स्वाद और पौष्टिकता से भरपूर देशी बीज

organic food
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बैगाओं के पारंपरिक मिश्रित खेती में खाद्य सुरक्षा तो होती है स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ मवेशियों के लिए भरपूर चारा और भूसा उपलब्ध होता है। जलवायु बदलाव के दौर में भी मिश्रित खेती की उपयोगिता और बढ़ गई है, जिसमें प्रतिकूल मौसम को झेलने की क्षमता होती है। श्री विश्वास बैगाओं के पारंपरिक मिश्रित खेती की विविधता को बचाने और उनके इस खेती के अनाजों की उपयोगिता तथा उनके पारंपरिक जंगल आधारित खान-पान के ज्ञान को सहेज कर नई पीढ़ी तक पहुंचाने के प्रयास में जुटे हैं।

11 जनवरी की सुबह मध्य प्रदेश के डिण्डौरी जिले के गौरा गांव में गोबर से लिपे-पुते आंगन में बैगा आदिवासी बैठे हैं। ये अपने-अपने घर से पारंपरिक अनाजों से भोजन बनाकर लाए हैं। कोई ज्वार की रोटी लाया है तो कोई कुटकी का भात। कोई मक्के की रोटी लाया है तो महुआ का लड्डू। कोई डोंगजीकांदा, बैचांदी कांदा और विरारकांदा लाया है तो सलहार का पेज।

मैंने इन्हें देखा तो देखता रह गया। इनकी रंग-बिरंगी पोषाकों की तरह ही इनके भोजन और व्यंजन थे। न केवल ये रंग-रूप में भिन्न थे बल्कि इसमें विविधता थी। पौष्टिकता से भरपूर थे और स्वाद में भी बेजोड़ थे। पूरा संतुलित भोजन था। माहुल के पत्तों में अनाजों और व्यंजनों को सजाया गया था। साथ में कागज़ पर स्केच पेन से नाम भी लिखा गया था।

यहां ढाबा, अजगर, तलाईडबरा, कांदाबानी, गौरा-कन्हारी, जीलंग और चपवार वगैरह गाँवों के लोगों ने हिस्सा लिया। वे उनकी बेवर खेती में होने वाले पारंपरिक अनाजों के व्यंजन के साथ विभिन्न प्रकार के साग-सब्जी लेकर आए थे। जिनमें कंद-मूल, पत्ते, फूल और मोटे अनाज शामिल थे।

आंगन में बिछी खाट पर कोदो, कुटकी, मड़िया, सलहार का पेज, भात, रोटी, लड्डू खीर, मक्का के लड्डू, लाई, महुआ के लाटा, लड्डू रखे थे। माहुल के पत्तों में जंगल में मिलने वाले डोंगजी कांदा, कड़ू गीठ कांदा, बैचांदीकांदा, विरार कांदा, बड़ाईन कांदा की सब्जी थी। हरी भाजियां जैसे सिरोतीभाजी, पनिहारी भाजी, पुटपुरा, सरईपिहरी के सब्जी, जयमंगल भाजी, दोबे भाजी, कुंझरी भाजी, पताल और अमटा के चटनी, मशरूम सहित करीब 100 तरह के व्यंजनों की प्रदर्शनी लगाई गई थी।

ढाबा गांव के लालसाय ने बताया कि हम कोदो का भात ठंड में खाते हैं, इसकी तासीर गरम होती है और बहुत पौष्टिक होता है। कोदो को महिलाओं को जचकी के दौरान खिलाया जाता है। कुटकी का पेज गरमी में खाते हैं, जो ठंडा होता है और शरीर को ठंडा रखता है।

स्वाद और सेहत से भरपूर होती है देशी बीजइसी प्रकार मक्का और ज्वार की रोटी भी ठंड के दिनों में पसंद की जाती है, जो पाचक होने के साथ तासीर में गरम होती है। डोंगची कांदा, कनिहा कांदा खाने से भूख नहीं लगती है। गीठकांदा जिसे पीलिया जैसी बीमारी को ठीक करने के लिए भी उपयोग किया जाता है।

बैगाओं के भोजन में पेज प्रमुख है। पेज एक तरह से सूप होता है। बैगा पूरे साल भर पेज पीते हैं। पेज कम अनाज में पेट भरने का उपाय भी है। अनाज कम और पानी ज्यादा। अगर पेज बनते समय दो मेहमान भी आ जाए तो उतने ही अनाज में पानी की मात्रा बढ़ा दी जाती है।

जब आदिवासी जंगल जाते हैं तो साथ में पेज भी ले जाते हैं। अगर जंगल में पानी नहीं मिलता तो पेज से काम चला लेते हैं। पेज कई अनाजों से बनता है। मक्का, कोदा, कुटकी आदि से पेज बनाया जाता है। अनाजों को दलिया की तरह कूटकर उसे गरम पानी में उबाला जाता है और नमक डालकर तैयार किया जाता है।

जीलंग गांव के जुमेलाल ने बताया कि मड़िया बहुत पौष्टिक होता है, जिससे कमजोरी दूर होती है। मुनगा की भाजी खाने से बहुत भूख लगती है, जिससे भरपेट भोजन खाया जा सके। यह पाचन के लिए बहुत उपयोगी होती है। बांस की करील भाजी भी कमजोरी दूर करती है और इसे जचकी के दौरान महिलाओं को खिलाने से फायदा होता है। उन्हें भूख बहुत लगती है और वे भरपेट भोजन कर पाती हैं। गर्मी के समय शरीर को ठंडा रखने के लिए अमटा की चटनी खाते हैं। हमारे पूर्वज कांदा खाते थे बीच में हमने कांदा खाना छोड़ दिया अब कांदा खाना जरूरी है। जुमेलाल ने कहा अगर हम कुटकी का भात और कांदा नहीं खाए तो पेट ही नहीं भरता।

गौरा-कन्हारी के सरपंच रामलाल तेकाम ने बताया कि पहले अस्पताल थे ही नहीं, हमारे बुजुर्ग जड़ी-बूटियों से ही इलाज करते थे और लोग भी बीमार कम पड़ते थे। उनके पास बहुत अच्छा परंपरागत ज्ञान था, जिसे हम भूलते जा रहे हैं। इसे बचाने की जरूरत है। उन्होंने कहा मड़िया को महिलाओं को प्रसव के दौरान दिया जाता है, जो बहुत पौष्टिक होता है और इससे खून बढ़ता है।

स्वाद और सेहत से भरपूर होती है देशी बीजनेताम बताते हैं कि पहले जंगल से बहुत सी चीजें खाने को मिलती थी और जैव विविधता की दृष्टि से भी ये महत्वपूर्ण थी। जैसे माहुल के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि माहुल बहुत उपयोगी होती है। माहुल की बेल होती है और पेड़ों से लिपटी रहती है और एक-दूसरे पेड़ों में फैलती जाती है। इस बेल की छांव में कई पशु-पक्षी और मनुष्य शरण लेते हैं।

माहुल के पत्तों से दोना-पत्तल, छाते, टोपी, बक्कल (रस्सी की तरह) और टोपी बनाई जाती है। साथ ही माहुल का फल भी खाते हैं। उन्होंने खुद भून कर इस फल को खाया है। लेकिन अब वन विभाग की कूप कटाई के कारण माहुल खत्म होता जा रहा है। इस तरह कई पेड़-पौधे व जीवों की प्रजातियाँ खत्म हो रही हैं।

चपवार की भागवती ने कहा कि कुटकी पेज पीने से जचकी के दौरान महिलाओं को फायदा होता है। इसी प्रकार की हरी भाजियों को खाने से फायदा होता है। जयमंगल भाजी के बारे में बताते हैं कि वह ठंडी होती है, जिसे गरमी में खाते हैं। जंगल में मिलने वाले पकरी भाजी खाने से पतली दस्त ठीक होता है।

मशरूम की यहां कई किस्में जंगल में मिलती हैं। इन्हें सुखाकर एकत्र किया जाता है और फिर सब्जी बनाकर खाते हैं। प्रदर्शित व्यंजनों में महुआलाटा, घुईफल का सब्जी, आंवला चटनी, राहर और उड़द बड़ा, डूमर फल की सब्जी, बांस करील की सब्जी, बेलभूंज, चेंच भाजी, पताली चटनी, रमतीला की चटनी, लोरिंग कांदा भूंज, चकोड़ा भाजी, कोदो कुटकी का चीला, गीठ कांदा, भूत कांदा, खिर कांदा, रवि कांदा, रताल कांदा, डुंगची कांदा, सरई पिहरी वगैरह खास थे।

इनमें से कुछ कांदों को कच्चा और कुछ को आलू की तरह उबालकर और कुछ कांदों को भाजी बनाकर खाते हैं। चटवा, कुम्हड़ा, ज्वार, कच्छर और अनेक प्रकार की हरी भाजियां शामिल थे।

इस अनोखी प्रदर्शनी के प्रमुख व बीज विरासत अभियान व कार्यक्रम के संयोजक नरेश विश्वास ने कहा कि बैगाओं के पारंपरिक मिश्रित खेती में खाद्य सुरक्षा तो होती है स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ मवेशियों के लिए भरपूर चारा और भूसा भी उपलब्ध होता है। जलवायु बदलाव के दौर में भी मिश्रित खेती की उपयोगिता और बढ़ गई है, जिसमें प्रतिकूल मौसम को झेलने की क्षमता होती है। स्वाद और सेहत से भरपूर होती है देशी बीज देखने में आया है कि जंगल में खाद्य पदार्थों की कमी होती जा रही है। और बैगा भी अपने खेतों में मिश्रित और बेंवर (बिना जुताई) कम करते हैं इसलिए उनके भोजन में विविधता, पोषक तत्वों की कमी हो रही है। उनकी खाद्य सुरक्षा के साथ पोषण सुरक्षा भी जरूरी है।

(लेखक विकास और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं)

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