गंगा मास्टर प्लान-2020 कैसा बने? कब तक बने? क्या किया जाए? क्या नहीं किया जाए? आदि बातों को चर्चा में नहीं लाया गया। मैंने दोनों बैठकों में कहा कि हमें गंगा कार्ययोजना के फेल होने के अनुभवों से सीखकर आगे की कार्ययोजना बनानी चाहिए। इसलिए गंगा नीति, कानून और गंगा पंचायत बनाने के लिखित सुझाव विस्तार से लिखकर दिए। सहमति भी बनी लेकिन कभी कार्य संचालन की जिम्मेदारी नहीं तय हुई। इसलिए काम भी नहीं हुआ।
राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का सदस्य बनते समय मैने सोचा था कि प्राधिकरण, गंगा कार्ययोजना के फेल होने से कुछ सीखेगा। सोचा था कि पृथ्वी शिखर सम्मेलन-1972 में इंदिरा जी ने स्वीडन की स्टॉकहोम नदी देखकर गंगा को भी वैसा निर्मल बनाने की जो आकांक्षा व्यक्त की थी; प्राधिकरण उसे पूरा करेगा। हो सकता है कि टिहरी के लिए रूस से पैसा लेते वक्त राजीव गांधी न जानते हों कि टिहरी गंगा की निर्मलता घटाएगा; लेकिन वह यह जरूर जानते थे कि गंगा की निर्मलता का काम सिर्फ ठेकेदारों और इंजीनियरों द्वारा पूरा नहीं हो सकेगा। इसलिए उन्होंने कहा था कि यह जन-जन की कार्ययोजना बननी चाहिए। दुर्भाग्य से गंगा कार्ययोजना के कर्णधारों ने यह होने नहीं दिया। गंगा कार्ययोजना की घोषणा ने राजीव गांधी सरकार को सबसे ज्यादा वोट दिलाए लेकिन योजना के अफसर उसमें सिर्फ नोट ही देखते रहे। गलती यह हुई कि नाम तो गंगा कार्ययोजना रख दिया, लोक निर्माण विभाग को काम भी दे दिया लेकिन गंगा के काम की लोकयोजना बनाने के बारे में सोचा तक नहीं गया। जनता इस कार्ययोजना से कभी नहीं जुड़ सकी। कालांतर में यही अलगाव गंगा कार्ययोजना की विफलता का सबसे बड़ा कारण बना।गंगा कार्य योजना की बुनियादी खामी
किसी भी योजना-परियोजना की परिकल्पना करने से पहले जरूरी होता है कि उसके सिद्धांत और कार्य के नीतिगत बिंदु तय किए जाएं। गंगा कार्ययोजना बनाने से पहले भी जरूरी था कि गंगानीति का निर्धारण होता। नीति के आधार पर नियम बनते। योजना बनती। कार्यक्रम तय होते। कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में कायदे-कानूनों की पालना कराने के लिए तंत्र बनता। गंगा कार्ययोजना का दुर्भाग्य रहा कि इसके तहत् मलशोधन संयंत्रों, घाटों और शौचालयों आदि जैसे निर्माण कार्य हेतु सिर्फ रुपये बांटे गए जवाबदेही के नाम पर योजना शून्य ही साबित हुई। यह योजना भ्रष्ट होने से नहीं बच सकी। डीपीआर से लेकर सब कुछ ठेकेदारों द्वारा, ठेकेदारों के लिए होकर रह गया। गंगा के हिस्से में सिर्फ तंत्र की मलीनता ही आई। मैंने दो अक्टूबर, 2010 से एक नवम्बर, 2010 के दौरान गंगोत्री से गंगासागर तक कोई शहर ऐसा नहीं दिखा, जिसके सभी नालों का मल, शोधन के बाद ही गंगा में मिल रहा हो। इस दौरान सभी एसटीपी देखे। मौके पर एक भी एसटीपी चलता हुआ नहीं मिला। हमारे आने की पूर्वसूचना के कारण कानपुर, इलाहाबाद, बनारस के जो कुछ एसटीपी चलते हुए हमें दिखाए गए। वे भी अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य नहीं कर रहे थे। ये चलते होते तो भी गंगा निर्मल नहीं रह सकती थी। कारण कि गंगा कार्ययोजना की बात छोड़िए गंगा प्राधिकरण के तीन साल पूरे होने के बाद भी उद्योगों के प्रदूषण पर कोई लगाम आज तक नहीं लगाई जा सकी है। गंगा को जल देने वाली छोटी धाराओं के पानीदार बनाए रखने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा, सो अलग।
मैली से मैला ढोने वाली मालगाड़ी बनी
यों भी पहले अमृत में विष को मिलाना और फिर उसे वापस अमृत बनाने के लिए पैसा बहाना कहां की समझदारी है? क्या यह अनुकूल नहीं है कि गंगामृत में विष रूपी प्रदूषण मिलने ही न दिया जाए। यह नीतिगत बात है लेकिन उनकी नीति तो ज्यादा बड़ा बजट, ज्यादा बड़ी परियोजना और ज्यादा बड़ा निजी मुनाफा था। इन गलतियों का ही खमियाजा था कि गंगा कार्ययोजना शुरू हुई तो गंगा मैली थी। कार्ययोजना पूरी हुई तो गंगा मां से मैला ढोने वाली मालगाड़ी बना दी गई थी। गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने और प्राधिकरण की घोषणा से देशभर की तरह मुझे भी उम्मीद जगी थी। पहली बार प्रधानमंत्री जी ने विविध गंगा विशेषज्ञों को सीधे अपने से जोड़ा। लेकिन अधिकार और जवाबदेही के अभाव में प्राधिकरण में कुछ काम नहीं हुआ। प्राधिकरण के एजेंडे में केवल तत्कालीन विचारार्थ मुद्दे रखे गये। हमारी मांग के बावजूद महत्त्वपूर्ण और नीतिगत मुद्दे कभी रखे ही नहीं गए। दो बैठकों की कार्यवाही में वे बातें ही आई, जो अफसरों को पसंद थीं। हमारी जो बातें उन्हें पसंद नहीं थीं, वे कार्यवाही में दर्ज ही नहीं की गई। गंगा मास्टर प्लान-2020 कैसा बने? कब तक बने? क्या किया जाये? क्या नहीं किया जाये? आदि बातों को चर्चा में नहीं लाया गया। मैंने दोनों बैठकों में कहा कि हमें गंगा कार्ययोजना के फेल होने के अनुभवों से सीखकर आगे की कार्ययोजना बनानी चाहिए। मैंने गंगा नीति, कानून और गंगा पंचायत बनाने के लिखित सुझाव विस्तार से लिखकर दिए। सहमति भी बनी लेकिन कभी कार्य संचालन की जिम्मेदारी नहीं तय हुई। इसलिए काम भी नहीं हुआ।
समाज करे साझेदारी
गंगा संरक्षण हेतु गंगा नदी नीति और गंगा कानून बनवाने की प्रक्रिया शुरू कराने हेतु गंगा मुक्ति संग्राम शुरू करना होगा। यह कार्य समाज करेगा। गंगा के पास पूरे कैबिनेट से ज्यादा वोट हैं। यह भी समाज ही सिद्ध करके दिखाएगा। मैं आंदोलनकर्ता नहीं हूं। गंगा को आज आंदोलन के स्थान पर त्याग-तपस्या चाहिए। आंदोलन करने में लोगों के जीवन में बहुत कुछ छूट जाता है। लोगों को काम आदि छोड़कर इसमें लगना पड़ता है। जब हम काम छोड़ते हैं तो हमारी यात्रा उल्टी हो जाती है। हम गंगा शुद्धि की सिद्धि हेतु सीधी यात्रा करना चाहते हैं। सीधी यात्रा शुभ की चाहत से होती है। हम अपने राष्ट्र और राष्ट्रीय नदी का साझा शुभ ढूंढ़कर ही रास्ता पकड़ेंगे। हमारा रास्ता समाज के साथ मिलकर गंगा को स्वयं समझना व समझाना है। सहज सृजन करना है। जहर को बदलकर उपयोगी जल बनाना कठिन है; जहर-अमृत को अलग रखने वाली कम खर्चीली संरचनाएं बनाना आसान है। सृजनात्मकता और सकारात्मकता से ही यह संभव है। इसी सकारात्मकता को अपनाते हुए मैंने 17 अप्रैल, 2012 की गंगा प्राधिकरण बैठक में जाना तय किया है। संभव है यह बैठक कुछ चेतना लाए। अन्यथा गंगा तपस्वी होने के नाते गंगा तपस्या का रास्ता है ही। कुंभ से पूर्व गंगा निर्मल बने। गंगा तपस्वी के रूप में अभी इसी तप में जुटा हूं। हमने गंगा घाटी की सात छोटी नदियों को सदानीरा बनाया है। गंगा घाटी में इस कार्य को करते हुए ही मेरे तप की पूर्ति होगी। देखना ! एक दिन रचना, सृजना और सकारात्मकता से ही चेतना का उदय होगा। समाज और सरकार के साथ-साथ गंगा भी कोमा से बाहर आ जाएगी। दुआ कीजिए कि यह हो।
राजेन्द्र सिंह (जल विशेषज्ञ) ‘मैग्सेसे विजेता’
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