लगातार बढ़ता वायु-प्रदूषण कहीं-न-कहीं एक चेतावनी दे रहा है कि वायु की गुणवत्ता अक्टूबर माह में लगभग 8 प्रतिशत और उत्तरोत्तर महीने में प्रदूषण का स्तर चेतावनी के स्तर को पार कर रहा है। इसमें से 15 प्रतिशत गम्भीर प्रदूषण और 51 प्रतिशत अति गम्भीर स्तर को दर्शाते हैं।
अक्टूबर में स्वभावतः ही बिहुआ, निशना, सोरेल, Mugwort और कई अनेक वनस्पतियों के पराग भी बहुतायत से मिलते हैं। वातावरण में रुक्षता स्पष्ट महसूस होती है और तब ऋतुचर्या (Seasonal regimen) जो आयुर्वेद में 5000 वर्ष पहले ही कह दी गई हो, बड़ी सार्थक लगती है।
प्रत्येक जीव का जीवन उसकी साँसे होती हैं और मनुष्य की साँसों में अहम भूमिका दो फेफड़ों के स्वास्थ्य पर आश्रित होती हैं। फेफड़े या फुफ्फुस के प्राथमिकता के साथ-साथ नासिका, मुख, फैरिंक्स, लैरिंक्स, ट्रेकिया (श्वसन नली) नलिकाएँ, (Bronchi & Bronchioles) के स्वास्थ्य और सामान्य कार्यमुक्तता इन साँसों के लिये अति आवश्यक है। कितना आश्चर्य होता है कि जब एक अध्ययन से पता चलता है कि विकसित यूरोप में साँसों के रोग का योगदान कुल मृत्यु दर का 8 प्रतिशत है।
जब कोई आपके मुँह पर छींक देता है या सामने ही नाक निकाले या जुकाम पोंछने की परेशानी दिखाए तो प्रायः तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों को अपनी मृत्यु भय का अहसास सताने लगता है क्योंकि सभी को साँसों के स्वास्थ्य की अहमियत पता है, लेकिन क्या हम अपनी साँसों के साथ दूसरों की भी साँसों का मूल्य रख पाते हैं।
वायु प्रदूषण, धूम्रपान, कचरा जलाना, रासायनिक तत्वों का बद्दिमाग प्रयोग और ऐसी फैक्टरियों से लगातार निकलता धुआँ, रेडियोएक्टिव तत्वों का बढ़ता प्रयोग, घर की धूल, तरह-तरह की विषैली गन्धों का प्रयोग स्वयं से अधिक दूसरों को मानसिक-भावानात्मक तनाव देने का चलन हो जाना, विषैला वातावरण व्यवसाय में देना, भोजन में कृत्रिम रासायनिक मिलावटें और सबसे अधिक स्वार्थवश सम्पूर्ण मानवता की साँसों को खतरे में डालना ऐसे ही उदाहरण हैं।
ये व्यवस्था आज नगरों की पहचान होती जा रही है। तब अक्टूबर मास में चढ़ते सूरज और ठंड की दस्तक कई बैक्टीरिया, वाइरस, जैसे जीवाणु की बहुलता, शरीर की रुक्षता और फलतः संक्रमण की सम्भावना और प्राचीन शास्त्र आयुर्वेद का कथन कि इस मास में स्वभावतः शरीर, पाचन शक्ति, फेफड़ों की शक्ति और रोग प्रतिरोधक शक्ति की कमी हो जाना इस महीने को विशेषतः श्वसन संस्थान यानि साँसों के लिये अस्वास्थ्यकर कर सकता है।
इस कारण अक्टूबर मास को राष्ट्रीय फेफड़ा स्वास्थ्य मास के रूप में विशेषता दी गई है। अक्टूबर महीने में इसीलिये 28 अक्टूबर को राष्ट्रीय श्वसन सावधानी दिवस (National Respiratory Care Day) और राष्ट्रीय श्वसन सावधानी सप्ताह (National Respiratory Care Week) 25-31 अक्टूबर को मनाया जाता है।
इस तरह से जागरुकता दिवस, सप्ताह या महीने का उद्देश्य न केवल कारणों को जानना, समझना बल्कि स्वयं के साथ-साथ दूसरों की साँसों की रक्षा करने के लिये हममें से प्रत्येक को वचनबद्ध होने के लिये प्रेरित करता है। ताकि अपनी किसी लापरवाही से हम प्रत्येक श्वसन संस्थान के रोगों जैसे Bronchitis, Emphysema हृदय-श्वसन रोग, उच्च रक्तचाप, रक्त वाहिनियों का संकुचन, अस्थमा, तपेदिक, DVT (Deep Vein Thrombosis), Pulmonary embolism, कैंसर, Stroke, COPD (Chronic Obstructive Pulmonary Disease) जो राष्ट्रीय मृत्यु दर का तृतीय बड़ा कारण है, जैसे रोगों से मुक्त रहे और देश की मृत्युदर को बढ़ाने का कार्य न करें।
Pulmonary Hypertension, व्यावसायिक फेफड़ों के रोग, interstitial फेफड़े के रोग श्वसनतंत्र को अपरिवर्तित नुकसान पहुँचाकर फेफड़ों की कुल श्वसन सामर्थ्य को कम कर देती है और ऐसे रोगों का पूर्ण इलाज भी नहीं होता है बस आंशिक रूप से श्वसन नलिका को विस्फरित कर छोटी होती साँसों को अंशकालीन राहत ही औषध दे पाती है। अधिक-से-अधिक Air Conditioners का उपयोग, लगातार बढ़ता पेड़-पौधों का कटाव, ग्रीन हाउस गैसों का वातावरण में घुलना, पैसे कमाने की अन्धी दौड़, हमें लगातार लोभ-लालच में, गर्भवती के गर्भ के प्रति लापरवाही, नवजात शिशु से लेकर, भावी नागरिक हमारे बच्चों के प्रति गैर जिम्मेदारी, वृद्धों के क्षीण होते फेफड़ों के प्रति लापरवाही (carelessness) ही दिखाता है।
देखा जाये तो हर जिम्मेदारी केवल शासकीय-अर्धशासकीय या अशासकीय संस्थानों की नहीं बल्कि आज प्रत्येक का नैतिक दायित्व है कि वो तमाम कारण जो श्वसन संस्थान या फेफड़ों की स्वभावतः शक्ति को निस्संकोच रूप से अस्वस्थ कर रहे हैं, से दूर रहा जाये। तब आज स्वास्थ्य रक्षा की शपथ ली जाये। जहाँ यह जानना आवश्यक है कि जब विश्व का सबसे शान्त और खुशहाल देश ‘भूटान’ आज से दो दशक पहले ही अपने कार्बन emission पर नियंत्रण कर चुका है तब ऐसा देश सम्पूर्ण विश्व में खुशहाली लाने का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण हो सकता है। आज सर्वाधिक अमेरिकन फेफड़े के रोगों से त्रस्त हैं।
लगभग 10 मिलियन वयस्क प्रत्येक वर्ष चिर कालीन Bronchitis के शिकार हो रहे हैं। लगभग 4.7 मिलियन वयस्क emphysema से और लगभग 25 मिलियन लोग अस्थमा से ग्रसित हैं। साथ ही व्यावसायिक फेफड़ों के रोगों में asbestosis एवं mesothelioma भी कई अमेरिकन को ग्रसित करते हैं जिन पर वर्ष में 150 अरब डालर का खर्च हो जाता है।
इसी तरह COPD रोग जो फेफड़ों को लम्बे समय तक व्यावसायिक मजबूरी की वजह से परेशान करने से हो जाता है, 19.2 प्रतिशत अधिक घातक हो जाता है। ARDS (Acute Respiratory Distress Syndrome) एक चिकित्सकीय कष्ट है जो केवल यूनाइटेड स्टेट में ही 70,000 से अधिक लोगों की मृत्यु का कारण बना है। इसके अलावा रोगी जो इस ARDS से बचे हैं उनकी शारीरिक परिश्रम करने की क्षमता और दैनिक गुणवत्ता कम कर स्वास्थ्य को लागू करने का खर्चा पिछले 5 वर्षों में बढ़ रहा है।
हालांकि यह Syndrome, जन-सामान्य के स्वास्थ्य को प्रभावशाली तरीके से महामारी के रूप में ग्रसित कर रही है जिसका निदान बड़े स्तर पर होना और चिकित्सा होना मुश्किल होता जा रहा है। एक अनुसन्धानिक अध्ययन (रुबेनफील्ड और अन्य) ने वाशंगिटन के 21 अस्पताल के सर्वेक्षण से चौंकाने वाले आँकड़े दिये। संयुक्त गणराज्य में अकेले प्रत्येक 1,00,000 व्यक्तियों में 78.9 व्यक्ति मुख्यतः 15-19 वर्षायु तथा 306 व्यक्ति 75-84 वर्षायु के ARDS से पीड़ित हैं।
इसी तरह केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, भारत सरकार ने विजयवाड़ा को वाइजैक एवं हैदराबाद से भी 0.5 प्रतिशत बुरी स्थिति में आने के आँकड़े दिये हैं। विश्व स्वास्थ्य ने भारत में फेफड़े के रोगों से मरने वाले रोगियों को कुल मृत्यु दर का 11.97 प्रतिशत जिम्मेदार माना है। भारत में प्रत्येक वर्ष प्रत्येक 1 लाख में 142.09 व्यक्तियों की मृत्यु का कारण फेफड़े के रोग कहे गए हैं, जो विश्व में सर्वाधिक हैं।
इन फेफड़े के रोगों में भारत में अस्थमा, COPD, ILD (Interstitial Lung Disease), न्यूमोनिया, तपेदिक (TB) जैसे रोगों को मुख्यतः गिना गया है। सर्वेक्षण के अनुसार Pulmonary Fibrosis, फेफड़े रोग विशेषज्ञ के रोग चिकित्सकीय अभ्यास में 15 प्रतिशत रूप में मिलते हैं।
भारतीय चिकित्सकीय अनुसन्धान परिषद के आँकड़े 5 प्रतिशत भारतीयों को COPD का शिकार मानते हैं। इनमें Pulmonary Fibrosis का उपाय फेफड़े का प्रत्यर्पण ही बचता है और दुर्भाग्यवश उसकी सुविधा और जानकारी के अभाव में वह अकाल मृत्यु का कारण हो जाता है। इसी तरह फेफड़ों का कैंसर बहुत प्रभावी रूप भारतीय समाज में अपना प्रतिशत बढ़ता जा रहा है।
जिद्दी खाँसी, थोड़ा भी छींकना, किन्तु साँस लेने में कष्ट होना, साँसों का छोटा होने लगना, तब चिकित्सकीय जाँच की तुरन्त आवश्यकता होने लगती है। इसलिये शीघ्र निदान से फेफड़ों की घटती अस्वस्थता को रोका जा सकता है।
चेतावनी लक्षण :
1. चिर कालीन खाँसी : एक महीने से अधिक चलने वाली खाँसी
2. साँसों का छोटा होना : थोड़े परिश्रम या बिना परिश्रम के से भी साँसों का उखड़ना, साँस लेने में तकलीफ होना।
3. चिर म्यूकस का बनते रहना : एक महीने से अधिक थूक, म्यूकस का लगातार बनना और श्वसन प्रवाह में अवरोध करना।
4. साँसों में घरघराहट का होना : साँस लेते समय घरघराहट या कुछ आवाज का होना जो अवरोध जैसा लगे।
5. थूक में खून का आना : खाँसी या थूक में खून का आना।
6. छाती में चिर दर्द का होना : एक महीने से अधिक छाती में बिना चोट, धमक के रह-रहकर दर्द होना, विशेषकर साँस लेते हुए।
7. किसी ज्ञात साँस रोग से पीड़ित होना : अस्थमा, तपेदिक आदि का इतिहास के साथ साँसों में कष्ट होना।
ऐसे लक्षण प्रकट होने पर साँसों के कष्ट को पहचान कर तुरन्त चिकित्सकीय सलाह लेनी चाहिए।
चिकित्सक के पास जाना
चिकित्सक की समुचित सलाह और अपने रोग के तुरन्त निदान हेतु निम्न जानकारियों के साथ शीघ्र जाँच कराएँ।
1. अपने सभी पूर्व चिकित्सा और जाँच रिपोर्ट।
2. अपनी औषधि की सूची जिसे आप ले रहे हों या ले चुके हों, या बीच में छोड़ चुके हों।
3. यदि किसी अस्पताल में भर्ती रहे तो उसका ब्यौरा।
4. अपनी तकलीफों की सूची ताकि जो कष्ट अधिक सता रहा हो वो बताना ना भूलें।
5. पूर्व इतिहास जिसमें कभी भी श्वसन संस्थान के अंग प्रत्यंग, उत्तक, श्वसन नलिका, nasal passage, trache, bronchi, bronchioles, alveoli, pleura और pleural cavity, तंत्रिकाएँ या श्वसन की मांसपेशियाँ, छाती की चोट, दुर्घटना का समावेश हुआ हो।
6. अर्थात सामान्य जुकाम जैसे Upper Respiratory disorder या न्यूमोनिया जैसे Lower respiratory रोग या कभी कैंसर जैसे रोग का इलाज हुआ हो पूर्ण उसकी जानकारी में नए चिकित्सक को बतान आवश्यक है।
7. इसमें फेफड़ों की सूजन, उच्च रक्तचाप, थक्का जमना, उसके द्रव का कम होना, जन्म के समय यदि कोई साँस की तकलीफ हुई थी, आदि जानकारी विशेष सहायक हो जाती है।
निदान
श्वसन कष्ट के लिये चिकित्सक की सलाह अनुसार निम्न जाँच सहायक हो जाती हैं :-
1. खून की जाँच
2. थूक की जाँच
3. ब्रान्कोस्कोपी
4. छाती का X-रे
5. CT
6. PFT (Pulmonary Function Test)
7. Ventilation-Perfusion Scan
8. अल्ट्रासाउंड
9. चिकित्सकीय परीक्षण
नोट
1. Forced Vital Capacity (FEV & FEV1) का कम होना
2. Total lung capacity का उम्मीद से 80 प्रतिशत से कम हो जाना Restrictive Lung या फेफड़ों को समुचित फैलाने से रोकता है को इंगित करता है।
3. सामान्य श्वास दर एक पुरुष की तुलना में एक स्त्री में अधिक होती है।
4. सामान्य रूप से साँस लेने और छोड़ने में निम्न संगठन होता है।
स्पष्ट है कि फेफड़ों के स्वास्थ्य के लिये ऑक्सीजन की कितनी आवश्यकता है। जिन्दगी का जीवन साँसों की डोर से ही जुड़ा है अतः जब जीवन की इस कड़ी में ही विघ्न आने लगे तब सब शिक्षा, धन, नाते रिश्तेदार, घर-बार सब व्यर्थ हो जाता है।
मैंने अपने IRCH, AIIMS, नई दिल्ली में एक प्रोजेक्ट के अन्दर कार्य करते हुए और पूर्व में राजकोट कैंसर संस्थान में चिकित्सकीय अनुभव में प्रायः अनुभव किया है कि लाइलाज स्टेज पर रोगी को अक्सर जीवन की एक-एक साँस के लिये अपना सर्वस्व छोड़ देने और बदले में साँसें माँगने की बात। इसलिये अतिआवश्यक है कि इन साँसों के मोल को समय रहते समझा जाये और तमाम वो जानकारियाँ एवं उपायों को अपनाया जाये जो फेफड़ों की सामर्थ्य बढ़ाते हों और साथ ही जरूरत इस बात की भी है जो श्वसन तंत्र के लिये घातक या नुकसानदायक हैं कि, को छोड़ा जाये-
1. घातक वायु प्रदूषण वो घर के भीतर हो या बाहर, को समय रहते कम-से-कमतर या शून्य किया जाये।
2. सीसा (Lead), Formaldehyde, सफाई करने वाले रासायनिक तत्व, कई खतरनाक ज्वलनशील रासायनिक यौगिक, प्लास्टिक का जलाना, जिसमें से घातक गैसें निकलती हैं को वातावरण में घुलने से रोकने के उपाय कर सकते हैं।
3. घर में घरेलू जानवर की सफाई रखना उनका Vaccination टीकाकरण उचित व समय पर कराना।
4. घर के परदे, कपड़े, चादर, दरी, कारपेट, डोरमेट आदि का समय-समय पर सफाई करना।
5. घर में लगी फफूँदी, जंगली घास आदि जो allergy करती है, की सफाई रखना।
6. वैक्यूम फिल्टर जिसमें HEPA फिल्टर धूल, सीसा जैसे घातक तत्वों को निकाल देता है।
7. घर के पोंछे में संक्रमण हटाने वाले एजेंट या माध्यम का प्रयोग करना चाहिए।
8. बाहर के जूते-चप्पलों का घर में प्रवेश के पहले पूर्ण सफाई कर लेनी चाहिए।
9. खाने, पीने के बर्तनों को कॉकरोच, चूहे आदि घरेलू संक्रमण से रहित रखना चाहिए।
10. बड़े हो या छोटे, छींकते वक्त मुँह पर कपड़ा या हाथ रखने जैसी आदतों को अपना लेना चाहिए।
11. कुछ भी खाने के पहले हाथ को धोना और संक्रमण रहित करना बेहद आवश्यक है।
12. खान में ताजा, स्वच्छ, सुपाच्य, शुद्ध खाने का प्रयोग करना चाहिए।
13. पेट और आँतों को हल्का रखना अर्थात नरम रखना साँसों के आवागमन हेतु अति आवश्यक है।
14. कब्जियत को न होने देना साँस को निर्बाध रूप से बहने देने के लिये बेहद जरूरी है।
15. घर पर तुलसी का पौधा आस-पास की वायु को शुद्ध करता है।
16. नीम का एक पेड़ अपने चारों ओर असंक्रामक वातावरण पैदा करता है।
17. नीम के पत्तों के पानी से सप्ताह में नहाना, कपड़े धोना एवं पोंछे का पानी बनाना प्रायः संक्रमण को रोकता है।
18. घर के भीतर एलोवेरा, Spider Plant जैसे पौधे लगाना फार्मेल्डिहाइड, बेन्जीन, टाल्यूइन, जाइलीन जैसे विषैले तत्वों से वायु को मुक्त रखता है।
19. कृत्रिम इत्र, गंध, laundry डिटर्जेंट, कृत्रिम वायु Freshners जो फेफड़ों को नुकसान पहुँचाते हैं, से बचना चाहिए।
20. घर में Radom जाँच से कैंसर करने वाली गन्धरहित, रंगरहित गैस का भी पता लगाया जा सकता है।
इस तरह एक वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो कहा जा सकता है कि जब आप अपने शरीर की आवश्यकता अनुसार हल्का, शीतल और उचित भोजन करते हैं तो अपने शरीर की Positive energy को बढ़ाते हैं और स्वभावतः वातावरण में फैलने वाले, फेफड़ों के दुश्मन संक्रमणों से, परागों से स्वयं को बचा सकते हैं।
विभिन्न वनस्पतियों से जनित पराग, छींक, नाकबंद होना, नाक बहना, नींद में व्यवधान, आँखों का लाल हो जाना, सूजन होना, पानी बहना, कंठ या गले में खिचखिचाहट होना और हीव्स (Hives) संक्रमण का होना आम बात है। कई बार Sinusitis और अस्थमा का दौरा पड़ना भी बहुतायत से हो जाता है।
जबकि Mold एक दूसरा Allergen इस मास में बहुतायत से मिलता है। Mold मुख्यतः शीतल और सीलन वाले कमरे या स्थान जहाँ सूरज की रोशनी पूरी नहीं मिल रही है, से allergy उत्पन्न करता है। ये Mold को साफ करने के लिये ब्लीचिंग पाउडर का पतला घोल का प्रयोग किया जा सकता है।
कई बार देखा गया है कि इन पराग या Mold जैसे allergens जितना नुकसान नहीं पहुँचाते उतना smoking या धूम्रपान फेफड़ों एवं रक्त के साथ सम्पूर्ण स्वास्थ्य को हानि पहुँचा देता है।
21. हम सोयें या जागे या कोई भी गतिविधि करें- शरीर को ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, जो उसकी प्रत्येक कोशा को जीवित रखती है।
एक सामान्य दिन में हम करीब 25,000 समय साँस लेते हैं। जो वय, अवस्था, व्यवसाय, गतिविधि के अनुसार बदलता रहता है लेकिन साँस अवश्य लेते हैं। इसमें मुख्यतः ऑक्सीजन और नाइट्रोजन होती है। इसके अलावा अन्य गैस, वायु में तैरते बैक्टीरिया, जीवाणु, वायरस, वाहनों के रासायनिक धुएँ और अन्य गैस भी शामिल होती है।
अब अधिक पेड़ लगाने से हमारी साँसों से छोड़ी कार्बन डाइऑक्साइड गैस (Co2) पेड़ों द्वारा इस्तेमाल होकर ऑक्सीजन अधिक देती है।
इसी तरह वाहनों में इंजन तेल, पेट्रोल आदि का धुआँ नियंत्रण या वायु प्रदूषण नियंत्रण से शुद्ध वातावरण पैदा किया जा सकता है।
अतः बाहरी व घर की वायु को, प्राकृत जैविक, यांत्रिक किसी भी barriers से प्रदूषण मुक्त रखना फेफड़ों के स्वास्थ्य के लिये अति आवश्यक है।
अब यहाँ यह जानकारी भी जरूरी है कि किस तरह फेफड़ों के स्वास्थ्य के दुश्मनों को दूर रखें -
तम्बाकू/धूम्रपान
विश्व में तम्बाकू एवं उसकी बीड़ी-सिगरेट के धूम्रपान से उच्च रक्तचाप, Stroke, हृदय रोग, मधुमेह, अस्थिक्षय (Osteoporosis) दृष्टि रोग, मोतियाबिंद, फेफड़ों के रोग, कैंसर जैसे रोगों की भरमार आँकड़ों से ज्ञात है और इसी धुएँ से रोग प्रतिरोधक क्षमता का निरन्तर क्षय और प्रायः प्रत्येक कोशा और अंग हेतु नुकसान कारक परिणामों पर अनुसन्धान हो चुका है। (CDC - Centres for Disease Prevention and Control के अनुसार आज विश्व किसी अन्य दुर्घटना की सम्भावना से 10 गुना अधिक जीवन के लिये घातक है।
यहाँ यह जानकारी भी अति उपयुक्त होगी कि धूम्रपान न करने वाले व्यक्ति यदि धूम्रपान के वातावरण में अपना वक्त गुजारते हैं तो वे passive (अक्रिय) रूप से धूम्रपान के विषैले प्रभाव से उतने ही प्रभावित होते हैं।
तम्बाकू रहित सिगरेट, इच्छाशक्ति Counselling, जानकारी जागरुकता एवं जिम्मेदारी की अनुभूति इस नशे से छुटकारा दिला सकती है।
CMC (Centre for Medicare & Medicaid Services) धूम्रपान की लत छुड़ाने हेतु कई कार्यक्रम भी करती है।
एक अध्ययन कहता है कि धूम्रपान बिल्कुल छोड़ने के 12 घंटे के भीतर खून या रक्त प्रवाह में Co (कार्बन मोनोऑक्साइड) का स्तर सामान्य आ जाता है, फेफड़ों की स्थिति में सुधार हो जाता है। एक वर्ष के भीतर ही हृदय रोग की बढ़ी सम्भावना कम होने लगती है और शरीर व मन का स्वास्थ्य बढ़ने लगता है।
शारीरिक व्यायाम
धूम्रपान छोड़ने के साथ नियमित शारीरिक व्यायाम, आसन, दौड़ आदि परिश्रम फेफड़ों को अधिक ऑक्सीजन देते हैं। एक अनुसन्धान से सिद्ध है कि शारीरिक व्यायाम के दौरान प्रति मिनट 15 साँसों से 40-60 तक बढ़ जाती है। व्यायाम से पसलियों की मांसपेशियाँ संकुचित व विस्फरित होकर फेफड़ों के alueoli को ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड के सामान्य परिवहन को सुगम बनाती है।
वायु प्रदूषण से बचना
धूम्रपान करते हुए व्यक्ति के आस-पास न रहना, ट्रैफिक भीड़ के वक्त अधिक समय बाहर न निकलना, पब्लिक बस, ट्रेन का प्रयोग करना, ट्रैफिक के पास व्यायाम न करना, सुबह-शाम की सैर में पेड़-पौधों का विशेष ध्यान रखना, कुछ व्यवसाय जैसे कंस्ट्रक्शन, खुदाई, सीवेज क्लीनिंग, Waste Management आदि जैसे व्यवसायों में सुरक्षात्मक प्रत्येक कदम, नाक पर Mask, हाथ में gloves जैसे सभी उपायों का उपयोग करना चाहिए। घर में लकड़ी-कोयले के धुएँ में खाना पकाना, कचरा जलाना जैसे साधारण वायु प्रदूषक तरीकों से बचना चाहिए। भारत सरकार की लाडली उज्जवला योजना का फायदा उठाना या जा सकता है।
बन्द रसोई घर में सूर्य की किरण और हवादार रखने की व्यवस्था भी लाभ पहुँचाती है।
संक्रमण से बचाव
फेफड़ों को संक्रमण से बचाने हेतु हाथ धोना, पानी 8-10 गिलास रोज पीना, मौसमी फलों व सब्जियों को नियमित खाना और अपने पोषण को सन्तुलित रखकर रोग प्रतिरोधक शक्ति को बनाए रखना है। अपने टीकाकरण को उचित समय में पूर्ण करना, फ्लू का टीका प्रत्येक वर्ष और 65 वर्ष से अधिक उम्र में न्यूमोनिया का टीका लगवाना भी सरकारी इंद्रधनुष योजना का ही विस्तारित रूप है।
गहरी, पूर्ण व नियमित साँसें
मुँह से साँस लेना, फेफड़ों के लिये हितकर नहीं होता, सतही साँसें भी फेफड़ों के एक हिस्से को ही कार्यशील रखती हैं। जबकि योग अनुसन्धान से साबित हुआ है कि गहरी, गम्भीर एवं पूर्ण साँसों का आवागमन फेफड़ों के द्वारा ऑक्सीजन का प्रयोग बढ़ा देती है। अतएव एक कुशल योग विशेषज्ञ से प्रत्यक्ष प्राणायाम को सीखकर उसका नियमित अभ्यास प्राणदायक होता है और फेफड़ों की क्रियाशीलता और कार्यमुक्तता को बढ़ाता है। प्राणायाम में साँस का अनुलोम-विलोम और ठहराव के कई तरीके सिखाए जाते हैं जिसका उद्देश्य अधिक ऑक्सीजन का रक्त में प्रवेश और रक्त से कार्बन डाइऑक्साइड (Co2) का निष्कासन मुख्यतः होता है।
इसके लिये यह तथ्य काफी होता है कि उदर से ली गई साँसें जो वास्तव में एक नवजात सीखकर आता है। अधिक गहरी व पूर्ण होती हैं। जबकि वक्षीय एवं clavicle से ली गई साँसें सतही होती है और फेफड़ों को पूर्ण क्रियाशील नहीं बनाती है।
उचित उठना-बैठना-लेटना
इसी तरह उचित तरीके से वक्ष को सीधा अर्थात मेरुदंड को योगी की तरह सीधा कर बैठने से भी Diapragm के विस्तार से फेफड़ों को पूर्ण विस्तार हेतु जगह मिलती है।
प्राचीन अनुसन्धान में यह भी सिद्ध है कि खाने के बाद 100 कदम चलकर लेटना और बाई करवट कर सोना, खाये हुए अन्न को पचाने में सहायक कर साँसों आवागमन को निर्बाध रखती है।
जलीय तत्व की उचित मात्रा
फेफड़ों की म्यूकस स्तर को मृदु, स्निग्ध रखने हेतु पर्याप्त मात्रा में द्रव व जल का सेवन करना चाहिए। रुक्ष आहार फेफड़ों का हितकर नहीं होता है इसलिये अधिक रुक्षता से बचने हेतु द्रव का उचित प्रयोग करना श्रेयस्कर होता है।
मानसिक व भावनात्मक प्रसन्नता
हँसना, उदर की मांसपेशियों का क्रियाशीलता के साथ सन्तोष, धैर्य उदर की मांसपेशियों का क्रियाशीलता के साथ संतोष, धैर्य दूसरों का हित सोचकर प्रत्येक स्थिति में भावनात्मक सबलता और मानसिक प्रसन्नता देता है जो प्रस्तुत सुखपूर्वक पूर्ण नींद की कुंजी है और फेफड़ों को 50 प्रतिशत विश्राम देती है। शरीर व मन और जीवन साँसों पर आश्रित है इसलिये उसके अंग प्रत्यंग की जाँच वर्ष में एक बार प्रत्येक के लिये अति आवश्यक हो जाती है यदि कोई श्वसन संस्थान के रोग न हो तो भी और यही जागरुकता अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह में मनाई जाती है। अब ये हम पर है कि हम कितना अपने लिये और कितना प्रत्येक के फेफड़े का हित सोचते हैं।
“ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आँखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि अन्धकार कितना है” -स्वामी विवेकानंद
लेखिका एक स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं
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