योजना आयोग के पूर्व सदस्य प्रो. सी.एच. हनुमंत राव की अध्यक्षता में एक चौदह सदस्यीय तकनीकी समिति अप्रैल, 1993 में बनाई गई थी जिसने वर्तमान सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम और मरु विकास कार्यक्रम की विस्तार से जाँच की।
समिति के विचारार्थ विषय निम्नलिखित थे:
1. इन कार्यक्रमों के लिये क्षेत्र के चुनाव के वर्तमान मापदंडों की समीक्षा और उसमें उपयुक्त संशोधन करना ताकि सूखे और मरुस्थलीकरण से वास्तव में प्रभावित क्षेत्रों को शामिल किया जा सके और जो वास्तव में प्रभावित नहीं हैं उन्हें कार्यक्रमों से हटाया जा सके।
2. मरु विकास कार्यक्रम और सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम की केन्द्र, राज्य, जिला और जल-संभरण स्तर पर प्रशासनिक संरचना, कार्यक्रम की सामग्री, नियोजन कार्यविधि तथा वित्त पोषण के पैमाने और तरीके की समीक्षा करना और जहाँ भी आवश्यक हो उचित संशोधन करना। दोनों कार्यक्रमों को सम्बंधित क्षेत्र विकास कार्यक्रमों, जैसे वर्षा वाले क्षेत्रों में राष्ट्रीय जल-संभरण विकास परियोजना, राष्ट्रीय पर्ती भूमि कार्यक्रम आदि के साथ समेकित करने की सम्भावनाओं की जाँच करना और इसके लिये उपयुक्त कार्यनीति की सिफारिश करना।
3. शुष्क भूमि की तथा कृषि में खास तौर पर फसल उगाने के तरीके और कार्मिक रुकावटों के लिये उपयुक्त तकनीकों की पहचान करना और उपलब्ध तकनीकों को सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम और मरु विकास कार्यक्रम को हस्तांतरित करने के लिये अनुसंधान और प्रक्रिया की दिशाओं का सुझाव देना।
4. जल संभरण समिति, पानी पंचायतों और गैर सरकारी संगठनों की भूमिका को बढ़ाने के उपाय सुझाना ताकि लोगों की भागीदारी को बढ़ाया जा सके और जन प्रतिनिधियों के खंडवार विभागों और धन के प्रति अधिक जिम्मेदारी को सुनिश्चित करना।
5. इन दोनों कार्यक्रमों के संसाधनों को अन्य क्षेत्रों, विकास तथा लाभार्थी मूलक कार्यक्रमों के साथ न सिर्फ एकीकृत करने बल्कि वर्तमान कार्यक्रम-धन के प्रवाह के विकल्प के रूप में न मानकर पूरक और अतिरिक्त कोष के रूप में भी उपयोग को सुनिश्चित करने के उपायों की जाँच।
सिफ़ारिशें
समिति ने अपनी रिपोर्ट 23 अप्रैल, 1994 को सरकार को सौंप दी थी। इस समिति की विस्तृत सिफारिशें इस प्रकार हैं-
- प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को निजी स्तर पर लाभकारी बनाना होगा, इसके लिये आवश्यक संरचनात्मक ढाँचा, तकनीकें और संस्थागत सहयोग देना चाहिए।
- लोगों की अपनी नीतियों और देसी तकनीकों पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए जिसमें स्थानीय संयंत्रों को भी शामिल किया जाए ताकि सूखे की विभीषिका को कम करने के लिये उन्हें कार्यक्रमों के साथ मिलाया जा सके।
- विकास के लिये शुरू किए गए न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रमों में प्रतिभाशाली व्यावसायिक और प्रशासनिक कार्मिकों की सेवाओं को आकर्षित करने और उन्हें बनाए रखने के लिये उपयुक्त संरचनात्मक एवं अन्य सुविधाओं का प्रावधान आवश्यक होगा।
- सूखा प्रवण और मरु क्षेत्रों में इन प्रसंस्करण इकाइयों और चर्मशोधनशालाओं की स्थापना से स्थानीय लोगों के लिये रोजगार और आमदनी बढ़ेगी और इस तरह घुमक्कड़ी और आव्रजन को कम किया जा सकेगा। जिसका पर्यावरण पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। शिल्प और अन्य आय अर्जक अवसरों के विकास का भी घुमक्कड़ी को कम करने में प्रभावी योगदान होगा। तकनीकी समिति ने दोहराया है कि अनुकूल प्रबंधन, जल-संभरण आधार पर पानी, वनस्पति और भूमि का विकास और उपयोग इन क्षेत्रों में उत्पादित मूल्य वर्धित माल के विपणन और प्रसंस्करण के सहायक अवसर पैदा करना इन क्षेत्रों के विकास कार्यक्रमों का सार होना चाहिए।
- जल-संभरण के लिये उपचार योजना में निजी, गाँव की सार्वजनिक, राजस्व और नष्ट हुई वन भूमियों सहित? सभी श्रेणियों की भूमियों को शामिल किया जाना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, चुने हुए जल-संभरण एक पूरे गाँव/बस्ती की पहुँच में होने चाहिए।
- तकनीकी समिति का विचार है कि जल-संभरण विकास कार्यक्रम को लाभार्थियों की पूरी भागीदारी के साथ कार्यान्वित किया जाना चाहिए।
- जल-संभरण के लिये उपचार योजना में निजी, गाँव की सार्वजनिक, राजस्व और नष्ट हुई वन भूमियों सहित सभी श्रेणियों की भूमियों को शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिये जल-संभरण विकास दल बनाए जा सकते हैं। दल की आमसभा में जल-संभरण क्षेत्र के सभी वयस्क सदस्य शामिल हैं जिनमें कम-से-कम पाँच महिलाएँ हों। इस दल में अनुसूचित जातियों/जनजातियों का प्रतिनिधित्व आम सभा में उनकी संख्या के अनुपात में होना चाहिए। दल की सहायता के लिये ग्राम स्तरीय विस्तार अधिकारी या कृषि/पशुपालन/वन/कृषि विकास क्षेत्र के कार्यकर्ता और अन्य व्यक्ति हों जो मैट्रिक तक शिक्षित हों और सूक्ष्म जल-संभार के लाभार्थियों द्वारा चुने गये गाँव के युवक हो सकते हैं।
किसी दिए गए वर्ष में 500 हेक्टेयर के सिर्फ एक सूक्ष्म जल-संभर को प्रबंध और विकास के लिये चुना जाएगा। जल संभरण कार्यकर्ताओं का कार्य इस वर्ष के समाप्त होने के छह माह पूर्व शुरू हो जाएगा, जिसमें उस जल-संभरण के विकास का कार्य हाथ में लिया गया है। पहले तीन महीनों के दौरान कार्यकर्ताओं को बहुविषयक प्रशिक्षण दिया जाए और अगले तीन माह के सर्वेक्षण और प्रचालन वर्ष के दौरान कार्यान्वित करने के लिये योजना बनाई जाए।
- जल-संभरण विकास के लिये धन निर्धारित किया जाएगा और पंचायतों के जरिये जल-संभरण विकास दल को जारी किया जाएगा इसका हिसाब-किताब पंचायत को देंगे।
- प्रत्येक जल-संभरण के लिये ब्लाॅक स्तर के क्षेत्र कार्यकर्ताओं की सेवाएँ उपलब्ध कराने की बात सोचना वित्तीय दृष्टिकोण से संभव नहीं है। इसलिए ऐसा किया जा सकता है कि कुछ जल-संभरणों के लिये ब्लाॅक स्तर के अधिकारियों का ऐसा बहुविषयक तकनीकी दल बनाया जाए और इसे केन्द्र में और आसानी से पहुँच वाली जगहों, जैसे तालुका या ब्लाॅक मुख्यालय में बैठाया जाए ताकि जल-संभरणों के समूह की जरूरतें पूरी हो सकें।
- सम्बंधित राज्यों की योजनाओं को अंतिम रूप देते समय योजना आयोग को उचित तंत्र के जरिए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सूखा प्रवण क्षेत्रों में राहत कार्यों को जल-संभरण विकास के जरिये मिट्टी और नमी को संरक्षित करने और स्थाई आधार पर अन्य आय अर्जक अवसर पैदा करने के लिये बनाई गई क्षेत्र विकास योजनाओं के साथ समेकित किया जाए जोकि एकमात्र तरीका होगा जो लम्बे समय तक सूखे के दुष्प्रभावों को कम कर सकेगा। इन कार्यक्रमों को बनाने और कार्यान्वित करने में स्वैच्छिक भागीदारी को बढ़ावा देने के लिये दृढ़ प्रयास और ठोस कदम उठाना जरूरी है। इसका अर्थ सिर्फ वर्तमान स्वैच्छिक संगठनों को शामिल करना नहीं बल्कि अनुकूल नीतियों और नौकरशाही की संवेदनशीलता के जरिए स्थानीय समूहों के बनने की परिस्थितियाँ पैदा करना है, जिनमें ऐसी जिम्मेदारियाँ लेने वाले समर्पित और प्रेरणा प्राप्त लोग शामिल हों। यह वांछनीय होगा कि ये कार्यक्रम कार्यान्वित करने के लिये अंततः 25 प्रतिशत जल-संभरण स्वैच्छिक संगठनों को सौंप देने के लक्ष्य की ओर बढ़ा जाए।
- सम्बंधित राज्य सरकारें सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम और मरु विकास कार्यक्रम के लिये स्वैच्छिक कार्यों को बढ़ावा देने के लिये राज्य स्तरीय समितियाँ गठित कर सकती हैं। राज्य का मुख्यमंत्री इस समिति का अध्यक्ष हो सकता है जिसमें मुख्य रूप से स्थापित स्वैच्छिक संगठनों के प्रतिनिधि और सम्बंधित शासकीय विभागों के वरिष्ठ अधिकारी होंगे।
- जिलाधीश की अध्यक्षता में मुख्यतः स्वैच्छिक संगठनों के प्रतिनिधियों वाली जिला स्तरीय समिति बनाई जा सकती है। इसके लिये जल-संभरण विकास परियोेेेजनाओं के नियोजन और कार्यान्वयन हेतु सक्षम स्वैच्छिक संगठनों की पहचान करनी होगी। कार्यक्रम के विभिन्न हिस्सों को पूर्वाग्रही नहीं होना चाहिए जैसे कि वे इस समय हैं। इस सम्बंध में पूर्ण लचीलापन होना चाहिए और कार्यक्रम के भागीदारों की वास्तविक इच्छा, जिनमें कार्यान्वयन करने वाली एजेंसियों और लाभार्थी भी शामिल हैं, द्वारा तैयार जल-संभरण योजनाओं से उभर कर सामने आनी चाहिए।
- राज्य सरकारों की यह नीति होनी चाहिए कि वे इन कार्यक्रमों के तहत बनाई गई संरचनाएं समुदाय को सौंप कर उन्हें इन संपत्तियों को बनाए रखने के लिये प्रेरित करें।
- जल-संभरण के सभी क्षेत्रों को शामिल करने के लिये कार्यक्रम के कार्यों पर सभी लाभार्थियों को सब्सिडी दी जानी चाहिए भले ही वे कितनी भी बड़ी जमीन के मालिक क्यों न हों।
- पर्ती भूमि को फिर से उत्पादन योग्य बनाने, भूमि के और विनाश को रोकने तथा समस्या के विस्तार के अत्यधिक महत्त्व को ध्यान में रखते हुए यह सलाह दी जा सकती है कि राज्यों को सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम की तरह ही परती भूमि विकास योजनाओं में भी योगदान करना चाहिए।
हमारे आकलन के अनुसार ग्रामीण विकास में एकीकृत दृष्टिकोण और सम्बंधित कार्यक्रमों के संयोजन से वित्त पोषण के वर्तमान स्तर पर प्रतिवर्ष कम-से-कम 1500 करोड़ रुपए की राशि जल-संभरण विकास के इस महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय कार्य के लिये उपलब्ध होगी।
- नियोजन और कार्यान्वयन के स्तर पर योजना/कार्यक्रमों का एकीकरण, धन का प्रावधान आदि जिला ग्रामीण विकास एजेंसी या राज्य सरकार, जैसे उपयुक्त स्वीकृति स्तरों पर होना चाहिए।
- समिति की सिफारिशों को अमल में लाने के लिये ग्रामीण विकास मंत्रालय को अपने विभिन्न खण्डों के बीच और अन्य सम्बंधित मंत्रालयों के साथ प्रभावी समन्वय के लिये आवश्यक कदम उठाने चाहिए। विभिन्न एजेंसियों के अंतर्गत चलाए जाने वाले कार्यक्रमों के बीच दृष्टिकोण की समानता लाने के लिये मंत्रालय को दिशा-निर्देश तैयार करने चाहिए और जल-संभरण विकास योजनाएँ तैयार करने के लिये प्रशिक्षण प्रारूप लागू करने चाहिए।
- ग्रामीण विकास मंत्रालय को इन कार्यक्रमों को अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में सहयोग प्राप्त करने के लिये अनुसंधान संस्थाओं को सहायता देनी चाहिए।
- चूँकि इस समिति की सिफारिशों के संदर्भ में परियोजनाओं को जल-संभरण आधार पर बनी विस्तृत योजनाओं के आधार पर ही स्वीकृति दी जाएगी, इसलिए समिति इस बात पर जोर देना चाहती है कि जल-संभरण विकास योजनाएं बनाने के लिये विभिन्न स्तरों पर प्रशिक्षण देना इन कार्यक्रमों के सफल कार्यान्वयन के लिये महत्त्वपूर्ण होगा। ग्रामीण विकास मंत्रालय को ऐसे प्रशिक्षणों के लिये उपयुक्त संस्थाओं को चुनाव करने, उन्हें धन उपलब्ध कराने, उनका प्रशिक्षण प्रारूप बनाने और उनकी निगरानी के क्षेत्रों में भूमिका निभानी होगी।
- हम सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम और मरू विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत वर्तमान ‘मरुस्थल’ और ‘सूखा प्रवण’ क्षेत्रों की जगह तीन पारिस्थितिकी तंत्रों-निर्जल, अर्द्ध-निर्जल और शुष्क उप नम को शामिल करने का प्रस्ताव करते हैं और विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्रों के लिये निम्नलिखित जिलावार सिंचाई मापदंडों का भी प्रस्ताव करते हैं:
- हम सुझाव देते हैं कि ऐसे निर्जल और अर्द्ध निर्जल जिलों, जहाँ सकल कृषि क्षेत्र की क्रमशः 50 प्रतिशत और 40 प्रतिशत से अधिक भूमि सिंचित है, उन्हें सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम या मरु विकास कार्यक्रम से पूरी तरह से निकाला जा सकता है। इसी तरह शुष्क उप नम जिलों, जहाँ कुल कृषि भूमि का 30 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा सिंचित है उसे भी इन कार्यक्रमों से हटाया जा सकता है।
नमी सूचकांक प्रणाली | अनुज्ञेय कार्यक्रम (प्रतिशत) | पारिस्थितिकी | सिंचित क्षेत्र |
- 66.7 | मरु विकास कार्यक्रम | निर्जल | 50 |
- 66.6 से | |||
- 33.3 | सूखा प्रवण क्षेत्र | अर्द्ध निर्जल | 40 |
- 33.2 से 0 | सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम | शुष्क उप नम | 30 |
- ग्रामीण विकास मंत्रालय जिला और खंड स्तर पर सिंचाई की प्रतिशतता की आवश्यक सूचनाएं प्राप्त करके हमारे द्वारा सुझाए गए सूत्र के अनुसार इन कार्यक्रमों के लिये जिलों और खण्डों का चुनाव कर सकता है।
- हम प्रस्ताव रखते हैं कि योग्य जिलों के विकास खण्डों का चुनाव निम्नलिखित मानदंडों के आधार पर किया जाना चाहिए-
पारिस्थितिकीय प्रणाली | सिंचाई का प्रतिशत (निष्कर्ष के लिए उपयुक्त) |
निर्जल | 30 प्रतिशत तक |
अर्द्ध निर्जल | 20 प्रतिशत तक |
शुष्क उप नम | 15 प्रतिशत तक |
- प्रत्येक चुने हुए विकास खंड के प्रत्येक गाँव में जल-संभरण के आधार पर 500 हेक्टेयर क्षेत्र को शामिल किया जाएगा और 10 वर्ष की अवधि के भीतर सभी गाँवों को शामिल कर लिया जाएगा, इसके लिये प्रत्येक वर्ष गाँवों की संख्या के 1/10 को लिया जाएगा। इससे राज्यों और जिलों को इन कार्यक्रमों के अन्तर्गत धन के आवंटन का आधार मिल सकेगा।
- समिति, योजना आयोग के सदस्य, ग्रामीण विकास प्रभारी की अध्यक्षता में जल-संभरण पर राष्ट्रीय नीति निर्धारण और समीक्षा के गठन की सिफारिश करती है ताकि विभिन्न मंत्रालयों/विभागों द्वारा चलाई जा रही विभिन्न जल संभरण आधारित क्षेत्र विकास योजनाओं के कार्यान्वयन में एकीकृत दृष्टिकोण और समन्वय लाया जा सके। ग्रामीण विकास विभाग मुख्य विभाग के रूप में कार्य करे।
- राज्य स्तर पर समन्वय लाने के लिये राज्य स्तरीय कार्यान्वयन और समीक्षा समिति के गठन की सिफारिश की जाती है जिसके अध्यक्ष मुख्य सचिव होंगे।
- कम से कम ऐसे राज्यों में जिन्हें सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम और मरु विकास कार्यक्रम के लिये काफी आवंटन किया गया है, राज्य स्तर के शीर्ष विभाग की सहायता के लिये कृषि, वन, बागवानी, पशुपालन और लघु सिंचाई विभागों के अतिरिक्त निदेशक/संयुक्त निदेशक स्तर के वरिष्ठ अधिकारियों का एक बहुविधयक दल बनाया जाना चाहिए।
- यह सिफारिश की जाती है कि जिला स्तर पर बहुविधयक दल होना चाहिए जिसका प्रमुख जल-संभरणों का अतिरिक्त परियोजना निदेशक हो। विभिन्न क्षेत्रों, जैसे कृषि, बागवानी, पशुपालन, वन और लघु सिंचाई के प्रतिनिधि अधिकारी इस दल के सदस्य होंगे। जिला स्तरीय बहुविषयक दल जल-संभरण स्तर पर जल-संभरण विकास योजनाएँ बनाने में मार्गदर्शन करने और उनके चुनाव और उन्हें प्रशासनिक स्वीकृति दिलाने का जिम्मेदार होगा।
- अब ग्रामीण विकास मंत्रालय की भूमिका कार्यक्रमों को धन देना और जल-संभरण आधार पर नियोजन और कार्यान्वयन की आधारभूत कार्यनीति अपनाना सुनिश्चित करने के लिये उन्हें प्रेरित करने और उनकी निगरानी करने की होगी।
- जाने-माने, स्वतंत्र और स्वायत्त संस्थानों, जिनमें पर्याप्त धन प्राप्त गैर सरकारी संगठन भी शामिल हैं, के जरिए बड़े पैमाने पर और नियमित रूप से स्वतंत्र मूल्यांकन अध्ययन करवाना भी जरूरी होगा।
समिति की सिफारिशें भारत सरकार के विचाराधीन हैं।
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