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गांवों या शहरों के रुतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के इरादे से बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं, पहले इनके बांध तोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है- न भरेगा पानी, और न रह जाएगा तालाब। गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है, तो शहरों में कॉलोनी बनाने वाले भू-माफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं। यह लगभग सभी जगहों पर हो रहा है।
जेठ का महीना अभी नहीं आया, लेकिन अब तो देश के 32 प्रतिशत हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गर्मी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता, बारहों महीने, तीसों दिन यहां जेठ ही रहता है। सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की 11 प्रतिशत आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है। दूसरी तरफ, यदि कुछ दशक पहले के दिनों को पलटकर देखें, तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत व गले, दोनों के लिए काफी पानी जुटा लेते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप गाड़े जाने लगे, जब तक संभलते, तब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था।
समाज को एक बार फिर पुराने जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है - तालाब, कुंए, बावड़ी लेकिन पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए हैं और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। अभी एक सदी पहले तक तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते थे, इसके एवज में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता। प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था, जो तालाब के जल का इस्तेमाल करता था।
यह सामाजिक व्यवस्था अब टूट गई है। हकीकत में तालाबों की सफाई और उन्हें गहरे करने का काम अधिक खर्चीला काम नहीं है, न ही इसके लिए भारी-भरकम मशीनों की जरूरत होती है। तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों व अन्य कचरों के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। किसानों को यदि इस खाद रूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए, तो वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। राजस्थान के झालावाड़ जिले में ‘खेतों में पालिश करने’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है।
गाद अगर खाद के रूप में इस्तेमाल होगी, तो किसानों को उर्वरक का सस्ता विकल्प मिल जाएगी और सरकार की सब्सिडी भी बच जाएगी। लेकिन हो यह रहा है कि गांवों या शहरों के रुतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के इरादे से बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं, पहले इनके बांध तोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है- न भरेगा पानी, और न रह जाएगा तालाब। गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है, तो शहरों में कॉलोनी बनाने वाले भू-माफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं। यह लगभग सभी जगहों पर हो रहा है। लोगों को परंपरागत तालाबों का महत्व समझाने से पहले जरूरत इन आर्थिक हितों को खत्म करने की है।
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