‘सवेरा’- ग्रामों के माध्यम से टिकाऊ कृषि और महिला सशक्तिकरण

यह एक परीक्षण कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य खाद्य सुरक्षा के बारे में विकास संबंधी पहल के एक अभिनव माॅडल का व्यावहारिक परीक्षण करना है। यह कृषि विभाग और कृषि विस्तार सेवा तथा अन्य उपयुक्त गैर-सरकारी संगठनों एवं विकास एजेंसियों के समेकित प्रयासों से भूमिहीन महिला खेतिहर मजदूर को सक्षम बनाने की प्रयोगात्मक नीति पर आधारित है।

एसएडब्ल्यूईआरए (सवेरा) का अर्थ है: ग्रामीण उपागम के माध्यम से स्थायी कृषि और महिला सशक्तिकरण। इस विषय पर कार्यरत टीम ने अपने कार्यक्रम को यही नाम दिया है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की सहायता से उत्तर प्रदेश में चल रहे इस उप-कार्यक्रम के बारे में यहाँ प्रारम्भिक जानकारी देने का प्रयास किया जा रहा है। छोटे पैमाने पर चलाए जा रहे इस अल्प-प्रचारित उप-कार्यक्रम को इस प्रकार लागू किया जा रहा है कि यह विकास के अन्य कार्यक्रमों की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी सिद्ध हुआ है। अपने उद्देश्य और अन्तर्वस्तु दोनों ही दृष्टियों से यह विकास प्रक्रिया में आमूल परिवर्तन का संकेत देता है। विकास का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों और कार्यकर्ताओं के लिए ये परिवर्तन विशेष रुचि के हैं।

इस कार्यक्रम में अवधारणा, रणनीति, साधन, प्रविधि, उद्देश्य और लक्ष्य की दृष्टि से भी कई विशेषताएँ शामिल की गई हैं लेकिन यह प्राथमिक स्तर का कोई अलग-थलग कार्यक्रम नहीं है। इसमें समन्वय, सहयोग, सहभागिता और समकेन्द्रीयता जैसी बातों को बड़ी सूझ-बूझ से एक समग्र पैकेज के रूप में शामिल किया गया है। हालाँकि सामाजिक-आर्थिक कार्रवाई वाले कार्यक्रम के सभी सामान्य तत्व ऊपरी तौर पर समाहित हैं, मगर यह मुख्य रूप से रणनीति के अनुप्रयोग की दिशा में एक कदम है जिस कारण इसे नई पीढ़ी का प्रयोग कहा जा सकता है। यह तीन स्तरों वाला पैकेज है जिसमें कार्रवाई और उसका प्रभाव वर्तमान प्रणाली-विन्यास के तीन समकेन्द्रित क्षेत्रों में एक साथ आगे बढ़ते हैं। ये क्षेत्र हैं: समुदाय (महिला किसान सहकारिताएँ), संगठनात्मक प्रणाली (कृषि विभाग तथा अन्य एजेंसियाँ) और नीति-निर्माण एवं आयोजना के स्तर पर सरकार।

इस कार्यक्रम का मुख्य सरोकार मानव विकास से है और इसका मुख्य विचारणीय विषय है खाद्य सुरक्षा। इसकी स्थिति कार्यक्रम में सहायता देने वाली कार्रवाई की है और लक्ष्य है भूमिहीन और सीमांत कृषक परिवारों की खेतिहर मजदूर महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बनाना। कार्यक्रम का ठोस नतीजा है उत्तर प्रदेश (पुराने) के छह चुने हुए जिलों में करीब 6,000 महिलाओं का पुनर्वास और इसकी असली व स्थायी उपलब्धि मौजूदा सरकारी प्रणाली और कृषि सम्बन्धी उप-प्रणाली की क्षमता के निर्माण तथा सरकारी नीतियों व नीति निर्माण प्रक्रिया पर असर के रूप में सामने आई है।

समस्त सूचनाओं तथा कार्रवाई का स्रोत तीन दस्तावेजों में निहित है। ये दस्तावेज हैं: सहमति-ज्ञापन, जिसमें भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार तथा संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने हस्ताक्षर किए है; उप कार्यक्रम दस्तावेज नामक मैनुअल और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दिशा-निर्देश। यहाँ जो औपचारिक, मुख्य और कार्यात्मक रूपरेखा प्रस्तुत की जा रही है वह इन्हीं तीन दस्तावेजों पर आधारित है।

सहमति ज्ञापन


संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने अपने इस उप-कार्यक्रम को भारत में ‘कंट्री कोआॅपरेशन फ्रेमवर्क-साइकिल-I’ का नाम दिया है और इसका मूल उद्देश्य इसे भारत सरकार के ‘खाद्य सुरक्षा’ कार्यक्रम का सहायक घटक बनाना है। सहमति ज्ञापन में इसे जो व्याख्यात्मक शीर्षक दिया गया है वह है ‘‘उत्तर प्रदेश में खाद्य सुरक्षा के लिए महिला कृषकों के सशक्तिकरण का उप-कार्यक्रम।’’ सहमति ज्ञापन में वर्गीकरण सम्बन्धी जो सूचना दी गई है उसमें मुख्य जोर ‘खाद्य-सुरक्षा’ पर है जबकि गौण रूप से ‘कृषक महिलाओं’ पर भी ध्यान केन्द्रित किया गया है। इसका प्राथमिक उद्देश्य कार्यक्रम में सहायता देना बताया गया है जबकि गौण उद्देश्य क्षमता निर्माण का है। इसके अलावा मूल लक्षित लाभार्थी भूमिहीन महिला खेतिहर मजदूर बताई गई हैं जबकि गौण लक्षित लाभार्थी सरकार/एनजीओ/सीबीओ! स्वायत्त संगठन/प्रसार विभाग बताए गए हैं। समझौता ज्ञापन में कहा गया है कि कार्यक्रम का मुख्य जोर कृषि में महिलाओं की बढ़ती संख्या और उन पर घरेलू खाद्य सुरक्षा की बढ़ती जिम्मेदारी को देखते हुए उनके प्रति सरोकार और क्षमता सृजन को महत्व दिलाना है। इसी से कार्यक्रम के उद्देश्यों के बारे में महत्त्वपूर्ण सूत्र प्राप्त होते हैं। क्षमता सृजन में मुख्य जोर खेती में स्त्री-पुरुष भेदभाव सम्बन्धी मुद्दों, टिकाऊ खेती, परती और बंजर भूमि को खेती योग्य बनाने, उपयुक्त टेक्नोलॉजी के उपयोग तथा प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन पर होगा। भूमिहीन और सीमंत कृषक परिवारों की महिला खोतिह मजदूरों के संगठनों को कृषि विभाग और कृषि प्रसार प्रणाली से जोड़ा जाएगा ताकि भूमि, ऋण, टेक्नोलॉजी निवेश और सब्सिडी सहित तमाम उत्पादक परिसम्पत्तियों तक उनकी पहुँच बढ़े। इन्हीं संगठनों को मुख्य कार्यकर्ता भी माना गया है।

प्रबंधन मॉडल-सुविधाएँ


सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश सरकार या और स्पष्ट रूप से कहें तो कृषि विभाग कार्यान्वयन एजेंसी है और संचालन की दृष्टि से लखनऊ स्थित उत्तर प्रदेश राज्य कृषि प्रबंधन संस्थान को यह दायित्व सौंपा गया है और वहीं संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने इस उद्देश्य के लिए जेंडर कोर टीम बनाई है। कार्यक्रम के जिन मुख्य लाभार्थियों की पहचान की गई है, वे हैं: पहले से गठित और दो प्रमुख एनजीओ द्वारा संचालित महिला कृषक समूह। इन एनजीओ के नाम हैं- उत्तर प्रदेश महिला समाख्या और उत्तर प्रदेश भूमि सुधार निगम। तीन संगठनों-संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की जेंडर कोर टीम, उत्तर प्रदेश महिला समाख्या और उत्तर प्रदेश भूमि सुधार निगम को सुविधाएँ उपलब्ध कराने या सक्षम बनाने या प्रबंध करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। अन्तिम दो एनजीओ को सामुदायिक स्तर पर प्रबंधन का जिम्मा सौंपा गया है जबकि जेंडर कोर सरकार की ओर से प्रबंधन का कार्य करती है।

लक्षित क्षेत्र


मूल दस्तावेज में अविभाजित उत्तर प्रदेश को लक्ष्य-क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया गया है और दो समूहों में कुल 6 जिले शामिल हैं। ये जिले कार्य संचालन की सुगमता को ध्यान में रखकर दो वर्गों में रखे गए हैं। पहले समूह में चार जिले हैं और इसका संचालन उत्तर प्रदेश महिला समाख्या द्वारा किया जा रहा है। दूसरा समूह उत्तर प्रदेश भूमि सुधार निगम द्वारा दो जिलों में बनाए गए स्व-सहायता समूहों का है। लक्षित क्षेत्र के निर्धारण का मुख्य आधार सबसे निचले स्तर पर मजबूत और सक्रिय स्व-सहायता समूहों की उपस्थिति है। चार जिलों के नौ विकास खंडों में महिला समाख्या द्वारा शुरू किए गए महिला संघ या कार्यक्रम-पूर्व समूह कार्यक्रम कार्य कर रहे हैं। ये इस प्रकार हैं:

क्रम सं.

जिला

विकास खंड टिप्पणी

1.

बांदा

चित्रकूट

राज्य के अंदर जिलों के पुनर्गठन के बाद सम्बन्धित गाँव अब चित्रकूट जिले के कर्वी ब्लॉक में हैं।

2.

वाराणसी

चंदौली सेवापुरी

वाराणसी अब वाराणसी और चंदौली में बेट गया है। इस तरह अब कार्यक्रम दोनों जिलों में चल रहा है। चकिया नया ब्लॉक है।

3.

टिहरी गढ़वाल

प्रताप नगर जखोरी भीलनगंगा

टिहरी अब उत्तरांचल राज्य में है।

4.

सहारनपुर

रामपुर बलियाखेड़ी नांगल

 

 


उत्तर प्रदेश भूमि सुधार निगम ने जिन दो जिलों के जिस एक-एक ब्लॉक से स्व-सहायता समूहों की पहचान की, वे इस प्रकार हैं:

1. राय बरेली
2.हरचंदपुर
3. उन्नाव
4.नवाबगंज

लक्षित जनसंख्या


मूल कार्यक्रम के अनुसार उत्तर प्रदेश महिला समाख्या को हर जिले में 50 की दर से महिला किसानों के 200 समूहों की पहचान करनी थी, जो इसने कर ली है। उत्तर प्रदेश भूमि सुधार निगम को भी हर जिले में 50 की दर से कुल 100 महिला स्व-सहायता समूह गठित करने थे। उसने भी यह कार्य पूरा कर लिया है।

इस उप-कार्यक्रम से महिला किसानों के 300 समूहों को सीधे और तात्कालिक रूप से फायदा होगा और इन समूहों से जुड़ी 6,000 महिला खेतिहर मजदूरों अर्थात आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से उपेक्षित सीमान्त कृषक परिवारों की महिलाओं को लाभ मिलेगा।

अवधारणा


परीक्षण आधार पर चलाए जा रहे कामकाजी माॅडल से भारी भरकम विकास गतिविधियों पर आधारित परम्परागत नीतियों से महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक बदलाव का पता चलता है। असल में यह बदलाव वर्तमान प्रणाली की क्षमताओं का सभी स्तरों पर लाभ उठाने में लगातार भारी विफलता की वजह से आया है। अब यह माना जाता है कि वर्तमान प्रणाली, बुनियादी ढाँचा और संसाधनों का उपयोग विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। मगर विकास सम्बन्धी कमियों का कारण स्पष्ट रूप से प्रबंधन सम्बन्धी अक्षमता है। इसलिए इस कार्यक्रम का मुख्य जोर ऐसी रणनीति तैयार करना है और उसे लागू करना है जिससे वर्तमान प्रणाली अपनी निर्धारित जिम्मेदारियों का निर्वाह कर सके और लाभार्थी पहले से उपलब्ध कराए जा रहे निवेश का भरपूर फायदा उठा सकें।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने मूलतः किसी नए कार्यक्रम का प्रस्ताव नहीं किया है। किसी नई चीज की खोज करने, या फिर से कोई चीज ढूँढ कर उससे निर्माण, पुनर्निर्माण या उसके इस्तेमाल की आवश्यकता नहीं है। उप-कार्यक्रम के लिए 24 महीने की संक्षिप्त अवधि निर्धारित की गई है। इसे सशक्त और सुदृढ़ बनाने के लिए सहायक तंत्र यानी कोर टीम को परम्परागत प्रणाली के मुख्य कामकाजी घटक यानी कृषि विभाग से संबद्ध कर दिया गया है। अगर इस कार्यक्रम में सामग्री सम्बन्धी कुछ अतिरिक्त निवेश जैसे थोड़ी-बहुत पूँजी आदि उपलब्ध कराई गई है तो ये आकस्मिक, छुटपुट और सहायक सामग्री के रूप में है।

इसके साथ ही इसमें समाज के सबसे निचले स्तर पर सामुदायिक सक्रियता और भागीदारी बढ़ाने की उम्मीद की गई है जिसके लिए एन.जी.ओ.ज को घनिष्ठ सहयोगी के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।

विशिष्ट सहयोग


इस उप-कार्यक्रम के अन्तर्गत महिला कृषि मजदूरों के सुदृढ़, जुझारू और निष्ठावान समूहों की पहले ही पहचान की जा चुकी है। इन समूहों का गठन उत्तर प्रदेश महिला समाख्या और उत्तर प्रदेश भूमि सुधार निगम द्वारा नामित गैर-सरकारी संगठनों ने किया है। ये समूह गठित तो कर दिए गए हैं, मगर ये लगातार कार्य करते रहें, इसके लिए उन्हें मदद मिलनी जरूरी है। इसलिए इन समूहों को कृषि और कृषि विस्तार सेवा प्रभाग से जोड़ने की योजना बनाई गई है ताकि वे भूमि, छिटपुट पूँजी, ऋण, सब्सिडी, उपयुक्त टेक्नोलॉजी, प्रशिक्षण, कौशल, विशेषज्ञता, खेती भूमि व वाटरशेड विकास के उपयुक्त तौर-तरीकों की जानकारी तथा निवेश और अन्य सेवाओं का फायदा उठा सकें। चुने हुए क्षेत्रों में इस प्रकार के तालमेल का उद्देश्य कृषि और कृषि विस्तार प्रणाली विभाग को महिला कृषकों की आवश्यकताओं व प्राथमिकताओं के प्रति अधिक जवाबदेह बनाना तथा स्त्री-पुरुष समानता से जुड़े मुद्दों को अधिक संवेदनशीलता से निपटाना है। उत्तर प्रदेश महिला समाख्या और उत्तर प्रदेश भूमि सुधार निगम के सहयोग से ये महिला कृषक समूह प्राथमिक कृषि कर्मियों का दर्जा पाने के हकदार बनेंगे।

सुविधाएँ उपलब्ध कराने वाले तीनों संगठन उपेक्षित महिला कृषकों समूहों तथा कृषि विभाग व उसकी अधीनस्थ संस्थाओं जैसे कृषि विस्तार सेवा, प्रशिक्षण इकाइयों, कृषि विज्ञान केन्द्रों आदि के साथ सीधा, घनिष्ठ, विस्तृत लाभदायक और स्थायी सम्पर्क स्थापित करने में भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेंगे। भूमि के उपयोग, वनीकरण वाटरशेड विकास, पशुपालन, दुग्ध उतपादन मछली पालन, महिला कल्याण, ग्रामीण विकास तथा इसी तरह के विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों के लिए संसाधन और निवेश एकत्र करने के प्रयास भी किए जाएँगे। इनके माध्यम से महिला कृषकों के ऐसे समूहों को मदद दी जाएगी जो खेती के लिए जमीन की पहचान करने में सफल रहे हैं। उत्तर प्रदेश महिला समाख्या और उत्तर प्रदेश भूमि सुधार बैंक महिला कृषक समूह और कृषि विभाग, पंचायत, जिला ग्राम विकास अभिकरण, बैंक और बाजार के बीच तालमेल तथा सुविधा प्रदान करने का भी कार्य करेंगे। टिकाऊ खेती के कार्य में अपनी क्षमता सिद्ध कर चुके एन.जी.ओज और महिला समूहों के साथ सम्बन्ध सुदृढ़ करने के लिए संयुक्त प्रयास भी किए जाएँगे। एक नई बात यह होगी कि प्रगतिशील किसानों और गैर-सरकारी संगठनों को मामूली शुल्क देकर उनसे विस्तार सेवाएँ प्राप्त की जाएँगी। महिला समूह नई जानकारी प्राप्त कर उसका प्रयोग कर सकें, इसके लिए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम या विश्व बैंक अथवा महिलाओं के लिए मददगार टेक्नोलॉजी के विकास में लगी अन्य एजेंसियों के साथ कार्यक्रमों में तालमेल का कार्य भी इस कार्यसूची में शामिल है। प्रशिक्षण पाठ्यक्रम, टी एल एम, टी ओ टी माॅड्यूल प्रविधि, औजारों के डिजाइन आदि में भी महिलाओं की आवश्यकता को ध्यान में रखकर बदलाव किया जाएगा। सरकार की तमाम नीतियों और आयोजना में महिलाओं का केन्द्रीय महत्व स्पष्ट झलकेगा। जेंडर कोर टीम कालांतर में अप्रासंगिक हो जाएगी और एक समय ऐसा आएगा जब इसको समाप्त कर दिया जाएगा। लेकिन ऐसा पूर्वानुमान लगाया गया है कि एनजीओ की भूमिका अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण हो जाएगी।

दृष्टिकोण


इस उप-कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने वालों का दृष्टिकोण नीचे बताई गई शर्तों और विचारों पर आधारित है:

(1) ध्यान देने की पहली बात यह है कि भारत के सामाजिक आर्थिक विकास के पिछले 50 वर्षों के इतिहास में राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्रोतों से प्राप्त संसाधनों के इस्तेमाल का काम बड़ा विस्तृत रहा है, मगर संसाधन परिवर्तनीयता तथा धारण करने की दर बड़ी निराशाजनक रही है। दूसरे, एक दुखद तथ्य यह है कि मानवता के धुँधले पहलुओं में इसकी पहुँच बहुत ही सीमित रही है। तीसरे, प्रणालियों में ऐसी गड़बड़ियाँ हैं जिनसे संचरण की दिशा परिवर्तित हो जाती है या उसमें बिखराव और छितराव आ जाता है। चौथे, लम्बे समय से सरकार एकमात्र विकास एजेंसी रही है। सिर्फ हाल में एनजीओ इस क्षेत्र में आगे आए हैं और उनमें से कुछ ही व्यावसायिक हुनर से लैस हैं।

(2) यह एक विरोधाभास है कि आज राष्ट्रीय परिदृश्य में ‘इफरात के बावजूद गरीबी’ दिखाई देती है। कम-से-कम अभी तो यह स्थिति है कि उत्पादन जरूरत से अधिक हो रहा है, मगर भूख और कुपोषण का असर 20.4 करोड़ लोगों यानी आबादी के करीब 20 प्रतिशत पर पड़ रहा है। जाहिर है कि इसका कारण कमी न होकर बहुत ही कम क्रयशक्ति वाली आबादी के एक बड़े हिस्से का खाद्य और पोषण तक न पहुँच पाना है। ये लोग आर्थिक शिखर से लगे गर्त में पहुँच गए हैं जहाँ तक विकास पहुँच नहीं नहीं पाया है। कार्यक्रम के प्रारूप में इस बाधा के लिए भी प्रावधान मौजूद है।

(3) इसके अलावा एक ओर विरोधाभास भी दिखाई देता है ग्रामीण इलाकों में महिलाएँ आमदनी कमाने वाली श्रमशक्ति का अंग हैं। मगर एक ओर चारा, ईंधन और पानी के लिए उन्हें हर रोज दर-दर भटकना पड़ता है और उन पर कर्ज तथा मजबूरियों का जो बोझ है उससे उनके पास किसी लाभप्रद कार्य के लिए पर्याप्त समय नहीं बचता परिणामस्वरूप उनकी पूरी क्षमता का उपयोग ही नहीं हो पाता। इसके अलावा उनके कार्य का भी सही मूल्यांकन नहीं होता। उन्हें उचित मजदूरी प्राप्त नहीं हो पाती। अपने उत्पादों के लिए भी उन्हें बाजार में उचित बाजार नहीं मिल पाता, वे अपने बच्चों और परिवार की जरूरतें पूरी करने में मुख्य भूमिका निभाती हैं। वे ही परिवार के सीमित संसाधनों का प्रबंध करती हैं। कुछ परिवारों में तो मुखिया की भूमिका निभा रही हैं। फिर भी वे किसी कार्य के पीछे दिखाई नहीं देतीं और उनकी आवाज भी ठीक से सुनाई नहीं देती। उनके श्रम को कोई मान्यता नहीं मिलती और निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी उनकी कोई भूमिका नहीं होती। परिवार और समुदाय में भी उन्हें कोई भूमिका नहीं दी जाती। सामुदायिक विकास प्रक्रिया को विफल बनाने वाला सबसे स्पष्ट और नुकसानदेह असन्तुलन आबादी के आधे हिस्स यानी महिलाओं की उपेक्षा है। यही कारण है कि इस कार्यक्रम में महिला खेतिहर मजदूरों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।

(4) भूमिहीन महिला खेती मजदूरों पर गरीबी का सबसे अधिक असर पड़ता है। उनके सामने सबसे बड़ी बाधा है जमीन पर अधिकार न होना तथा पूँजी, ऋण और टेक्नोलाॅजी की कमी। लेकिन वे अपनी मेहनत, हुनर, जानकारी, अनुभव और अन्य जो भी सीमित संसाधन उनके पास हैं, उनका उपयोग करके अपनी परिस्थितियों में बदलाव ला सकती हैं। इससे उन्हें अपनी गतिविधियों को स्थायी बनाने, उत्पादक क्षमता में सुधार लाने और प्राथमिक कृषि मजदूर के रूप में मान्यता प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।

महिला खेतिहर मजदूर समूहों के लिए एक एनजीओ, संसाधन समूह तथा सरकार, विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, किसी अन्य संगठन के साथ सहयोग और तालमेल कायम करने की बेहतर सम्भावनाएँ हैं।

यह रणनीति इस तरह बनाई गई है कि परिवार को भोजन और पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने वाले के रूप में घरेलू खाद्य सुरक्षा की महिला खेतिहर मजदूर संगठनों की जिम्मेदारी बढ़ गई है। अंततः यह बोझ समुदाय स्तर पर पड़ेगा। इसका अर्थ हुआ खाद्य और पौष्टिक आहार की लगातार उपलब्धता सुनिश्चित कराने में समाज की सहभागिता स्थायी आधार पर कायम करनी होगी।

नीतियों का प्रभाव


ऐसा अनुमान लगाया गया है कि यह सम्पर्क स्थायी आधार पर उप-कार्यक्रम से आगे भी जारी रहेगा और इससे सीखने, विचारों के आदान-प्रदान और परिवेश प्रणाली को नया रूप देने की प्रक्रिया को लगातार जारी रखने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही इससे सरकार की नीतियों और आयोजना पर भी असर पड़ेगा और समाज के व्यवहार में बदलाव आएगा। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इससे महिला किसानों की आवश्यकताओं तथा प्राथमिकताओं के प्रति प्रणाली की संवेदनशीलता बढ़ेगी और लगातार ‘फीडबैक’ भी प्राप्त हो सकेगा। महिला समूहों के साथ काम करने के अनुभव का प्रलेखन तथा विश्लेषण किया जाएगा तथा इसके नीतिगत प्रभावों का पता लगाया जाएगा। इस जानकारी का राज्यों तथा राष्ट्र स्तर पर सरकारों के साथ मिलजुलकर पूर्ण उपयोग किया जाएगा। कृषि में महिलाओं को महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाने और इसके लिए ठोस व्यावहारिक समाधान खोजकर जो सबक स्वाभाविक रूप से सीखा गया है वह यह है कि सरकार के स्तर पर महिलाओं के बारे में चिन्ता और क्षमता-सृजन के कार्य को मुख्य महत्व दिया जाना चाहिए।

लक्ष्य और उपलब्धियाँ


क. (i) टिकाऊ कृषि के लिए टेक्नोलॉजी के विकास की विशेष उपलब्धि माना जाएगा और इसके अन्तर्गत बारानी, परती, बंजर, खराब पड़ चुकी, सीमांत और सामुदायिक भूमि पर तथा संसाधनों के उपयोग पर ध्यान केन्द्रित किया जाएगा।

(ii) इससे सामुदायिक स्तर पर खाद्यान्न उत्पादन और वितरण प्रणाली स्थापित करने में मदद मिलेगी जो अनाज की सरकारी खरीद और वितरण प्रणाली का बेहतर विकल्प बनेगी। इससे किसानों का शोषण बंद होगा और उन्हें औने-पौने दामों में अपनी उपज बेचने से बचाया जा सकेगा। इस तरह वे कर्ज और सूद के बोझ से दबकर बँधुआ मजदूरी को विवश नहीं होंगे।

निःस्संदेह जो सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य पूरा करना होगा वह होगा महिला खेती मजदूरों के परिवारों और बच्चों के लिए भोजन और पौष्टिक आहार की लगातार उपलब्धता, उनकी क्रयशक्ति में सुधार तथा उनका अपने जीवन पर बेहतर नियन्त्रण जिससे उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो।

(ख) संख्या की दृष्टि से तात्कालिक लाभार्थी पुराने उत्तर प्रदेश के 6 जिलों के 11 ब्लॉकों के 300 महिला कृषक समूह हैं। एक गाँव में लगभग एक समूह की दर से भूमिहीन परिवारों या सीमान्त कृषक परिवारों की महिला लाभार्थियों की कुल संख्या करीब 6000 बैठती है।

इन समूहों की पहचान पहले ही की जा चुकी है। दो एनजीओ- उत्तर प्रदेश महिला समाख्या और उत्तर प्रदेश भूमि सुधार निगम को इनके विकास के लिए मनोनीत कर दायित्व सौंपा गया है। दोनों अपने अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में काम कर रहे हैं। हालाँकि ये सरकार द्वारा संरक्षित एनजीओ हैं मगर ये अपने पैरों पर खड़े हैं। ये महिलाएँ भली-भांति प्रेरित हैं और उन्होंने विकास का एक निश्चित स्तर प्राप्त कर लिया है। उन्होंने अपनी निष्ठा और टिकाऊपन का भी सबूत दिया है।

हालाँकि दोनों एनजीओ का उद्देश्य और लक्ष्य एक समान है, मगर उनके द्वारा अपनाई जाने वाली विकास रणनीतियाँ/विधियाँ अलग-अलग हैं। महिला समाख्या की समूह गठन प्रक्रिया अधिक सामान्यीकृत और मुक्त शीर्ष वाली है, मगर साक्षरता, जागरुकता और आजीविका इसके मुख्य आधार हैं। दूसरी ओर भूमि सुधार निगम की समूह गठन प्रणाली विशिष्टता पर आधारित और बहुत ही सीमित केन्द्र बिन्दु वाली है। उसने नाबार्ड की तर्ज पर सूक्ष्म पूँजी क्षमता के सृजन के उद्देश्य से स्व सहायता समूह विकसित किए हैं। तकनीकी अड़चनों के कारण इसमें ढाँचे या उद्देश्य सम्बन्धी लचीलेपन की कमी है।

ऐसा अनुमान लगाया गया है कि एक बार महिला कृषकों के संगठनों के कायम हो जाने के बाद इसी तरह के कई अन्य महिला कृषक समूह अपने आप या सहायता प्राप्त करके एक दूसरे का अनुकरण करते हुए विकसित होंगे। ये समूह अपने हकों के बारे में जागरुकता का परिचय देते हुए उनकी ‘मांग’ करेंगे। उन्हें सेवाएँ उपलब्ध कराई जाएँगी क्योंकि अब तक व्यवस्था पूरी तरह सक्षम हो चुकी होगी। अंततः यह प्रक्रिया हर स्थान पर अपनाए जाने योग्य हो जाएगी।

(ग) दूसरी पंक्ति के लाभार्थी हैं कृषि विभाग, कृषि विस्तार सेवा और उत्तर प्रदेश सरकार। उनकी पहुँच और प्रसार काफी विस्तृत, व्यापक और फैला हुआ है और वे बाधाओं को पार करने की क्षमता रखते हैं।

इस समय-सीमा के भीतर उनके लिए निर्धारित लक्ष्य नीचे दिया गया है और इसे आधार-बिन्दु रेखा से वृद्धि के संदर्भ में प्रदर्शित किया गया है।

महिला लाभार्थियों की संख्या (कृषि विभाग द्वारा संचालित योजनाओं में)

 25 प्रतिशत

बैंक ऋण लेने वाली महिला कृषकों की संख्या

25 प्रतिशत

महिला कृषकों के लिए उपलब्ध काम की दिहाडि़याँ

40 प्रतिशत

महिला कृषक-समूहों को उपलब्ध कराए गए जमीन के पट्टों की संख्या

20 प्रतिशत

खेती वाली बंजर या परती जमीन

50 प्रतिशत

दलहन, सब्जी या अनाज का उत्पादन

20 प्रतिशत

 


(घ) तीसरे या आखिरी स्तर की लाभार्थी हैं सरकारें जिन्हें सार्थक, महत्त्वपूर्ण और सही-सही ‘फीड बैक’ प्राप्त हो सकता है जिससे नीतियाँ और आयोजना वास्तविक, अर्थपूर्ण, परिणामोन्मुख, उत्पादक तथा निश्चित लक्ष्य वाली बनती हैं।

(ङ) सार्वभौम स्वीकार्यता और उपयोगिता के ढाँचे के अंतर्गत प्राथमिक स्रोतों से विकास का एक स्पष्ट परिप्रेक्ष्य व्यवस्थित रूप से तैयार होकर सामने आएगा और इससे विश्वसनीय ज्ञान और सूझबूझ पैदा होगी। कई स्तरों पर अनेक अन्तरदृष्टियाँ मिलेंगी। स्पष्ट रूप से उपयोगी अवधारणाएँ, युक्तियाँ तथा तरीके खोजे जाएँगे। संसाधनों के उपयोग के लिए ऐसी रणनीतियाँ खोजी जाएँगी जो परिवर्तनीयता, स्पष्टता और धारण क्षमता से युक्त होंगी।

अंत में यह बात ध्यान देने की है कि यह सहायक स्तर का परीक्षण कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में विकासात्मक पहल के ‘अभिनव माॅडल’ का विकास कर उसका व्यावहारिक परीक्षण करना है ताकि इसी तरह के और माॅडल बनाकर उनका व्यापक उपयोग किया जा सके। कार्यनीति की दृष्टि से कृषि विभाग और कृषि विस्तार सेवा तथा अन्य उपयुक्त एनजीओ और विकास एजेंसियों के सामूहिक प्रयासों से आदान-प्रदान के जरिए क्षमता के विकास के माध्यम से भूमिहीन महिला कृषि मजदूरों को अधिकार सम्पन्न बनाने का प्रबंधन और आधारित गतिविधि है।

(लेखिका उत्तर प्रदेश में यू एन डी पी समर्थित उप-कार्यक्रम की केन्द्रीय टीम की संचालिका एवं ‘लिंग समन्वयक’ हैं।)

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