सिल्पालीन अस्तरीकृत जलकुंड - कोंकण के कृषकों के लिए वरदान

सिल्पालीन अस्तरीकृत जलकुंड - कोंकण के कृषकों के लिए वरदान,PC-Wikipedia
सिल्पालीन अस्तरीकृत जलकुंड - कोंकण के कृषकों के लिए वरदान,PC-Wikipedia

सारांश

महाराष्ट्र राज्य के पश्चिम किनारे को कोंकण तट के नाम से जाना जाता है। कोंकण तट की उत्तर-दक्षिण लम्बाई लगभग 750 किमी. है। इसका पूर्वी भाग सह्याद्री पर्वत श्रृखंलाओं से महाराष्ट्र के दूसरे इलाकों से विभाजित है। यहां औसतन वर्षा 3000 से 4000 मिमी होती है, जो जून से सितम्बर के महीनों में बंटी रहती है। पर्वत श्रृंखलाओं के शिखरों पर इस भारी वर्षा से मिट्टी का बहाव अधिक होता है, परिणामतः यहां के कुछ बंदरगाह लगभग बंद हो चुके हैं।

कम समय में अधिक वर्षा के इस जल का संग्रहण और भण्डारण कैसे किया जाय तथा मिट्टी के बहाव को कैसे रोका जाय इन्हीं उद्देश्यों से दापोली में अखिल भारतीय समन्वित जल व्यवस्थापन योजना के केन्द्र को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने मान्यता प्रदान की वर्षों के अनुसंधान के फल स्वरूप कोंकण जलकुण्ड तकनीक का विकास हुआ। इस तकनीक के तहत पर्वतीय शिखरों और ढलानों पर आम और काजू की नई विकसित जातियों को लगाने हेतु आवश्यक सिंचन का प्रावधान है। आम और काजू के पेड़ों से जहां एक ओर मिट्टी का ह्रास थमता है वहीं दूसरी ओर उपलब्ध जल के स्रोत (जल कुण्ड) से कम से कम जल में अधिक से अधिक क्षेत्रों को सिंचित करने का प्रावधान भी है।

अनुसंधान में पाया गया 2 मी. लम्बे x 1 मी. चौडे x 2 मी. गहरे या 4 मी. लम्बे x 1 मी. चौडे x 1 मी. गहरे सिल्पालीन अस्तरीकृत जलकुण्डों में वर्षा के दौरान 4000 लि० पानी भरा जा सकता है। इसी पानी को वर्षा ऋतु के बाद में सिंचन हेतु उपयोग किया जाना होता है। दूसरी समस्या वाष्पीभवन की आती है, क्योंकि वर्षा ऋतु के बाद का मौसम साफ और शुष्क रहता है। वाष्पीभवन की रोकथाम के लिए नीम या उंडी के तेल को पानी की सतही पर छिड़कना और जल कुण्ड को घास के छप्पर से ढंकना चाहिए। दूसरे इस तरह वाष्पीभवन के साथ-साथ पशुओं और अन्य प्राणियों से होने वाले जल कुण्ड के नुकसान को भी रोका जा सकता है। जल कुण्ड में संचित जल से अगर सतह से नीचे आम और काजू के पौधों को सिंचित किया जाता है, तो इस तरह जल की बचत होकर नवम्बर से जून के 30 सप्ताहों में प्रति जलकुण्ड से 10 पौधों को पानी दिया जा सकता है।

जल कुण्ड में से पानी खींचने के लिए उक्ती और प्लंजर पंपों का उपयोग उपयुक्त सिद्ध हुआ है।

सिल्पालीन धूप और खिंचाव से अप्रभावित रहता है और 3 वर्षो तक अस्तरीकृत जल कुण्डों में काम दे सकता है। आम और काजू के पौधों को प्रथम तीन वर्षों तक सिंचन देने की आवश्यकता होती है।

सिल्पालीन जल कुण्डों के प्रचार-प्रसार हेतु शेष महाराष्ट्र विकास मंडल की ओर से रू० 7.5 लाख लागत वाली एक योजना सन् 2000-2001 में इस केन्द्र को मंजूरी दी गई। इस के अन्तर्गत 210 कृषकों और सेवाभावी संस्थानों को जलकुण्ड तकनीक का प्रशिक्षण व प्रदर्शन किया गया। इस योजना के अन्तर्गत प्रशिक्षण में सम्मिलित प्रत्येक कृषक को एक जलकुण्ड के लिए लगने वाले संसाधनों को निःशुल्क वितरित किया गया ताकि आस-पास के कृषक भी इस तकनीक से परिचित हो सकें।

भविष्य में बड़े जल कुण्डों से होने वाले वाष्पीभवन और पानी के ह्रास को रोककर बहाव पद्धति से (Gravitational flow) संचित पानी का उपयोग कैसे किया जाय इस पर शोध कार्य अपेक्षित है।

1. प्रस्तावना :

महाराष्ट्र राज्य के कोंकण विभाग की भू-भौतिक अवस्था राज्य तथा देश के अन्य भागों से अलग है। यहाँ जून से अक्तूबर तक औसतन 3000 से 3500 से मिली मीटर वर्षा होती है, किन्तु फिर भी गर्मियों में पीने के पानी की समस्या बनी रहती है। इसका कारण यह है कि रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग जिलों में प्रधान तया लाल मिट्टी (लेटेराइटिक सॉयल) पाई जाती है, जिसकी जलधारण क्षमता बहुत ही कम है। सहाद्रि की ऊँची पर्वत श्रृखंलाओं पर इस तरह की अति वृष्टि जहां-तहां सतही बहाव के रूपों में वर्षा ऋतु में मिट्टी के कणों को बहाती हुई सुदूर अरब सागर से जा मिलती है। इसी कारण कोंकण विभाग में पाई जाने वाली खाड़ियों के मुहानों पर जहां-तहां मिट्टी जम गई है और छोटे-मोटे बंदरगाह भी लगभग बेकार हो चुके हैं।

सहाद्रि की पहाड़ियों में रत्नागिरी अल्फान्सो आम और काजू की खेती की जाती है। जब कभी नई पहाड़ी को विकसित कर आम या काजू के विशिष्ट जाति के कलमों की रोपाई की जाती है, तो उन्हें शुरूआत में कम-से-कम तीन सालों तक सिंचाई की आवश्यकता होती है। किन्तु पहाड़ पर सिर पर पानी उठाकर इन कलमों को सिंचाई प्रदान करना स्वयं में एक कठिन काम है, जिससे इस प्रकार के विकास में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। ऐसी अवस्था में यह आवश्यक हो जाता है कि किसी तरह इस जल को इकट्ठा करके उसका इष्टतम उपयोग किया जा सके, वाष्पीभवन की क्रिया को कम किया जा सके, तथा अधिक-से-अधिक क्षेत्र को कम-से-कम जल में सिंचित किया जा सके।

इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अखिल भारतीय समन्वित जल व्यवस्थापन योजना, डॉ. बालासाहेब सावंत कोकण कृषि विद्यापीठ (कृषि विश्वविद्यालय), दापोली के तत्वाधान में मुख्य अनुसंधान केन्द्र, वाकवली के प्रक्षेत्र के रूखी विभाग में विभिन्न प्रयोग किए गए, यथा जल कुंड के अस्तरीकरण हेतु पालीथीन की उपलब्ध विभिन्न किस्मों में से उपयुक्त पालीथीन का चुनाव, जल इकट्ठा करना, इकट्ठे किए गए जल की वाष्पीभवन क्रिया को रोकना और वर्षा ऋतु के पश्चात संग्रहित जल का आम और काजू के बागानों में सिंचाई के लिए उपयोग करना, आदि

1.1 प्रायोगिक साधन एवं तकनीक :

उपरिनिर्दिष्ट प्रयोगों को तीन उपयोगों में विभक्त किया गया-

  1. वाष्पीभवन की रोकथाम के लिए विभिन्न संसाधनों का उपयोग।
  2. जलकुण्ड हेतु उपयुक्त गड्ढे के आकार का अध्ययन, पालीथीन के विभिन्न प्रकारों का उपयोग करके अस्तरीकरण के लिए उपयुक्त पालीथीन का चयन और जलकुंड में संग्रहीत जल का उपयोग।
  3.  जलकुंड में से पानी निकालने के कम खर्चीले संसाधनों का अध्ययन एवं चयन।

1.2 उपप्रयोग-1:

इस प्रयोग हेतु 2 मीटर लंबाई 1 मी० चौड़ाई और 1 मी० ऊंचाई के 5 गड्ढे खोदे गए। सभी गड्ढों की सभी सतहें नुकीले बेढब पत्थर हटाकर समतल की गई और मिट्टी का पलस्तर चढ़ा दिया गया। सभी गड्ढों को 200 ग्राम प्रति वर्ग मी० वाली मोटाई के सिल्पालीन से अस्तरीकृत किया गया। गड्ढों को पानी से पूरी तरह भर दिया गया ताकि प्रत्येक गड्ढे में 2 घन मीटर (2000 ली०) पानी रहे पानी की सतह पर से वाष्पीभवन को रोकने हेतु निम्नलिखित संसाधनों का इस्तेमाल किया गया।

  1.  कन्ट्रोल-वाष्पीकरण रोधक संसाधन के बिना, सूर्यप्रकाश के लिए जल की सतह पूर्णतया खुली। 
  2.  सूखे घांस का छप्पर गड्ढे पर ढक्कन के रूप में।
  3.  खाली बोरियों को फ्रेम में जड़ कर तैयार किया हुआ गड्ढे का ढक्कन
  4. नीम का तेल 1 ली० प्रति वर्ग मीटर सतह केवल प्रयोग की शुरूआत में।
  5.  थर्मोकोल के गत्तों का ढक्कन

हर गड्ढे की सतह से वाष्पीकरण की जांच के लिए पानी को प्रति दिन नापकर गड्ढे में उंडेलकर उसकी प्राथमिक सतह तक लाया गया। सन 1998, 1999 और 2001 इन तीन सालों में वाष्पीकरण की रोकथाम किस संसाधन से कितनी हुई, इसकी प्रति दिन जांच नवम्बर से मई महीने तक की गई।

1.3 उपप्रयोग-2 :

इस प्रयोग हेतु 4 मी० लंबाई । मी० चौडाई और मी० गहराई तथ 2 मी० लंबाई 1 मीटर चौडाई तथा 2 मीटर गहराई के गड्ढे खोदे गये जहां काजू कलमों की नई रोपाई की गई थी। हर गड्ढे की सभी सतहों को समतल बनाने के बाद उन पर मिट्टी का पलस्तर चढ़ा दिया गया। हर गड्ढे में लिंडेन या तत्सम कीटक नाशक दवा लगाई गई और उस पर धान के सूखे डंठलों का गद्दा तैयार किया गया। लिंडेन या कीटक नाशक लगाने का प्रयोजन यह की धान के डंठलों में दीमक नहीं लगती। डंठलों के गद्दे पर अस्तरीकरण में लाए जाने वाले पालीथीन को गड्ढों की दीवारों से सटाकर लगाया गया। इन गड्ढों में सतही पानी की आवक को चारों तरफ से गडढों के किनारों को ऊँचा करके रोका गया। केवल वर्षा के जल से हर एक गड्ढे को अधिकतम क्षमता यानी 4000 ली० तक भरने दिया गया।

उप प्रयोग 2 निम्न प्रकार से लगाया गया

1.3.1 गड्ढों का आकार:

दो आकारों में

अ. 4 मी० लंबाई 1 मी० चौडाई और मी० गहराई

ब. 2 मी० लंबाई 1 मी० चौडाई और 2 मी० गहराई

1.3.2 वाष्पीभवन की रोकथाम के लिए :

दो प्रकार के सतह संरक्षक संसाधन

. नीम का तेल

ब. उंडी का तेल

दोनो तेलों की मात्रा प्रति गड्ढा 150 मि०ली० प्रत्येक सिंचाई के बाद

1.3.3 अस्तरीकरण हेतु पालीथीन :

अ. सिल्पालीन फिल्म 200 ग्राम प्रति वर्ग मीटर

ब. हाई डेन्सिटी पालीथीन फिल्म जो निकटतम बाजार में उपलब्ध थी।

प्रत्येक गड्ढे में से प्रति सप्ताह हर काजू कलम को 10 ली० पानी पोलें बास के टुकड़ों में छेद करके जमीन की सतह के नीचे 30 सेमी. की गहराई में खाद और उर्वरकों के ऊपर दिया गया। इस तरह सतही वाष्पीभवन से छुटकारा पाया गया। सिंचाई की शुरूवात नवम्बर-दिसम्बर महीनों में की गई और मई महीने में वर्षा होने के बाद बन्द की गई।

1.4 उपप्रयोग-3:

गड्ढे में जल एकत्रीकरण के पश्चात उसे बाहर निकालकर फसलों तक पहुंचाना होता है। इसके लिए दो तरह की तकनीकों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया।

  1. उक्ती जिसमें लकड़ी के लीवर के एक सिरे पर बालटी और दूसरे सिरे पर पत्थर या लकड़ी का बोझ लगा रहता है।
  2.  प्लंजर पंप दोनों प्रकार के जल निकालने के साधनों को अलग अलग समय के लिए चलाकर कुल निकाले हुए पानी का आयतन मापकर औसतन प्रति घंटा कितना पानी निकाला जा सकता है, इसका परीक्षण किया गया।

2. परिणाम और उनकी समीक्षा :

तीनों उप प्रयोगों के परिणाम और उसकी समीक्षा निम्न प्रकार से हैं।

2.1 उपप्रयोग - 1 :

सन 1998, 1999 और 2000 वर्षो में प्रतिदिन हुए वाष्पीभवन के आंकड़े इकट्ठा किए। इन तीन वर्षो में माहवारी हुए वाष्पीभवन के आंकड़ों का संकलन किया गया, जो तालिका 1 में संग्रहित है।

तालिका में दिखाए गए आंकड़ों से यह पता चलता है कि सबसे अधिक वाष्पीभवन सूर्य की किरणों को खुली सतह से 6.37 मि.मी. प्रतिदिन हुआ जिसे 100 प्रतिशत माना गया। इसके बाद अनुगामी संस्कारों की श्रृंखला में आते हैं क्रमशः खाली बोरियों का ढक्कन (4.08 मि.मी. प्र दि.) नीम का तेल (3.13 मि.मी. प्र. दि.) सूखे घांस को छप्पर का ढक्कन (1.68 मि.मी. प्र. दि.) और अन्त में है थर्मोकोल के गत्तों का ढक्कन (1.33 मि.मि. प्र. दि.) दूसरे शब्दों में थर्मोकोल का ढक्कन कंट्रोल की तुलना में 79.12 प्रतिशत वाष्पीभवन कम करने में सफल रहा जबकि सूखे घास की छप्पर 73.63 प्रतिशत तक रोकने में सफल रही। चूंकि थर्माकोल के गत्ते सूखे घास छप्पर की तुलना में अधिक महंगे पड़ते हैं, अतः सूखे घास का छप्पर जिससे लगभग 74 प्रतिशत तक वाष्पभवन की रोकथाम हो सकती है, को जलकुण्ड के ढक्कन के रूप में उपयोग में लाने की सिफारिश की गई।

2.2 उपप्रयोग - 2 :

सभी गड्ढे 4000 लि. की क्षमता तक वर्षा के जल से भरे गये। इनमें से वर्षा थमने के बाद से पुनः वर्षा शुरु होने तक 10 लि. प्रति सप्ताह के हिसाब से जल वाहकों द्वारा प्रति कलम पानी दिया गया। वर्षा के तुरंत बाद ही गड्ढों को घास के छप्पर से ढंक दिया गया ताकि वाष्पीभवन की रोकथाम हो सके। नीम या उंडी का तेल हर सप्ताह जलकुण्ड से पानी निकाल लेने के बाद 50 मि.लि. मात्रा जलकुण्ड उंडेला गया। 

इस उपप्रयोग के फलस्वरूप निम्नलिखित परिणाम प्राप्त हुए (तालिका 2).

यदि अस्तरीकरण हेतु उपयोग में लाए गए प्लास्टिक और वाष्पीभवन प्रतिरोधकों के परिणामों को नजरअंदाज किया जाय तो अंतिम सिंचन के बाद 2 मी. (ल.) 1 मी. (चौ.) और 2 मी. (ग.) जलकुण्ड में 4 मी. (ल.) 1 मी. (चौ.) और मी. (ग.) वाले जलकुण्ड की तुलना में 9.5 प्रतिशत अधिक जल पाया गया। 

अगर गड्ढे के आकार और वाष्पीभवन प्रतिरोधकों के परिणामों को नजरअंदाज किया जाए तो सिल्पालीन अस्तरीकृत गड्ढे में साधे एच. डी. पी. ई. पालीथीन की तुलना में 29.2 प्रतिशत अधिक जल भण्डारण पाया गया। साधी एच.डी.पी.ई. फिल्म की आयु केवल एक वर्ष की ही पाई गई। सिल्पालीन  फिल्म तीन वर्षो तक धूप में बिना खराब हुए काम दे सकती है।

अगर गड्ढे का आकार और अस्तरीकरण के साधनों को नजरअंदाज किया जाए तो अंतिम सिंचन के समय नीम के तेल की सतह के नीचे उंडी के तेल की अपेक्षा 18 प्रतिशत अधिक जल भण्डारण पाया गया।

टेबल 1

TABLE 1
तालिका 1: वाष्पीकरण रोधक साधनों का उपयोग करने पर औसतन प्रति दिन होने वाला वाष्पीकरण (मि.मि.) (तीन वर्षों का औसत )
 तालिका 2 सिल्पालीन और साधी एच.डी.पी.ई. अस्तरीकृत जल कुण्डों
 तालिका 2 सिल्पालीन और साधी एच.डी.पी.ई. अस्तरीकृत जल कुण्डों के तेलों का उपयोग करने पर जल कुण्डों में संचित जल की मात्रा का तुलनात्मक अध्ययन( सन 1999-2000 और 2000- 20001 के आकड़े और औसत)

इस तरह अगर तीनों साधनों का इकठ्ठा परिणाम यदि आंका जाए तो यह सिद्ध होता है कि 2 मी. (ल) x 1 मी. (चौ.) x 1 मी. (ग) वाले सिल्पालीन अस्तरीकृत जलकुण्ड में यदि नीम का तेल वाष्पीभवन प्रतिरोधक के रूप में उपयोग में लाया जाए तो दूसरे साधनों के दूसरे जूटावों की तुलना में 56.7 प्रतिशत अधिक जल संग्रह किया जा सकता है।

सन् 1999-2000 और 2000-2001 में आयोजित इस उपप्रयोग के निष्कर्षो पर आधारित यह सिफारिश की गई कि 2 मी. (ल.) x 1 मी. (चौ.) x मी. (ग) गड्ढा तैयार कर उसमें सिल्पालीन 200 ग्राम प्रति वर्ग मीटर की मोटाई की फिल्म का अस्तरीकरण किया जाए और साथ ही वाष्पीभवन प्रतिरोधक के रूप में नीम का तेल 50 मि.ली. मात्रा में हर सिंचाई के बाद पानी की सतह पर डाला जाये ताकि सिंचन हेतु अधिक से अधिक पानी उपलब्ध हो सके।

2.3 उप प्रयोग-3 :

तालिका 3 में प्लंजर टाइप पंप और उक्ती इन जल निकालने के साधनों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है।

उपर्युक्त तालिका 3 से यह दृष्टिगोचर होता है कि दोनों ही साधनों की औसतन कार्यक्षमता अलग- अलग कार्य की परिस्थितियों में लगभग एक समान है। उक्ती बिठाने के लिए गांव में ही सभी साधन मिल जाते है किन्तु प्लंजर पंप खरीदना पड़ता है।

3. विस्तार कार्य :

जलकुण्ड तैयार करने हेतु अधिकतर दो तरह की जानकारी आवश्यकता होती है :

  1.  जलकुण्ड तैयार करने की विधि,
  2. जलकुण्ड की लागत

3.1 जलकुण्ड तैयार करने की विधि :

पहाड़ियों या ढलानों पर जहां आम और काजू के कलमों की रोपाई की गई हो, वहां मिट्टी की गहराई के अनुरूप 4 मी. लम्बे, 2 मी. चौड़े और 1 मी. गहरे या 2 मी. गहरे या 2 मी. लम्बे, 1 मी चौड़े और 2 मी. गहरे गड्ढे खोद लिए जाएं। अस्तरीकरण के हेतु 15 सेमी. अतिरिक्त खुदाई सभी धरातलों पर आवश्यक है। ऐसे गड्ढों को अच्छी तरह चौकोना आकार देना चाहिए (चित्र 1) | इस हेतु अगर सतहों पर नुकीले या बेढब पत्थर वगैरह हों तो उन्हें निकालकर गड्ढे की सभी सतहों को एकदम समतल किया जाना चाहिए। किसी कीटकनाशक (लिण्डेन, टाटाफेन इ.) की 1-2 मुट्ठी पावडर लेकर सभी सतहों पर समान रूप से छिड़कना चाहिए, ताकि दीमक की रोकथाम हो सके।

TABLE 3
तालिका 3 उक्ती और प्लंजर टाइप पंप के द्वारा जल कुण्ड में से निकाले गये पानी का प्रति घंटा आयतन का नाम ( 1999-2000 और 2000-2001 )

उसके बाद 15 सेमी. मौटाई की धान के तिनकों की परत सभी सतहों पर समान रूप से फैला देना चाहिए (चित्र 2)। उसके बाद गड्ढे में 200 ग्राम प्रति वर्ग मीटर मोटाई के सिल्पालीन के (4x1x1 घ. मी. हेतु 7x4 वर्ग मी क्षेत्रफल के 2x1x2 घ. मी. हेतु 7x6 वर्ग मी क्षेत्रफल के टुकड़े) अच्छी तरह फैलना चाहिए ताकि कहीं भी प्लास्टिक में तहें न पड़े। गड्ढे के ऊपरी भाग में 20 सेमी की दूरी पर 30x30 वर्ग सेमी. के आकार की नाली खोदकर उसमें सिल्पालीन के बाहरी किनारों को मिट्टी में दबा देना चाहिए। मिट्टी को अच्छी तरह दबाकर गड्ढे के किनारों को सतह से कुछ उंचा रखना चाहिए, ताकि वर्षा का जल ही गड्ढे में आ सके और सतह पर से बहने वाला मिट्टीमय पानी गड्ढे में न आ सके। वर्षा के दिनों में यह जलकुण्ड 4 घन मीटर साफ पानी इकट्ठा कर लेता है (चित्र 3 ) । वर्षा में संचित यह जल 15 नवंबर से 15 जून तक इस आम या काजू की कलमों के सिंचन के लिए प्रति सप्ताह 10 लि. के हिसाब के पूरा पड़ेगा।

पिक्चर 

3.2 संचित जल सतह से वाष्पीभवन रोकथाम के उपाय :

जलकुण्ड में से वाष्पीभवन रोकने के लिए उन्हें घास की छप्पर से ढंक देना चाहिए। इससे मवेशियों और अन्य वन्य पशुओं से भी संचित पानी को नुकसान नहीं होगा। हर सप्ताह कलमों को पानी दिए जाने के तुरंत बाद जलकुण्ड में 100 मिली. नीम तेल या उंडी का तेल उंडेल देना चाहिए। वाष्पीभवन की रोकथाम के साथ साथ तेलों की उग्र गन्ध से और कीटकनाशकीय गुणधर्मों के कारण मवेशी पानी नहीं पीते और चूहे, सांप, बिच्छू मेंढक जल के पास नहीं आते, साथ ही जल कुंड के चारों और बांसा की बाड़ लगाने से मवेशियों / वन्य पशुओं से जलकुण्ड को नुकसान करने की समस्या हल हो सकेगी (चित्र 4 ) |

3.2 कलमों को आंतरिक सिंचन विधि से सिंचाई :

पोले बांस के टुकड़ों को 30 सेमी. गहराई तक कलमों की तीन बाजूओं में लगाकर इन में से अगर जमीन में गहराई पर पानी दिया जाता है तो उससे सतही वाष्पीभवन न के बराबर रहते हुए जड़ों तक सीधे पानी पहुँचाने में मदद हो सकती है। पोले बांस के टुकड़ों की बजाय मिट्टी के पके हुए जल वाहकों से भी पानी दिया जा सकता है। साधारणतया 15 नवम्बर से 15 जून तक 30 सप्ताहों के दौरान प्रति सप्ताह 10 लि० पानी दिया जाए तो कुल पानी की मात्रा 3000 लि. होगी। इस तरह 1000 लि. पानी या तो गड्ढे में बचा रहेगा या उसकी कुछ मात्रा वाष्पीभवन की क्रिया में उड़ जाएगी।

4. आम की प्रति हेक्टर बागान के लिए आवश्यक जलकुण्डों पर आने वाली लागत:

तालिका 4 में दिखाए गए विभिन्न मदों पर खर्च को देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि आम की एक हेक्टर बागान के लिए कुल खर्च रू० 28030/- होता है, क्योंकि आम के पेड़ों की संख्या प्रति हेक्टर 100 होती है। काजू के पेड़ों की प्रति हेक्टर संख्या 200 होती है तो यही खर्च दुगुना याने रू० 56060/- हो जाता है। सिल्पालीन धूप की अल्ट्रावायलेट किरणों से प्रभावित नहीं होता और तानने पर फटता नहीं है।

सिल्पालीन प्राप्त करने हेतु पता :

मे. सिलटॅप प्रा. लि., 19, शाह इंडस्ट्रियल इस्टेट, आफ वीरा देसाई रोड, अंधेरी (प.), मुम्बई ।

5. शेष महाराष्ट्र वैधानिक विकास मण्डल की और से प्राप्त राशि में से कोंकण जलकुण्ड प्रशिक्षण और निरूपण योजना :

तालिका 4 आम की एक हेक्टर बागान के लिये लगने वाले जल कुण्डों पर आने वाली लागत (सन 2002 के अनुसार)

5.1 उद्देश्य :

इस योजना का प्रमुख उद्देश्य जल व्यवस्थापन अनुसंधान योजना, वाकवली द्वारा विकसित कोंकण विभाग में पहाड़ियों की चोटियों और ढलानों पर आम और काजू के बागानों में सिंचाई के लिए उपयुक्त जलकुण्ड तकनीक का प्रचार-प्रसार करना, कृषकों को प्रशिक्षण करके उन्हीं के खेतों पर जलकुण्ड तैयार कराना और इस तरह जलकुण्ड की उपयोगिता कृषकों को समझाना था।

शेष महाराष्ट्र वैधानिक विकास मण्डल की ओर से इस योजना के अन्तर्गत सन् 2000-2001 इस आर्थिक वर्ष में 7.50 लाख के खर्च का प्रावधान किया था। इसमें सिल्पालीन प्लास्टिक और 35 सेमी. लम्बे और 3 लि. क्षमता वाले मिट्टी के बने पके हुए जल वाहकों के क्रय हेतु खर्चा करने का प्रावधान था। अतः 7x6 मी. क्षेत्रफल के 210 सिल्पालीन प्लास्टिक फिल्म के टुकड़े और 6300 मिट्टी के बने पके हुए जल वाहक क्रमशः रू० 4,52,340 /- और रू० 1,00,800 की लागत से खरीदे गये। ये सिल्पालीन के टुकड़े और जलवाहक कृषकों की जमीन पर प्रत्यक्ष रूप से जलकुण्ड तकनीक के निरूण हेतु निःशुल्क वितरित किए गए।

5.2 प्रशिक्षण कार्यक्रम :

इस योजना के अन्तर्गत रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग जिलों के 180 कृषकों तथा सेवाभावी संस्थानों को प्रशिक्षण देने का प्रस्ताव रखा गया। रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग जिलों में 90 कृषकों का चयन किया जाना था इस हेतु तहसील कृषि अधिकारी और जिला अधीक्षक कृषि अधिकारियों से संबंध समन्वित किया गया। इन दोनों जिलों में तहसील निहाय औसतन 10 कृषकों का चयन किया जाय ऐसा निश्चित किया गया। मार्च 2001 के अन्त में जलकुण्ड संबंधी साधनों का क्रय किया गया और मई 2001 में कृषक प्रशिक्षण के कार्यक्रम आयोजित किए गए। रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग जिलों में आयोजित तहसील निहाय प्रशिक्षण कार्यक्रमों की समय सारिणी सम्मिलित होने वाले कृषकों/ सेवाभावी संस्थानों / शिक्षा संस्थानों की संख्या और वितरित किए गए सिल्पालीन और जलवाहकों की संख्या तालिका 5 में दी गई है।

प्रशिक्षण के दौरान कृषकों को अस्तरित जलकुण्ड कैसे बनाये, उसमें वर्षा के जल को कैसे इकट्ठा करें, वाष्पीभवन से होने वाला ह्रास कैसे कम करें और वर्षा के बाद के सूखे महीनों में जलकुण्ड में संचित जल उपयोग कैसे करें, इन्हीं विषयों पर विस्तृत रूप से जानकारी दी गई।

इस योजना के अन्तर्गत प्रशिक्षित कृषकों को छोटे से क्षेत्र पर नई आम और काजू की बागानों को लगाने के लिए कोंकण जलकुण्ड तकनीक को अपनाना संभव हो, इस हेतु उन्हें एक जलकुण्ड के लिए लगने वाले संसाधनों को निःशुल्क वितरित किया गया, ताकि आसपास के अन्य कृषक भी इस तकनीक से परिचित हो सके।कुछ तहसीलों से कृषक प्रशिक्षण हेतु उपस्थित न हो सके। ऐसी स्थिति में बचे हुए संसाधनों को जलकुण्ड अपनाने के लिए इच्छुक कृषकों में वितरित कर दिया गया।

Table -5
तालिक 5 : कोकण जलकुंड की तकनीक के तहत कृषकों ,सेवाभावी संस्थाओं और कृषि विश्वविद्यालय के प्रक्षेत्रों पर लिये गए  निरुपणों में वितरित किये गए सिल्पालीन के टुकडे एवं  मिट्टी के  जलवाहकों की संख्या

5.3 भविष्य :

सिल्पालीन अस्तरीकृत बड़े जलकुण्डों का निर्माण पर्वत शिखाओं पर संभव है, परंतु वाष्पीभवन की रोकथाम के लिए (जो कि वर्षभर में लगभग 70 सेमी से 1 मीटर तक हो सकती है) योग्य उपायों की खोज आवश्यक है। इसमें गैर-जहरीले साधनों का उपयोग इस जल को पीने योग्य रखने में मददगार साबित हो सकता है। दूसरे, ये जल कुण्ड अगर गहरे किए जाएं तो वाष्पीभवन की सतह को कम करना संभव है, परंतु पर्वत शिखरों पर मिट्टी की गहराई इसमें एक बाधा साबित हो सकती है। पर्वत शिखरों पर संचित इस जल को सायफन के जरिये पहाड़ी के निचले भागों में लाया जा सकता है और पहाड़ियों की ढलानों पर बसे ग्रामों को पीने के पानी और सिंचन जल उपलब्ध कराया जा सकता है।

स्रोत: जल संसाधन के क्षेत्र में भावी चुनौतियाँ" विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी 16-17 दिसम्बर, 2003, रुड़की (उत्तरांचल)
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Post By: Shivendra
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