सूरज कुण्ड मेरठ का अत्यधिक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण तालाब था। यद्यपि अब यह पूर्ण रूप से सूख चुका है परन्तु इसका गौरवशाली अतीत आज सोचने को विवश करता है कि हम विकास की ओर जा रहे हैं या विनाश की ओर। सूरज कुण्ड के इतिहास को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैंः
- प्रारंभिक अथवा रामायणकालीन
- मध्य अथवा महाभारतकालीन
- अंग्रेजी काल से आज तक
1. रामायणकालीन: इस काल में मेरठ वास्तुकला के अद्भुत विद्वान एवं राक्षसों के विश्वकर्मा मयदन्त की राजधानी ‘मयराष्ट्र’ था। इसका महल पुरानी कोतवाली पर था। चारों ओर गहरी खाई थी जिसे अब खन्दक कहा जाता है। मयदन्त की पुत्री मन्दोदरी सुशिक्षित सभ्य, सुशील, सुन्दर, राजनीतिज्ञ एवं शास्त्राज्ञ थी। दोनों पिता-पुत्री ने मेरठ के लगभग चारों ओर तालाब बनवाये थे। उस समय मेरठ के चारों ओर वन था। इस वन में अनेक तापस तपस्या करते थे। वन के इसी स्थान पर एक तालाब (कुण्ड) था। शुद्ध वातावरण, तपस्थली, वैदिक ऋचाओं की स्वर लहरियों से तरंगित वायु-मण्डल, जंगली जड़ी-बूटियों, सूर्य की किरणों एवं जल के स्रोत का प्रभाव था कि इस कुण्ड के जल से चर्म रोग ठीक होते थे। सूर्य देव को दाद व कुष्ठ जैसे भयंकर रोगों को ठीक करने वाला सूर्य देव को माना गया है, इसलिए इसका नाम ‘सूर्य कुण्ड’ विख्यात हुआ। दृष्टव्य है-
- विवस्वानादि देवश्च देव देवो दिवाकरः।
- धन्वन्तरिर्व्याधिहर्ता दद्रु कुष्ठ विनाशकः।।
सूर्य भगवान का निवास व प्रभाव स्थल मान कर मन्दोदरी ने यहां पक्का तालाब निर्माण करा कर शिवमन्दिर की स्थापना कराई। इसका वास्तु शिल्प बिल्वेश्वर नाथ मन्दिर जैसा है। इसे आज भी मन्दोदरी का मन्दिर कहा जाता है। जनश्रुतियों के अनुसार महात्मा अगस्त्य ने आदित्य हृदय स्तोत्र की सिद्धि यहीं प्राप्त की थी। रावण से व्यथित हुए भगवान राम को अगस्त्य मुनि ने इसी शत्रु विनाशक आदित्य स्तोत्र की दीक्षा देकर रावण का अंत कराया था। इसके विषय में कहा गया है -
- आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
- जया वह जपन्नित्यम्क्षय परम्ं शिवम् ।।
(वाल्मिकी रामायण)
2. महाभारत कालः महाभारत काल में यह स्थान खाण्डवी वन के नाम से प्रसिद्ध रहा। महाभारत के अनुसार दुर्वासा मुनि ने कुन्ती को एक मन्त्र देकर कहा था कि इस मन्त्र द्वारा जिस देवता का आह्वान करोगी वह उपस्थित होकर आशीष देगा। एक बार कुन्ती अपने परिवार सहित कुरु प्रदेश के भ्रमण काल में सूर्य कुण्ड पर आईं। सूर्य कुण्ड की महिमा देख-सुन कर मन्त्र परीक्षार्थ उसने सूर्य देव का आह्वान किया। सूर्य देव प्रकट होकर उसे पुत्रावती का आशीर्वाद दिया। यह आशीर्वाद ही कर्ण के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इसीलिए कर्ण को सूर्य कुण्ड से विशेष लगाव था। विशेष उत्सवों पर आकर कर्ण यहां सूर्योपासना एवं दान करता था। अन्य राजा-महाराजा, साधु-सन्त एवं ऋषि मुनि भी आते जाते रहते थे। महाभारत के विनाशक युद्ध के पश्चात् यह काल के गर्त में खो गया।
3. अंग्रेजी कालः सूर्य कुण्ड के वर्तमान का प्रारम्भ बाबा मनोहर नाथ से होता है। सूर्य कुण्ड के एक ओर महान तपस्वी एवं सिद्ध सन्त बाबा मनोहर नाथ रहते थे। बाबा मनोहर नाथ प्रसिद्ध सूफी सन्त शाहपीर के समकालीन थे। एक बार शाहपीर अपनी तपस्या का प्रभाव दिखाने शेर पर चढ़कर बाबा के पास आये। बाबा दीवार पर बैठे दातून कर रहे थे। शाहपीर को देखकर बाबा ने कहा ‘चल री दीवार पीर साहब की अगवानी करनी है’। दीवार चल पड़ी। इन्हीं बाबा के पास लगभग 300 वर्ष पूर्व कस्बा लावड़ (मवाना के पास) के प्रसिद्ध सेठ एवं किसी शासक के खजांची लाला जवाहरमल (कोई सूरजमल बताते हैं) आये और अपने कुष्ठ रोग का इलाज पूछा। बाबा ने पीने एवं स्नान के लिए सूरज कुण्ड के जल का प्रयोग बताया। कुछ दिनों में लाला ठीक हो गये तब सन् 1700 (कहीं 1714) में लाला ने इस तालाब का विस्तार एवं जीर्णोद्धार कराया (मेरठ गजेटियर वोल्यूम IV)। यहां पर बन्दरों की बहुतायत थी, इसीलिए अंग्रेज इसे ‘मंकी टैंक’ कहते थे।
नौचन्दी स्मारिका 1992 के अनुसार 1865 ई. में अंग्रेजों ने इसे नगर पालिका को सौंप दिया। बृहस्पति देव मन्दिर की दीवार पर 28 मई 1958 ई. का एक शिलालेख लगा है जिसमें नारी तालाब में स्नान का समय एवं नियम लिखे हैं। इस पर नगरपालिका अध्यक्ष के रूप में पंडित गोपीनाथ सिन्हा का नाम लिखा है। खुदाई में यहां पर भगवान बुद्ध एवं खजुराहो काल की मूर्तियां आदि अवशेष निकले हैं जो इसे पुरातात्विक खोज का विषय बनाते हैं। पहले यहां हाथी-ऊंट-घोड़े आदि की मण्डी भी लगती थी।
यहां पर एक बार सिखों के प्रथम गुरू श्री नानक देव के पुत्र श्रीचंद भी पधारे थे। उनके ठहरने के स्थान पर सन् 1937 में एक गुरूद्वारा भी स्थापित किया गया जो आज भी तालाब के नैर्ऋत्य कोण में स्थित है। यहां पर अनेक स्त्रियां सती भी हुई थीं। श्री ज्ञानों देवी का सती मन्दिर आज भी श्रद्धा का केन्द्र है। इसके पास अनेक मन्दिर बने हुए हैं। श्मशान घाट भी बना है। यहां पर रहने वाले अघोरी साधु क्रान्ति की चिंगारी सुलगाया करते थे। यहां के वीराने में क्रांतिकारियों की गुप्त बैठकें भी हुआ करती थीं। इसके अन्दर बनी ट्रैक (घूमने की पट्टी) लगभग 700 मीटर है जबकि बाहरी परिधि और भी अधिक है।
मेरठ के प्रथम मेयर अरुण जैन के समय में इस कुण्ड को भरने की पूरी तैयारियां हो चुकी थीं। परन्तु मेरठ के कुछ प्रबुद्ध नागरिकों के उठ खड़े होने के कारण वह योजना सफल नहीं हो सकीं। इस कार्य में सनातन धर्म रक्षिणी सभा, श्री विष्णुदत्त एवं प्रकाशनिधि शर्मा, एडवोकेट आदि का मुख्य सहयोग रहा।
1962 से कुछ पूर्व तक पानी से लबालब भरे सूरज कुण्ड में शहर के अनेक प्रतिष्ठित नागरिक नित्यप्रति नौका विहार के लिए आते थे। उस समय नौका का किराया पच्चीस पैसे (चवन्नी) मात्र हुआ करता था। उसके बाद इसमें कमल खिलने लगे और कमल ककड़ी, कमलपुष्प एवं कमल गट्टों का व्यापार होने लगा। कुछ समय पश्चात् जल कुम्भी ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। बाद में यह एक दम सूख गया।
भू-माफियाओं की नज़र से बचना इसका सौभाग्य ही कहा जायेगा। कुछ वर्ष पूर्व इसकी कीमत छः अरब रुपये आंकी गई थी। वर्तमान में पर्यटन विभाग इसका विकास पार्क के रूप में कर रहा है।
गंग नहर बनने के पश्चात् यह नहर से भरा जाने लगा। बाद में जब सम्पर्क राजवाहे का आबू नाला बन गया तो इसमें शहर का गन्दा पानी आने लगा। नगरवासियों के विरोध के कारण वह बन्द कर दिया गया। इस प्रकार खुशी से लहलहाते इस तालाब की मौत होना शहरवासियों के लिए एक चुनौती है।
सूर्य कुण्ड की एक विशेषता यह है कि 22 जून को जब सूर्य दक्षिणायन होते हैं तो वह पहले तालाब के ठीक उत्तर-पूर्वी (NE) कोने में दिखाई देते हैं और फिर धीरे-धीरे दक्षिण की ओर दिखाई देने लगते हैं। सूर्य की विशेष कृपा दृष्टि के कारण ही इसका नाम सूरज कुण्ड विख्यात हुआ। पंडित महेन्द्र पाल मुकुट इसकी दूसरी विशेषता बताते हैं कि ‘पानी भरते ही इसमें बिना बीज डाले ही कमल उग आते हैं।’
पहले यह एक मील क्षेत्र में फैला हुआ था। पुरुष-महिलाओं के स्नानार्थ एवं पशुओं के पीने के पृथक-पृथक घाट बने थे। श्मशान के कारण तांत्रिक-अघोरी एवं जंगल के कारण नागा साधुओं का यह प्रिय स्थल था।
सूरज कुण्ड ही क्यों सूरज अथवा सूर्य तालाब क्यों नहीं? क्या है इसका रहस्य? यद्यपि कुण्ड शब्द तालाब का ही पर्यायवाची है लेकिन यह शब्द स्वयं में विशिष्ट है। जिस प्रकार विशाल तालाब को भी झील नहीं कहा जा सकता उसी प्रकार किसी भी तालाब को कुण्ड नहीं कहा जा सकता। कुण्ड प्राकृतिक होते हैं। जबकि तालाब मानव निर्मित (बाद में चाहे उन्हें पक्का करा कर तालाब का रूप दे दिया जाये) इनका आकार भी कुण्ड अथवा कुंडा के आकार का होता है। कभी-कभी यह एक दम गहरा होता है तो कभी-कभी धीरे-धीरे गहराई की ओर चलता है। मेरी जानकारी में कांधला हरियाणा एवं हरिद्वार में मनसा देवी से लगभग दो किलोमीटर आगे भी सूरज कुण्ड है। अन्य स्थानों पर भी हो सकते हैं। तीनों के गुण-धर्म समान हैं। अर्थात् तीनों ही चर्म रोग नाशक हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इनके पानी में विशिष्टता है। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला यह कि इनके भूमिगत पानी के स्रोत में ही विशिष्टता है। दूसरा यह कि इन पर सूर्य की कुछ विशेष किरणों का प्रभाव हो। यह सभी जानते हैं कि सूर्य के सात घोड़े सूर्य की सात रंगों की किरणें ही हैं। अर्थात् ऋषि-मुनियों (उस समय के वैज्ञानिकों) ने सूर्य की किरणों के प्रभाव क्षेत्र का पता लगा लिया था और यह कार्य कर्ण से सम्पन्न करा कर उनके कुण्डों का विस्तार किया। इसलिए इनके कुण्डों का नाम सूर्य कुण्ड पड़ा। एक बात अवश्य है कि कर्ण और इन सूर्य कुण्डों का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में अवश्य रहा है। इसलिए इस कुण्ड का सूखना इस क्षेत्र का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।
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