पिघलते गलेशियर और व्यावसायिक वनों के कटान सहित बढ़ते प्रदूषण को लेकर भी सूखती जलधाराओं के कारण कार्यशाला में विशेषज्ञों ने अपने-अपने अध्ययनों, शोध पत्रों के मार्फत प्रस्तुत किया। कहा गया कि उतराखण्ड में जलधाराओं का सूखना जहाँ बड़े-बड़े निर्माण कार्य कारण बनते जा रहे हैं वहीं कृषि कार्यों में बढ़ते रासायनिक खादों के अलावा जलस्रोतों को सीमेंट से पोतना भी जल धाराओं के सूखने का कारण भी माना जा रहा है। यही नहीं भूजल का स्तर भी पिछले 10 वर्षों में बड़ी तेजी से और नीचे चला गया है। यूँ तो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण बाबत राज्य के तमाम संगठन लामबन्द रहते ही है पर इस बार मौका था तो सिर्फ-व-सिर्फ उत्तराखण्ड के जलस्रोतों को कैसे पुनर्जीवित किया जाय।
इस हेतु राज्य की नामचीन संस्थाएँ राजधानी में एकत्रित हुई हैं। यह अगाज पहली बार हिमोत्थान सोसायटी, अर्घ्यम, टाटा ट्रस्ट ने संयुक्त रूप से किया है।
इस दौरान जहाँ आईआईटी रुड़की, दून विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया वहीं स्प्रिंग इनिशीएटिव, हिमालय सेवा संघ, लोक विज्ञान संस्थान, इण्डिया वाटर पोर्टल, इसीमोड, चिराग, हंस फ़ाउंडेशन, हिमालयन हॉस्पिटल ट्रस्ट जैसी संस्थाओं ने अपने-अपने कार्यक्षेत्र में हुए जल संरक्षण के कार्यों का सफल प्रस्तुतिकरण किया।
कार्यशाला में यह तय हुआ कि राज्य सरकार के जल संरक्षण के कार्यक्रम के साथ जुड़कर जलस्रोतों के पुनर्जीवन के लिये हाथ बढ़ाया जाएगा। सिक्किम की तर्ज पर जल धाराओं के पुनर्जीवन के लिये विशेष कार्यक्रम बनाने के प्रयास किये जाएँगे।
प्रस्तुतिकरण में विशेषज्ञों ने बताया कि छोटी-छोटी जल धाराएँ ही नदियों को सरसब्ज करने में अहम भूमिका निभाती हैं। यही वजह है कि राज्य में 60 फीसदी पानी का भण्डार प्राकृतिक जलस्रोतों पर ही निर्भर है लिहाजा धारा विकास के लिये कार्ययोजना बने, जो आज की आवश्यकता है।
पिघलते गलेशियर और व्यावसायिक वनों के कटान सहित बढ़ते प्रदूषण को लेकर भी सूखती जलधाराओं के कारण कार्यशाला में विशेषज्ञों ने अपने-अपने अध्ययनों, शोध पत्रों के मार्फत प्रस्तुत किया। कहा गया कि उतराखण्ड में जलधाराओं का सूखना जहाँ बड़े-बड़े निर्माण कार्य कारण बनते जा रहे हैं वहीं कृषि कार्यों में बढ़ते रासायनिक खादों के अलावा जलस्रोतों को सीमेंट से पोतना भी जल धाराओं के सूखने का कारण भी माना जा रहा है।
यही नहीं भूजल का स्तर भी पिछले 10 वर्षों में बड़ी तेजी से और नीचे चला गया है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक राज्य में विभिन्न नामों जैसे धारा, पन्यारा, नौले, कुएँ, चाल-खाल, कूल, रौली आदि जल धाराएँ 50 प्रतिशत सूख चुकी हैं।
गलेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जलागम के क्षेत्रों में वनों की व्यावसायिक कटान लगातार हो रही है, वृक्षारोपण साल में दो बार हो रहा है मगर पर्यावरण सन्तुलन की स्थिति नहीं बन पा रही है। बजाय प्रतिवर्ष जंगल में आग की घटनाएँ बढ़ ही रही है। अतएव जल धाराओं के पुनर्जीवन के लिये इन संकटों से उभरने बाबत वैज्ञानिक संस्थाओं और संगठनों को भविष्य में साझा कार्यक्रम बनाने होंगे।
जल संरक्षण के बिना जीवन नहीं है इसलिये हिमालय से निकलने वाली विभिन्न प्राकृतिक जल धाराओं व जलस्रोतों का संरक्षण करना अनिवार्य है।
पानी के सवाल पर सरकार और समाज को एक साथ आना होगा। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण बाबत जो वैज्ञानिक शोध व अनुसन्धान हुए हैं उन्हीं के अनुसार जल-जंगल-ज़मीन के संरक्षण के लिये कार्ययोजना बननी चाहिए। हिमालय राज्यों में जल संरक्षण के लोक ज्ञान को नहीं भुलाया जा सकता, उसी के अनुसार जल संरक्षण की कार्ययोजना सरकार बनाए।
भारतीय हिमालय में वन संरक्षण के साथ-साथ जल संरक्षण का कार्य करना अनिवार्य है। वर्तमान में जिस तरह ढाँचागत विकास व जनसंख्या का बढ़ना हुआ, उस स्थिति में प्रकृति-प्रदत्त जल के संरक्षण बाबत कोई विशेष कार्ययोजना नहीं बन पाई है।
जबकि सर्वोच्च न्यायलय के निर्देशानुसार किसी भी जंगल में अन्य विकास के कार्यों से पहले जल संरक्षण की कार्ययोजना आवश्यक बननी चाहिए। अर्थात सिविल वनों में ऐसा नहीं हो पा रहा है, परन्तु संरक्षित वनों में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का अनुपालन किया जा रहा है। सुझाव आया कि जल संरक्षण के लिये बाँस व चौड़ी पत्ति के वृक्षारोपण करना आवश्यक है।
जंगलों के अंधाधुंध कटान, कंक्रीट के जंगल में तब्दील होते गाँव व शहर, अनियोजित और अंधाधुंध भूजल दोहन और मौसम परिवर्तन के चलते नौलों-धारों के अस्तित्त्व पर संकट मँडराने लगा है। हजारों नौले-धारे संरक्षण की अनादर की वजह से बदहाल अवस्था में पहुँच गए हैं।
नौलों-धारों के स्वरूप और बहाव में निरन्तर कमी की वजह से उत्तराखण्ड के गाँव पेयजल के अभूतपूर्व संकट में जूझ रहे हैं। अधिकांश गाँवों के वंचित तबकों के लिये पीने का पानी का इकलौता ज़रिया यही नौले-धारे, चुपटौले, बावड़ी और जलस्रोत ही हैं। लेकिन जल संरक्षण के परम्परागत तरीकों में संशोधन और संवर्धन की जरूरत हो गई है क्योंकि जलवायु परिवर्तन, दोहन के बोरवेल जैसी तकनीकों ने भूजल पर संकट पैदा किया है।
जल संरक्षण के पहाड़ी परम्परागत तरीकों में नई जान डालने की जरूरत है। जल संरक्षण के पहाड़ी परम्परागत तरीकों में जलविज्ञान के नए ज्ञान को जोड़कर पहाड़ों के पानी पर आये जल-संकट से निजात पाया जा सकता है।
उत्तराखण्ड में हुए एक अध्ययन के आधार पर यह पाया गया है कि प्रदेश स्तर पर नौलों-धारों के संरक्षण के लिये एक प्राधिकरण ‘स्प्रिंग शेड अथॉरिटी’ की आवश्यकता है। ताकि नौलों-धारों के मामले में निरन्तर हो रहे लापरवाही को रोका जा सके।
नौले-धारे और जलस्रोत के मसले पर पाठ्यक्रम बनाने की जरूरत है। गाँव-गाँव में नौले-धारे और जलस्रोत के शिक्षित लोग पानी का काम कर सकें। गाँव पंचायत को पानी के काम के लिये सशक्त बनाने की जरूरत है।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग से सम्बद्ध कई वैज्ञानिक संस्थान जलस्रोतों के सूखने और पानी की मात्रा की कमी की रिपोर्ट लगातार दे रहे हैं। जलवायु परिवर्तन से स्थिति और चिन्ताजनक बन रही है।
वर्षा के तरीकों में परिवर्तन के कारण मूसलाधार बारिश आम बात होती जा रही है। जिसकी वजह से धारे-नौलों और जलस्रोत ठीक से रिचार्ज नहीं हो पा रहे हैं और वे सूखते जा रहे हैं। उत्तराखण्ड की बहुत सारी नदियाँ मैदानों में उतरकर उत्तर भारत के करोड़ों की आबादी को पानी पिलाती हैं। इसीलिये विकास के बहुत सारे काम उत्तराखण्ड में नहीं किये जाते क्योंकि इससे नदियों के प्रवाह पर असर पड़ेगा।
‘जलक्रान्ति अभियान’ को उत्तराखण्ड में तेज करने की जरूरत है। जलक्रान्ति अभियान’ में नौले-धारे और जलस्रोत को जलक्रान्ति अभियान में शामिल करने की जरूरत है। जलक्रान्ति अभियान में गाँवों का सेलेक्शन जल्दी करने की जरूरत है।
जिला कमेटियों का गठन का काम भी कर लेना चाहिए। जिन संगठनों ने पहले से नौले-धारे और जलस्रोत पर काम किया है। उनको इस अभियान से जोड़ा जाएगा।
कार्याशाला में उपस्थित हुए टीएचडीसी के डायरेक्टर, राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के सदस्य व पूर्वमंत्री मोहन सिंह रावत गाँववासी, प्रमुख वन संरक्षक एआर सिन्हा, अतिरिक्त मुख्य वन संरक्षक एसटीएस लेप्चा, हिमोत्थान की प्रमुख मालविका, लोक विज्ञान संस्थान के डॉ. रवि चोपड़ा, दून विश्वविद्यालय के प्राकृतिक संसाधन विभाग के डॉ. सुमित थपलियाल, आईआईटी रुड़की के प्रो. सुमित सेन, हिमांशु कुलकर्णी, स्प्रिंग इनिशीएटिव के डॉ. सुनेश शर्मा, हिमालय सेवा संघ के मनोज पाण्डेय, हिमालयन हॉस्पिटल ट्रस्ट जॉलीग्रांट के नितेश कौशिक, टाटा ट्रस्ट के विनोद कोठारी, हंस फ़ाउंडेशन की पल्लवी, हिमकॉन के राकेश बहुगुणा, लोक विज्ञान संस्थान के अनिल गौतम, देवाशीष, हिमोत्थान के अमित उपमन्यु, इसिमोड नेपाल से नवराज प्रधान, आदि प्रमुख लोगों ने कार्यशाला में अपने विचार व्यक्त किये।
1. ‘स्प्रिंग इनिशीएटिव’ यह एक ऐसा मंच है जहाँ सामाजिक संगठन और सरकार मिलकर नौलों-धारों के सुधार पर काम करते हैं।
2. प्राकृतिक जलस्रोतों, नौलों-धारों के संरक्षण के ऐतिहासिक साक्ष्य आज भी ताम्रपत्रों पर मिलते हैं। जल-संरक्षण की ऐतिहासिक परम्पराओं को बचाना होगा और नौलों-धारों को संरक्षित करना होगा। ताकि खेती बेहतर हो सके और पेयजल सुनिश्चित हो सके।
3. कार्यशाला में यह सहमति बनी कि भविष्य में हिमोत्थान, अर्घ्यम, टाटा ट्रस्ट संयुक्त रूप से सरकार द्वारा चलाए जा रहे जल संरक्षण के कार्यक्रम विशेषकर धारा के पुनर्जीवन में सहभागिता निभाएँगे और इस कार्यक्रम में ग्राम-पंचायत को मुख्य रूप से जोड़ने का प्रयास करेंगे। सिक्किम की तर्ज पर धारा प्रबन्धन कार्यक्रम राज्य में चलाए जाएँगे। राज्य के प्राकृतिक जलस्रोतों को जलनीति का हिस्सा बनाने का प्रयास सरकार के साथ मिलकर करेंगे।
4. परम्परा के अनुसार उत्तराखण्डी समाज नदियों और पानी के संरक्षण को सेवा मानकर करता रहा है। उत्तराखण्डी समाज के नदियों और पानी के संरक्षण की सेवा को ‘ईको सर्विस’ का दर्जा मिलना चाहिए। स्प्रिंग इनिशीएटिव के सहयोगी माँग कर रहे हैं कि राज्य को पानी संरक्षण के काम के लिये ‘वाटर बोनस’ के रूप में केन्द्रीय प्रोत्साहन-राशि मिलनी चाहिए।
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