ताजे पानी का मतलब

वन विभाग जानता है, कि जल ही जीवन है, पर पानी की बर्बादी रोकने के कोई कारगर प्रयास दिखाई नहीं देते। घर में एक बार फ्लश कम खींचने का मतलब है एक पेड़ का पोषण कर सकने लायक पानी बचा। उधर ट्यूबवेल से एक बाल्टी पानी खींचने का मतलब है किसी विशाल पेड़ का प्राण सोखना। पर किसी को चिंता ही नहीं। वन विभाग में नौकरी पा जाने के बाद लगता है उस विभाग के लोग को इससे कोई सरोकार ही नहीं। वरना जल संरक्षण घरों पर टपकते वर्षाजल का संग्रहण बारिश के पानी को जज्ब करने के लिए कच्ची जमीन और हरित पट्टिया या पार्क , वन क्षेत्रों में वाटर शेड का निर्माण, स्टॉप डैम, चेक डैम, मिट्टी रोकना, पानी चोरी पर प्रतिबंध अनावश्यक रूप से ट्यूबवेल से भू-जल का दोहन, किसी चीज के लिए तो इनका खून खौलता।

वन विभाग जानता है, कि जल ही जीवन है, पर पानी की बर्बादी रोकने के कोई कारगर प्रयास दिखाई नहीं देते। घर में एक बार फ्लश कम खींचने का मतलब है एक पेड़ का पोषण कर सकने लायक पानी बचा लेना। उधर ट्यूबवेल से एक बाल्टी पानी खींचने का मतलब है किसी विशाल पेड़ का प्राण सोखना।

ताजा मतलब ऐसा पानी, जिसका अभी तक ऐसे समुद्री पानी से मेल नहीं हुआ है, जिसमें धरती के घुलते लवण, समुद्री पौधे, प्राणियों और उनके खास प्रश्वास, भोजन, उज्छेष्ट, अपशिष्ट, कंकालों, कोरलों, व्हेल, शार्क, ऑक्टोपस, शंख, सीपियों, फास्फोरस, डाइनासोर, नदियों से लाई लकड़ियों, लोहा, लेगर, डूबे हुए जहाजों का अवशेष और बाकी सब तत्व घुले हुए हैं। पर यह कहकर मैं समुद्री पानी का महत्त्व कम नहीं कर रही। आखिर यह समुद्री पानी ही तो है, जो रह-रह कर हमें धरती का इतिहास समझा रहा है या जो बादलों के रूप में समुद्र से ऊपर उठता है और धरती के ऊपर, दूर देश तक जाकर बादल के पानी या बर्फ के रूप में बरसता है।

समुद्री मछली व अन्य समुद्री खाद्य पदार्थों के दीवाने तो जापान से अमरीका तक फैले ही हुए हैं, मगर उससे भी ज्यादा झींगा मछली के प्रति दीवानगी है। किंग प्रॉन्स का दाम? जानने लायक नहीं है। झींगा मछली या तो चिल्का जैसी झीलों में होती है जिनका एक कोना समुद्र को छूता है और ज्वार भाटा प्रकिया से ताजे (मीठे) पानी में समुद्री पानी का मिश्रण होता रहता है या फिर पानी को टैंकर्स में भरकर मैदानी छोटे-छोटे तालाबों में डाला जाता है, जहाँ पर इसकी खूशबू पाकर झींगा के नन्हें अंडे पनपते हैं और मनुष्य को प्रोटीन युक्त भोज्य पदार्थ झींगा देते हैं। किन्तु विशुद्ध ‘ताजा’ पानी किसे कहते हैं? कहीं मिलता है, ताजा पानी? या केवल बरसात में आसमान से टपकते पानी को ही ‘ताजा’ पानी कहते हैं?

यदि हाँ, तो ऐसे में वैद्य जी की इस नसीहत का हम क्या करें, कि रोज सवेरे उठाकर हमें एक गिलास ताजा पानी पीना चाहिए? मुझे तो यही पता है कि ‘ताजा’ पानी कुएँ से तभी-तभी निकाले गए पानी को कहते हैं, जिसका तापमान सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडा रहता है। चूँकि जमीन के अंदर ऊपर के तापमान का असर उतना नहीं होता, इसीलिए यह अन्तर बना रहता है। गर्मी सर्दी की सापेक्ष है, और वही पानी जो सर्दी में कुनकुना लगता है, गर्मियों में ठंडा लगता है।

पर इधर इस शब्द का प्रयोग मीठे पानी के लिए भी होता है। धरती के कुँओ से जब खारा पानी निकलता है तब धीरे-धीरे इसे पीने का भी अभ्यास हो जाता है। उसके बाद जब मीठा पानी पिया जाता है तब भी मुँह वैसा ही बिगड़ता है जैसा पहले पहल खारा पानी पीने के समय बिगड़ा था। अब आएं मुख्य बिंदु पर। आज कहा जा रहा है कि धरती पर कुल उपस्थित पानी का केवल 2 प्रतिशत पानी ही ताजा है। शेष खारा है अथवा बर्फ है जो मानव के उपयोग के लिए अनुपयुक्त है।

इस 2 प्रतिशत में से कितना ही पानी तो इस अनवरत रूप से बढ़ती जनसंख्या के शरीरों में कैद है। अत: हमें चिन्ता है कि आगे हम पानी की बढ़ती जरूरतों को कैसे पूरा करेंगे। मैंने कभी एक नाटक देखा था। उसमें पति पत्नी में तकरार था। पति कहता था कि तुम अपना खर्च घटा लो जी, पत्नी कहती थी, तुम अपनी आय बढ़ा लो जी। अब आय कैसे बढे और खर्च कैसे घटे? हाँ, पानी के संदर्भ में, खर्च घट सकता है। हम देखते हैं कि पाँच सितारा होटलों और घरों में बाथरूम में ‘बाथ टब’ होता है। स्वामी चाहे तो बाथ टब में पचास लीटर पानी भरकर उसमें लोटे। वैद्य जी कहते हैं कि व्यक्ति को दिन में साढे तीन लीटर पानी-पीना चाहिए। वह पीकर व्यक्ति दिन में दस बार तो फ्लश खींचेगा ही। एक बार में ग्यारह लीटर पानी इसमें खर्च होता है। पानी कितना कम है जब फ्लश सिस्टम का इजाद हुआ था, उस समय जनसंख्या अब की आधी भी नहीं थी।

पर अब? लगता है, जल-आपूर्ति का राशनिंग, भारत की पागलों के समान बढ़ती जनसंख्या का एक कारगर इलाज है। ईश्वर-अल्ला सन्तान तो देता चला जाता है, उधर बरसात हमेशा निराश करती है। पानी देते समय वह इतना दरियादिल क्यों नहीं होता। वनों की कटाई इसका एक कारण है। कहने को छत्तीसगढ़ का 44 प्रतिशत क्षेत्र वनों से आच्छादित है। अब जल्दी ही वनों की परिभाषा बदलनी होगी। ‘वन’ अर्थात ‘बेजा कब्जा’ कर खेती के अधीन लाई गई मगर ‘वन’ के रूप में सरकारी अभिलेखों में लिखी भूमि पर रुंड-मुंड कटे कटाए खडे दो-चार पेड़। पेड़ के बारे में हाल में ही एक कविता पढ़ी जो हैदराबाद के शहर के बीचों-बीच 250 एकड़ में फैले केबीआर पार्क में देखने को मिली:

देखी तेरी आँखों ने
कभी पेड़ सी कोई सुंदर चीज?
मुझ-से मूर्ख, लिख सकते कुछ अक्षर भर
कविता के
नहीं सृज सकते मगर
जीवन में एक भी पेड़।


इसी तरह, अज्ञेय की एक कविता देखने में आई चमोली स्थित, ‘चिपको आंदोलन’ के चंडीदास भट्ट के कार्यालय में, जिसका भावार्थ था, कि मैं एक पेड़ के नीचे बैठकर अभी एक कागज पर कुछ पंक्तियाँ लिखना शुरू ही कर रहा था कि मैंने एक उसांस सुनी। वह उसी पेड़ की थी और उसने मुझ से कहा कि यह कागज जिस पर तुम लिख रहे हो, मुझ जैसे ही एक पेड़ को काट कर बनाया गया है। इसलिए इस पर जो भी लिखो जरा सम्भलकर लिखना।

वन विभाग जानता है, कि जल ही जीवन है, पर पानी की बर्बादी रोकने के कोई कारगर प्रयास दिखाई नहीं देते। घर में एक बार फ्लश कम खींचने का मतलब है एक पेड़ का पोषण कर सकने लायक पानी बचा। उधर ट्यूबवेल से एक बाल्टी पानी खींचने का मतलब है किसी विशाल पेड़ का प्राण सोखना। पर किसी को चिंता ही नहीं। वन विभाग में नौकरी पा जाने के बाद लगता है उस विभाग के लोग को इससे कोई सरोकार ही नहीं। वरना जल संरक्षण घरों पर टपकते वर्षाजल का संग्रहण बारिश के पानी को जज्ब करने के लिए कच्ची जमीन और हरित पट्टिया या पार्क , वन क्षेत्रों में वाटर शेड का निर्माण, स्टॉप डैम, चेक डैम, मिट्टी रोकना, पानी चोरी पर प्रतिबंध अनावश्यक रूप से ट्यूबवेल से भू-जल का दोहन, किसी चीज के लिए तो इनका खून खौलता। लगता है, जल्दी ही हम ये प्रिय ‘सतपुड़ा’ के घने जंगल केवल मात्र भवानी भाई की कविताओं में पाएंगे! अन्य विभाग भी जैसे सिंचाई, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी, कृषि इस विषय से निकट का सम्पर्क रखते हैं, व जानते हैं कि बिन पानी सब सून कोई सुन रहा है?

इस वर्ष बारिश कम हुई है। महानदी का पानी जाने कब तक हमारे पास पहुँचेगा। हमें सब बंजर पड़ी जमीन का ताना देते हैं। पर हम क्या करें? सचमुच ही, बिन पानी, सब सून। कई खेतों में धान की सूखती फसल जानवरों को चरा दी गई। अब तो हद हो गई है।

इन्दिरा मिश्र कहती हैं कि मैंने किसी कन्नड़ लेखिका का नवलेखकों का संदेश पढ़ा। कहती हैं, लेखक और लेखन के बीच में कुछ नहीं आना चाहिये। दुख भरी कविता हम क्यों लिखें? इस पर उनका जवाब अब जाकर मेरी समझ में आया कि वह दुख पहुँचाने के लिये नहीं, बल्कि दुख बाँटने के लिये होती है। जीवन में कितनी ही बार खुशी हमें एक दुख भरा गीत गाकर या सुनकर भी तो मिलती है। जीवन में सुख और दुख को अलग करके जीना असम्भव है।

- शंकर नगर, मेन रोड रायपुर (छ.ग.), साभार-देशबंधु

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