स्वास्थ्य पर भी दिखने लगा है असर

मौसम में जिस तरह उथल-पुथल मची हुई है उसका असर मानवीय स्तर पर भी भीषण रूप से पड़ रहा है। हाल ही में देखा गया है कि डेंगू जैसी बीमारी जो आमतौर पर बरसात में होती है अब सर्दियों में भी होने लगी है।

इन दिनों जलवायु परिवर्तन और उसके असर को लेकर समाज में चारों तरफ एक तरह की चिंता देखने को मिल रही है। मानव स्वास्थ्य का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। अलग-अलग इलाकों में जलवायु परिवर्तन ने मानव स्वास्थ्य पर अलग-अलग ढंग से असर दिखाना शुरू कर दिया है। यह असर तेजी से फैल रहा है और विस्तृत इलाकों तक पहुंच रहा है। नवंबर का महीना खत्म हो चुका है, लेकिन दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में डेंगू से होने वाली मौत के मामले लगातार सामने आ रहे हैं। जबकि डेंगू की बीमारी बरसात के मौसम में होने वाली बीमारी है। लेकिन इस बीमारी के मच्छर का नवंबर तक का सक्रिय रहना, एक तरह से जलवायु परिवर्तन से उपज रही समस्याओं का ही नतीजा है। जिस तरह से डेंगू के मामले अभी तक सामने आ रहे हैं उसी तरह कई इलाकों में मलेरिया के मामले भी बने हुए हैं। दरअसल यह बता रहा है कि नवंबर के बीत जाने के बाद भी वायुमंडल में उतनी ठंढक नहीं आई है जिससे इन संक्रमण को फैलाने वाले मच्छर निष्क्रिय हो सकें। वायुमंडल की प्रकृति में हो रहे बदलावों से आने वाले दिनों में मौसमी बीमारी का संकट बढ़ने वाला है।

इसके अलावा हमारी संस्था के एक अहम शोध में इस बात के संकेत मिले हैं कि हाल के दिनों में तापमान के बढ़ने से आम लोगों की मौत कहीं ज्यादा हो रही है। इसका हम लोगों ने एक विस्तृत आकलन किया है। भारत में पाकिस्तान और सिंध के रास्ते ग्रीष्मकालीन लहर राजस्थान के रास्ते प्रवेश करते हुए गुजरात पहुँचती है। इस लहर के रास्ते में जो भी इलाके आते हैं वहां तेज लू की लहर चलती है। 19 मई से 22 मई, 2010 के दौरान इस इलाके के शहर अहमदाबाद में गर्मी के सारे रिकॉर्ड टूट गए थे। इस दौरान एकत्रित किए हमारे आंकड़े बताते हैं कि इस शहर में हर दिन के हिसाब से 250 से ज्यादा मौतें हुईं। एक दिन तो यह आंकड़ा 300 तक पहुंच गया जबकि अहमदाबाद की औसत मृत्यु दर 100 के आसपास है। इस आकलन को हम लोगों ने और ज्यादा इलाके में करने की योजना बनाई और इसके बाद जयपुर, चुरू सहित राजस्थान, गुजरात के अन्य इलाकों में इस बाबत तथ्यों को आकलित कर रहे हैं। अभी इसके प्रमाणिक आंकड़ों का आना बाकी है लेकिन मोटा-मोटी रुझान यह बता रहा है कि लू लहर का मानव शरीर पर कहीं ज्यादा प्रभाव पड़ रहा है।

इन ग्रीष्मकालीन लहरों का मानव शरीर पर दो तरह से असर होता है। एक तो जिसे सीधे लू का लगना कहते हैं उसमें शरीर का तापमान बढ़ने और पानी की मात्रा कम होने से ऐसी मौतें होती हैं। इसके अलावा हमने यह भी देखा है कि ज्यादा गर्मी पड़ने से हॉर्टअटैक से होने वाली मौतों की संख्या भी बढ़ जाती है। यह मामला तब और संगीन होता है जब दिन के मुकाबले रात में गर्मी पड़ रही हो। जिन रातों में तापमान 30-32 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा होता है, उन दिनों में खासकर बुजुर्गों में हॉर्टअटैक आने की आशंका बढ़ जाती है। यह एक तरह से जलवायु परिवर्तन का ही असर है।

वायुमंडल के तापमान बढ़ने के साथ-साथ पृथ्वी पर अल्ट्रावायलेट किरणों का आना भी बढ़ा है। अल्ट्रावायलेट किरणों के संपर्क में आने पर स्किन कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। हालांकि भारतीय परिप्रेक्ष्य में अभी यह बहुत बड़ी चिंता का विषय नहीं है क्योंकि आम तौर पर भारतीय लोगों की त्वचा सफेद नहीं होती है। सफेद त्वचा वाले लोगों में अल्ट्रा वायलेट किरणों के संपर्क में आने से स्किन कैंसर की चपेट में आने की आशंका बढ़ जाती है।

भारत में सूखे और कुपोषण की समस्या तो पहले से ही मौजूद है लेकिन वातावरण के बदलते मिज़ाज से यह संकट और गहराएगा। ग्लोबल वार्मिंग के चलते पर्वतीय इलाकों की बर्फ पिघल रही है, ऐसे में समुद्री जल स्तर तो बढ़ेगा लेकिन पेयजल का संकट और बढ़ जाएगा। इससे कृषि की उत्पादकता भी प्रभावित होगी। खानपान में बदलाव का असर भी मानव के स्वास्थ्य को बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगा।

वायुमंडल के समीकरणों के प्रभावित होने से जल की आपूर्ति बाधित होगी और जल में संक्रमण भी बढ़ेगा। ऐसे में दूषित जल के इस्तेमाल से होने वाली बीमारियाँ भी आने वाले दिनों में बढ़ेगी। बैक्टिरियल डिजीज मसलन कॉलर, डायरिया जैसी बीमारियां अब कहीं ज्यादा लोगों को अपने प्रकोप में लेंगी। हाल के दिनों में जिस तरह से महानगरों में गाड़ियों की बढ़ती संख्या से प्रदूषण बढ़ रहा है या फिर ग्लोबल वार्मिंग के चलते वातावरण में धूलकणों की संख्या बढ़ रही है उससे एक नई तरह की मुश्किल बढ़ी है। महानगरीय जीवन में श्वसन संबंधी रोगों की संख्या बढ़ रही है। आप चाहें उसे अस्थमा कहें या फिर एलर्जी या फिर ब्रौंकाइटिस यह सब वातावरण के बिगड़ते मिजाज के चलते ही बढ़ रहे हैं।

भारत में मौजूदा समय में ही सूखे की स्थिति और कुपोषण की समस्या मौजूद है लेकिन वातावरण के बिगड़ते मिजाज से यह संकट और ज्यादा गहराएगा। ग्लोबल वार्मिंग के चलते अभी तो पर्वतीय इलाकों की बर्फ पिघल रही है, ऐसे में समुद्री जल स्तर तो बढ़ेगा लेकिन हम जिस पेयजल का इस्तेमाल करते हैं या फिर सिंचाई के लिए जरूर जल की मात्रा कम होती जाएगी। ऐसे में कृषि उत्पादकता प्रभावित होगी। खान-पान में बदलाव का असर भी मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करेगा।

हालांकि एक बुनियादी बात यह भी है कि मानव शरीर वातावरण में होने वाले किसी भी बदलाव के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश करता है। कई बार वह समय से पहले तालमेल बिठा लेता है और कई बार समय के साथ एडजस्ट करता रहता है। यही वजह है कि हिमालय की बर्फीली चोटियों में वह आसानी से गुजर-बसर कर लेता है और विषुवत रेखीय इलाकों की भारी गर्मी में भी वह सहजता से रहता है। ऐसे में अलग-अलग परिस्थितियों में रहे समुदायों से आम लोगों को जीवनशैली का तरीका भी सीखना होगा। बहरहाल यह भी एक सीमा तक काम आएगा क्योंकि हालात से तालमेल बिठाने की क्षमता तो मानव शरीर में होती है लेकिन वायुमंडलीय वातावरण का मिजाज अब कोई तय समय सीमा में ही बिगड़ेगा यह नहीं कहा जा सकता है। अचानक दो-तीन दिन काफी तेज बर्फ पड़े और अगले दो-तीन दिन काफी गर्मी पड़े तो मानव शरीर को तालमेल बिठाने की क्षमता भी प्रभावित होगी।

ऐसे में बुनियादी तौर पर इस बात की जरूरत ज्यादा है कि मानव अपने प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल सोच समझकर करे और जरूरत के हिसाब से ही करे। इसके अलावा हर आदमी को पर्यावरण संरक्षण की कोशिशों में अपनी सक्रिय भागीदारी भी निभानी चाहिए।

(लेखक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ, गांधीनगर के निदेशक हैं)

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