सूखे बुन्देलखंड में जल संस्कृति बचाने की साझी पहल

केन-बेतवा गठजोड़ यहाँ के समाज के साथ धोखा है, केन-बेतवा नदियों को जोड़ने के स्थान पर समाज को केन-बेतवा से जुड़ना शुभ होता। हमारी सरकारों व नेताओं को देर में समझ आया कि नदियों को जोड़ना अप्राकृतिक है। तत्काल केन-बेतवा गठजोड़ रद्द करें, तभी हमारी पूज्य नदियाँ पवित्र होंगी।

बुन्देलखंड की अस्मिता नदियों, तालाबों से जुड़ी है। हमारे पूर्वजों ने बड़ी मेहनत व लगन के साथ यहां के नदियों, तालाबों को बचाने के लिए जीवन समर्पित किया। लेकिन आज की आधुनिक सरकारें व आधुनिक समाज ने बुन्देलखंड की नदियों को सूखाने तथा तालाबों को मिटाने की इबारत लिख दी है।इसका उदाहरण बुन्देलखंड सूखा-अकाल किसानों, भूमिहीनों की आत्महत्या कुपोषण आदि है। जब तक यहां नदियाँ, तालाब स्वच्छ नीरा थीं। सूखा-अकाल पास भी फटकता नहीं था।

बुन्देलखंड की केन, बागै, मंदाकिनी सहित अन्य नदियाँ व समाज द्वारा निर्मित परम्परागत तालाबों का विनाश लगातार जारी है। पूरे बुन्देलखंड में पानी की भयंकर समस्या है। पिछले 8 वर्षों से सूखा-अकाल के कारण सैकड़ों किसानों ने आत्महत्या की है। युवाओं व मजदूरों का पलायन जारी है। बुन्देलखंड के प्रसिद्ध चन्देलकालीन तालाब अतिक्रमण के शिकार हैं। जो बचे हैं, उनमें जलकुम्भी व नालियों के गंदे पानी का स्थान बना है और दबंगों व सामंतशाहियों का कब्जा है। नदी, तालाबों से जुड़े समुदाय के लोग एक-एक रोटी को मोहताज हैं। वह दिन दूर नहीं, जब इस समुदाय के लोगों (यानि मछुवा समुदाय) का गाँवों से नामोनिशान मिट जायेगा। यहाँ की नदियाँ प्रदूषण व अतिक्रमण का शिकार हैं। मंदाकिनी तो सूख ही गयी है।

केन-बेतवा गठजोड़ यहाँ के समाज के साथ धोखा है, केन-बेतवा नदियों को जोड़ने के स्थान पर समाज को केन-बेतवा से जुड़ना शुभ होता। हमारी सरकारों व नेताओं को देर में समझ आया कि नदियों को जोड़ना अप्राकृतिक है। तत्काल केन-बेतवा गठजोड़ रद्द करें, तभी हमारी पूज्य नदियाँ पवित्र होंगी। बुन्देलखंड के सभी तालाब अतिक्रमण से घिरे हैं। तालाबों का अतिक्रमण हटाना होगा, तभी गाँवों का जीवन सुखमय होगा। समाज को पानी का हक मिले, तभी समाज जल संरक्षण की अपनी जिम्मेदारी समझेगा। जल संरक्षण करने वालों को ही जल उपयोग का हक दिलाना, जल शोषक को जल संरक्षण के प्रति देनदारी तथा समाज को पुनः जगाना चाहिये ताकि समाज नदियों व तालाबों को बचाने के लिये आगे आये।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2001 में सरकारों को परम्परागत जल स्रोतों व तालाबों को पुनर्जीवित एवं अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया था, लेकिन सरकारों ने केवल कागजी प्रक्रिया ही माना। प्रशासन ने माननीय उच्चतम न्यायालय में झूठे हलफनामा दायर कर तालाबों को अतिक्रमण मुक्त दिखाकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर ली, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। एक भी तालाब अतिक्रमण मुक्त नहीं हुआ। इन मुद्दों पर जनप्रतिनिधि चुप क्यों है, अगर बुन्देलखंड को सूखा-अकाल से मुक्ति दिलाना है तो यहाँ के स्थानीय तालाबों व नदियों को बचाना ही होगा तभी पानी का संकट दूर होगा तथा खनन-जंगल कटान को रोकना होगा।

बुन्देलखंड में जल संरक्षण की अनोखी परम्परा जीवित थी। गर्मियों के दिनों में गाँव के लोग मिलकर तालाबों की सफाई किया करते थे। वे इसलिए क्योंकि वर्षा के पानी को तालाबों में रोकने तथा बाढ़ से बचाने के लिए पूर्व तैयारी करते थे। सारे गांव के लोग मिलकर पुराने तालाबों व जल स्रोतों की सफाई व मरम्मत एवं नये तालाबों की खुदाई श्रमदान से किया करते थे। इसका ताजा उदाहरण है वर्ष 2005 से 2009 तक तेन्दुरा, बनई, शंकरपुरवा, अतर्रा नगर के गांव के लोगों ने श्रमदान द्वारा अपने तालाबों को संरक्षित व प्रदूषण मुक्त बनाया।

आजादी के बाद जब सरकारें बनीं, तो सरकारों ने वोट के लालच में सबको पानी पिलाने की जिम्मेदारी ली। समाज की परम्पराओं को दरकिनार करते हुए समाज को दूर किया। सब कुछ मुफ्त में देने की बात सरकारें करने लगीं। किन्तु किसी को भी कुछ नहीं मिला। नदियों, तालाबों के सहारे जीवन-यापन करने वाले भूमिहीन-गरीबों का अधिकार छीनकर दबंग-पूँजीपति, नौकरशाह नेताओं ने कब्जा कर लिया है। उसी का परिणाम हुआ कि समाज जल प्रबन्धन कार्य से दूर होता गया तथा हाथों में हाथ रखकर सरकार द्वारा सब कुछ पाने की इच्छा में बैठा रहा। नतीजा यह हुआ कि आज पूरे बुन्देलखंड में किसान एक-एक बूँद पानी को तरस रहा है। और किसान आत्महत्या कर रहे हैं। युवाओं व मजदूरों का पलायन निरन्तर जारी है।

आजादी से पहले बुन्देलखंड के गाँवों में पानी की समस्या नहीं थी, क्योंकि तालाब व नदियां सुरक्षित थीं। आजादी के बाद सरकारों ने आधुनिक विकास के नाम पर तालाबों व नदियों का विनाश किया है। सरकार ने बुन्देलखंड सूखा राहत मुक्ति हेतु करोड़ों रुपये देने की घोषणा की है और साथ ही सरकारी नलकूप लगाने की घोषणा की है। सरकारों की इन घोषणाओं से डार्कजोन बढ़ेगा और साथ ही पानी की परम्पराओं का विनाश होगा। पैसों से पानी नहीं बचेगा। सरकार को चाहिए समाज की भागीदारी बढ़ाने पर जोर दें। और स्वैच्छिक संस्थाओं को पानी के कार्य से जोड़ें।

इस वर्ष ‘कृषि एवं पर्यावरण विकास संस्थान’ व ‘जल बिरादरी’ ने मंदाकिनी व अतर्रा तहसील के तालाबों को अतिक्रमण मुक्त, प्रदूषण मुक्त बनाने तथा नदियों, तालाबों से सदियों से जुड़े अपने परिवारों का भरण-पोषण कर रहे समुदाय को अधिकार दिलाने की पहल शुरू कर रहा है।

पानीदार बनने की चाह रखने वाले जन इस वर्ष नदी, तालाब के संरक्षण कार्य में जुड़ें, सभी जगह जल बचाने तथा नदियों, तालाबों की सफाई में जुटे एवं नदियों व तालाबों को बर्बाद करने वाले तत्वों व जल के निजीकरण के खिलाफ आन्दोलन चलायें, जो पानी बचाने में जुटेगा उसे जलदान देने का पुण्य लाभ मिलेगा। जीवन चलाने की सभी जरुरतें पूरी कर सकेगा।

सरकारों को चाहिए कि जल संरक्षण पर जन-सहभागिता बढ़ाये और नदियों, तालाबों की सफाई व अतिक्रमण मुक्त बनायें तथा जल का हक समुदाय को दें। बुन्देलखंड की पृथक जल-नीति बने।

आओ हम सब नदियों, तालाबों व वर्षाजल बचाने की पहल बुन्देलखंड में शुरू करें। जल को साझा संसाधन मानें, जल-जीवन के आधार के साथ-साथ जीवन का मूलभूत हक भी है। इसे पाने हेतु अहिंसात्मक संघर्ष करना पड़े तो जल-कर्मी के साथ जल-योद्धा भी बनें। हम सब सूख रही नदियां, मिट रहे तालाब तथा स्थानीय समुदाय के छिन रहे अधिकार को बचाने का सामूहिक संकल्प लें।

सम्पर्क पता- निदेशक, कृषि एवं पर्यावरण विकास संस्थान, तेन्दुरा (बांदा) उत्तर प्रदेश – 210203, मो. 9450230830

लेखक-10 वर्षों से बुन्देलखंड की नदियों, तालाबों को बचाने के संघर्ष में लगे हैं


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