दुनिया में ज्यादातर नदियां अपने तटवर्ती इलाकों के लिए जीवनदायिनी रही हैं। सभ्यताओं का विकास में नदियों का भोग बन रहा है। यह किसी से छुपा नहीं है, लेकिन विकास की अंधी दौड़ में आज नदियों का अस्तिव्त खतरे में है। मध्यप्रदेश से निकलकर के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में खजुराहों और बांदा से होकर चिल्ला तक बहने वाली केन नदी आज संकट में है।
ऐतिहासिक भूरागढ़ किला दूर से ही दिखने लगता है और नीचे बहती केन नदी, पुल से दिखाई पड़ती है। वामदेवेश्वर पर्वत और पहाड़ के दोनों तरफ घनी बस्ती यह थी, बांदा की पहली पहचान। केन पुल के नीचे खूब भरी-भरी, चैड़ी केन नदी, जो कभी कर्णावती थी, जो रेल के पुल, फिर पुल के पार श्मशान और आगे वाले मोड़ तक मुश्किल से डेढ़ किलोमीटर का फासला, लेकिन इतने में ही केन की कितनी मुद्राएं। धोबी घाट, घुटरून पानी तेजी से दौड़ता, नीचे-नीचे दौड़ते रेत के कण, हम खुली आंखो में छींटे मारने का खेल खेला करते थे। इतना साफ पानी किसी नदी में देखने को नहीं मिला। आज उसी केन नदी पर खाकी का पहरा है। दूर से दूरबीन के सहारे उसी कल-कल बहते पानी की रखवाली हो रही है जहां पहले हम स्वछन्द खेलते कूदते थे।
दुनिया में ज्यादातर नदियां अपने तटवर्ती इलाकों के लिए जीवनदायिनी रही हैं। सभ्यताओं के विकास में नदियों का भोग बन रहा है। यह किसी से छुपा नहीं है, लेकिन विकास की अंधी दौड़ में आज नदियों का अस्तित्व खतरे में है। मध्यप्रदेश से निकलकर बुन्देलखंड क्षेत्र में खजुराहों और बांदा से होकर चिल्ला तक बहने वाली केन नदी आज संकट में है। खनिज विभाग और बालू माफिया मिलकर नदियों का लाल सोना (बालू) लूट रहे हैं। भारी-भरकम पोकलैंड मशीनें नदी का सीना चीरकर बालू निकाल रही हैं, जिससे एक-एक ट्रक में एक-एक टैंकर पानी जा रहा है। मिट्टी तक बालू खनन करने से पानी का ठहराव कम होता जा रहा है, जिससे जलस्तर नीचे जा रहा है और केन नदी सूख रही है। हालत यह है कि जो केन नदी पूरे शहर को बिना किसी दिक्कत के पानी पिला रही थी आज उसी के पानी में जीवन पाने वाली मछलियों, अन्य जीव-जन्तुओं का जीवन खतरे में है। केन के तट में बसे आधा सैंकड़ा गांव ऐसे हैं जिनके जीने का सहारा बन गई थी केन, लेकिन आज सब कुछ बदल सा गया है। दिन-रात बालू खनन से बुन्देलखंड के जनपद बांदा की जीवन रेखा बन चुकी केन की धारा सूख रही है। कई स्थानों पर केन का पानी रोक लेने से यहां जलापूर्ति पर खासा असर पड़ा है। पानी न मिलने से लोगों को शासन प्रशासन के खिलाफ सड़कों पर उतरना पड़ा है। प्रशासन को जो कदम पहले उठाने चाहिए थे, वे उठाये नहीं। अब जब आन्दोलन होने लगे तो पानी की पहरेदारी शुरू हो गई।
केन नदी को अकाल मौत से बचाने के लिए सामाजिक संगठन, किसान, पत्रकार भी सक्रिय होते नजर आ रहे हैं। केन को बचाने के लिए किसान भी आन्दोलन कर चुके हैं। कुछ संगठन सोशल मीडिया के माध्यम से भी केन को बचाने के लिए जागरूकता पैदा कर रहे हैं। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, शासन व प्रशासन को जगाने के लिए आन्दोलन होने चाहिए ताकि केन नदी में अंधाधुन्ध बालू खनन बन्द हो अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब सरस्वती की तरह केन भी बांदा की धरती से लुप्त हो जाएगी और हम आने वाली पीढ़ियों की प्यास तक नहीं बुझा पाएंगें।
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