बात बहुत पुरानी नहीं हैं, कोई दो साल पहले की ही तो है। केन्द्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली सप्रंग सरकार हुआ करती थी और प्राकृतिक आपदाओं के मामले में भी कुछ राज्यों खासतौर से भाजपा शासित राज्यों को केन्द्र की कांग्रेस सरकार के आगे सहायता के लिये कई-कई बार गुहार लगानी पड़ती थी।
लेकिन सूखे के मामले में कांग्रेस शासित कर्नाटक राज्य ने जैसे ही केन्द्र की मोदी सरकार को सूचित किया और सहायता माँगी तो केन्द्र सरकार ने भी सहायता देने में देर नहीं लगाई। इसकी एक वजह यह भी है क्योंकि केन्द्र में इस समय नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हैं, जो गुजरात में कई साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं।
उन्हें प्राकृतिक आपदा के समय राज्यों की जरूरत और दर्द का अहसास भी है और अनुभव भी। लिहाजा सूखे के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर केन्द्रीय किसान एवं कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह तक राज्यों को मदद देने के मामले में केन्द्र की ओर से कोई कसर बाकी रखना नहीं चाहते। ताकि राज्यों को यह कहने का मौका न मिले कि केन्द्र ने कुछ नहीं किया।
असल में तो मोदी सरकार की अगुवाई में केन्द्र सरकार को यह बदली हुई कार्यशैली का ही एक उदाहरण है कि केन्द्रीय किसान एवं कल्याण मंत्रालय राज्यों से बार-बार सूखे के सम्बन्ध में रपट माँग रहा है। और साथ ही केन्द्रीय योजनाओं से मदद लेने की अपनी तरफ से आगे बढ़कर पेशकश भी कर रहा है।
पर कई राज्यों ने सूखे का आकलन करने और केन्द्र को रपट भेजने में जो सुस्ती दिखाई, उसका असल ख़ामियाज़ा किसानों को उठाना पड़ रहा है। बिहार, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, झारखण्ड ऐसे राज्य हैं, जहाँ सूखे का संकट है लेकिन इसके बावजूद इन राज्यों ने सूखे के सम्बन्ध में केन्द्र को सूचित करने में फुर्ती नहीं दिखाई। जबकि कांग्रेस शासित कर्नाटक सरकार ने अपने राज्य में सूखे के सम्बन्ध में सबसे पहले केन्द्र सरकार को सूचित किया और केन्द्र सरकार ने भी कर्नाटक को पन्द्रह सौ चालीस करोड़ रुपए की सहायता राशि जारी कर दी।
छत्तीसगढ़ के लिये 1367 करोड़ की राशि की अनुशंसा कृषि मंत्रालय द्वारा की जा चुकी है। उत्तर प्रदेश और ओडिशा में भी स्थिति का जायजा लेने केन्द्रीय टीम भेज दी गई हैं। वहीं केन्द्र की टीमें महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में सूखे का आकलन कर राज्य की रपट तैयार करने में जुटी हैं।
बिहार, झारखण्ड और तेलंगाना राज्यों से भी सूखे के सम्बन्ध में रपट भेजने को कहा गया है। दरअसल सरकार उस इलाके को सूखाग्रस्त मानती है, जहाँ वर्षा सामान्य से 20 प्रतिशत कम होती है। जिन इलाकों में बारिश का आँकड़ा सामान्य से 50 प्रतिशत या उससे भी कम होता है तो उसे भीषण सूखे की श्रेणी में रखा जाता है।
इस आधार पर देश के 614 में से 302 जिले सूखे की चपेट में हैं। केन्द्रीय मौसम विभाग की घोषणा के आधार पर 18 राज्यों पर सूखे का संकट मँडरा रहा है। आन्ध्र प्रदेश के 13 में से सात जिले, मध्य प्रदेश के 51 में से 41 और महाराष्ट्र के 35 में से 20 जिले सूखे की चपेट में हैं।
ओडिशा और छत्तीसगढ़ ने भी सूखे के सम्बन्ध में केन्द्र को सूचित किया है और केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने अपनी टीम समीक्षा के लिये राज्य में भेज दी हैं। सूखे की स्थिति पर एक तरफ स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह नजर रखे हुए हैं। वहीं बिहार, उत्तर प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों की सूखे के सम्बन्ध में उदासीनता चिन्ता में डालने वाली है।
सबसे बदतर स्थिति उत्तर प्रदेश की है, जहाँ पहले किसानों ने बेमौसम बारिश की मार झेली और अब सूखे से बर्बादी का सामना कर रहे हैं। कारण देश में सबसे ज्यादा सूखा इस बार उत्तर प्रदेश में पड़ा है। भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक राज्य के 31 जिलों में 50 फीसद से भी कम बारिश हुई है। पश्चिमी उ.प्र. हो या पूर्वी उ.प्र. सूखे की मार चारों ओर है।
किसानों का कहना है कि न तो नहर में पानी है और न ही पिछले साल की खराब हुई फसल का सरकार ने कोई मुआवजा दिया है। बेशक प्रकृति पर किसी का जोर नहीं है और सूखा एक प्राकृतिक आपदा है। लेकिन उत्तर प्रदेश की सरकार सोती रही और जब आँख खुली तो देर हो चुकी है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कहते हैं कि राज्य सरकार ने सूखे से निपटने के लिये पूरे इन्तज़ाम किये हैं। सरकार ने अपने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में राज्य के 50 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने आदेश में राज्य के कुल 75 जिलों में से 50 को सूखाग्रस्त घोषित करते हुए इन जिलों में राजस्व वसूली तत्काल प्रभाव से रोकने के आदेश दिये हैं।
पिछले 4 साल में उत्तर प्रदेश में बारिश की मात्रा लगातार कम हुई है। लेकिन हालात को अगर सरकार ने पहले ही गम्भीरता से लिया होता तो शायद तस्वीरें इतनी भयावह नहीं होतीं। इस साल मानसून के शुरुआत में बारिश अच्छी हुई, तो किसानों ने धान की खेती कर दी, लेकिन अन्त बेहद खराब और साथ में तकलीफदेह।
बारिश नहीं तो नहरें भी लगभग सूखी हैं और बिजली आती नहीं लिहाजा किसान महंगे डीजल से सिंचाई करने को मजबूर हैं। पिछली बार बेमौसम ओलों ने फसलें खराब की थीं और इस साल सूखे ने फसल को सुखा दिया है। किसानों के लिये अपनी जीविका चलाना काफी कठिन होता जा रहा है। किसान परेशान हैं और सूबे की सरकार सिर्फ वादें कर रही है।
उधर महाराष्ट्र के कृषि मंत्री एकनाथ खड़से ने भी माना है कि राज्य के 14,708 गाँव सूखे की स्थिति का सामना कर रहे हैं, जहाँ फसलों का मूल्य 50 फीसद से भी कम है। बकौल खड़से, ‘इस साल मॉनसून 189 तालुकों में 75 फीसद से भी कम रहा, जबकि 14,708 गाँवों में मूल्य 50 फीसद से कम है। 14,708 गाँवों में से ज्यादातर गाँव (8,522) औरंगाबाद सम्भाग के तहत आते हैं। इन गाँवों में सूखे की स्थिति घोषित की गई है।’
असल में देश में सूखा लगभग एक स्थायी घटना का रूप लेता जा रहा है। हर साल गर्मियों में देश के कई राज्य किसी-न-किसी सीमा तक सूखे की समस्या से जूझते दिखते हैं। खेती के खस्ताहाल, कर्ज के बोझ और गरीबी, भुखमरी, कुपोषण से पहले से ही बेहाल गाँवों के खेतिहर मज़दूर, गरीब और छोटे किसानों के लिये सूखे ने परिस्थितियाँ असहनीय बना दी हैं।
सच तो यह है कि देश में सूखे की आज जो स्थिति नजर आती है वह कोई अचानक नहीं पैदा हुई है। यदि देश में सूखे और अकाल के इतिहास पर नजर डाली जाये तो पता चलता है कि पिछले लम्बे समय से सूखे की समस्या देश के लिये स्थायी समस्या बनती जा रही है। मसलन 1877, 1899, 1918, 1972, 1987 और 2002 देश में सूखे के सबसे बदतर साल रहे हैं।
वास्तव में, देश में लगभग हर तीसरे साल सूखे जैसी स्थिति बनती है। 19वीं शताब्दी में अकाल और सूखे की संख्या जहाँ 38 थी, वह 20वीं शताब्दी में बढ़कर 60 हो गई और भौगोलिक रूप से इसका क्षेत्रफल भी विस्तृत होता गया। आज देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 16 प्रतिशत हिस्सा सूखा या कम बारिश वाला है।
देश की कुल खेती योग्य भूमि का 68 प्रतिशत किसी-न-किसी सीमा तक सूखे से प्रभावित है। लेकिन सूखे की इस स्थिति के लिये सिर्फ बारिश की कमी या मानसून की अनियमितता ही जिम्मेदार नहीं है।
असल में जो देश के विभिन्न भागों में मानसून के दौरान जितना पानी बरसता है, अगर उसका व्यवस्थित रूप से संचय किया जाता, सिंचाई के लिये नहरों की उचित व्यवस्था की जाती, भूजल के संरक्षण के लिये कारगर कदम उठाए जाते, मुनाफे के लिये होने वाले इसके अन्धाधुन्ध उपयोग पर नियंत्रण लगाया गया होता और पूरे देश के स्तर पर कृषि के विकास की एक योजनाबद्ध नीति अपनाने के साथ जल संचयन की आधुनिकतम तकनीकों का इस्तेमाल किया गया होता तो सूखे के कुप्रभावों से बचा जा सकता था।
फिर भी आपदाओं को देखते हुए मोदी सरकार किसानों के कल्याण के लिये कई अहम फैसलों का एलान पहले ही कर चुकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी साल अप्रैल में खराब फसल के मुआवज़े की रकम 50 फीसद बढ़ा दी थी।
साथ ही मोदी सरकार के एजेंडे में प्रधानमंत्री सिंचाई योजना भी प्राथमिकता में है। लेकिन असल बात यह कि जब तक राज्य सरकारें जमीनी स्तर पर तैयारी नहीं करेंगी तक तक केन्द्र की योजनाएँ भी कारगर ढंग से क्रियान्वित नहीं हो पाएँगी।
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