![सुन्दरलाल बहुगुणा,Pc-IwpFlicker](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/2023-10/Suderlal%20bahugunga.jpg?itok=dNtlxjBY)
पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा के अनेक प्रेरणास्रोत रहे। उनके वनाधिकारी पिता अंबाप्रसाद बहुगुणा का देहावसान उनके बचपन में ही हो गया था। गंगा के प्रति अगाध श्रद्धा उन्हें पिता से विरासत में मिली। मां पूर्णा देवी ने कड़ी मेहनत करके परिवार का पालन-पोषण किया। हिम्मत रखने, कष्टमय जीवन से न घबराने और परिश्रम करने का संस्कार मां से मिला। गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी देव सुमन (सुमन जी के नाम से प्रसिद्ध) का उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उनको आजादी और गांधी विचार के बारे में उन्हीं से सीख मिली।
9 जनवरी, 1927 को टिहरी के एक छोटे-से गांव मरोरा में जनमे बच्चे का नाम सुंदरलाल बहुगुणा रखा गया, जिसका बचपन बहुत ही संघर्षपूर्ण रहा। शिक्षा के लिए दूर-दूर जाना पड़ा- लाहौर, लायलपुर आदि। अनेक प्रकार के कष्ट झेलने पड़े। लिखने-पढ़ने का शौक बचपन से ही रहा। वे जितना जमीन से जुड़े रहे, उतना ही कलम से भी। ताउम्र हिमालय की सेवा साधना में सादगी, सरलता, सहजता, स्पष्टता, संवेदना, संकल्प, समझदारी, समर्पण से लगे रहे।
हिमालय में सक्रिय रहीं गांधीजी की शिष्या सरला बहन (जो अपने को विश्व नागरिक मानती थीं) की शिष्या विमला बहन के सुंदरलाल बहुगुणा के जीवन में आने के बाद इनके सोच- विचार और जीवन शैली में और भी प्रखरता आयी। विमला बहन ने जिस निष्ठा, भावना, समर्पण से जीवन भर साथ निभाया और उनका ध्यान रखा, ऐसे कम ही उदाहरण मिलते हैं। बहुगुणा जी के काम में विमला बहन का विशेष योगदान रहा।
२१ मार्च, २०२१ को देहरादून में दर्शनार्थ हुई मुलाकात बहुगुणा जी से अंतिम मुलाकात बन जाएगी, मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था। इस मुलाकात में उन्होंने एक कविता भी सुनाई। बहुत देर तक उनके आशीर्वचन प्राप्त हुए। वैसे हिमालय के साथ-साथ कई बार देश, विदेश में भी उनके दर्शन का लाभ मिला। अनेक बार सभा, सम्मेलन, बैठक, पदयात्रा, यात्रा, विभिन्न कार्यक्रमों में मिलने का सहज अवसर मिलता रहा।
एक प्रसंग याद आ रहा है। कुछ समय पूर्व भी एक बार देहरादून में बहुगुणा जी और विमला बहन के दर्शनार्थ गया था। बा-बापू के १५०वें वर्ष पर अलीगढ़ से प्रकाशित ‘हमारी धरती’ का ‘बा बापू १५०’ विशेषांक भेंट करके आनंद की अनुभूति हुई। यह खुशी और बढ़ गई, जब विमला बहन बहुगुणा ने इसमें लिखी सामग्री और प्रसंगों की चर्चा शुरू की। उन्होंने हमारी पोती आशी का नाम लेकर पूछा कि वह कैसी है। आयु के इस पड़ाव पर भी उनका स्वाध्याय जारी है, यह जानकर अच्छा लगा। नई पीढ़ी को इससे सीख मिल सकती है।
इस युगल के कितने ही प्रसंग हैं, जो यादों में घूम रहे हैं। टिहरी बांध परियोजना के खिलाफ हिमगंगा कुटी पर अनशन चल रहा था। हमने सपरिवार इसमें शामिल होने का तय किया। आंदोलन में शामिल तो हुए ही, साथ ही साथ क्षेत्र में भी जाने का कार्यक्रम बनाया और लोकजीवन विकास भारती, बूढ़ा केदार, बिहारी लाल भाई के क्षेत्र तक पहुंच गए। आंदोलन के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ साथियों से मिलने-जुलने का सुखद अनुभव भी हुआ।
उनका विश्वास था कि पेड़ काटे जाएंगे तो हिमालय की मृदा बहकर नदियों का स्वास्थ्य खराब करेगी। वर्षा की प्रक्रिया प्रभावित होगी। हिमालय में कटाव और भूस्खलन होंगे। हिमालय में जल संकट उत्पन्न होगा। हिमालय बंजर, उजाड़ बनेगा, प्राकृतिक आपदाओं का संकट आयेगा। हिमालय के साथ-साथ देश के बड़े हिस्से को समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। ग्लेशियर प्रभावित होंगे, बहेंगे, टूटेंगे, पीछे जाएंगे, जो तबाही के कारण बनेंगे। नदियां प्रभावित होंगी।
सुंदरलाल जी ने बांधों के खिलाफ बात ही नहीं की, बल्कि समाधान भी प्रस्तुत किया कि हर खाले पर बहते पानी से बांधों की बनिस्पत ज्यादा बिजली प्राप्त की जा सकती है, वह भी बिना किसी खतरे के। बहुत कम खर्च में। हर गांव स्वावलंबी बन जाएगा। अनाज पीसने, तेल निकालने, लकड़ी चीरने, औजार आदि बनाने के लिए खराद भी चलाई जा सकती है।
शराबबंदी और छुआछूत का विरोध आदि सार्वजनिक-सामाजिक हित के अन्य मुद्दों से भी वह जुड़े रहे। चिपको आंदोलन के अलावा खदानों के खिलाफ, हिमालय बचाओ, बांधों का विरोध, नदियां बचाओ जैसे अनेक आंदोलनों में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने हिमालय में लंबी-लंबी पदयात्राएं कीं। एक गांव से दूसरे गांव, एक शहर से दूसरे शहर, एक जिले से दूसरे जिले, एक राज्य से दूसरे राज्य, एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी चलते ही रहे। श्रीनगर, कश्मीर से कोहिमा, नगालैंड तक लगभग ५००० किलोमीटर की पदयात्रा डेढ़ साल से थोड़ा अधिक समय में पूरी की। कल्पना मात्र से ही मन कहीं-कहीं पहुंच जाता है। वे कहते थे कि पदयात्रा एक सशक्त माध्यम है जन-जन तक संदेश पहुंचाने, देश-दुनिया को जानने-समझने, सीखने-सिखाने का, जिसे पूरी तरह खुद पदयात्रा करके ही समझा जा सकता है। उनका मानना था कि यात्रा खुला शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान है।
उन्हें मिले पुरस्कारों की चर्चा करना मुझे अच्छा नहीं लग रहा। वे पुरस्कार से बहुत ऊपर उठ चुके थे। कुछ पुरस्कार लेने से तो उन्होंने खुद ही मना कर दिया। ऐसी ऊंचाई पर पहुंचा इंसान ही इतनी सादगी, सरलता, सहजता, स्पष्टता, संवेदना, संकल्प और समझदारी से जीवन जीने की हिम्मत रख सकता है। बच्चों, बड़ों, छात्रों, शिक्षकों, महिलाओं, पुरुषों, पढ़े-लिखों, अनपढ़, शहरी, ग्रामीण, कार्यकर्ता, अधिकारी, नेता, धार्मिक, राजनीतिक, किसी के भी बीच वे उसी सहजता व सरलता से अपनी बात रखते थे। जो लोग उनके इस स्वभाव से परिचित नहीं थे, उनको यह सब देखकर आश्चर्य होता था। ऐसे व्यक्ति का जाना एक विशेष रिक्तता पैदा करता है।
स्रोत - सर्वोदय जगत
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