से हुई। उच्च न्यायालय ने मनरेगा के मेहनताना को 100 रुपए प्रतिदिन पर फिक्स करने के राज्य सरकार के आदेश पर रोक लगा दी थी क्योंकि यह राज्य सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी से कम था।

इस विवाद का दूसरा पड़ाव बना कर्नाटक उच्च न्यायालय का 23 सितंबर 2011 को दिया गया निर्णय। इसके मुताबिक मनरेगा का मेहनताना राज्य सरकारों द्वारा कृषि श्रमिकों के लिए निर्धारित की गई न्यूनतम मजदूरी से कम नहीं होना चाहिए। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि जिन लोगों ने कम पैसे में काम किया है केंद्र सरकार को उन्हें एरियर देना चाहिए। गौरतलब है कि देश के 14 राज्यों में मनरेगा का मेहनताना न्यूनतम मजदूरी से कम है जिनमें कर्नाटक भी शामिल है। कर्नाटक उच्च न्यायालय के इसी निर्णय के खिलाफ केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की थी। सरकार ने अपनी अपील में तर्क दिया कि मनरेगा की शुरुआत ही इसलिए की गई थी कि जिन लोगों को कहीं और काम न मिलता हो उन्हें स्थानीय स्तर पर ही रोजगार उपलब्ध हो सके। यह प्रावधान न्यूनतम मजदूरी तय करने के तर्क से एकदम भिन्न है।

लेकिन 23 जनवरी 2012 को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार की अपील खारिज करते हुए कहा कि मनरेगा के अंतर्गत दिया जाने वाला मेहनताना संबंधित राज्य में खेतिहर मजदूरों के लिए तय न्यूनतम मजदूरी से कम नहीं हो सकता। हां, एरियर देने के आदेश पर सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल रोक लगा दी है। इससे पहले 1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी बलात मजदूरी की श्रेणी में आता है जो कि असंवैधानिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अन्य फैसलों में भी कहा है कि सरकार को एक आदर्श नियोक्ता की तरह पेश आना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद सरकार के पास एक ही उपाय बचा है कि वह रोजगार गारंटी कानून तथा न्यूनतम मजदूरी अधिनियम दोनों में संशोधन करे ताकि मनरेगा के मेहनताना को अलग से तय किया जा सके।

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मजदूरों को मनरेगा के तहत उचित मजदूरी मिलेसर्वोच्च न्यायालय का आदेश मजदूरों को मनरेगा के तहत उचित मजदूरी मिलेमनरेगा के मेहनताना से उठे विवादों को परे रखकर देखा जाए तो यह एक रचनात्मक कार्यक्रम है। यदि इस पर ठीक-ठाक ढंग से अमल किया जाए तो इससे ग्रामीण भारत का कायापलट हो सकता है। यूपीए सरकार भी मनरेगा को अपनी एक उपलब्धि बताती रही है। इसके बावजूद भी वह उसकी खामियों को दूर करने के बजाय उसे न्यूनतम मजदूरी के दायरे से बाहर रखने पर पूरा जोर लगाए हुए है। सच्चाई यह है कि राज्यों में इस योजना में भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की खबरें आए दिन मिलती रही हैं। संसद की वित्त संबंधी स्थायी समिति ने भी पाया कि जरूरतमंदों को न सौ दिनों का काम मिल पाया न निर्धारित मजदूरी। अत: सरकार को चाहिए कि वह मेहनताना के बेजा विवाद से आगे बढ़कर योजना के कार्यान्वयन की खामियों को दूर करे ताकि मनरेगा ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने में कामयाब बने।

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