देश में भयंकर सूखे की मार झेल रहे 11 राज्यों के हालात की समीक्षा के बाद केन्द्र सरकार ने बुन्देलखण्ड के लोगों की सुध ली और मदद को हाथ बढ़ाते हुए और वहाँ पानी की आपूर्ति के लिये ‘वाटर एक्सप्रेस’ भेजी। उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार को इसमें भी सियासत नजर आई और उसने केन्द्र की मदद लेने से इनकार कर दिया। इसी के बाद सूखे पर सियासत का दौर शुरू हो गया। वाटर एक्सप्रेस झाँसी रेलवे स्टेशन पर खड़ी थी और उसी बीच झाँसी के डीएम ने यह कहकर सभी को चौंका दिया कि वाटर एक्सप्रेस के टैंकर खाली हैं। खेतों में पड़ी दरारें... फसलों के बर्बाद होने के बाद कर्ज की चिन्ता में डूबे किसानों के मुरझाए चेहरे, पानी न मिलने से प्यासे हलक और लू के थपेड़ों के बीच झुलसा देने वाली गर्मी में आठ-दस किलोमीटर दूर से पानी लाने की महिलाओं की जद्दोजहद। यह पीड़ा भरी हकीकत है सूखे की मार झेल रहे उत्तर प्रदेश के उस बुन्देलखण्ड इलाके की जहाँ पिछले महीनों में कई किसान आत्महत्या कर चुके हैं। चिन्ताजनक बात तो यह है कि इस इलाके के लोग जहाँ राहत पाने के लिये सरकार की ओर टकटकी लगाए हैं, वहीं राहत व बचाव कार्य को लेकर सियासत तेज हो गई है।
सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड में सूखे की स्थिति से निपटने के लिये क्या प्रयास हुए हैं? क्या वहाँ के हालात महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों जैसे ही हैं? क्या वहाँ राहत और बचाव के काम प्रदेश सरकार की देखरेख में ठीक से हो रहे हैं? क्या वहाँ केन्द्रीय मदद की जरूरत है?
क्या यह मदद पानी की सप्लाई के रूप में भी होनी चाहिए? ये ऐसे सवाल हैं जो केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच के सम्बन्धों की जमीनी हकीकत बयाँ करते हैं। देश के किसी भी हिस्से में यदि कोई प्राकृतिक या मानव-जनित आपदा आती है तो तुरन्त मदद और राहत के इन्तजाम करने के बजाय हमारी सरकार पहले यह सुनिश्चित करती हैं कि ऐसी मदद से उसे कितना राजनीतिक फायदा होने वाला है।
यदि प्रभावित राज्य में उसी पार्टी की सरकार हो, जो केन्द्र में भी सत्तारूढ़ हो तो तत्परता कुछ ज्यादा ही दिखाई देती है। और यदि केन्द्र व प्रभावित राज्य में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें हैं, तो यह मानकर चलना चाहिए कि इसमें राजनीति तो होनी है।
बता दें कि बुन्देलखण्ड भौगोलिक तौर पर भी सूखा और चट्टानी इलाका है, जहाँ सामान्य तौर पर वर्षा कम ही होती है। पिछले दो वर्षों में वहाँ बहुत कम वर्षा हुई, जिसके चलते यहाँ सूखे का संकट गहरा गया है। उत्तर प्रदेश में बुन्देलखण्ड के सात जिले-झाँसी, ललितपुर, महोबा, बांदा, चित्रकूट, जालौन और हमीरपुर हैं। इन सभी जिलों को अखिलेश यादव सरकार ने सूखाग्रस्त घोषित किया है।
कुछ हफ्ते पहले मुख्यमंत्री ने प्रभावित क्षेत्रों का दौरा भी किया और वहाँ खाद्य सामग्री बाँटने के आदेश दिये और राहत के तौर पर कई योजनाओं की घोषणा भी की। लेकिन जमीनी स्तर पर देखा जाये तो सरकार की राहत व उसकी घोषणाएँ समस्या की गम्भीरता को देखते हुए ‘ऊँट के मुँह में जीर’ ही साबित हो रही हैं।
गौर करने वाली बात यह है कि देश में भयंकर सूखे की मार झेल रहे 11 राज्यों के हालात की समीक्षा के बाद केन्द्र सरकार ने बुन्देलखण्ड के लोगों की सुध ली और मदद को हाथ बढ़ाते हुए और वहाँ पानी की आपूर्ति के लिये ‘वाटर एक्सप्रेस’ भेजी। उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार को इसमें भी सियासत नजर आई और उसने केन्द्र की मदद लेने से इनकार कर दिया। इसी के बाद सूखे पर सियासत का दौर शुरू हो गया। वाटर एक्सप्रेस झाँसी रेलवे स्टेशन पर खड़ी थी और उसी बीच झाँसी के डीएम ने यह कहकर सभी को चौंका दिया कि वाटर एक्सप्रेस के टैंकर खाली हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि हमारे यहाँ पानी का कोई संकट नहीं है और सभी की प्यास बुझ रही है। प्रदेश सरकार व प्रशासन के इस रुख पर केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती भी नहीं चूकीं। उन्होंने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को पत्र लिखकर ट्रेन से भेजे गए पानी को प्यासे लोगों तक पहुँचाने का अनुरोध किया, लेकिन बात नहीं बनी। इसके बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सूखे से निपटने के लिये प्रधानमंत्री मोदी से 10,600 करोड़ रुपए की माँग की। उन्होंने 07 मई को दिल्ली आकर पीएम से मुलाकात की और सूखे की स्थिति पर चर्चा की।
प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश को तत्काल सहायता के निर्देश दिये। इससे प्रधानमंत्री का रुख तो स्पष्ट हो गया, लेकिन सवाल यह है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को वाटर ट्रेन भेजने में सियासत क्यों नजर आई? यदि देखा जाये तो सूखा प्रभावित महाराष्ट्र में भाजपा और सहयोगी दल की सरकार है तो वहाँ की सरकार ने केन्द्र से मदद के लिये गुहार लगाई और केन्द्र ने जल्द ही पानी की ट्रेन लातूर भेज दी। इस कदम की प्रदेश सरकार ने सराहना भी की।
यह गौर करने वाली बात है कि बुन्देलखण्ड में जहाँ सूखे के हालात महाराष्ट्र से ज्यादा अलग नहीं हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार केन्द्र से पानी व अन्य राहत के बजाय केवल आर्थिक सहायता राशि की माँग कर रही है। सपा सरकार की इस नीति को सियासत के रूप में देखा जा रहा है।
वर्षों पहले बनी फिल्म ‘सूखा’ (1980) काफी लोकप्रिय हुई थी। फिल्म के अन्त में एक डायलॉग था कि इस देश में सूखे पर भी राजनीति होती है। यह डायलॉग मौजूदा हालात में प्रासंगिक हो गया है। इन 36 वर्षों में भी कुछ नहीं बदला...। यह कहावत कि ‘आग लगने पर कुएँ नहीं खोदे जाते’ हमारी सरकारों पर चरितार्थ होती है। सरकार को पहले से ही पता था कि बुन्देलखण्ड में दो वर्षों से कम बारिश हुई है और वहाँ हालात अच्छे नहीं हैं। आपदा से निपटने का समय तो निकल गया है।
अब अकाल जैसे हालात में बुन्देलखण्ड में कुछ लोगों को रोटी और पानी बँटवाने के अलावा सरकार कर भी क्या सकती है। चिन्ता यह करनी होगी कि वहाँ किसानों की मौतों और बड़ी संख्या में लोगों के पलायन को कैसे रोका जा सकता है। इन हालातों से सबक लेना होगा, क्योंकि यदि अगले साल फिर ऐसे हालात पैदा हुए तो फिर क्या करेंगे। ऐसे में सरकार को पूरी ईमानदारी से उन दस्तावेजों को खंगालना पड़ेगा, जिसमें पिछले तीस वर्षों में विशेषज्ञों और विद्वानों ने अपने सुझाव दिये हैं।
ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले बुन्देलखण्ड की हालत को समझने की कोशिश बिल्कुल ही नहीं हुई हो। कोशिशें हुई हैं, लेकिन ये जल प्रबन्धन की प्राचीन पद्धतियों को जानने और जटिल भौगोलिक परिस्थितियों को समझने तक ही सीमित रह गईं।
सत्तर के दशक में अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं की रुचि वाला बंगरा वाटरशेड अध्ययन हो या अस्सी के दशक में किया गया चन्देलकालीन जल विज्ञान का अध्ययन, किसी का भी फायदा सीधे-सीधे बुन्देलखण्ड को नहीं मिल पाया। कारण एक ही रहा कि यह इलाका काफी बड़ा है और ईमानदार राजनीतिक प्रयास नाकाफी रहे।
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Post By: RuralWater