असंतुलित कृषि गतिविधियों के परिणामस्वरूप पर्यावरण विघटन का खतरा पैदा हो गया है जिसने कृषि वैज्ञानिकों का ध्यान ऐसी कृषि पद्धति की तरफ खींचा है जो पर्यावरण-अनुकूल तथा टिकाऊ हो। इस समस्या से निजात पाने में कार्बनिक खेती एक अच्छा विकल्प साबित हो रही है जो मृदा को स्वस्थ बनाए रखती है तथा पर्यावरण को हानिकारक प्रभावों से बचाती है। बढ़ती जनसंख्या को अनाज उपलब्ध कराने हेतु घटते जोत के साथ-साथ संसाधनों की कमी को देखते हुए कृषि वैज्ञानिक किसानों को सघन खेती पद्धति अपनाने को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इस आधुनिक ऊर्जा-आधारित कृषि पद्धति ने, जिसमें उन्नत किस्मों के साथ-साथ रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों का प्रयोग मुख्य है, आज खेती को एक विवादास्पद मोर्चे पर ला खड़ा किया है जिसमें उत्पादन बनाम प्रदूषण, उत्पादकता बनाम टिकाऊपन, उत्पादन बनाम ऊर्जा आदि पर गहन विचार-विमर्श चल रहा है। असंतुलित कृषि वैज्ञानिकों का ध्यान ऐसी कृषि पद्धति की तरफ खींचा है जो पर्यावरण-अनुकूल तथा टिकाऊ हो। इस समस्या से निजात पाने में कार्बनिक खेती एक अच्छा विकल्प साबित हो रही है जो मृदा को स्वस्थ बनाए रखती है तथा पर्यावरण को हानिकारक प्रभावों से बचाती है।
कार्बनिक खेती सामान्यतया ‘प्रकृति की तरफ झुकाव’ आंदोलन के एक हिस्से के रूप में जानी जाती है। यह खेती की एक ऐसी पद्धति है जिसमें रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों के उपयोग के स्थान पर मृदा की उर्वरकता बनाए रखने के लिए फार्म-वेस्ट, कम्पोस्ट, सीवेज, पौधों के बचे भाग आदि का प्रयोग किया जाता है। आधुनिक कार्बनिक खेती की शुरुआत ब्रिटेन से हुई जहाँ एक प्रकार की कृषि-पद्धति में मृदा उर्वरता बनाए रखने के लिए कम्पोस्ट पर अधिक जोर दिया गया। सर अलबर्ट होवार्ड (ब्रिटेन) को इस पद्धति का जनक माना जाता है। कार्बनिक किसान वे लोग थे जो मृदा में पोषक तत्वों की आपूर्ति खेत अवशिष्ट तथा हरी खाद से करते थे तथा रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का उपयोग नहीं करते थे।
आज कार्बनिक खेती अपनाने के कई फायदे हैं तथा आज कार्बनिक उत्पादों का दाम भी अधिक मिल रहा है।
1. कम प्रदूषण—चूँकि इस कृषि पद्धति में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता, अतः मृदा प्रदूषण एवं पानी प्रदूषण कम होता है। अवशेष की समस्या भी कम होती है।
2. कम ऊर्जा—इस कार्बनिक खेती में ऊर्जा की आवश्यकता कम होती है। अतः लागत भी कम आती है।
3. कम अवशेष समस्या—खेत से प्राप्त अवशेष को कम्पोस्ट बनाकर वापस काम में ले लिया जाता है।
4. अधिक मूल्य—कार्बनिक उत्पादों का दाम भी अधिक मिलता है। ये उत्पाद स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छे माने जाते हैं। अतः लोग इसे अधिक खरीदने लगे हैं।
5. कम मशीनीकरण—इस पद्धति में कृषि क्रियाएँ अधिक नहीं की जाती। अतः कम मशीनों को उपयोग से खेती सम्भव हैं तथा छोटे किसान भी इसको आसानी से अपना सकते हैं।
6. अच्छी गुणवत्ता—कार्बनिक उत्पाद में अधिक रसायनों का उपयोग नहीं किया जाता। अतः इसमें ‘हेल्थ हेजार्ड’ की समस्या नहीं होती।
अकार्बनिक खेती से कार्बनिक खेती अपनाने में शुरुआत में निम्न रुकावटें आ सकती हैं जो किसानों को हतोत्साहित कर सकती हैं :
1. भूमि संसाधनों को कार्बनिक खेती से अकार्बनिक खेती की तरफ बदलने में अधिक समय नहीं लगता लेकिन विपरीत दिशा में जाने में समय लगता है।
2. शुरुआती समय में फार्म उत्पाद में कुछ गिरावट आ सकती है जो कि किसान सह नहीं सकते। अतः उन्हें कार्बनिक खेती अपनाने के लिए अलग से प्रोत्साहन देना जरूरी है।
3. आधुनिक अकार्बनिक खेती ने मृदा में उपस्थिति सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट कर दिया है। अतः उनके पुनर्निर्माण में 3-4 वर्ष लग सकते हैं।
4. सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में किसान इस नए आयाम एवं बाजार में प्रवेश से भयभीत हैं।
कार्बनिक खेती मुख्यतया फसल चक्र, उर्वरकों का उपयोग, कीट एवं व्याधियों की नियंत्रक विधियों के संदर्भ में अकार्बनिक खेती से भिन्न हैं। इस पद्धति के मुख्य अवयव निम्न प्रकार हैं :
1. जैविक खाद (ऑर्गेनिक मेन्योर)—कार्बनिक पदार्थ जैसे फार्म यार्ड मेन्योर (गोबर की खाद), स्लरी, कम्पोस्ट, भूसा एवं फसल अवशेष अन्य फसल उत्पाद, जीवणु खाद, हरी खाद, अवशेष फसल आदि के माध्यम से भूमि में पोषक तत्वों की पूर्ति की जाती है तथा रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग न के बराबर किया जाता है जो पर्यावरण गुणवत्ता बनाए रखने में सहायक होती हैं। इनके अलावा कार्बनिक किसान (ऑर्गेनिक किसान) समुद्री खरपतवार, जलीय खरपतवार, खली एवं मछली खादों का भी उपयोग करते हैं। ऑर्गेनिक खादों के उपयोग से भूमि में कार्बनिक तत्वों की मात्रा में वृद्धि होगी जो इसकी जलधारण क्षमता में भी वृद्धि करेगी। मृदा-क्षरण एवं वाष्पोत्सर्जन दर भी कार्बनिक तत्वों द्वारा नियंत्रित की जा सकती है। फसल चक्र में दालों वाली फसलों को शामिल करने से मृदा उर्वरकता बनाए रखने में सहायता होती है।
2. अरासायनिक-खरपतवार नियंत्रण—अकार्बनिक खेती की बजाय ऑर्गेनिक किसान खरपतवार नियंत्रण हेतु अधिक यांत्रिक विधियों का प्रयोग करते हैं। खरपतवारनाशियों का उपयोग कम से कम किया जाता है क्योंकि ये पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण हैं।
3. जैविक कीट नियंत्रण (प्रबंधन)—कृषि में कीट व व्याधियों का नियंत्रण किसानों व कृषि वैज्ञानिकों दोनों के लिए एक विकट समस्या है। यहाँ अरासायनिक जैविक कीट नियंत्रण को प्रोत्साहित किया जाता है। कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं का संरक्षण रासायनिक कीटनाशकों का उपयेाग कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वानस्पतिक कीटनाशक (बायोपेस्टीसाइड्स) जैसे— नीम आधारित उत्पादों के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए। कुछ चुने हुए सूक्ष्म जीवाणु कीटनाशक (बी.टी. आधारित स्ट्रेन) भी उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
जैविक खेती अपनाने हेतु समुचित व्यवस्था व प्रबंधन के लिए रुके रहने की आवश्यकता नहीं है। इसे सभी कृषक आसानी से अपना सकते हैं। इस हेतु जैविक खेती की विधि/विधियों का अपनी सुविधानुसार कहीं से भी अनुसरण आरंभ करें। छोटे स्तर पर किए गए उपाय ही इस विधा को अपनाने में सहायक होते हैं। अपनी जोत का कुछ हिस्सा जैविक विधियों द्वारा आधारित खेती के लिए निर्धारित करें तथा उसके लिए अलग से कार्ययोजना अपनाएँ तथा फसलों का चुनाव, कार्बनिक खादों की उपलब्धता तथा कीट एवं व्याधियों के जैविक नियंत्रण के बारे में जानकारी हासिल करें, तथा उपलब्ध आदानों का समुचित प्रबंध करें। शुरू में इस विधि को अकार्बनिक खेती के संदर्भ में जाँच हेतु अपनाएँ तथा अपने अनुभवों के आधार पर आगे बढ़ें।
कार्य-योजना
1. मिट्टी परीक्षण/भूमि का स्वास्थ्य
- भूमि की सजीवता बनाए रखें।
- फसल चक्र—दलहन-अनाज/तिलहन/नकदी फसल चक्र, भूमि की उर्वरकता बनाए रखती है।
- अन्तरवर्तीय, मिश्रित, बहुफसल, बहुस्तरीय फसल, प्रकृति के पूरक सिद्धांतों/सहअस्तित्व के सिद्धांत को प्रोत्साहित करती है।
- जीवाणु कल्चरों का प्रयोग लाभदायक है।
2. जीवांश खाद/कम्पोस्ट
उपलब्ध जीवांश को संवर्धित करें-
(अ) जीवांश को कदापि न जलाएँ।
(ब) आवश्यक रूप से कम्पोस्ट बनाने की कोई भी विधि अपनाएँ।
(स) नेडप कम्पोस्ट विधि एक वरदान है। इस विधि से उपलब्ध कम्पोस्ट की मात्रा जीवांश में मिट्टी के संमिश्रण से दोगुनी करना संभव हो गया है।
(द) बायो गैस अपनाएँ; जीवांश बनाएँ खेत के लिए।
(ध) कम्पोस्ट की गुणवत्ता की वृद्धि हेतु खनिज रॉक, फास्फेट व नत्रजन स्थिर करने वाले व स्फुट घोलक जीवाणु का उपयोग करें।
3. वर्मीकम्पोस्ट
केंचुए शीघ्रता से जैव पदार्थों को कम्पोस्ट में बदल देते हैं।
4. रासायनिक पौध पोषण : (यदि अति आवश्यक हो तो)
- जैव पौध पोषण की कमी की पूर्ति रासायनिक उर्वरकों से की जाए।
- उर्वरक की उपयोग क्षमता बढ़ाने हेतु इसे विभाजित एवं उपयुक्त स्थान पर दिया जाए।
1. भूमि-प्रबंध
- भूमि को शोषण, क्षरण, लवणीयता व जल जमाव से बचाएँ।
- खेत की मिट्टी खेत में ही रहे, इस हेतु खेत के चारों तरफ नाली व हल्की मेढ़ बनाएँ।
- अनावश्यक रूप से गहरी जुताई को निरुत्साहित करें।
- न्यूनतम जुताई पद्धति अपनाएँ। ऐसा करने से जमीन में आश्रय पा रहे कार्बनिक जीवांश, जीव सूक्ष्माणु, केंचुए आदि संरक्षित रहते हैं।
- भूमि पर किसी भी जीवांश, इत्यादि को जलाएँ नहीं, अन्यथा भूमि की जैव क्रिया विपरीत रूप से प्रभावित हो जाती है।
- कटाई उपरांत बचे हुए पौध अवशेष (गेहूँ, धान इत्यादि) को जमीन में रोटोवेटर/कृषि कार्य कर मिला दें या उसका कम्पोस्ट बनाएँ।
- जैव पदार्थ क्षारीय व लवणीय भूमि सुधार का सशक्त माध्यम हैं, उनका उपयोग भूमि को स्वस्थ बनाए रखने में करें।
2. जल-प्रबंध
- खेत का पानी खेत में रहे, इस हेतु खेत की हल्की मेढ़बंदी करें व जैव अवरोधक वनस्पति का उपयोग करें।
- फड़ सिंचाई पद्धति अपनाएँ।
- प्रयास करें कि प्रत्येक खेत में एक छोटा पोखर हो।
- भूमि जल का क्षमता के आधार पर दोहन करें।
- वर्षा निर्भर कृषि में उपलब्ध जल का उपयोग सही बीज अंकुरण एवं जीवनरक्षक सिंचाई हेतु करें।
- पक्षी, सर्पवर्ग एवं मेंढक को सरंक्षण प्रदान करें क्योंकि ये कीटों को नियंत्रण में रखते हैं।
- उपयुक्त परजीवियों एवं परभक्षियों का उपयोग कीट नियंत्रण में करें।
- प्रकाश प्रपंच व फिरोमेन प्रपंच का उपयोग करें। ये कीट तीव्रता का संकेत देते हैं।
- सूक्ष्माणुओं का उपयोग कीट व व्याधि नियंत्रण में करें।
- एन्टीफीडेन्ट, बायोपेस्टीसाइड्स एवं कम जहरीले रसायनों का उपयोग यदि आवश्यक हो तो उचित समय एवं मात्रा में करें।
जैविक खेती की नई धारणा को अब विश्व स्तर पर मान्यता मिलने लगी है। आज प्रत्येक पर्यावरण संरक्षण इस नई कृषि पद्धति को अपनाने की बात कर रहा है। असंतुलित कृषि प्रक्रियाओं एवं अनियंत्रित कृषि आदानों के उपयोग से आज पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है। अतः जैविक खेती दिशा बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।
जैविक खेती पर्यावरण संरक्षण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके माध्यम से प्रदूषण फैलाने वाले कारक जैसे— रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवारनाशी आदि का उपयोग कम हो जाएगा जो पर्यावरण प्रदूषण को संतुलित करने में सहायक होगा।
ऑर्गेनिक कृषि पद्धति को बढ़ावा देने हेतु राजस्थान में कृषि विज्ञान केंद्र, श्रीगंगानगर ने गाँव 3 एच.एच. को गोद लिया है जिसमें प्रत्येक कृषक परिवार अपनी कुल जोत का कम से कम एक एकड़ जमीन में पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक तत्वों के माध्यम से करेगा। इसमें उनके द्वारा बनाए गए कम्पोस्ट पिट में तैयार कम्पोस्ट खाद मुख्य है तथा निर्धारित खेत में रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का प्रयोग नहीं करने की सलाह दी गई है। यह एक अच्छी शुरुआत है। इस छोटे से प्रयास से कृषक स्वयं जैविक एवं अकार्बनिक खेती पद्धति के बारे में फसलों की स्थिति का आकलन करेगा तथा आगे चलकर अपनी जोत का अधिक हिस्सा जैविक खेती हेतु आवंटन करेगा। ऐसी शुरुआत करने वाला राजस्थान राज्य का यह पहला गाँव है, तथा भारत का आस्था (महाराष्ट्र) के बाद दूसरा गाँव।
आज रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग से स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ने लगी हैं। इसके निवारण हेतु कार्बनिक खाद्य पदार्थ पैदा होने लगे हैं जो बाजार में ‘ऑर्गेनिक उत्पाद’ के लेबल के साथ मिलते हैं। एक तो इनकी गुणवत्ता अच्छी होती है, दूसरे ये स्वास्थ्य के लिए अच्छे साबित हो रहे हैं। अतः जैविक खेती की आवश्यकता एवं संभावनाएँ अधिक प्रभावी होती जा रही हैं।
(लेखक कृषि अनुसंधान केंद्र, गंगानगर में क्रमशः सहायक प्रोफेसर (प्रसार) एवं सहायक प्रोफेसर (मृदा) हैं।)
कार्बनिक खेती सामान्यतया ‘प्रकृति की तरफ झुकाव’ आंदोलन के एक हिस्से के रूप में जानी जाती है। यह खेती की एक ऐसी पद्धति है जिसमें रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों के उपयोग के स्थान पर मृदा की उर्वरकता बनाए रखने के लिए फार्म-वेस्ट, कम्पोस्ट, सीवेज, पौधों के बचे भाग आदि का प्रयोग किया जाता है। आधुनिक कार्बनिक खेती की शुरुआत ब्रिटेन से हुई जहाँ एक प्रकार की कृषि-पद्धति में मृदा उर्वरता बनाए रखने के लिए कम्पोस्ट पर अधिक जोर दिया गया। सर अलबर्ट होवार्ड (ब्रिटेन) को इस पद्धति का जनक माना जाता है। कार्बनिक किसान वे लोग थे जो मृदा में पोषक तत्वों की आपूर्ति खेत अवशिष्ट तथा हरी खाद से करते थे तथा रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का उपयोग नहीं करते थे।
फायदे
आज कार्बनिक खेती अपनाने के कई फायदे हैं तथा आज कार्बनिक उत्पादों का दाम भी अधिक मिल रहा है।
1. कम प्रदूषण—चूँकि इस कृषि पद्धति में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता, अतः मृदा प्रदूषण एवं पानी प्रदूषण कम होता है। अवशेष की समस्या भी कम होती है।
2. कम ऊर्जा—इस कार्बनिक खेती में ऊर्जा की आवश्यकता कम होती है। अतः लागत भी कम आती है।
3. कम अवशेष समस्या—खेत से प्राप्त अवशेष को कम्पोस्ट बनाकर वापस काम में ले लिया जाता है।
4. अधिक मूल्य—कार्बनिक उत्पादों का दाम भी अधिक मिलता है। ये उत्पाद स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छे माने जाते हैं। अतः लोग इसे अधिक खरीदने लगे हैं।
5. कम मशीनीकरण—इस पद्धति में कृषि क्रियाएँ अधिक नहीं की जाती। अतः कम मशीनों को उपयोग से खेती सम्भव हैं तथा छोटे किसान भी इसको आसानी से अपना सकते हैं।
6. अच्छी गुणवत्ता—कार्बनिक उत्पाद में अधिक रसायनों का उपयोग नहीं किया जाता। अतः इसमें ‘हेल्थ हेजार्ड’ की समस्या नहीं होती।
अवरोधक
अकार्बनिक खेती से कार्बनिक खेती अपनाने में शुरुआत में निम्न रुकावटें आ सकती हैं जो किसानों को हतोत्साहित कर सकती हैं :
1. भूमि संसाधनों को कार्बनिक खेती से अकार्बनिक खेती की तरफ बदलने में अधिक समय नहीं लगता लेकिन विपरीत दिशा में जाने में समय लगता है।
2. शुरुआती समय में फार्म उत्पाद में कुछ गिरावट आ सकती है जो कि किसान सह नहीं सकते। अतः उन्हें कार्बनिक खेती अपनाने के लिए अलग से प्रोत्साहन देना जरूरी है।
3. आधुनिक अकार्बनिक खेती ने मृदा में उपस्थिति सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट कर दिया है। अतः उनके पुनर्निर्माण में 3-4 वर्ष लग सकते हैं।
4. सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में किसान इस नए आयाम एवं बाजार में प्रवेश से भयभीत हैं।
अवयव
कार्बनिक खेती मुख्यतया फसल चक्र, उर्वरकों का उपयोग, कीट एवं व्याधियों की नियंत्रक विधियों के संदर्भ में अकार्बनिक खेती से भिन्न हैं। इस पद्धति के मुख्य अवयव निम्न प्रकार हैं :
1. जैविक खाद (ऑर्गेनिक मेन्योर)—कार्बनिक पदार्थ जैसे फार्म यार्ड मेन्योर (गोबर की खाद), स्लरी, कम्पोस्ट, भूसा एवं फसल अवशेष अन्य फसल उत्पाद, जीवणु खाद, हरी खाद, अवशेष फसल आदि के माध्यम से भूमि में पोषक तत्वों की पूर्ति की जाती है तथा रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग न के बराबर किया जाता है जो पर्यावरण गुणवत्ता बनाए रखने में सहायक होती हैं। इनके अलावा कार्बनिक किसान (ऑर्गेनिक किसान) समुद्री खरपतवार, जलीय खरपतवार, खली एवं मछली खादों का भी उपयोग करते हैं। ऑर्गेनिक खादों के उपयोग से भूमि में कार्बनिक तत्वों की मात्रा में वृद्धि होगी जो इसकी जलधारण क्षमता में भी वृद्धि करेगी। मृदा-क्षरण एवं वाष्पोत्सर्जन दर भी कार्बनिक तत्वों द्वारा नियंत्रित की जा सकती है। फसल चक्र में दालों वाली फसलों को शामिल करने से मृदा उर्वरकता बनाए रखने में सहायता होती है।
2. अरासायनिक-खरपतवार नियंत्रण—अकार्बनिक खेती की बजाय ऑर्गेनिक किसान खरपतवार नियंत्रण हेतु अधिक यांत्रिक विधियों का प्रयोग करते हैं। खरपतवारनाशियों का उपयोग कम से कम किया जाता है क्योंकि ये पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण हैं।
3. जैविक कीट नियंत्रण (प्रबंधन)—कृषि में कीट व व्याधियों का नियंत्रण किसानों व कृषि वैज्ञानिकों दोनों के लिए एक विकट समस्या है। यहाँ अरासायनिक जैविक कीट नियंत्रण को प्रोत्साहित किया जाता है। कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं का संरक्षण रासायनिक कीटनाशकों का उपयेाग कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वानस्पतिक कीटनाशक (बायोपेस्टीसाइड्स) जैसे— नीम आधारित उत्पादों के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए। कुछ चुने हुए सूक्ष्म जीवाणु कीटनाशक (बी.टी. आधारित स्ट्रेन) भी उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
शुरुआत कहाँ से?
जैविक खेती अपनाने हेतु समुचित व्यवस्था व प्रबंधन के लिए रुके रहने की आवश्यकता नहीं है। इसे सभी कृषक आसानी से अपना सकते हैं। इस हेतु जैविक खेती की विधि/विधियों का अपनी सुविधानुसार कहीं से भी अनुसरण आरंभ करें। छोटे स्तर पर किए गए उपाय ही इस विधा को अपनाने में सहायक होते हैं। अपनी जोत का कुछ हिस्सा जैविक विधियों द्वारा आधारित खेती के लिए निर्धारित करें तथा उसके लिए अलग से कार्ययोजना अपनाएँ तथा फसलों का चुनाव, कार्बनिक खादों की उपलब्धता तथा कीट एवं व्याधियों के जैविक नियंत्रण के बारे में जानकारी हासिल करें, तथा उपलब्ध आदानों का समुचित प्रबंध करें। शुरू में इस विधि को अकार्बनिक खेती के संदर्भ में जाँच हेतु अपनाएँ तथा अपने अनुभवों के आधार पर आगे बढ़ें।
कार्य-योजना
जैव स्त्रोतों से पौध-पोषण
1. मिट्टी परीक्षण/भूमि का स्वास्थ्य
- भूमि की सजीवता बनाए रखें।
- फसल चक्र—दलहन-अनाज/तिलहन/नकदी फसल चक्र, भूमि की उर्वरकता बनाए रखती है।
- अन्तरवर्तीय, मिश्रित, बहुफसल, बहुस्तरीय फसल, प्रकृति के पूरक सिद्धांतों/सहअस्तित्व के सिद्धांत को प्रोत्साहित करती है।
- जीवाणु कल्चरों का प्रयोग लाभदायक है।
2. जीवांश खाद/कम्पोस्ट
उपलब्ध जीवांश को संवर्धित करें-
(अ) जीवांश को कदापि न जलाएँ।
(ब) आवश्यक रूप से कम्पोस्ट बनाने की कोई भी विधि अपनाएँ।
(स) नेडप कम्पोस्ट विधि एक वरदान है। इस विधि से उपलब्ध कम्पोस्ट की मात्रा जीवांश में मिट्टी के संमिश्रण से दोगुनी करना संभव हो गया है।
(द) बायो गैस अपनाएँ; जीवांश बनाएँ खेत के लिए।
(ध) कम्पोस्ट की गुणवत्ता की वृद्धि हेतु खनिज रॉक, फास्फेट व नत्रजन स्थिर करने वाले व स्फुट घोलक जीवाणु का उपयोग करें।
3. वर्मीकम्पोस्ट
केंचुए शीघ्रता से जैव पदार्थों को कम्पोस्ट में बदल देते हैं।
4. रासायनिक पौध पोषण : (यदि अति आवश्यक हो तो)
- जैव पौध पोषण की कमी की पूर्ति रासायनिक उर्वरकों से की जाए।
- उर्वरक की उपयोग क्षमता बढ़ाने हेतु इसे विभाजित एवं उपयुक्त स्थान पर दिया जाए।
एकीकृत भूमि व जल प्रबंध
1. भूमि-प्रबंध
- भूमि को शोषण, क्षरण, लवणीयता व जल जमाव से बचाएँ।
- खेत की मिट्टी खेत में ही रहे, इस हेतु खेत के चारों तरफ नाली व हल्की मेढ़ बनाएँ।
- अनावश्यक रूप से गहरी जुताई को निरुत्साहित करें।
- न्यूनतम जुताई पद्धति अपनाएँ। ऐसा करने से जमीन में आश्रय पा रहे कार्बनिक जीवांश, जीव सूक्ष्माणु, केंचुए आदि संरक्षित रहते हैं।
- भूमि पर किसी भी जीवांश, इत्यादि को जलाएँ नहीं, अन्यथा भूमि की जैव क्रिया विपरीत रूप से प्रभावित हो जाती है।
- कटाई उपरांत बचे हुए पौध अवशेष (गेहूँ, धान इत्यादि) को जमीन में रोटोवेटर/कृषि कार्य कर मिला दें या उसका कम्पोस्ट बनाएँ।
- जैव पदार्थ क्षारीय व लवणीय भूमि सुधार का सशक्त माध्यम हैं, उनका उपयोग भूमि को स्वस्थ बनाए रखने में करें।
2. जल-प्रबंध
- खेत का पानी खेत में रहे, इस हेतु खेत की हल्की मेढ़बंदी करें व जैव अवरोधक वनस्पति का उपयोग करें।
- फड़ सिंचाई पद्धति अपनाएँ।
- प्रयास करें कि प्रत्येक खेत में एक छोटा पोखर हो।
- भूमि जल का क्षमता के आधार पर दोहन करें।
- वर्षा निर्भर कृषि में उपलब्ध जल का उपयोग सही बीज अंकुरण एवं जीवनरक्षक सिंचाई हेतु करें।
पारिस्थितिक संतुलन
- पक्षी, सर्पवर्ग एवं मेंढक को सरंक्षण प्रदान करें क्योंकि ये कीटों को नियंत्रण में रखते हैं।
- उपयुक्त परजीवियों एवं परभक्षियों का उपयोग कीट नियंत्रण में करें।
- प्रकाश प्रपंच व फिरोमेन प्रपंच का उपयोग करें। ये कीट तीव्रता का संकेत देते हैं।
- सूक्ष्माणुओं का उपयोग कीट व व्याधि नियंत्रण में करें।
- एन्टीफीडेन्ट, बायोपेस्टीसाइड्स एवं कम जहरीले रसायनों का उपयोग यदि आवश्यक हो तो उचित समय एवं मात्रा में करें।
जैविक खेती की नई धारणा को अब विश्व स्तर पर मान्यता मिलने लगी है। आज प्रत्येक पर्यावरण संरक्षण इस नई कृषि पद्धति को अपनाने की बात कर रहा है। असंतुलित कृषि प्रक्रियाओं एवं अनियंत्रित कृषि आदानों के उपयोग से आज पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है। अतः जैविक खेती दिशा बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।
जैविक खेती पर्यावरण संरक्षण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके माध्यम से प्रदूषण फैलाने वाले कारक जैसे— रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवारनाशी आदि का उपयोग कम हो जाएगा जो पर्यावरण प्रदूषण को संतुलित करने में सहायक होगा।
ऑर्गेनिक कृषि पद्धति को बढ़ावा देने हेतु राजस्थान में कृषि विज्ञान केंद्र, श्रीगंगानगर ने गाँव 3 एच.एच. को गोद लिया है जिसमें प्रत्येक कृषक परिवार अपनी कुल जोत का कम से कम एक एकड़ जमीन में पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक तत्वों के माध्यम से करेगा। इसमें उनके द्वारा बनाए गए कम्पोस्ट पिट में तैयार कम्पोस्ट खाद मुख्य है तथा निर्धारित खेत में रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का प्रयोग नहीं करने की सलाह दी गई है। यह एक अच्छी शुरुआत है। इस छोटे से प्रयास से कृषक स्वयं जैविक एवं अकार्बनिक खेती पद्धति के बारे में फसलों की स्थिति का आकलन करेगा तथा आगे चलकर अपनी जोत का अधिक हिस्सा जैविक खेती हेतु आवंटन करेगा। ऐसी शुरुआत करने वाला राजस्थान राज्य का यह पहला गाँव है, तथा भारत का आस्था (महाराष्ट्र) के बाद दूसरा गाँव।
आज रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग से स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ने लगी हैं। इसके निवारण हेतु कार्बनिक खाद्य पदार्थ पैदा होने लगे हैं जो बाजार में ‘ऑर्गेनिक उत्पाद’ के लेबल के साथ मिलते हैं। एक तो इनकी गुणवत्ता अच्छी होती है, दूसरे ये स्वास्थ्य के लिए अच्छे साबित हो रहे हैं। अतः जैविक खेती की आवश्यकता एवं संभावनाएँ अधिक प्रभावी होती जा रही हैं।
(लेखक कृषि अनुसंधान केंद्र, गंगानगर में क्रमशः सहायक प्रोफेसर (प्रसार) एवं सहायक प्रोफेसर (मृदा) हैं।)
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Post By: birendrakrgupta