‘‘मैं हर जगह गया
पंजाब गया, बंगाल गया, गया कर्नाटक
राजस्थन के मरुस्थल से,
शिमला की बर्फ से, कश्मीर के चिनारों तक
रहा मेरा एक ही अनुरोध
यूँ शिकारी कुत्तों सा ना न सूँघो
उसी मिट्टी से बनी है मेरी देह
लगी है जो तुम्हारे तलुओं में।’’
मोहन कुमार डहेरिया की एक लम्बी कविता की कुछ पंक्तियाँ ऐसा लगता है कि हर उस आम बुन्देलखण्डी के लिये लिखी गई हैं जो दीवाली के पहले से ही गाँव-के-गाँव पोटलियाँ, बच्चे ले लेकर महानगरों की ओर निकल गए हैं। इलाके के कई सैकड़ा गाँव ऐसे थे, जहाँ दीवाली की रात एक पटाखा नहीं बोला। आशंकाओं का अन्धेरा कार्तिक की अमावस पर भारी पड़ा।
देश के ठीक मध्य में स्थित बुन्देलखण्ड में लगातार तीसरे साल अवर्षा के कारण पैदा हुए हालात देश के विकास के चमकदार होर्डिंग्स के पीछे के हिस्से की बानगी हैं- बदसूरत, उपेक्षित, नाउम्मीद!
खजुराहो एशिया का एकमात्र ‘गाँव’ है, जहाँ बोईंग विमान उतरने की सुविधा है। यहाँ पाँच सितारा होटल हैं। यहाँ ज़मीन के दाम पचास लाख रुपए एकड़ पहुँच गए हैं। खजुराहो का जिला मुख्यालय मध्य प्रदेश का छतरपुर जिला है, जहाँ की बस्तियों में सारी रात हैण्डपम्प चलने की आवाजें आती हैं। नल सूख चुके हैं।
लोग इस उम्मीद में रात दो-तीन बजे हैण्डपम्प पर आते हैं कि कम भीड़ मिलेगी, लेकिन तब भी 20-25 डिब्बे-बाल्टी कतार में दिखते हैं। यह वे भी जानते हैं कि यह हैण्डपम्प अब ज्यादा दिन साथ नहीं देने वाले हैं। अभी गर्मी बहुत दूर है।
हल्की-हल्की ठंड ने दस्तक दे दी है। लेकिन कुओं की तलहटी दिखने लगी है। जो तालाब साल भर लबालब भरे रहते थे, कार्तिक का स्नान करने वालों को उसमें निराशा दिख रही है।
लोगों ने अपनी पोटलियाँ लेकर दिल्ली-पंजाब की राह पकड़ ली है। पेट की आग ऐसी है कि सुलगते जम्मू-कश्मीर जाने में भी कोई झिझक नहीं है।
मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के मुख्य हिस्से, सागर सम्भाग के पाँच जिलों- छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़, सागर, दमोह, से अभी तक कोई आठ लाख लोग अपने घर-गाँव छोड़कर भाग चुके हैं। उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड के जिलों - झाँसी, महोबा, हमीरपुर, बांदा, ललितपुर, चित्रकूट और जालौन के हालात भी ठीक ऐसे ही हैं।
कई लोग केवल इसलिये पलायन नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उनके पास बाहर जाने के लिये फूटी छदाम नहीं है या वे इतने बूढ़े हैं कि उन्हें कोई काम नहीं मिलेगा। उनके पास रह गए हैं उजड़े घर व कुछ मवेशी।
यह हर दूसरे साल की तस्वीर है बुन्देलखण्ड की। आँकड़ों में यहाँ सब कुछ है- कई अरब रुपए का बुन्देलखण्ड पैकेज, रोज़गार गारंटी योजना, हीरों की धरती, खजुराहो का पर्यटन, ग्रेनाइट की चिकनाहट; लेकिन नहीं है तो पानी, ना आँख का बचा और ना ही तालाब का। यह भी कहा गया कि यदि दिल्ली को बसाना है तो बुन्देलखण्ड को उजाड़ना होगा’।
जब लुटियन दिल्ली बन-सँवर रही थी, तभी से रेल भर-भर कर यहाँ के श्रमिक दिल्ली लाये गए और तभी से यह रीत शुरू हो गई है। ‘बुन्देलखण्ड पलायन की निरन्तरता’ वैसे तो एक रपट है, लेकिन असल में यह खुला चिट्ठा है सामाजिक बिखराव की ओर अग्रसर हो रहे प्यासे बुन्देलखण्ड का।
इसके प्राक्कथन में प्रकाशक ‘विकास संवाद’ के सचिन कुमार जैन लिखते हैं कि इस रिपोर्ट का असल मकसद पलायन के आँकड़े इकट्ठा करना नहीं है, बल्कि पलायन पर एक नज़रिया बनाना है। पलायन की गढ़ी गई परिभाषा पर जो भूलभुलैया बनाने की कोशिश की जाती रही है, उसे भी तोड़ना है।
इस रिपोर्ट के पहले हिस्से ‘बुन्देलखण्ड : पलायन का नया शिकार’ में बुन्देलखण्ड को आधार रखकर म.प्र. से पलायन, उसके कारणों, उसकी वापसी रेट आदि का सांख्यिकीय विश्लेषण किया गया है।
असल में यह महज अंकों की बाजीगरी नहीं है, यह समय, समाज और संस्कार के साथ बदलते या घर-गाँव छोड़ते लोगों की मनोदशा या मजबूरी की बानगी है।
लेखक भविष्य के शहरों के प्रति चेतावनी भी देते हैं कि यदि रोज़गार के लिये ऐसे ही पलायन होता रहा तो आने वाले दशक में भारत के शहर ‘अरबन स्लम’ बनकर रह जाएँगे।
दूसरे अध्याय ‘गौरवशाली अतीत की झलक’ में आज की चर्चित फिल्म बाजीराव मस्तानी से सम्बन्धित तथ्य भी हैं और 1857 की लड़ाई में फाँसी की सजा पाये देशपत बुन्देला की कहानी भी।
यह गुप्त काल से बुन्देलखण्ड के समृद्ध अतीत पर प्रकाश डालते हुए बताता है कि किस तरह खेती, पर्यटन, खनन और कुटीर उद्योग यहाँ की अधिकांश आबादी के जीवकोपार्जन का जरिया रहे हैं व समय के साथ उन सभी पर अकाल की छाया पड़ी।
कहीं बाजार ग़ायब हुआ तो कहीं आधुनिक तकनीक परम्पराओ को खा गई, अल्प वर्षा व पारम्परिक जल साधनों के ज़मीन होने का असर तो पड़ा ही।
अगले अध्याय ‘पलायन करता बुन्देलखण्ड’ में पदो जिलों- छतरपुर व टीकमगढ़ के सन 2011 की जनगणना के आँकड़ों के आधार पर यहाँ पोषण, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा की जर्जर हालात की जानकारी दी गई है। इस अध्याय में इलाके की दुखती रग को भी छुआ गया है - सामन्तवाद।
दिल्ली में बुन्देलखण्ड का मज़दूर ‘गारा-गुम्म’ का काम करता है तो उसकी घरवाली कोठियों में झाड़ू-पोंछा और कहीं-कहीं खाना बनाने का काम भी। यहाँ उनकी जात बिरादरी कोई नहीं पूछता। जबकि बुन्देलखण्ड के गाँवों में आज भी सामन्तों द्वारा बेगारी करवाना, जात के आधार पर चप्प्ल ना पहनने देना जैसी कुरीतियाँ हैं।
ग़ौरतलब है कि इस इलाके में सामन्तवाद किसी एक वर्ण की बपौती नहीं है, ठाकुर, बामन तो हैं ही, कई जगह अहीर, कुर्मी और कहीं तो चमार भी।
‘मानसून के पहले का बुन्देलखण्ड’ अध्याय में बताया गया है कि किस तरह यहाँ जलवायु परिवर्तन का असर हुआ और जेठ बरसते नहीं हैं। किसान आखिरी पल तक बारिश का इन्तजार करता है, बरस गए तो बीज बो दिये, वरना पोटली सिर पर रखी व दूर देश मजूरी की तलाश में निकल गए।
इस अध्याय में यह भी स्पष्ट होता है कि सवर्ण बाहुल्य गाँवों में पलायन बहुत कम होता है। इसमें बताया गया है कि किस तरह 22 लोगों के परिवार को रु. 723 की सूखा राहत देकर सरकार राहत के आँकड़े प्रचारित करती है।
बाँस की टोकरी बनाने वाले बसोरों को प्लास्टिक की टोकरी ने बेरोजगार कर दिया और वे अब दिल्ली में रिक्शा चलाते हैं तो दबंगों द्वारा पुश्तैनी तालाब पर कब्ज़ा करने से उसकी मछली-कमलगट्टा के सहारे पेट पालने वाले अब पंजाब में खेत कटाई कर रहे हैं।
ऐसे गाँवों की संख्या भी हर साल बढ़ रही है जहाँ की ज़मीन व पानी खदानों के कारण मटियामेट हुई हैं। बुन्देलखण्ड की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों को वहाँ दूरस्थ अंचल तक जाये बगैर समझना असम्भव है। इस अध्याय में कई सुझाव भी हैं लेकिन वे सभी स्थानीय व माइक्रो लेबल के हैं जबकि सरकारों की अरबों वाली योजनाएँ बड़े सपने व बड़े बजट पर आधारित होती है।
‘मानसून के बाद पलायन’ की कहानी बेहद दिलचस्प है। असल में गाँव के सामन्त खुद चाहते हैं कि छोटी जात के लोग कमाने दिल्ली पंजाब जाएँ। क्योंकि वे जब लौटते हैं तो कुछ शहरी हो जाते हैं व उनकी जेब में नोट भी होते हैं। ऐसे में उनको पुटिया कर या धमका कर शराब पीना या जुआ खेलना आसान हो जाता है।
कुछ को ये अपनी ज़मीन बेच देते हैं और उसके बाद भी अपना कब्ज़ा बनाए रखते हैं। कागज़ में ज़मीन अहिरवार की होती है, लेकिन उसकी असल औकात मज़दूर की ही रहती है।
कुल मिलाकर देखें तो गरीबी, अशिक्षा व जागरुकता का अभाव यहाँ की त्रासदी है तो उसमें सरकारी व जातिगत सामन्तवाद उत्प्रेरक का काम करता है। हर एक चाहता है कि बुन्देलखण्डी पलायन करते रहें ताकि वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों व सरकारी योजनाओं का ज्यादा-से-ज्यादा हिस्सा उन्हें मिलता रहे।
कभी शौर्य और बलिदान के लिये पहचाने जाते बुन्देलखण्ड से लोगों का पलायन, वहाँ के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिये तो स्वयं ही समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनज़र परियोजनाएँ तैयार की जाएँ।
विशेषकर यहाँ के पारम्परिक जलस्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाये। यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाये तो बुन्देलखण्ड का गला कभी रीता नहीं रहेगा।
बुन्देलखण्ड पलायन की निरन्तरता
लेखक : चिन्मय मिश्र
प्रकाशक - विकास संवाद ई-7/226 प्रथम तल अरेरा कालोनी, शाहपुरा, भोपाल, 462016
पृष्ठ 92, मूल्यः उल्लेख नहीं
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