भारत में जब भी जल संकट की बात होती है, तो उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड़ का जिक्र जरूर होता है। यहां पाताल में जाता भूजल, मुंह चिढ़ाते सूखे कुएं-तालाब और दम तोड़ती नदियों के कारण बुंदेलखंड़ में किसान होना अभिशाप हो गया है। पानी की कमी के चलते किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है। पानी का संकट, खेती में नुकसान और रोजगार का अभाव युवाओं को पलायन के लिए मजबूर करने लगा था। ऐसे में निराशा भरे जीवन में सर्वोदय कार्यकर्ता उमाशंकर पांडेय उम्मीद और उज्जवल भविष्य की नई किरण बने। विनोबा भावे के ‘भूदान आंदोलन’ की तरह ही उमाशंकर के प्रयासों से ‘खेत पर मेड़, मेड़ पर पेड़’ जन-अभियान बना। परिणामतः जखनी गांव भारत का पहला जलग्राम बना। पलायन 99 प्रतिशत तक रुक गया। गर्मियों में बुंदेलखंड़ पानी के लिए तरसता है, लेकिन जखनी गांव में पानी की कोई कमी नहीं रहती। अपने इस अतुलनीय कार्य के लिए केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय द्वारा उमाशंकर पांडेय को वर्ष 2020 में राष्ट्रीय जल योद्धा पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
उमाशंकर पांडेय के दादाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और विनोबा भावे के ‘भूदान आंदोलन’ से भी जुड़े रहे। भूदान आंदोलन से जुड़कर उन्होंने पूरे भारतवर्ष की यात्रा की थी। उनके पिता किसान थे और बचपन में ही सर्वोदय की भावना को उन्होंने अपने भीतर आत्मसात कर लिया था। सर्वोदय और समाजसेवा के संस्कार उमाशंकर को अपने परिवार से विरासत में ही मिले थे। परिवार के इन्हीं संस्कारों को जीवन में आगे बढ़ने का मंत्र बनाकर वे सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे।
बीस साल पहले जब मां से मिलने अपने गांव जखनी आए तो गांव के हालात देखकर वे हैरान रह गए। गांव के हर एक घर से रोजी-रोटी की तलाश में नौजवान पलायन कर चुके थे। गांव में केवल बूढ़े माता-पिता और छोटे बच्चे ही बचे थे। विकास की मुख्यधारा से गांव कोसो दूर था। पानी की किल्लत और बेरोजगारी के साथ-साथ गांव में शिक्षा, सड़क और बिजली जैसी सुविधाओं का भी अभाव था। तभी उनकी मां ने कहा, ‘बेटा दूसरो के लिए बहुत काम कर लिया। अब अपने गांव के लिए काम करो। गांव में रहो और गांव को खुशहाल बनाओ। सबसे पहले यहां के नौजवानों को वापस लेकर आओ।’ उन्होंने मां से पूछा कि ऐसा कैसे होगा ? नौजवानों को वापस कैसे ला सकते हैं ? मां ने कहा, ‘हसिया पर धार लगाना कोई किसी को नहीं सिखाता।’ मां की इन बातों के बाद उमाशंकर गांव में ही रहने लगे। वे गांव के लोगों से बात करते थे। त्योहारों के दौरान घर लौटने वाले नौजवानों के साथ बैठकर भी वे वार्ता करते थे।
लोगों और नौजवानों से वार्ता का उद्देश्य उनकी समस्याओं को जानना तथा समाधान के लिए कार्य करना था। पलायन रोकने हेतु नौजवानों के लिए गांव में और गांव के आसपास रोजगार के अवसर पैदा करने थे। समाधान की तरफ कार्य करते हुए सबसे पहले उन्होंने अपनी जान-पहचान का इस्तेमाल कर युवाओं की नौकरी गांव के आसपास लगवानी शुरू की। युवाओं को गांव के आसपास रोकने का ये क्रम 2004 तक चलता रहा, लेकिन उमाशंकर के जीवन में सबसे बड़ा बदलाव और गांव के समाधान का रास्ता उन्हें 2005 में दिल्ली के विज्ञान भवन में मिला।
दरअसल, 2005 में दिल्ली विज्ञान भवन में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। उमाशंकर पांडेय को भी यहां जाने का मौका मिला। यहां तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम के भाषण ने उन्हें एक नई दिशा दी। डाॅ. कलाम ने कहा था कि ‘पानी ही हमारे जीवन का मूल और विकास है, इसलिए भारत के हर गांव को हमें जल ग्राम बनाने पर जोर देना चाहिए।’ साथ ही निर्मला देशपांडे, वंदना शिवा और अनुपम मिश्र सहित विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं के भाषण ने उमाशंकर को प्रेरित किया। सभी ने भारत के जल संकट पर चिंता व्यक्त की और समाधान का रास्ता सुझाया।
उमाशंकर पांडेय ने बताया कि ‘सभी वक्ताओं को ध्यान से सुनने के बाद मैंने मंच पर जाकर घोषणा कर दी कि मैं गांववालों के सहयोग से अपने जखनी गांव को ‘जलग्राम’ बनाऊंगा।’ इस घोषणा को धरातल पर सफल बनाने के लिए अनुपम मिश्र ने तकनीक देने का आश्वासन दिया। अनुपम मिश्र की ये तकनीक उनकी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ है, जो जल संरक्षण की पारंपरिक तकनीकों को खुद में समेटे हुए है।
तकनीक और घोषणा के बाद भी जलग्राम बनने का सपना काफी दूर था। चुनौती लोगों को एकजूट करने की थी, लेकिन ये काम उमाशंकर पांडेय ने बखूबी किया और ‘सर्वोदय आदर्श जलग्राम स्वराज अभियान समिति’ का गठन किया। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक हर उम्र के व्यक्ति को समिति से जोड़ा गया। योजनाबद्ध तरीके से सभी को कार्य सौंपे गए। समय-समय पर जन-जागरुकता अभियान चलाए गए। सभी से वार्ता कर तीन योजनाएं बनाई गई, जिसमें सबसे पहले घरों से निकलने वाले पानी का सही उपयोग करना था। यानी जल का पुनःउपयोग कैसे किया जाए। इसके लिए नहाने, बर्तन धोने और कपड़े धोने के बाद घरों से नाली में व्यर्थ बहने वाले पानी का सदुपयोग किया गया। इस पानी को खेती के उपयोग में लाया जाने लगा। खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए नालियां बनाई गई। इसके बाद कुएं, तालाब और नालों जैसी जल संरचनाओं को साफ किया गया।
उमाशंकर पांडेय ने बताया कि गांववालों के सहयोग से जखनी में 30 कुएं, 6 बड़े तालाबों और 2 नालों को साफ कर उनका जीर्णोंद्धार किया गया। बारिश की हर बूंद को सहेजने के लिए इन सभी कुएं, तालाब और नालों को आपस में जोड़ा गया, ताकि एक तालाब या कुआ भरने पर पानी दूसरे में स्वतः ही चला जाए। हमारी तीसरी योजना ‘खेत में मेड़, मेड़ पर पेड़’ थी।
मेड़बंदी भारत में जल संरक्षण का पारंपरिक तरीका है। सदियों से हमारे बुजुर्गों द्वारा खेती के लिए इस परंपरा को अपनाया जाता रहा है, लेकिन आधुनिक तकनीकों के आने से किसानों ने मेड़बंदी करना बंद कर दिया था। सिंचाई के लिए किसान भूजल, नदियों और नहरों पर अधिक निर्भर रहने लगे थे, लेकिन भूजल पाताल में जाने और नदियों के सूखने के कारण किसानों के लिए समस्या खड़ी हो गई थी। ऐसे में इसी परंपरा को वापस लौटाने का कार्य उमाशंकर पांडेय ने फिर से प्रारंभ किया। बारिश की हर बूंद को सहेजने के लिए किसानों ने अपने खेतों में मेड़बंदी (खेत में मेड़, मेड़ पर पेड़) करना शुरू किया। मेड़बंदी करने के बाद मेड़ों पर कम छाया वाले पेड़ (आंवला, बेल, सागोन, नींबू, शहजन और अमरूद आदि) लगाए गए।
उमाशंकर पांड़ेय ने बताया कि ये पेड़ इमारती लकड़ी, आयुर्वेदिक औषधियां और फल के साथ अतिरिक्त आय भी देते हैं। इनके पत्तों से जैविक खाद मिलती है। पर्यावरण शुद्ध बना रहता है। मेड़ के ऊपर हमारे पुरखे अरहर, मूंग, अलसी, सरसों, ज्वार, सन आदि फसलों की पैदावार किया करते थे। उन्होंने बताया कि मेड़बंदी से उसर भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है। इसलिए खेतों में बारिश के पानी को सहेजने के लिए 3 फीट चौड़ी और 3 फीट ऊंची मेड़ बनानी चाहिए।
उमाशंकर पांडेय की प्रेरणा और गांववालों के प्रयासोें से ही किसानों ने ‘खेत में मेड़, मेड़ पर पेड़’ अभियान को बखूबी अपनाया। इन प्रयासों का ही नतीजा रहा कि जहां 150 बीघे में सामान्य धान और 500 बीघे जमीन में साल में केवल एक बार ही फसल होती थी, वहां अब 2572 बीघे में बासमती धान पैदा होती है। 2019 में जखनी गांव में 20 हजार क्विंटल चावल की खेती हुई थी। जखनी में उगाई जाने वाले सब्जियां बांदा में प्रसिद्ध हैं। जखनी का परवल बांदा के बाहर भी मशहूर है। इसके अलावा गांव में गेंहू, आलू, दहरन हर फसल उगाई जाती है और यहां सारी खेती जैविक खाद से ही होती है।
छोटे से जखनी गांव के लगभग हर छोटे किसान के पास अब ट्रेक्टर है। वर्षा की हर बूंद को गांव संरक्षित कर रहा है। गर्मियों में जब पूरा बुंदेलखंड़ जल की भीषण किल्लत का सामना कर रहा होता है, तब भी जखनी के 'कुएं, तालाब और नाले' पानी से लबालब भरे रहते हैं। गांव के कुछ तालाबों में नाव भी चलती है। तालाब में अब मछली पालन भी किया जाने लगा है, जिसने रोजगार को और बढ़ावा दिया है। गांव व आसपास के इलाकों का जलस्तर भी बढ़ गया है। कई कुएं तो पानी से इतने भर गए हैं कि हाथ से ही पानी निकाला जा सकता है।
दरअसल, जखनी गांव में ज्यादा मात्रा में चावल उगाया जाता है। इसके पीछे का कारण बताते हुए उमाशंकर पांडेय ने बताया कि ‘धान के खेत को पानी चाहिए इसलिए धान बोने पर उस खेत में साल के करीब सात आठ महीने पानी भरा रहता है। जब इतने समय तक उस खेत में पानी रहेगा, तो नीचे की जमीन में नमी अपने आप बनी रहेगी।’
जखनी गांववासियों की मेहनत का ही नतीजा है कि 2012 में तत्कालीन जिला कलेक्टर ने जिले के 470 गांवों में जखनी माॅडल को अपनाने का आदेश दे दिया। साथ ही नीति आयोग ने जखनी को देश का पहला ‘जल-ग्राम’ घोषित किया है। इसके अलावा जखनी गांव को माॅडल बना देश के 1034 गांवों को जलग्राम बनाने की घोषणा की गई है। भारत के विभिन्न राज्यों में किसान अब मेड़बंदी भी करने लगे हैं। गांव की इस सफलता का श्रेय उमाशंकर पांडेय गांववासियों और जलग्राम समिति को देते हैं।
जखनी गांव की खासियत ये भी है कि गांव ने सफलता की इबारत बिना सरकारी सहायता के लिखी है। यानी जखनी गांव को पानीदार या समृद्ध बनाने के लिए सरकार से एक रुपये की भी मदद गांववासियों द्वारा नहीं ली गई। सभी कार्य गांववालों की जन-सहभागिता से ही किए गए हैं। अब गांव में स्कूल के साथ ही इंटरमीडिएट काॅलेज भी है। जल्द डिग्री काॅलेज खुलने की भी संभावना है। पक्की सड़के गांव तक पहुंच गई हैं। गांव में 7 महिला स्वयं सहायता समूह हैं, जो कृषि से लेकर हस्तशिल्प के सभी कार्य करती हैं। एक प्रकार से जखनी गांव आत्मनिर्भर है, जो दुनिया के लिए एक जीवंत प्रमाण और प्रेरणा है। गांव ने दुनिया को संदेश दिया कि ‘जल संरक्षण के लिए आधुनिक तकनीकों और करोड़ों रुपयों के बजट की जरूरत नहीं हैं। यदि दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ सेवा भाव से कार्य किया जाए तो पारंपरिक तकनीक के माध्यम से आसानी से किसी भी स्थान पर जल संरक्षित किया जा सकता है।’
उमाशंकर पांडेय कहते हैं, ‘पानी से ही समृद्धि हैै। पानी से ही सिद्धी है। पानी से ही साधना है। पानी बनाया नहीं केवल बचाया जा सकता है, वह भी केवल पारंपरिक तरीकों से, जैसा कि जखनी गांव के किसानों ने किया।
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