सूख रही राजस्थान की बूढ़ा पुष्कर झील

सूख रही राजस्थान की बूढ़ा पुष्कर झील
सूख रही राजस्थान की बूढ़ा पुष्कर झील

झील के सिकुड़ने का सिलसिला (फोटो वर्ष 2005य प्रो. के. सी. शर्मा के सौजन्य से)

राजस्थान के मध्य अजमेर शहर से लगभग 11 किमी दूर उतर-पश्चिम की ओर धार्मिक महत्त्व की पुष्कर झील स्थित है। ठीक इसके नजदीक ही महज 5 कि.मी. की दुरी पर एक और ऐतिहासिक व प्राचीन झील स्थित है, जो बूढ़ा पुष्कर झील (ओल्ड पुष्कर) के नाम से जानी जाती है। इसका भी धार्मिक महत्त्व लगभग उतना ही है जितना पुष्कर झील का है। मीठे पानी की यह एक ऐसी प्राकृतिक झील है, जो ऐसी परिसीमा अथवा पारिस्थितकीय तनाव (इकोटोन) क्षेत्र में स्थित है, जहां दो विभिन्न प्रकार के दो पारितंत्रों का आपस में संगम यानी इनका मिलन होता है। इसके एक तरफ जहां अरावली पर्वत श्रृंखलाएं खड़ी हैं, जिसका अपना अलग तरह का पारितंत्र विकसित है। तो वहीं दूसरी ओर बढ़ते रेगिस्तान के तपते रेतीले टीले पसरे पड़े हैं। इनका भी अपना एक अलग प्रकार का पारितंत्र मौजूद है। ऐसे पारिस्थितिकी तनावी क्षेत्र में जैवविविधता व वन्यजीवों की बाहुलता तुलनात्मक अधिक होती है। इस झील का धार्मिक महत्त्व कितना भी क्यों न हो, लेकिन विगत कुछ वर्षों में यह झील इसलिए ज्यादा चर्चा में रही है क्योंकि इसका वजूद बेहद खतरे में है। यह झील सालों साल सिमटती रही। लेकिन इसके बिगड़ते हालातों पर समय रहते ध्यान नहीं देने से अब यह विलुप्ति की कगार पर है। जिसका अस्तित्व और गोरव दोनों ही असुरक्षित है और इनके बचने की संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती है। यह ज्यादा चिंताजनक तो है ही पर उद्वेलित भी करता है।

मौजूदा ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अनुसार बीसवी सदी (1906) के आरम्भ में इस झील का फैलाव क्षेत्र कई हेक्टर्स में स्थित था। इसकी जल भराव क्षमता भी कई अधिक थी। वहीं इसकी गहराई भी लगभग 40 फिट तक आंकी गई। इसके जल में कई प्रजातियों की छोटी-बड़ी मछलियाँ व तरह-तरह के जलीय जीव-जंतु मौजूद थे। इसके जल में संतुलित मात्रा में पोषक तत्व व रसायन पाए जाते थे। जिससे इसके जल की गुणवता बेहतर बनी रहती थी और जल मनुष्यों व वन्यजीवों के पीने योग्य था। इसमें नाना प्रकार के विभिन्न प्रजाति के पादक व जंतु प्लवक होने से इस झील का पारिस्थितिकी तंत्र काफी विकसित एवं सुदृढ़ था। चूँकि इस झील का पारिस्थितिकी तनावी क्षेत्र में होने से इसके जलग्रहण क्षेत्र व आर्द्रभूमि में अकूत वन संपदा अर्थात घने वन होने के साथ-साथ इसमें विभिन्न प्रजाति के शाकाहारी, फलाहारी व मांसाहारी वन्यजीवों की बहुतायत थी। ब्रिटिश शासनकाल में मत्स्य व वन्यजीवों के अवैध आखेट व इनके अंगों की तस्करी पर सख्त प्रतिबंध लगा रखा था। जिससे वन्यजीव सुरक्षित रहते थे तथा इनके सरंक्षण में अपेक्षित मदद मिलती थी। जल की पर्याप्त मात्रा होने के कारण इस झील से 70 वर्षों तक यहाँ तक कि 2004 के अंत तक जलापूर्ति हेतु लगातार इसका दोहन किया जाता था। इसके जल से अजमेर वासियों तथा यहाँ स्थित रेलवे व इसकी काॅलोनियों में बसे लोगों के कंठ तर किये जाते रहे हैं। जाहिर है इसके सिमट जाने के बावजूद भी इसके तल के नीचे भूमिगत जल का अकूत भंडारण मौजूद था।

विलायती बबूल के पेड़ों का अतिक्रमण  (फोटो वर्ष 2005य प्रो. के.सी. शर्मा के सौजन्य से)विलायती बबूल के पेड़ों का अतिक्रमण  (फोटो वर्ष 2005य प्रो. के.सी. शर्मा के सौजन्य से)

विलुप्त होने का सिलसिला

आखिर यह विशाल प्राकृतिक झील सालों साल सिमटकर विलुप्तावस्था में कैसे पंहुच गई ? कौन है इसके लिए जिम्मेदार ? इसका जवाब वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर जानने के लिए आमजन को, खासतौर पर पर्यावरण प्रेमियों में जबरदस्त उत्सुकता रही है। दरअसल इसके सिकुड़ने अथवा बर्बादी का सिलसिला लगभग सात दशक पहले यानी देश की आजादी के बाद ही शुरू हो गया था, जो साल दर साल कम होने के बजाए और तेजी से आगे बढ़ता ही चला गया। इसके पतन के मूल में इंसानों की बढ़ती आबादी का दबाव व मानवीय गतिविधियाँ प्रमुख है, लेकिन प्रकृति का भी इसकी बर्बादी में बड़ा हाथ रहा है। इस झील पर वर्षों से अनुसंधान कर रहे ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर के पूर्व कुलपति एवं पर्यावरण अध्ययन विभाग के सेवानिवृत्त प्रो. केसी शर्मा द्वारा दी गई पुख्ता जानकारियों के अनुसार इस झील के सिकुड़ने का मूल्यांकन करने से पहले इसकी भौगोलिक स्थिति, जलग्रहण क्षेत्र की जैवविविधता, जलवायु में मोजूद विभिन्न भौतिक कारक, पानी में उपस्थित विभिन्न प्रकार के प्रदूषक व पोषक तत्व इत्यादि के बारे में जानना ज्यादा जरुरी है, जो इसके विलुप्त होने में परोक्ष व अपरोक्ष के रूप में हर स्तर पर सक्रीय भूमिका निभाते हैं। इस झील के जलग्रहण क्षेत्र की बदलती जैवविविधता पारिस्थितिकीय अनुक्रमण घटना क्रम का एक बेहतरीन उदाहरण भी है, जो शोधार्थियों व पर्यावरण वैज्ञानिकों के लिए यह शोध का गहन विषय हो सकता है। इसके अंतर्गत यह जानने का अवसर मिलता है कि कैसे एक जैवविविधता दूसरी जैवविविधता से विस्थापित हो जाती है। जो जैव-विकास के सिद्धांतों को भी बखूबी दर्शाता है।

झील के पश्चिम में पसरा पड़े खौफनाक रेगिस्तान ने जब-जब भी इस झील को निगलने का प्रयास किया, तब-तब इस झील के जल ग्रहण क्षेत्र में अवरोधक के रूप में खड़े घने वृक्षों ने इसको न केवल विफल किया, बल्कि इसको आगे बढ़ने से रोक भी देते थे। यह सिलसिला सालों साल ऐसे ही चलता रहा और इस झील को घने वनों से प्राकृतिक सरंक्षण व सुरक्षा मिलती रही। लेकिन देश की आजादी के बाद लोगों ने इन घने जंगलों को अधाधुंध काटना प्रारम्भ कर दिया। जिससे रेगिस्तान के आगे बढ़ने की राह और आसान हो गई। जंगलों के कटने से इस झील के न केवल पर्यावरण के पारितंत्र में बल्कि आस-पास के जलवायु में भी अनेक प्रकार के छोटे-बड़े बदलाव आने शुरू हो गए। एकाएक तापमान में वृद्धि (45 डिग्री सेल्सियस ) व हवाओं के बहाव और तेज (40-60 कि.मी. प्रति घंटा ) होने से रेगिस्तान के रेतीले टीले बिना किसी प्रतिरोध अथवा रोक-टोक के बेखौफ होकर उड़-उड़ कर इस झील में समाने लग गए। परिणामस्वरूप, इस झील की गहराई व भराव क्षमता सालों साल कम होती गयी। वहीं इसका फैलाव क्षेत्र का दायरा भी सालों साल और सिकुड़ने लग गया। दूसरी ओर तापक्रम के बढ़ने से इस झील के जल की वाष्पीकरण दर अधिक हो जाने से भी इसके जल की मात्रा दिनों-दिन और कम होती रही। यह सिलसिला सालों साल अनवरत ऐसे ही चलता रहा। जब झील को मैंने वर्ष 1998 में देखा था, तब इसकी स्थिति बहुत ही दहनीय व खराब हालात में थी। अभिप्राय, यह एक छोटे से गड्ढ़े अथवा पोखर के रूप में सिमटी व सिकुड़ी हुई थी। इसके जलग्रहण क्षेत्र व आर्द्रभूमि में न केवल फसलें उगी हुई थीं, बल्कि आक्रामक किस्म के घने पेड़ों (विलायती बबूल) का अतिक्रमण भी देखने को मिला। जो इसकी खराब सेहत होने के सूचक थे।

जिर्णोद्धार के बाद बूढ़ा पुष्कर झील का नया स्वरुपजीर्णोद्धार के बाद बूढ़ा पुष्कर झील का नया स्वरुप

इस झील के चारों ओर खड़े वनों का सफाया कर अतिक्रमण करके लोगों ने भराव क्षेत्र में खेती करना भी शुरू कर दिया। अधिक उपज के लालच में किसानों ने रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग करने से पोटेशियम, नाइट्रोजन, फाॅस्फेट जैसे पोषक तत्व बारिश में बह कर साल दर साल इस झील में घुलकर मिलते रहे। फलस्वरूप, इनकी मात्रा सामान्य से अधिक होने से इसमें जल का अवशोषण करने वाली कई तरह की खरपतवार वनस्पतियाँ विकसित होने लग गई। इन वनस्पतियों द्वारा अवशोषित जल का वायुमंडल में तेजी से लगातार वाष्पीकरण करने से झील का जल स्तर दिनों-दिन और कम होने लगा। दूसरी ओर किसानों ने सिंचाई हेतु झील के पानी का लगातार दोहन करना शुरू कर दिया। ऐसे में झील के जल भराव क्षेत्र में कृषि भूमि विकसित हो जाने से इसमें वर्षा जल की आवक के लगभग सारे रास्ते बंद हो गए। दूसरा, इस क्षेत्र में बारिश भी अमूमन कम होती है। परिणामस्वरुप, झील लगातार सिकुड़ती रही। प्रो. शर्मा द्वारा किये गए शोध के नतीजों से भी साफ जाहिर होता है कि अत्यधिक मानवीय गतिविधियों के कारण यह झील धीरे-धीरे युट्रोफिक श्रेणी में तब्दील होती गई। जल में कई विषैले रसायनों की सान्ध्रता सामान्य स्तर से अधिक पाई जाने के कारण झील का पानी पीने योग्य भी नहीं रह गया। हिंदू धर्म में झील की मान्यता होने के कारण लोग झील मे अस्थि विसर्जन भी करते हैं, जिसमें राख, पुष्प और हड्डिया शामिल हैं। इससे जल के प्रदूषित होने की संभावना हमेशा बनी रहती है।

जीर्णोद्धार के भागीरथ प्रयास

यदि “जल ही जीवन है और जल है तो कल है” इस मार्मिक कहावत को लोगों ने ठीक से समझ लिया होता तो इस मीठे पानी की इस प्राकृतिक झील की यह दुर्दशा देखने को नहीं मिलती। अजमेर के पर्यावरणविद प्रो. केसी शर्मा ने भी इस झील के बारे में कई अवसरों पर समय-समय इसकी जानकारियाँ दी है, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। इन विषम परिस्थितियों में इस झील को पुनर्जीवित करना कठिन ही नहीं नामुमकिन जैसा भी है स बावजूद, इस मुश्किल काम को मुमकिन करने के लिए अजमेर के वरिष्ठ एवं प्रभुत्व नागरिक औंकार सिंह लखावत भागीरथ बन कर आगे आए। वशुंधरा राजे सिंधिया ने मुख्यतंत्री रहते हुए झील के जिर्णोद्धार के लिए इन्होंने काफी सराहनीय भगीरथ प्रयास किए, जो जल सरंक्षण का बेहतर उदाहरण भी है। इनके जुनून तथा आर्थिक सहयोग व जन भागीदारी से सकारात्मक परिणाम देखने को मिले। लखावत की सुझबुझ व कुशल नेतृत्व से इस झील के एक ओर कई खुबसूरत घाटों के निर्माण हुए, वहीं दूसरी ओर खुदाई कर झील को गहरी करने के प्रयास भी किय गए और जल आवक हेतु फीडर निर्माण भी कराया गया स वर्तमान में इसमें वर्षा जल आने से इस झील के जीवित होने की संभावना लोगों में जागी है। निश्चित रूप से इसका श्रेय औंकार सिंह लखावत को जाता है, लेकिन क्या इस तरह के प्रयासों से इस झील का अपना पूर्व स्वरुप व वैभव रूप लोट सकेगा या नहीं यह तो भविष्य के गर्भ है। क्योंकि इसके जल संग्रहण क्षेत्र पर लोगों व विलायती बबूलों का जबरदस्त अतिक्रमण है। दूसरी ओर मानवीय गतिविधियाँ, रेगिस्तान को रोकने की लिए सघन वनों का अभाव, जल पुनर्भरण हेतु जल आवक के स्त्रोतों की कमी, वर्षा का लगातार कम होना, प्राकृतिक असंतुलन, पर्याप्त जल संग्रह हेतु आदर्श गहराई की कमी, जल प्रदूषकों को रोकना इत्यादि अनेक चुनौतियां ऐसी है जो इसके पुनर्निर्माण एवं जल का पुनर्भरण में अवरोधक बनी हुई है। इसके जिर्णोद्धार व इसके बहुआयामी विकास में बहुविषयक दृष्‍टिकोण व वैज्ञानिक सोच होना भी अत्यंत जरुरी है। इस हेतु कुशल वैज्ञानिकों, जल संरक्षण के अनुभवी इंजीनियर्स, पर्यावरणविद्, अनुभवी प्रशासनिक अधिकारियों की सलाह व मदद लेने के साथ अधिक से अधिक जन भागीदारी से अपेक्षित सफलता मिलने की संभावना ज्यादा रहती है, लेकिन यह भी जरुरी है कि ये सभी तरह के भगीरथ प्रयास सतत होने होने चाहिए, जो भी हो, खतरे में पड़ी यह प्राकृतिक झील अपने पूर्व स्वरुप व वैभव को भले ही अब न पा सके, लेकिन इसको मानव निर्मित झील के रूप एक नई पहचान जरुर मिल जायेगी। 


अधिक जानकारी हेतु निम्न प्रकाशित शोध पत्र पढ़े :

  • Sharma KC, Chouhan CS. Ecology and restoration of lake Budha Pushkar-A threatened water body of Ajmer. Proceedings of Taal 2007; the 12th Lake Conference: 1757-1764.
  • Sharma KC, Chouhan CS, Charan PD, Mudita N. Water quality and restoration practices of Lake Budha Pushkar – a threatened water body of Ajmer, Rajasthan. Tha Ecoscan, 2009; 3 (1&2): 53-58.
  • Kar A. Physical environment, human influences and desertification in Pushkar -Budha Pushkar lake region of Rajasthan, India. Environmentalist, 1986; 6:227-232.

 

एमेरिटस प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणीशास्त्री एवं लेखक, उदयपुर एमेरिटस प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणीशास्त्री एवं लेखक, उदयपुर


 

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Post By: Shivendra
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